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गायत्री मंत्र लेखन संकटमोचन... रक्षाकवच है ।।

ॐ भूर्भूव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्॥

-- आद्यशक्ति माँ गायत्री बुद्धि की है। गायत्री मंत्र के जप से ज्यादा लाभ साधक को गायत्री मंत्र लेखन से होता हैं।

-- जो भी व्यक्ति प्रतिदिन एक पेज यानी की सिर्फ 33 बार गायत्री मंत्र लिखता है, उसके विचारों में, उसके कार्यों में, गजब की ताकत आती है।

-- अगर कोई गर्भिणी स्त्री नियमित एक पेज गायत्री मंत्र का लेखन करती हैं तो.. उनकी आने वाली संतान आज्ञाकारी, श्रेठ, संस्कारित, ओजस्वी, तेजस्वी, प्रखर बुद्धिवान होगा।

-- व्यवसायी, नौकरी पेशा, बीमार को उत्तम स्वास्थ्य, परिवारिक संकट हो चाहे अन्य कोई भी जटिल से जटिल समस्या क्यों न हो मुक्ति मिलती ही है।

-- जब हम गायत्री मंत्र लिखने बैठते हैं... तब लिखते-लिखते बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर हमें स्वतः ही मिलने लगते हैं, लगता हैं जैसे... मानो स्वयं माँ गायत्री से ही बात हो रही हो..

-- यदि कोई बच्चा पढ़ाई में कमजोर है, ध्यान नहीं लगता, तो उससे नित्य 15 लाइने गायत्री मंत्र लेखन के लिखवाएं, आदत में लाने के लिए चाहे 5 लाइनों से शुरुआत करे, फिर ऐसी कोई पुस्तक नहीं, जो वह फिर नहीं पढ़ सके, ऐसा कोई उत्तर नहीं जो उसे याद न हो सके और आत्मबल तो गजब का आता है।

-- पूज्य गुरुदेव युगऋषि आचार्य श्रीराम शर्मा जी कहते थे ....तुम लोग गायत्री मंत्र लिखकर देखों और विश्वास रखोगें तो.. तुम्हारी सभी समस्या का हल अवश्य ही होगी।

गायत्री मंत्र का अर्थ इस प्रकार है—ॐ (परमात्मा) भूः (प्राण स्वरूप) भुवः (दुःखनाशक) स्वः (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितुः (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्गः (पापनाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करे) धियो (बुद्धि) यो (जो) नः (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करे)।

अर्थात् उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।

इस अर्थ का विचार करने से उसके अंतर्गत तीन तथ्य प्रकट होते हैं।(1) ईश्वर का दिव्य चिंतन (2) ईश्वर को अपने अंदर धारण करना (3) सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिए प्रार्थना। ये तीनों ही बातें असाधारण महत्त्व की हैं।

(1) ईश्वर के प्राणवान, दुःख रहित आनंदस्वरूप तेजस्वी श्रेष्ठ पाप रहित, देवगुण संपन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लावें। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनावें कि उपयुक्त विशेषताएं हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचारधारा, कार्य-पद्धति एवं अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को दिन-दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठतम बनाती चलती हैं।

(2) गायत्री मंत्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अंदर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण संपन्न परमात्मा को संसार के कण-कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर-दर्शन का आनंद प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में रहता हुआ अनुभव करता है।

(3) मंत्र के तीसरे भाग में सद्बुद्धि का महत्त्व सर्वोपरि होने की मान्यता का प्रतिपादन है। भगवान से यही प्रार्थना की गई है कि आप हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित कर दीजिए, क्योंकि यह एक ऐसी महान भगवत् कृपा है कि इसके प्राप्त होने पर अन्य सब सुख-संपदाएं अपने आप प्राप्त हो जाती हैं।

इस मंत्र के प्रथम भाग में ईश्वरीय दिव्य गुणों को प्राप्त करने दूसरे भाग में ईश्वरीय दृष्टिकोण धारण करने और तीसरे में बुद्धि को सन्मार्ग पर लगाने की प्रेरणा है। गायत्री की शिक्षा है—अपनी बुद्धि को सात्त्विक बनाओ, आदर्शों को ऊंचा रखो, उच्च दार्शनिक विचारधाराओं में रमण करो और तुच्छ तृष्णाओं एवं वासनाओं के लिए हमें नचाने वाली कुबुद्धि को मानस लोक में से बहिष्कृत कर दो। जैसे-जैसे कुबुद्धि का कल्मष दूर होगा वैसे ही वैसे दिव्य गुण-संपन्न परमात्मा के अंशों की अपने में वृद्धि होती जाएगी और उसी अनुपात से लौकिक और पारलौकिक आनंद की अभिवृद्धि होती जायेगी।

गायत्री मंत्र में सन्निहित उपर्युक्त तथ्य में ज्ञान, भक्ति, कर्म, उपासना तीनों हैं। सद्गुणों का चिंतन ज्ञानयोग है। ब्रह्म की धारणा भक्तियोग है और बुद्धि की सात्त्विकता एवं अनासक्ति का कर्मयोग है। वेदों में ज्ञान, कर्म, उपासना ये तीनों विषय हैं। गायत्री में बीज रूप से ये तीनों ही तथ्य सर्वांगीण ढंग से प्रतिपादित हैं।

इन भावनाओं का एकांत में बैठकर नित्य अर्थ-चिंतन करना चाहिए। यह ध्यान-साधना मनन के लिए अतीव उपयोगी है। मनन के लिए तीन संकल्प नीचे दिए जाते हैं। इन संकल्पों को शांत चित्त से स्थिर आसन पर बैठकर, नेत्र बंद रखकर मन ही मन ठुकराना चाहिए और कल्पना शक्ति की सहायता से इन संकल्पों का ध्यान मनःक्षेत्र में भली प्रकार अंकित करना चाहिए।

(1) परमात्मा का ही पवित्र अंश-अविनाशी राजकुमार मैं आत्मा हूं। परमात्मा प्राणस्वरूप है, मैं भी अपने को प्राणवान आत्मशक्ति संपन्न बनाऊंगा। प्रभु दुःख रहित है—मैं दुखदायी मार्ग पर न चलूंगा। ईश्वर आनंद स्वरूप है। अपने जीवन को आनंद स्वरूप बनाना तथा दूसरों के आनंद में वृद्धि करना मेरा कर्त्तव्य है। भगवान तेजस्वी है, मैं भी निर्भीक, साहसी, वीर, पुरुषार्थी और प्रतिभावान बनूंगा। ब्रह्म श्रेष्ठ है, श्रेष्ठता, आदर्शवादिता एवं सिद्धांतमय जीवन नीति अपनाकर मैं भी श्रेष्ठ ही बनूंगा। जगदीश्वर निष्पाप है—मैं भी पापों से कुविचारों और कुकर्मों से बचकर रहूंगा। ईश्वर दिव्य हैं—मैं भी अपने को दिव्य गुणों से सुसज्जित करूंगा, संसार को कुछ देते रहने की देव-नीति अपनाऊंगा। इसी मार्ग पर चलने से मेरा मनुष्य जीवन सफल हो सकता है।

(2) उपयुक्त गुण वाले परमात्मा को मैं अपने अंदर धारण करता हूं। इस विश्व ब्रह्मांड के कण-कण में प्रभु समाए हैं। वे मेरे चारों ओर भीतर बाहर सर्वत्र फैले हुए हैं। मैं स्मरण करूंगा। उन्हीं के साथ हँसूगा और खेलूंगा। वे ही मेरे चिर सहचर हैं। लोभ, मोह, वासना और तृष्णा का प्रलोभन दिखाकर पतन के गहरे गर्त में धकेल देने वाली दुर्बुद्धि से, माया से बचकर अपने को अंतर्यामी परमात्मा की शरण में सौंपता हूं। उन्हें ही अपने हृदयासन पर अवस्थित करता हूं, अब वे मेरे हैं और मैं केवल उन्हीं का हूं। ईश्वरीय आदर्शों का पालन करना और विश्वमानव-परमात्मा की सेवा करना ही अब मेरा लक्ष्य रहेगा।

(3) सद्बुद्धि से बढ़कर और कोई दैवी वरदान नहीं। इस दिव्य संपत्ति को प्राप्त करने के लिए मैं घोर तप करूंगा। आत्मचिंतन करके अपने अंतःकरण चतुष्टय में (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार में) छिपकर बैठी हुई कुबुद्धि को बारीकी के साथ ढूंढूंगा और उसे बहिष्कृत करने में कोई कसर न रहने दूंगा। अपनी आदतों, मान्यताओं, भावनाओं और विचारधाराओं में जहां भी कुबुद्धि पाऊंगा, वहीं से हटाऊंगा। असत्य को त्यागने और सत्य को ग्रहण करने में रत्ती भर भी दुराग्रह नहीं करूंगा। अपनी भूलें मानने और विवेक-संगत बातों को मानने में तनिक भी दुराग्रह नहीं करूंगा। अपने स्वभाव, विचार और कर्मों की सफाई करना, सड़े-गले, कूड़े-कचरे को हटाकर सत्यं, शिवं, सुंदर की भावना से अपनी मनोभूमि को सजाना अब मेरी प्रधान पूजा पद्धति होगी। इसी पूजा पद्धति से प्रसन्न होकर भगवान मेरे अंतःकरण में निवास करेंगे, तब मैं उनकी कृपा-से-जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होऊंगा।

इन संकल्पों में अपनी रुचि के अनुसार शब्दों का हेर-फेर किया जा सकता है, पर भाव यही होना चाहिए। नित्य शांत चित्त से भावनापूर्वक इन संकल्पों को देर तक अपने हृदय में स्थान दिया जाय तो गायत्री के मंत्रार्थ की सच्ची अनुभूति हो सकती है। उस अनुभूति से मनुष्य दिन-दिन अध्यात्म मार्ग में ऊंचा उठ सकता है।



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