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श्री व्यास पीठ ।।

   अद्वैत वेदांत की साधन परंपरा में आचार्य अथवा सद्गुरु का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। आचार्य शंकर ने केनोपनिषद के भाष्य में कहा है "ब्रह्म आचार्य के बार बार उपदेश द्वारा ही जाना जा सकता है तर्क, प्रवचन' बुद्धि' बहुश्रवण, तप, यश आदि के द्वारा नहीं"। छान्दोग्योपनिषद् के भाव से का वचन और भी दृढ़ है, ब्रह्म केवल शास्त्र तथा आचार्य के उपदेश के द्वारा अवगम्य है। शास्त्राचार्य शब्द आचार्य शंकर की रचनाओं में अनेकों बार समास रूप में प्रयुक्त हुआ है जिन का अभिप्राय यह है कि चरम सत्य (ब्रह्म तत्व) श्रुतियो में निहित है तथा आचार्य अपने अनुभव के आधार पर साधकों को उसकी प्राप्ति के पथ का प्रदर्शन करता है। आचार्य शंकर ने ऐसे आध्यात्मिक गुरु के सद्गुणों का अपने प्रसिद्ध ग्रंथ विवेक चूड़ामणि में इस प्रकार उल्लेख किया है जो श्रोत्रिय हो निष्पाप हो कामनाओं से शून्य हो ब्रह्मावेत्ताओं मैं श्रेष्ठ हो ब्रह्मनिष्ट हो ईधनरहित अग्नि के समान शांत हो अकारण दया सिंधु हो और प्रणत(शरणापन्न)। सज्जनों के बंधु हितैषी शुभचिंतक हो।

          उपनिषदों में गुरु के महत्व पर अत्यधिक बल दिया गया है। कभी-कभी गुरु शिष्य के अधिकार की परीक्षा ले लिया करते थे। इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि वे ब्रह्मविद्या पर अपना एकाधिकार समझते थे। केवल अधिकारी को ही में विद्या दान देते थे और यह नितांत उचित भी प्रतीत होता है। ब्रह्मा विद्या के विषय में सच्ची भावना की शर्त लगा देना साधकों की उसकी प्राप्ति से वंचित करना नहीं है बल्कि इसका आशय यही है कि लोग उसकी प्राप्ति के लिए सत्य मार्ग का अवलंबन करें। उपनिषदों के आचार्य किसी भी योग्य अधिकारी को सत्य से वंचित नहीं रखते थे। उपनिषदों के आचार्य अत्यंत विनम्र और उदार प्रतीत होते हैं। वास्तव में ब्रह्म विद्या की महत्ता उन आचार्यों को विनम्र बना देती थी तथा आत्मा श्रेय: शीलता उन्हें उदार बना देती थी।

             गुरु अथवा आचार्य का निष्प्रपंच ब्रह्म के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान अपने शिष्य को करना प्रधान कार्य है। वह आध्यारोप और अपवाद विधि से ब्रह्म का उपदेश करता है।आध्यारोप का अर्थ है ब्रह्म में जगत के समस्त पदार्थों का आरोप कर देना और अपवाद का अभिप्राय है आरोपित वस्तुओं में से प्रत्येक का क्रमशः निराकरण कर देना।

               शरीर, अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनंदमय कोशों ने आत्मा को आरोपित कर लिया है। आचार्य अपने अनुभव, ज्ञान युक्ति और तर्क से आत्मा के इन आरोपों का निराकरण कर के शिष्य को निर्गुण निर्विकार असंग अखंड एक और अद्वितीय आत्मा का बोध कराता है वह शिष्य से यह भी बतलाता है कि आत्मा स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों से सर्वथा अलग है और साक्षी दृष्टा रूप है। वेदांत की यह व्याख्या पद्धति बड़ी प्रमाणिक शुद्ध एवं वैज्ञानिक है। ज्ञान प्राप्ति प्रक्रिया में श्रवण मनन एवं निदिध्यासन का अत्यधिक महत्व अद्वैत सिद्धांत में माना गया है वृहदारण्यकोपनिषद् मे मैत्रेयी को आत्म साक्षात्कार करने के संबंध में याज्ञवल्क्य ने सही शिक्षा दी है। "आत्मा वारे दृष्टियो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रियि"। अरे मैत्रियी, आत्मा का श्रवण मनन और निदिध्यासन करना चाहिए।

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