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ॐ श्री परमात्मने नमः ।।

           जिंदगी भर दौड़ती भागती रहती है यह दुनिया सुख और खुशियाँ पाने के लिए, जीवन की तृष्णा का अर्थ है कि हम अपने जीवन को कल में खोज रहे हैं, भविष्य में खोज रहे हैं पर जीवन अभी में है, आज मे है, इसी क्षण में है। जीवन आज है और आप हो कि अपनी आँखें कल पर लगाये बैठे हो एवं जो आज नहीं देखता वह चूक जाता है। समय का चक्र निरंतर चलता रहता है प्रत्येक क्षण अपने आप में एक अलग सत्ता है, प्रत्येक क्षण अपने आप में अलग व्यक्तित्व है जब तक आप क्षण को महत्व नहीं देते तब तक अपने व्यक्तित्व को नहीं समझ सकते। रावण लंका का राजा था एवं उसके क्रोध से समस्त भूमण्डल थर-थर कांपता था। उसने मंत्र-तंत्र के माध्यम से कुछ ऐसी विशेष सिद्धियाँ प्राप्त कर ली थी कि जिससे वह आकाश गमन कर सकता था, वह वायु, इंद्र आदि का मनचाहे ढंग से उपयोग कर सकता था। रावण ने भी अंत समय में काल के चक्र को मन ही मन प्रणाम करके कहा कि मैं सब कुछ करने में तो समर्थ हो सका पर समय का मूल्य और क्षण का महत्व नहीं जान सका इसलिए आज मैं ऐसी स्थिति को प्राप्त हुआ हूँ।

            रावण का शरीर रणभूमि में मृत्यु की कगार पर पड़ा हुआ था एवं जब राम ने देखा कि युद्ध में विजय के पश्चात् लक्ष्मण में कुछ घमंड आ गया है तो वह लक्ष्मण को समझाते हैं, वह लक्ष्मण से कहते हैं कि देवताओं की कृपा से ही हम इस युद्ध में विजयी हुए हैं परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि हम रावण से ज्यादा बलवान और चतुर है अगर सचमुच में देखा जाये तो रावण के समान विद्वान इस पृथ्वी पर कोई हुआ ही नहीं वह मंत्र और तंत्र के क्षेत्र में अद्वितीय था उसने प्रकृति एवं उसके साधनों को अपने वश में कर लिया। सामान्य लोग जिस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते उसने ऐसे-ऐसे असम्भव कार्यों को भी सम्भव करके दिखाया। वह जब चाहे तब अपनी लंका पर जितनी चाहे उतनी वर्षा कराने में समर्थ था, वह पर्वतो का स्थान बदलने में समर्थ था, वायु के वेग को वह अपने सामर्थ्य से रोक सकता था, स्वतंत्र रूप से आकाश में विचरण कर सकता था । इस पृथ्वी पर प्राकृतिक शक्तियों को जिस प्रकार रावण ने नियंत्रित किया था अन्य कोई व्यक्ति नहीं कर सकता। रावण इस पृथ्वी पर सबसे ज्यादा बलवान, विद्वान और योग्य व्यक्ति था । उसे समय की गणना का पूरा-पूरा ज्ञान था, समय ज्ञान अपने आप में एक बहुत बड़ी अद्भुत विद्या है। तुम रावण के पास जाकर काल ज्ञान की शिक्षा ग्रहण करो लक्ष्मण, राम की आज्ञा पाकर वह अनमने मन से रावण के पास जाते हैं।

            वहाँ पहुँचकर लक्ष्मण ने देखा कि मृत्यु के समय भी रावण के चेहरे पर मुस्कुराहट है । लक्ष्मण गर्व से विजयी भाव लिए रावण से कहते हैं कि मेरे बड़े भाई राम ने मुझे आपके पास भेजा है और मैं आपसे काल ज्ञान की शिक्षा लेने आया हूँ। रावण चुप रहा, न उसने लक्ष्मण को कोई आशीर्वाद दिया न अपने मुँह से कोई शब्द निकाला। रावण के उत्तर का इंतजार करते-करते जब काफी समय बीत गया तब क्रोध से तमतमाते हुए लक्ष्मण वापस अपने शिविर में आ गये एवं आकर राम से बोले आपने तो व्यर्थ में ही मेरा अपमान करा दिया एक हारे हुए व्यक्ति के पास जाने का कोई मतलब नहीं है। मैंने तो अपने क्षत्रिय कुल की मर्यादा भी रखी उसे प्रणाम भी किया पर उसने तो मुझसे एक बात भी नहीं की। राम ने कहा रावण इतना मूर्ख और असभ्य नहीं है अपितु वह ज्ञान के जिस स्तर पर है वहाँ हार-जीत में कोई भेद नहीं है अच्छा तुम यह बताओ जब तुम रावण के पास गये थे तब तुम कहाँ खड़े हुए थे। लक्ष्मण ने कहा में उनके सिरहाने खड़ा था, बस तुमने यही गलती कर दी थी। तुम वहाँ एक शिष्य के रूप में गये थे, तुम उनसे कुछ सीखने गये थे और जब कुछ सीखने ही गये थे तो तुम्हें उनके चरणों के पास खड़े होना चाहिए था क्योंकि शिष्य का स्थान चरणों के पास ही होता है।

          शिष्य चाहे कितना भी महान क्यों न हो जाये उसे अपने गुरु के सामने कभी भी घमंड नहीं करना चाहिए अपितु उसका व्यवहार हमेशा शालीन, नम्र एवं सुयोग्य शिष्य के समान होना चाहिए। तुम एक बार फिर उनके पास जाओ, लक्ष्मण राम की आज्ञा पाकर पुन: रावण के पास पहुँचते हैं। लक्ष्मण वहाँ पहुँचकर इस बार उनके चरणों के पास खड़े होते हैं और रावण से कहते हैं कि मैं दशरथ नंदन लक्ष्मण पूर्ण श्रद्धा के साथ आपके चरणों में नमन करता हूँ। रावण ने तुरंत उसे आशीर्वाद दिया दीर्घायु एवं विजयी होने का प्रसन्न मन से लक्ष्मण ने निवेदन किया मैं श्रीराम की विशेष आज्ञा से आपसे काल - ज्ञान की शिक्षा लेने आया हूँ अतः आप मुझे इस योग्य समझे तो काल ज्ञान प्रदान करने की कृपा करें। रावण ने समय के महत्व को समझाते हुए कहा कि समय का चक्र निरंतर चलता रहता है और जो अपने जीवन में समय के चक्र को पहचान लेता है वह निश्चय ही अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफल हो जाता है एवं उसकी प्रगति को विधाता भी नहीं रोक सकते।

            प्रत्येक क्षण का एक अलग ही महत्व है, प्रत्येक क्षण की अपनी एक अलग ही सत्ता होती है, एक क्षण का दूसरे क्षण से कोई मुकाबला नहीं है, दोनों क्षणों की आपस में कोई तुलना नहीं है। एक क्षण विशेष में किया हुआ कार्य जहाँ पूर्णतः सफल होता है वही दूसरे क्षण विशेष में उसी कार्य में असफलता हाथ लगती है । रावण ने कहा मैं इस बात को अभी यहीं सिद्ध किये देता हूँ। रावण ने अपने आस-पास से सात पत्ते इकट्ठा किए और लक्ष्मण से कहा मैं लोहे की शलाका से एक विशेष क्षण में इन्हें भेदूंगा तब तुम्हें प्रत्येक क्षण की स्वतंत्र सत्ता समझ में आ जायेगी फिर रावण ने शलाका पत्तों पर चुभो दी। उसने देखा कि पहला पत्ता सोने में परिवर्तित हो गया, दूसरा पत्ता चाँदी में तीसरा पत्ता ताँबे में और चौथा लोहे में परिवर्तित हो गया। इस प्रकार छः पत्ते अलग-अलग धातुओं में परिवर्तित हो गए और साँतवा पत्ता सिर्फ पत्ता ही रह गया उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ, यही क्षणों की पहचान और उसका महत्व है। सातों पत्तों को भेदने बहुत ही कम समय लगा हर क्षण की विशेष सत्ता के कारण पतों में भी विशेष परिवर्तन हुए। एक क्षण दूसरे क्षण से अलग है इसलिए व्यक्ति को क्षणों की पहचान कर लेनी चाहिए और उन्होंने लक्ष्मण को काल ज्ञान की दीक्षा प्रदान करके आशीर्वाद दिया।

           ‌जीवन का गहनतम प्रयोग यह है कि आप समय को पहचानो, उसका मूल्य समझो, समय बहुत ही अनमोल है, जीवन से तृष्णा को दूर करो, जीवन से वासना को दूर करो। जीवन की तृष्णा का अर्थ है कि सभी तृष्णाएं भविष्य में होती हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जिस क्षण में हम बैठे हैं उस क्षण हम किसी वासना में नहीं डूब सकते अपितु सारी वासनाएं कल के लिए होती हैं। वासना के लिए समय चाहिए, स्थान चाहिए। हम जब भी कुछ चाहते हैं भविष्य के लिए चाहते हैं अगर भविष्य न हो तो इच्छा मर जाती है अगर कोई इच्छा ही न रहे, कोई चाहत ही न रहे तो भविष्य समाप्त हो जाता है अगर चाह छूट जाये तो आदमी वर्तमान में आ जाता है यदि हम वर्तमान में आ जाये तो चाह छूट जाती है जीवन की तृष्णा को हम भविष्य में खोज रहे हैं जबकि जीवन यहाँ है, जीवन तो आप स्वयं ही हो और आप की आँखें कल पर लगी हुई हैं।

              जो बहुमूल्य समय आपके पास आज है वह आपको दिखाई नहीं पड़ता है यही अनमोल क्षण हमसे चूक जाता हैं इसलिए हम सभी दुःखी हैं हमें दुःखी होने की इतनी कलाएं आती हैं कि जिसका कोई हिसाब ही नहीं है क्योंकि हम सब भविष्य में जीते हैं और भविष्य कभी नहीं आता बस हमें वह आता हुआ दिखाई देता है। भविष्य की तृष्णाएं दुःख देती हैं जितनी ज्यादा तृष्णाएं होंगी उतना ज्यादा दुःख होगा। एक बार तरकश से तीर निकल गया तो फिर उसे रोकने का कोई उपाय नहीं है। भिखारियों के समान जो इस जगत में जीयेगा वह दुःखी रहेगा परन्तु जो सम्राटों की तरह अपना जीवन जियेगा वह सदा सुखी रहेगा। किसे कहते हो आप सम्राट - सम्राट । सम्राट वह है जो सुखी है, संतुष्ट है। हम अपने चारों तरफ सुख की तलाश करें कि सुख कहाँ है वह आपके पास ही है बस पहचानने की क्रिया आनी चाहिए, सुख का अपार भण्डार है आपके पास बस आपमें उसे ग्रहण करने की क्षमता होनी चाहिए जब भी आप जो भी कार्य करें पूरी लगन से सुख पूर्वक करें जब आप पानी पियें तो सुख पूर्वक पियें, भोजन करें चाहे वह दाल-रोटी ही क्यों न हो तो सुखपूर्वक करें। राह पर चलो या वृक्ष के नीचे बैठें चाहे आप ध्यान लगा रहे हो तो उसे भी सुखपूर्वक लगाओ।

          आप जो भी काम कर रहे हो सुख से करो। इतना सुख है कि आप समेट भी नहीं पाओगे, इतना सुख है कि आपकी सारी झोलियाँ छोटी पड़ जायेगीं, इतना सुख है कि आपके हृदय में सुख की बाढ़ आ जायेगी और जिस दिन आपके हृदय में सुख की बाढ़ आ जाये आप समझ लेना कि आप स्वयं सम्राट बन गये, आपके चारों तरफ सुख का वातावरण चलने लगेगा, जो भी आपकी छत्र-छाया में बैठेगा वह भी सुखी हो जायेगा, आपके नृत्य से वह भी नृत्य करने लगेगा, आपके चारों तरफ सुख ही सुख का वातावरण चलने लगेगा, आप जिसे छुओगे उसे सुख का स्पर्श होगा, जिसकी तरफ देखोगे वहाँ सुख के फूल खिलने लगेंगे। सुख कोई इच्छा नहीं है वह जीने की एक कला है एवं आप इस कला को सीखे फिर आपके भीतर इतना सुख होगा कि वह बहने लगेगा, अपने आप बटने लगेगा, सुख की तरंगे आपकी अंदर से उठने लगेगीं, सुख के गीत झरने लगेंगे। सुख से जीने का एक अलग ही ढंग है जो वर्तमान में जीते हैं, हर क्षण को जीते हैं, क्षण-क्षण की बात करते हैं वह जीवन को कल पर नहीं थोपते एवं जो कल की बात करते हैं, जो लोग दिन भर ख्याली पुलाव बनाते हैं, जो महत्वाकांक्षा से भरे हैं वह दुःख ही पाते हैं। वह जीते सुखी होने के लिए है पर दुःख ही पाते हैं। मैं यह नहीं कहत कि आप हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाओ अपितु अपने व्यापार में, अपने केरियर में जो महत्वाकांक्षा है उन्हीं के अनुसार परिश्रम करे। अत्यधिक महत्वाकांक्षी पागलों के समान श्रम करते हैं, परिश्रम भी करें तो सुख से करें, हँसते मुस्कुराते हुए करें फिर जीवन में हर तरह का पूर्ण भौतिक और पूर्ण आध्यात्मिक सुख मिलता है। जिस ओर भी हम श्रम करते हैं हमें उसका फल तो प्राप्त होता ही है।


             आम का पेड़ लग गया तो आम उगेगा ही पर चौबीस घण्टे फल के उगने के लिए रोते रहोगे तो दुःखी ही रहोगे। जब फल लगेगा तब खा लेना सुखपूर्वक । ईश्वर की कृपा भी उन्हीं को मिलती है जो उस तरफ की यात्रा करते हैं, ईश्वर भी उन्हीं की सहायता करता है जो दूसरों को सहायता देने में कंजूसी नहीं करते हैं। प्रसाद उन्हीं को मिलता है जो श्रम करते हैं, प्रयास करते हैं। मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता फिर परम सुख की खोज मुफ्त में कैसे हो सकती है ? लोग कहते हैं हम सुख से कैसे जियें ? आप जिस क्षण में हो उसका पूरा-पूरा सदुपयोग करें, आपको एक-एक क्षण को जीना आ जायेगा। कैसे ? यह मत पूछिए बस आप जो भी कार्य करें सुख पूर्वक करें, चलो तो सुख से, बैठो तो सुख से, श्वास लो तो सुख से आपकी प्रत्येक क्रिया में सुख का झरना बहने लगेगा, सुख के लिए रुको मत, सुखी होने के लिए उसका इंतजार मत करो, सुख को भविष्य के लिए मत छोड़ो। आप जहाँ भी खड़े हो जैसे भी खड़े हो आप जो कुछ भी कर रहे हो सुख से करो। "बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न भीख"

            हमारे मन में कई जन्मों के संस्कार हैं, कई जन्मों से हमने दुख के सिवा कुछ भी इकट्ठा नहीं किया यही संस्कार बार-बार धक्के मारकर दुःख के आवरण में प्रविष्ट करा देते हैं। दुःखी होने की प्रवृत्ति पाप है यह शायद सुनने में आपको अच्छा न लग रहा होगा क्योंकि जो दुःखी होता है वह दूसरों को दुख देने में अधिक रस लेता है। उसे दुसरों को दुखी करना अच्छा लगता है जबकि दूसरे को दुःखी करना पाप है जो दूसरों को हमेशा दुखी करता है सोचो वह स्वयं कितना दुःखी आदमी है। अंदर से जिसके पास जो होगा वही तो बांटेगा जो स्वयं अपनी आत्मा पर दुःख की काली छाया नहीं पड़ने देता वह महासुख से भर जायेगा । वह सम्राट बन जायेगा। हम दूसरों को क्यों दुःख देना चाहते हैं? क्योंकि हम दुःखी हैं और जब तक हम अपने से ज्यादा दुःखी किसी को नहीं कर लेते हैं उसका दुःख देखकर हम थोड़े सुखी हो जाते हैं। हमारा सुख यही है कि हमने किसी को दुःखी कर दिया। हमने किसी से उसका सबकुछ छीन लिया, हमने उसको नीचा दिखा दिया, हमने उसकी अकड़ ढीली कर दी, हमने उसको भरी सभा में सबके सामने अपमानित कर दिया पर यह सब सुख नहीं है हम अपने चारों तरफ दुःख की लकीरें खींचते रहते हैं।

          एक दुःखी पति अपनी पत्नी को दुःखी करता रहता है, दुःखी बेटा अपने बाप को दुःखी करेगा, पूरे का पूरा समाज दुःख का एक जंजाल बन गया है। जब हम अपने से ज्यादा किसी को दुःखी देख लेते हैं तब हम थोड़ा सुखी हो जाते हैं हम यह सोचते हैं कि यह हमसे ज्यादा दुःखी है। दूसरों को दुःख पहुँचाने में इतना ज्यादा व्यस्त हो जाते हैं कि अपनी सारी चिंताएं ही भूल जाते हैं। स्वयं दुःखी होना और दूसरों को दुःख पहुँचाना पाप है इसलिए अपने अंदर से पाप के बीज को बाहर निकालीये सुख पुण्य है, आनंद पुण्य है जब तक सुखी होते है तो पुण्यात्मा हो जाते है। लोग सोचते हैं हमने दान दे दिया हम पुण्यात्मा हो गये, हमने मंदिर बनवा दिया या हमने कोई गुरुद्वारा या गिरजाघर बनवा दिया, गरीब लोगों को भोजन करवा दिया, धर्मशाला बनवा दी तो तुम पुण्यात्मा बन जाओगे यह जरुरी नहीं। हो सकता है यह सब कार्य आप दूसरों को नीचा दिखाने के लिए या दुःख देने की वृत्ति से कर रहे हो अगर आप अहंकारी हो गये और अहंकार से आपने पड़ोसी को मुफ्त में दस हजार रुपया भी दे दिए तो वह दान नहीं है। जब भी आपको ऐसा लगे कि आपका मन आपको दुःख की वृत्ति में डाल रहा है, आप दुःख की वृत्ति में पड़ रहे हैं तो उस बीज को डालने से पहले ही अपने हृदय से उखाड़ फेंकना, देर मत करना इन जड़ों को भीतर प्रवेश मत करने देना, यहाँ अपने आप में बड़े साहस की जरुरत पड़ती है।

            दुर्बल लोग तो उसे फलने फूलने देते हैं, जड़ को पनपने देते हैं। आप किसी को दुःखी करके देखो आप स्वयं दुःखी हो जाओगे अगर आप किसी को सुखी कर दो तो जाने कितने रूपों में सुख गूंजने लगता है आपकी अंतरात्मा भी इससे अपने को प्रसन्न महसूस करती है। अगर आप किसी के रास्ते का एक कांटा हटा दो तो आपके रास्ते से अनेकों कांटे स्वतः हट जायेंगे, आप किसी के लिए एक फूल रख दो तो आपके लिए फूलों की सेज बन जायेगी। आप जो भी कर रहे हो उसकी गूंज अनंत ब्रह्माण्ड तक जाती है क्योंकि आप अनंत ब्रह्माण्ड के साथ संयुक्त हो अगर आपके अंदर एक छोटा सा विचार भी आया तो वह सारा संसार सुनता है। आपके हृदय के एक-एक भाव की झंकार सारे अस्तित्व पर पड़ती है यह अनंत काल से चला आ रहा है। आपका रूप खो जायेगा, शरीर गिर जायेगा लेकिन आपने जो किया, आपने जो चाहा, आपकी भावनाएं और जो भावना बनाई, जो आपने बोला, जो कहा वह सब इस ब्रह्माण्ड में गूंजता रहेगा। हम यहाँ से खो जायेंगे हमारा बीज फिर कहीं अंकुरित होगा, हमारे सारे कर्म कभी नहीं खोते।

              महावीर एक चींटी भी नहीं मारते थे लोग इस बात का मजाक भी उड़ाते हैं कि हम जैनी थोड़े ही हैं जो चींटी भी न मारे । महावीर की अहिंसा और शंकराचार्य के अद्वैत भाव में कोई अंतर नहीं है। चींटी को न मारना इसका यह अर्थ नहीं है कि चींटी पर दया की जा रही है अहिंसा का मतलब सिर्फ इतना ही है कि अगर आप किसी को चोट पहुँचा रहे हो, किसी को दुःख पहुँचा रहे है, मार रहे है तो आप आत्महत्या करने के समान पाप कर रहे है। जब आप अपने आपको ब्रह्माण्डीय समझोगे आप ब्रह्माण्डीय तो हो पर आप जब यह सब जान जाओगे जब आप यह जान जाओगे कि आप सारे अस्तित्व के साथ हो तो एक अद्वैत भाव जागृत होगा जो कि सत्य है । अहं ब्रह्मास्मि का अर्थ है कि एक चींटी के साथ भी अद्वैत भाव है, समस्त अस्तित्व के साथ अद्वैत भाव मुझमें है और मैं सबमे हूँ।

           हम सोचते हैं कि हम सब एक कैसे हो सकते हैं सागर में छोटी सी एक लहर है तो एक बहुत बड़ी लहर भी है कोई लहर अभी जन्मी है अभी-अभी उठी है, वापस पानी में गिरने वाली लहर अभी उठ रही है। इस ब्रह्माण्ड में सब कुछ लहर बद्ध है हम सब लहरों से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं कहीं वृक्षों की लहर है तो कहीं पर पत्थरों की लहर है कहीं पक्षियों की लहर है तो कहीं मनुष्यों की लहर है, यह सभी पराम्बरा की लहरें हैं। यह सब लहरें पराम्बरा से निकली हैं, पीताम्बरा से निकली हैं नाम कुछ भी दे दो, वापस उन्हीं में लौट जाती हैं। मृत्यु सिवाय इसके कुछ भी नहीं है जन्म से पहले भी आप अद्वैत थे मृत्यु के बाद भी अद्वैत हो ही गये। जिसके अंदर जीते जी अद्वैत भाव आ जाता है फिर उसकी मृत्यु नहीं होती। रावण के बिना राम होने का कोई मतलब नहीं है एवं राम के बिना रावण भी अधूरा है। हम सोचते हैं राम और रावण में बड़ी दुश्मनी है पर जब कभी मैं इस विषय में सोचत हूँ यह मेरा विचार है कि इनसे ज्यादा गहन मित्रता कठिन है जिसके बिना अस्तित्व ही समझ में न आये, जो हमारा आधार है फिर तो हमें उसकी परिभाषा ही बदलना पड़ेगी। शत्रु मित्र से भी अधिक निकट हैं। राम की कथा में अगर रावण को निकाल दिया जाये तो इस कथा का रस ही समाप्त हो जायेगा, रावण की मौजूदगी में ही राम की महिमा है, अशुभ रावण शुभ राम की पृष्ठभूमि है।

        आज सारी मनुष्यता को हमने उलझन में डाल दिया है, सभी धर्मों का अध्ययन जरुरी है चुनाव आपका स्वयं का होना चाहिए। आपकी आध्यात्मिक यात्रा का चुनाव आप स्वयं ही करें तो ज्यादा अच्छा होगा, धर्म के प्रति जो बगावत पैदा हो गई है वह सब नहीं होगी। किसी व्यक्ति को जबर्दस्ती अपने मार्ग में जोड़ लेना यह सबसे बड़ा महापाप है। धार्मिक होने के लिए स्वयं का निर्णय चाहिए अन्यथा यह दुनिया धार्मिक नहीं हो सकती। अध्यात्म एक घटना है, भक्ति एक घटना है, प्रेम भी एक घटना है। प्रेम खतरनाक हो सकता है क्योंकि प्रेम बहुत ऊँचाई पर ले जाता है और ऐसे स्वप्न निर्मित कर देता है कि उन स्वप्नों के साथ हमेशा जीना मुश्किल है क्योंकि इतनी ऊंचाई पर सदा जीना अत्यंत मुश्किल हो जाता है, नीचे उतरना ही पड़ता है । अध्यात्म सामाजिक व्यवस्था का अंग नहीं है, अध्यात्म तो आत्म क्रांति है। हर व्यक्ति को अपना गुरु चुनने का पूरा-पूरा अधिकार है। गुरु जबर्दस्ती थोपे नहीं जाते जब बुद्ध, महावीर जीवित थे जब वह अपने शिष्यों को दीक्षित करते थे तब उन शिष्यों का यह स्वयं का चुनाव होता था कि वह बुद्ध हो रहा है या वह महाव हो रहा है, शिष्य का यह अपना निजी चुनाव है, उसका समर्पण है।

          यह प्रतिबद्धता किसी ने जबर्दस्ती नहीं दी उसने खुद ली है और वह अपना पूरा जीवन दाँव पर लगा देते हैं क्योंकि जब आत्मक्रांति होती है वह जबर्दस्ती थोपी हुई नहीं होती है। उसे जो ठीक लगा उसने चुनाव किया और अपना जीवन दाँव पर लगा दिया। थोपे हुए अध्यात्म पर जीवन दाँव पर लग ही नहीं सकता क्योंकि उसमें वह तेजस्विता नहीं होगी। ऐसा व्यक्ति न तो साधक होगा न ही शिष्य होगा वह तो एक प्रकार का बंधुआ मजदूर होगा, युद्ध तो जारी रहेगा लेकिन साक्षी भाव से युद्ध में एक फर्क होगा युद्ध तो आप करोगे लेकिन वह युद्ध धर्म के लिए होगा जहाँ धर्म है वहाँ श्रीकृष्ण खड़े हैं और जहाँ पर श्रीकृष्ण खड़े हैं वहाँ सत्य है और विजय हमेशा सत्य की होती है। प्रेम का स्वरूप अनिवर्चनीय है गूंगे के स्वाद की तरह। प्रेम गुण रहित, कामना रहित प्रतिक्षण बढ़ता रहता है, यह विच्छेद रहित है एवं इसका चरम रूप ही भक्ति है। राम प्रसंग में बहुत सारे प्रेम प्रसंग है इसमें से भरत का राम के प्रति प्रेम अमृत को सजाने वाला समुद्र है। मेरे पास रामकथा की एक कैसेट है जब भी मैं उस कैसेट को सुनत हूँ उससे भरत का राम के प्रति प्रेम सुनकर मेरी आँखें आंसुओं से भर जाती हैं जब तक वह कैसेट चलती रहती है उतने समय तक मेरी आँखों से आंसू बहते ही रहते हैं। जब भरत जी कैकयी की करतूत के कारण श्रीरामधाम की ओर जाते हैं रास्ते में राम के चरण चिन्हों को धरती पर अंकित देखकर उस धूल को अपने मस्तक पर लगाते हैं, अपने हृदय पर लगाते हैं उनका राम के प्रति इतना अपार प्रेम देखकर खग-मृग सतंभर प्राणी सभी प्रेममय हो जाते हैं। प्रकृति भी भरत के प्रेम की सराहना करके फूली नहीं समाती है।

          जब राम वियोग से संतृप्त भरत राम के सम्मुख आते हैं वह राम को प्रणाम करके कहते हैं हे नाथ रक्षा करो। प्रेम तो लक्ष्मण भी राम से बहुत करते थे वह हर समय सुख-दुःख में राम के साथ रहते थे वियोग तो भरत को सहना पड़ा, रोते सिसकते हुए जब वह राम के सम्मुख आते हैं तब लक्ष्मण राम से कहते हैं हे रघुनाथ भरत आपको प्रणाम कर रहे हैं। राम भरत को देखते ही उन्हें अपने हृदय से लगा लेते हैं " भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान" मिलन प्रीति का यह मनमोहक वर्णन कैसे किया जाये। यह परम प्रेम बुद्धि-चित सबको बिसराकर भरत और राम परम प्रेम में पूर्ण स्थिर हो जाते हैं। "परम प्रेम पूरन दोउ भाई मन बुद्धि चित अहमिति बिसराई" भरत और राम का परस्पर स्नेह अगम्य है। भरत जी की श्री रामचंद्रजी के प्रति विशुद्ध प्रेम दिव्य स्वार्थ रहित प्रेम है और वह श्रीराम के हृदय में फलित होकर अपार स्नेह का रूप धारण करता है। विशुद्ध प्रेम में न रजोगुण होता है, न तमोगुण होता है, न सतो गुण होता है। रजो गुण के नियामक ब्रह्मा, 'तमोगुण के नियामक रुद्र और सत गुण के नियामक विष्णु भी उसमें नहीं हैं। विशुद्ध प्रेम को निरुपित नहीं किया जा सकता।

        भरत राम से कहते हैं मेरे यह नयन आपके दर्शन से तृप्त नहीं हुए, भरत का निर्मल प्रेम देख-परखकर राम ने भरत को शक्तिपात किया तभी से भरत ने राम की चरण पादुका को सिंहासन पर रख कर राम राज्य चलाया । राम ने शक्तिपात करते हुए कहा "मिटिहहिं पाप प्रपंच सब अखिल अमंगल भार लोक सुजसु परलोक सुख सुमिरत नामु तुम्हार" भरत तुम्हारा नाम याद करते ही सब पाप मिट जायेंगे, छल-कपट, दम्भ, सब प्रकार के मायाजाल नष्ट हो जायेंगे, समस्त अमंगलों के समूह नष्ट हो जायेंगे। धन, वैभव, यश, सुलभता से प्राप्त होगा और उसे परलोक में भी सुख मिलेगा। रामकथा में मुझे भरत एवं हनुमान जी में मेरा विशेष रस है। जप, तप, व्रत, नियम चाहे जितने भी हों, साधन कितने भी कर लिये जायें प्रेम नहीं है तो सारे प्रयास निष्फल चले जायेंगे। प्रेम से ही भक्ति आती है और भक्ति के लिए विश्वास आवश्यक है। बिना विश्वास के भक्ति नहीं होती और बिना भक्ति के श्रीराम द्रवित नहीं होते। राम के बिना मोक्ष नहीं मिलता। भरत का त्याग महान बुद्धि है, भरत का राम के प्रति प्रेम देखकर भारद्वाज जी कहते हैं भरत तुमने राज्य को स्वीकार नहीं किया यह तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन करना धर्म है पर श्रीराम से प्रेम एवं सभी लौकिक धर्मों का त्याग करना सबसे श्रेष्ठ है। भरत तुम राम प्रेम के साक्षात अवतार हो तुम्हें राम भक्ति रस सिद्ध नहीं करना है अपितु तुम स्वयं राम भक्ति रस हो ।

          राम भक्ति और राम एक ही रूप हैं। भरत राम से अलग रहते हुए भी उनके चरण कमलों को अपने हृदय में धारण कर उनकी सेवा में सदा संलग्न रहते हैं। प्रभु श्रीराम के चरणों की सेवा में हनुमान जी का स्थान उनके भक्तों में, उनके शिष्यों में सर्वोपरि है। हनुमान जी एक क्षण के लिए भी अपने हृदय से राम को अलग नहीं होने देते। ।। हनुमान सम नहिं बड़भागी नाहिं कोउ राम चरन अनुरागी ॥ किमि बरनऊं हनुमान की काय कांति कमनीय । रोम रोम में रमि रहा नाम नाम रमनीय ॥ हनुमान जी श्रीराम के आदेशानुसार जब सीता जी की खोज में लंका जाते हैं तब मार्ग में उन्हें अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ा जैसे समुद्र लांघना, लंका को जलाना, राक्षसों का वध करना, अशोक वाटिका को उजाड़ना।

          हनुमान जी ने कहा यह सब कार्य आपकी शक्ति के सहारे ही किए हैं मैंने अपनी शक्ति के सहारे नहीं किए हैं। जैसे कृष्ण का राधा से प्रेम अलौकिक है, वैसे ही राम का बंधु प्रेम अलौकिक है ऐसा ब्रह्माण्ड में कहीं देखने को नहीं मिलेगा। जब दशरथ ने राम का राज्याभिषेक करने की सोची तब राम ने लक्ष्मण से कहा यह राज्य मेरा नहीं तेरा है तुम मेरे बाह्य प्राण हो, मेरा जीवन और मेरा राज्य तेरे लिए है।

          राम जब वनवास के लिए गये तो पीछे-पीछे लक्ष्मण भी उनके साथ गए, राम के लिए वह अपने माता-पिता और पत्नी तक को राजमहल में छोड़कर राम के साथ वन में गये। राम वियोग लक्ष्मण सहन नहीं कर सकते थे राम बचपन से ही अपने भाइयों से अत्यधिक प्रेम करते थे वह जान बूझकर खेल में हार जाते थे। भरत का प्रेम राम से भी श्रेष्ठ है जब भरत को राज्य मिला और राम वनवास के लिए गये तो उन्होंने राजगद्दी पर राम की पादुका स्थापित की। एक ओर राम वन में तप किया करते थे तो वहीं दूसरी ओर भरत कुटि में तप किया करते थे। राम ने इस जगत में बंधु प्रेम का एक महान आदर्श स्थापित किया है।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

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