Follow us for Latest Update

नवग्रहों की उपासना ।।

नवग्रहों की साधना
------------------------


              सनातन धर्मे में प्राचीन काल से जो अनेकों प्रकार की धारणाऐं या प्रथाएं प्रचलित हैं उनमें नवग्रहों की उपासना भी है। यह केवल रूढ़िमात्र अथवा प्रथा मात्र नहीं है, इसके मूल में हम लोगों के शरीर से नवग्रहों का सम्बन्ध और ज्योतिष की दृष्टि से सुपुष्ट विचार भी है। यह उक्ति प्रायः सर्वत्र प्रसिद्ध है कि 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' अर्थात् जो कुछ एक शरीर में है, वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में है और जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में है, वह एक शरीर में भी है। वैदिक शास्त्रों के अनुसार यह सृष्टि केव देखा या सुना जाता है वह तो बहुत ही स्थूल है। यंत्रों का तत्वविश्लेषण केवल जड़तत्वों तक ही सीमित है, वह कभी चेतना का साक्षात्कार नहीं कर सकता क्योंकि वे यंत्र स्वयं जड़ हैं।

          प्रत्येक स्थूल वस्तु के एक-एक अधिष्ठातृ देवता हैं, यह बात युक्ति, अनुभव और शास्त्र से सिद्ध है। जैसे स्थूल नेत्रगोलक, जिन्हें हम देखते हैं, नेत्र के अधिभूत रूप हैं। नेत्र  इन्द्रिय अध्यात्म है, जो कि इस स्थूल गोलक के द्वारा देखती है। इस दर्शन क्रिया का सहायक जो सूर्य हैं, वह नेत्र का अधिदैव रूप है। नेत्र इन्द्रिय नेत्रगोलक के द्वारा स्थूल रूप को देखे, यह सूर्य की शक्ति की सहायता लिये बिना असम्भव है। इसलिए नेत्र के अधिष्ठातृ देवता सूर्य हैं। सूर्य के भी तीन रूप हैं। जिस सूर्य को हमलोग देखते हैं, वह सूर्य का स्थूल अथवा अधिभूत रूप है। दृश्यमान सूर्यमण्डल के अभिमानी देवता का नाम सूर्य देवता है। उन्हीं का रथ सात घोड़ों का है और अरुण सारथी हैं। शनेश्वर, यमराज आदि उनकी सन्तान हैं और भी देवता के रूप में सूर्य का जितना वर्णन आता है, वह सब इस दृश्यमान सूर्यमण्डल के अभिमानी देवता का ही है।

          सूर्य का अध्यात्म रूप है, समष्टिका नेत्र होना। इन तीन रूपों को ध्यान में रखने से ही शास्त्रों में जो सूर्य का वर्णन हुआ है वह समझ में आ सकता है। यह बात सभी देवताओं के सम्बन्ध में समझ लेनी चाहिये। अब यह बात सिद्धांत रूप से मान ली गयी है कि यह सम्पूर्ण स्थूल जगत् सूक्ष्म जगत् का ही प्रकाशमात्र है। समष्टि के मन में जो दर्शन की इच्छा है, वही सूर्य के रूप में प्रकट हुई है। जीव के मन में जो दर्शन की इच्छा है, वह नेत्र इन्द्रिय के रूप में प्रकट हुई है। इन दोनों के अभिमानी देवता हैं सूर्य, इसलिए नेत्र इन्द्रिय का सीधा सम्बन्ध सूर्य से है। सूर्य की प्रत्येक स्थिति का प्रभाव इस पृथ्वी पर और इस पर रहने वाले प्राणियों पर पड़ता है। जैसे यह स्थूल शरीर ही जीव नहीं है, उससे भिन्न है, वैसे ही यह दृश्यमान पृथ्वी ही पृथ्वी देवता नहीं है, यह तो पृथ्वी देवता का शरीर है। इन सब स्थूलताओं का निर्माण सूक्ष्म जगत की दृष्टि से ही हुआ है।

     ‌     सूक्ष्म ही स्थूल बना है इसलिए जो लोग सूक्ष्म जगत पर विचार नहीं करते, केवल स्थूल जगत में ही अपनी दृष्टि को आबद्ध रखते हैं, वे ठीक ठाक इसका मर्म नहीं समझ पाते। जैसे पृथ्वी, समुद्र, चन्द्रमण्डल, विद्युत, उष्णता आदि से सूर्य का साक्षात सम्बन्ध है, वैसे ही उन पदार्थों से बने हुए मानव शरीर के साथ भी है। प्रत्येक शरीर की उत्पत्ति के समय, चाहे वह गर्भाधान का हो या भूमिष्ठ होने का हो, सूर्य और इतर ग्रहों का पृथ्वी के साथ जैसा सम्बन्ध होता है और ग्रहचार पद्धति के अनुसार उस प्रदेश में, उस प्रकृति के शरीर पर उनका प्रभाव पड़ता है, वह जीवनभर किसी न किसी रूप में चलता ही रहता है। ग्रहमण्डल की स्थिति,देशविशेष पर उनका विशेष प्रभाव और देहगत उपादानों की विभिन्नता के कारण प्रत्येक शरीर का ग्रहों के साथ भिन्न सम्बन्ध होता है और उसी के अनुसार फल भी होता है।

           प्रत्येक ग्रह के साथ पृथ्वी का और उस पर रहने वाली वस्तुओं का जो महान् आकर्षण विकर्षण चल रहा है, उसके प्रभाव से कोई बच नहीं सकता और जगत के परिवर्तनों में, अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में, सुख दुःख के निमित्तों में यह महान शक्ति भी एक कारण है इस सत्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी से योग सम्पन्न महर्षियों ने अपनी अन्तर्दृष्टि से इस तत्व का साक्षात्कार करके जीवों के हितार्थ इस ज्योतिर्विद्या को प्रकट किया है। संसार में जो घटनाएं घटती हैं उनके अनेकों कारण बतलाये जाते हैं जीव का प्रारब्ध अथवा पुरुषार्थ, समष्टिकर्ता ईश्वर की इच्छा अथवा प्रकृति का नियमित प्रवाह । इन घटनाओं के साथ ग्रहों के आकर्षण - विकर्षण का क्या सम्बन्ध है? उपर्युक्त बलवान कारणों के रहते हुए जगत के कार्यों में वे क्या नवीनता ला सकते हैं? यह प्रश्न उठाने के पहले उन सबके एकत्व का विचार कर लेना चाहिये।

          समष्टिकर्ता की इच्छा ही प्रकृति का प्रवाह है। प्रकृति के सात्विक, राजसिक और तामसिक प्रवाहों के अनुसार ही ग्रहों की निश्चित गति और जीवों का प्रारब्ध है। इन गति और प्रारब्धों के अनुसार ही पुरुषार्थ और फल होते हैं। शरीर की उत्पत्ति प्रारब्ध के अनुसार होती है जिसका जैसा कर्म, उसका वैसा शरीर जिस शरीर में प्रारब्ध के अनुसार जैसी कर्मवासनाऐं रहती हैं, उस जीवन में जैसी घटनाऐं घटनेवाली होती हैं, उसी के अनुसार उस शरीर के जन्म के समय वैसी ही ग्रहस्थिति रहती है। यों भी कह सकते हैं कि वैसी ग्रहस्थिति में ही उसका जन्म होता है अथवा ग्रहों की एक स्थिति में रहने पर भी भिन्न-भिन्न देश और शरीर के भेद से उनका भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ता है इसी से ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है कि ग्रह किसी नवीन फल का विधान नहीं करते, बल्कि प्रारब्ध के अनुसार घटनेवाली घटना को पहले ही सूचित कर देते हैं ग्रहा वे कर्मसूचकाः । ग्रहों की स्थिति, गति, वक्रता, अतिचार आदि को जाननेवाला ज्योतिषी किसी भी व्यक्ति के जन्म समय को ठीक-ठीक जानकर बतला सकता है कि इसके भविष्य जीवन में कौन कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं।

       स्थूल कर्मचक्र के अनुसार केवल इतनी ही बात है, गणित की सत्यता को इस रूप में पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार कर लिया है। पाश्चात्य देशों में ग्रहों की स्थिति का अध्ययन करके गणित के आधार पर फलित ज्योतिष उसी प्रकार प्रतिष्ठित किया गया है, जैसे कि वैदिक शास्त्रों मे परन्तु यह बात इतने से ही समाप्त नहीं होती, इसके आगे और भी कुछ है। वेदान्ती का देवता- विज्ञान इन स्थूल कार्यकारण परम्परा और सम्बन्धों से और भी ऊपर जाता है। मानस शास्त्र के वेत्ताओं ने एक स्वर से यह बात स्वीकार की है कि शुद्ध, परिपुष्ट एवं बलिष्ठ मन के द्वारा स्थूल जगत में अघटित घटना भी घटित की जा सकती है। यदि हम उन सूक्ष्मताओं के भी अन्तःस्थल में स्थित हो जायें, जो स्थूल घटनाओं की कारण हैं, तो हम न केवल स्थूल जगत में, बल्कि सूक्ष्म जगत में भी परिवर्तन कर सकते हैं। इस मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विचार करने पर यह सिद्ध होता है कि ग्रहों के द्वारा भावी घटनाओं का ज्ञान हो जाने पर मानसिक साधना के द्वारा उन्हें रोका भी जा सकता है।

          प्राचीन ऋषियों, योगियों और सिद्ध पुरुषों के द्वारा ऐसा किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि मन ऐसी स्थिति में भी जा सकता है, जहाँ से वह घटनाओं का विधान और अवरोध कर सकता है परन्तु सर्वसाधारण पक्ष में यह बात दुःसाध्य है। इसलिए उन्हें ग्रहमण्डलाधिष्ठातृ देवता की शरण लेनी पड़ती है। जिसके शरीर पर सूर्य ग्रह का दुष्प्रभाव पड़ रहा है या पड़ने वाला है, वह यदि सूर्य मण्डल के अभिमानी देवता का आश्रय ले और पूजा-पाठ, आदि के द्वारा यह अनुभव कर सके कि सूर्यदेवता मुझ पर प्रसन्न हैं, मेरा कल्याण कर रहे हैं और मुझे जीवनदान दे रहे हैं, तो बहुत अंश में उसका अरिष्ट शांत हो जायेगा और वह अपने को सूर्यग्रहजन्य पीड़ा से बचा सकेगा ।

           ग्रहशांति की ये दोनों प्रणालियाँ शास्त्रीय हैं पहली का नाम अहंग्रह उपासना और दूसरी का प्रतीक उपासना है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि यह सूर्यदेवता केवल उपासना के लिये ही हैं। वास्तव में समस्त देवताओं का अलग-अलग अस्तित्व है और सबके लोक, शक्ति, वाहन, क्रिया आदि अलग-अलग बँटे हुए हैं। जब तक विभिन्न शरीर, वस्तु, लोक और नक्षत्रमण्डल आदि पृथक-पृथक प्रतीत हो रहे हैं, इनके द्वारा पृथ्वीमण्डल प्रभावित हो रहा है, तब तक इनमें रहने वाले देवताओं को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वर्तमान काल में सम्पूर्ण संसार राष्ट्रविप्लव, पारस्परिक द्रोह, पारिवारिक वैमनस्य, ईर्ष्या-द्वेष, रोग-शोक और उद्वेग अशांति से सर्वथा उपद्रुत हो रहा है। इसके अनेक कारणों में देवताओं की उपेक्षा और उनसे प्राप्त होने वाली सहायता को अस्वीकार कर देना भी है। अन्तर्जगत के नियमानुसार देवताओं को जागतिक पदार्थों के उत्पादन, विनिमय और वितरण का अधिकार प्राप्त है। मनुष्य देवताओं को सन्तुष्ट करें और देवता मनुष्यों को समृद्धि एवं अभिवृद्धि से सम्पन्न करें परन्तु मनुष्यों ने अपनी बुद्धि और पुरुषार्थ का मिथ्या आश्रय लेकर स्वयं ही आत्मवञ्चना कर ली है, जिसका यह सब, जो दुःख दारिद्रय के रूप दिख रहा है, फल है।

          वेदों ने और तदनुयायी शास्त्रों ने एक स्वर से ग्रहशांति की आवश्यकता स्वीकार की है। अर्थवेद में सब देवताओं की पूजा के साथ-साथ ग्रह शांति का भी वर्णन आता है। शन्नो ग्रहाश्चानद्रमसाः शमादिस्याश्च राहुणा इत्यादि प्राचीन आर्यों में इस वैदिक मर्यादा का पूर्ण रूप से पालन होता था, इसी से वे सुखी थे। आज भी जहाँ प्राचीन प्रथाओं का पालन होता है, वहाँ प्रत्येक शांतिक और पौष्टिक कर्मों में पहले नवग्रह की पूजा होती है।

यह ध्यान रखना चाहिये कि इस पूजा का सम्बन्ध उन उन मण्डलों में रहने वाले देवताओं से है। यहाँ संक्षेप से नवग्रहों के ध्यान का उल्लेख कर दिया जाता है। पूजा पद्धति के अनुसार उनका अनुष्ठान करना चाहिये।

सूर्य
         सूर्य ग्रहों का राजा है। ये कश्यप गोत्र के क्षत्रिय एवं कलिङ्ग देश के स्वामी हैं। जपाकुसुम के समान इनका रक्तवर्ण है। दोनों हाथों में कमल लिये हुए हैं, सिन्दूर के समान वस्त्र, आभूषण और माला धारण किये हुए हैं। जगमगाते हुए हीरे, चन्द्रमा और अग्रि को प्रकाशित करने वाला तेज, त्रिलोकी का अन्धकार दूर करने वाला प्रकाश । सात घोड़ों के एक वक्र रथ पर आरूढ़ होकर सुमेरु की प्रदक्षिणा करते हुए, प्रकाश के समुद्र भगवान सूर्य का ध्यान करना चाहिए। इनके अधिदेवता शिव हैं और प्रत्यधिदेवता अग्नि । इस प्रकार ध्यान करके मानस पूजा और बाह्य पूजा के अनन्तर मंत्र जप करना चाहिये।

चन्द्रमा
           भगवान चन्द्रमा अत्रिगोत्र हैं। यामुन देश के स्वामी हैं। इनका शरीर अमृतमय है। दो हाथ हैं एक में वर मुद्रा हैं, दूसरे में गदा दूध के समान श्वेत शरीर पर श्वेत वस्त्र, माला और अनुलेपन धारण किये हुए हैं। मोती का हार है। अपनी सुधामयी किरणों से तीनों लोकों को सींच रहे हैं। इस घोड़ों के त्रिचक रथ पर आरूढ़ होकर सुमेरु की प्रदक्षिणा कर रहे हैं। इनके अधिदेवता हैं उमादेवी और प्रत्यधिदेवता जल हैं।

मङ्गल
         मंगल भरद्वाज गोत्र के क्षत्रिय हैं। ये अवन्ति के स्वामी हैं। इनका आकार अग्नि के समान रक्त वर्ण है, इनका वाहन मेष है, रक्तवस्त्र और माला धारण किये हुए हैं। हाथों में शक्ति, वर अभय और गदा धारण किये हुए हैं। इनके अंग-अंग से कान्ति की धारा छलक रही है। मेष के रथ पर सुमेरु की प्रदक्षिणा करते हुए अपने अधिदेवता स्कन्ध और प्रत्यधिदेवता पृथ्वी के साथ सूर्य के अभिमुख जा रहे हैं।

बुध
            बुध अत्रिगोत्र एवं मगध देश के स्वामी हैं। इनके शरीर का वर्ण पीला है। चार हाथों में ढाल, गदा, वर और खड्ग है। पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं, बड़ी ही सौम्य मूर्ति है, सिंह पर सवार हैं। इनके अधिदेवता हैं नारायण और प्रत्यधिदेवता हैं विष्णु ।

बृहस्पति
            बृहस्पति अङ्गिरा गोत्र के ब्राह्मण हैं। सिन्धु देश के अधिपति हैं। इनका वर्ण पीत है, पीताम्बर धारण किये हुए हैं, कमल पर बैठे हैं। चार हाथों में रुद्राक्ष, वरमुद्रा, शिला और दण्ड धारण किये हुए हैं। इनके अधिदेवता ब्रह्मा हैं और प्रत्यधिदेवता इन्द्र ।

शुक्र
         शुक्र भृगु गोत्र के ब्राह्मण हैं। भोजकट देश के अधिपति हैं। कमल पर बैठे हुए हैं। श्वेत वर्ण हैं, चार हाथों में रुद्राक्ष, वरमुद्रा, शिला और दण्ड हैं। श्वेत वस्त्र धारण किये हुए हैं। इनके अधिदेवता इन्द्र हैं और प्रत्यधिदेवता चन्द्रमा हैं।

शनि
        ये कश्यप गोत्र के शूद्र हैं। सौराष्ट्रप्रदेश के अधिपति हैं। इनका वर्ण कृष्ण हैं, कृष्ण वस्त्र धारण किये हुए हैं। चार हाथों में बाण, वर, शूल और धनुष हैं। इनका वाहन गीध है। इनके अधिदेवता यमराज और प्रत्यधिदेवता प्रजापति हैं।

राहु
         राहु पैठीनस गोत्र के शूद्र हैं। मलय देश के अधिपति हैं। इनका वर्ण कृष्ण है और वस्त्र भी कृष्ण ही हैं। इनका वाहन सिंह है। चार हाथों में खड्ग, वर, शूल और ढाल लिए हुए हैं। इनके अधिदेवता काल हैं और प्रत्यधिदेवता सर्प हैं।

केतु
        ये जैमिनि गोत्र के शूद्र हैं। कुशद्वीप के अधिपति हैं । इनका वर्ण धुएँका सा है और वैसा ही वस्त्र भी धारण किये हुए हैं। मुख विकृत है, गिद्ध वाहन है। दो हाथों में वरमुद्रा तथा गदा हैं। इनके अधिदेवता हैं चित्रगुप्त तथा प्रत्यधि देवता हैं ब्रह्मा ।

ये सब ग्रह अपनी-अपनी गति से सूर्य ओर बढ़ रहे हैं, सबका मुख सूर्य की ओर हैं। पृथ्वी के साथ सब का सम्बन्ध है। प्रत्येक शांति और पुष्टिकर्म में इनकी आराधना होती है। पृथक-पृथक अरिष्ट के अनुसार भी इनकी पूजा की जाती है। इनमें से किसी एक को प्रसन्न करके उनसे वांछित फल भी प्राप्त किया जा सकता है। जिस ग्रह का जो वर्ण है, उसी रंग की वस्तुऐं प्रायः पूजा में लगायी जाती हैं। मंत्र का जितना जप होता है, उसका दशांश हवन होता है। हवन में भिन्न-भिन्न प्रकार की समिधाऐं काम में लायी जाती हैं। सूर्य के लिये मदार, चन्द्रमा, वृहस्पति के लिये पीपल, शुक्र के लिये गूलर, शनैश्वर के लिये शमी और राहु केतु के लिये दूर्वा का प्रयोग होता है। इस प्रकार पूजा करने से ये ग्रह सन्तुष्ट हो जाते हैं और किसी प्रकार का अनिष्ट न करके सब प्रकार से इष्टसाधन करते हैं। नवग्रह की दोष शांति के लिये रत्न धारण किये जाते हैं सूर्य के लिये माणिक्य, चन्द्रमा के लिये मोती,मंगल के लिये प्रवाल (मूंगा) बुध के लिये मरकतमणि, वृहस्पति के लिये पुष्पराग, शुक्र के लिये हीरा, शनि के लिये नीलकान्तमणि,राहु लिये गोमेद और केतुके लिए वैदूर्यमणि ।

         इनके धारण करने से ग्रहों के दोष की शांति हो जाती है। जो लोग पुराणों की कथा सुनते हैं, इष्टदेव की आराधना करते हैं, भगवान के नाम का जप करते हैं, तीर्थों में स्नान करते हैं, किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाते, सबका भला करते हैं, सदाचार की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, शुद्ध हृदय से अपना जीवन व्यतीत करते हैं, उन पर ग्रहों का प्रभाव नहीं पड़ता उनको पीड़ा न पहुँचाकर वे उन्हें सुखी करते हैं। उस श्लोक का अंतिम चरण यह है
नो कुर्वन्ति कदाचिदेव पुरुषस्यैर्व ग्रहाः पीडनम् ।

                          शिव शासनत: शिव शासनत:

0 comments:

Post a Comment