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गणेश पूजन ध्यान देने योग्य तथ्य ।।

           सनातन धर्म में देवी देवताओं को भिन्न भिन्न नामों व स्वरूपों के अनुसार पूजा होती है। सभी देवी देवताओं के पूजन में यह बात ध्यान में रखी जाती है कि अमुक देवी देवता को कौन सी वस्तुऐं अधिक प्रिय हैं और पूजन में उन वस्तुओं को आवश्यक रूप से सम्मिलित किया जाता है जैसे देवाधिदेव महादेव की पूजा हो और विल्व पत्र न हो तो पूजन पूर्ण नहीं माना जाता (मानस पूजन को छोड़कर) इसी प्रकार शास्त्रों में यह उल्लेख भी किया गया है कि व्यक्ति विशेष में जिस तत्व की प्रधानता होती है उसे तदनुसार ही अपना ईष्ट बनाना चाहिये यही वैदिक विधान है।

कौन किसकी आराधना करें ?

              अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को यह बताने की कोई आवश्यकता नहीं कि मानव शरीर पंच तत्वों "क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर" से मिलकर बना है एवं दैवीय शक्तियाँ भी इन्हीं पंच महाभूतों के आधार पर क्रियाशील होती है। ये पाँचों तत्व प्रत्येक मनुष्य में दिव्यमान रहते हैं किन्तु इन पाँचों तत्वों में से प्रत्येक व्यक्ति में किसी न किसी एक तत्व की प्रधानता होती है और उसी तत्व के अनुसार व्यक्ति को अपना ईष्ट बनाना चाहिये। जैसे पृथ्वी तत्व की प्रधानता वालों के लिये भगवान शंकर की जल तत्व की प्रधानता वालों के लिए भगवान गणपति की, तेजतत्व की प्रधानता वालों के लिए भगवती दुर्गा की, वायु तत्व की प्रधानता वालों के लिए भगवान सूर्य की और आकाश तत्व की प्रधानता वालों के लिये भगवान विष्णु की उपासना हितकर होती है।

गणपति प्रतिमा त्र्य का निषेध

          प्रायः आम लोग या साधक अज्ञानता के कारण एक ही देवी देवता की अनेकों प्रतिमा में घर में स्थापित कर लेते हैं किन्तु यह शास्त्र सम्मत नहीं है। कहा गया है कि

गृहे लिङ्गद्वयं नार्या गणेश त्रितयं तथा । 
शङ्कद्वयं तथा सूर्यो नार्यो शक्तित्रयं तथा । 
द्वे चक्रे द्वारकायाश्च शालग्राम शिलाद्वयम् । 
तेषां तु पूजने नैव ह्युद्वेगं प्राप्रुयाद गृही ॥

         अर्थात घर में दो शिवलिङ्गों, दो शङ्गो, दो सूर्य प्रतिमाओं, दो शालग्रामों, दो गोमती चक्रों, तीन गणपति प्रतिमाओं और तीन देवी प्रतिमाओं की स्थापना नहीं करनी चाहिये।

प्रतिष्ठा का उचित समय

           किसी भी देवी देवता की प्रतिमा स्थापित करने के बाद उसमें प्राण प्रतिष्ठा का विधान है। शास्त्रों में प्रत्येक देवी देवता की प्रतिष्ठा के लिए अलग-अलग महीने, तिथियां व नक्षत्र उचित माने गये हैं। भगवान गणपति की प्रतिष्ठा के लिए चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, माघ अथवा फाल्गुन मास का शुक्ल पक्ष शुभ है। प्रतिष्ठा मयूष में स्पष्ट उल्लेख है कि

चैत्रे व फाल्गुने वापि ज्येष्ठे व माधवे तथा ।
माघे व सर्वदेवानां प्रतिष्ठा शुभदा सिते ॥

         इसी प्रकार भौमवार के अतिरिक्त अन्य वार ग्राह्य हैं तथा तिथियों में चतुर्थी, नवमी और चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी वर्जित है तथा प्रतिष्ठा के लिये प्रशस्त्र नक्षत्र अश्विनी, रोहणी, मृगशिरा, पुष्य, उत्तरा फाल्गुनी, हस्त, स्वाती, अनुराधा, ज्येष्ठा मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ श्रवण, पूर्ण भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद और रेवती हैं।

प्रतिमा की परिभाषा

             मत्स्य पुराण के अनुसार सामान्य गृहस्थों के घर में साधक के अंगुष्ठ पर्व से लेकर वितस्ति पर्यन्त अर्थात बारह अंगुल परिमाण तक के आकार वाली प्रतिमा की स्थापना करनी चाहिये। कहा गया है कि -
अंगुष्ठपर्वादारभ्य वितस्ति यावदेव तु । 
गृहेषु प्रतिमा कार्या नाधिका शस्यते बुधैः ॥
इसके अलावा यदि साधक के इष्ट भगवान गणपति हैं तो उनकी स्थापना मध्य में करके ईशान कोण में श्री विष्णु की, अग्नि कोण में भगवान शिव की, नैऋत्य कोण में श्री सूर्य की और वायुकोण में भगवती दुर्गा की स्थापना करनी चाहिए।

आवाहन मंत्र

गणेश जी के आवाहन के लिये निम्रांकित वैदिक मंत्र बहुत लोकप्रिय है

गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् । 
ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः श्रृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम् ॥ 
गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति हवामहे । 
नधीनां त्वा निधिपति हवामहे वसो मम आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् ॥

आसन - मंत्र

नि षु सीद गणपते गणेषु त्वामाहुर्विप्रतमं कवीनाम् । 
न ऋते त्वत् क्रियते किंचनारे महामर्क मघवञ्चित्रमर्च ॥

        अर्थात हे गणपते ! आप यहाँ आनन्दपूर्वक विराजिये । सभी लोग आपको विद्या- विशारदों में सर्वोत्तम बताते हैं एवं आपकी आराधना बिना कोई कार्य प्रारम्भ नहीं किया जाता। (यजमान के प्रति आचार्य वचन) हे धनी पुरुष ! महान् और पूजनीय गणपति भगवान की चित्र विचित्र अर्थात विभिन्न द्रव्यों द्वारा पूजा करो।

अभिषेक

            ताम्रपात्र रखे हुए पवित्र जल से गणपति भगवान का महाभिषेक करते समय गणेशाथर्वशीर्ष की इक्कीस आवृत्ति करने का विधान है।

दूर्वा

           पाटल (लाल) वर्ण वाली और सुरभित कुसुमावली के साथ-साथ दूर्वाङ्कुर भी गणेश जी को अर्पण किये जाते हैं, किन्तु उनकी पूजा में तुलसीदल का प्रयोग नहीं किया जाता
न तुलस्या गणाधिपम् ।

नीराजन - मंत्र

विद्यारण्यहुताशं विहितानयनाशम् । 
विपदवनीधरकुलिशं विधृताङ्कुशपाशम् ॥ 
विजयार्क ज्वलिताशं विदलितभवपाशम् । 
विनताः स्मो वयमनिशं विद्याविभवेशम् ॥

          अर्थात हम सभी आराधक नित्य निरन्तर उन गणेश जी के सम्मुख विनयावनत हैं, जो समस्त विघ्नरूपी वनों का दहन करने के लिये प्रबल अनल हैं, जो अनीति और अन्याय का तत्काल विनाश कर देते हैं, जो विपत्ति के पर्वतों को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिये वज्रोपम हैं, जिनके एक कर-कमल में अंकुश और दूसरे में पाश विराजमान हैं, जिन्होंने विघ्न विजय रूपी सूर्य के प्रकाश में दसों दिशाऐं प्रकाशित कर दी हैं, जो अपने उपासकों के भव-बन्धन को शिथिल कर देते हैं और जो समस्त विद्याओं के वैभव के अधीश्वर हैं।

प्रणाम पत्र

विवेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय । नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥

          अर्थात हे गणपते ! आप विघ्नों के शासक हैं, अतएव आराधकों को उनके द्वारा उत्पीड़ित नहीं होने देते। आप अपने उपासकों को उनके अभीष्ट वर देकर कृतार्थ कर देते हैं। सारे देवता आपको प्रिय हैं और आप सब देवताओं को प्रिय हैं। आप लम्बोदर हैं, चतुष्षष्टि कलाओं के निधान हैं और जगत् का मंगल करने के लिये सदा तत्पर रहते हैं। आप गजवदन हैं और श्रुत्युक्त यज्ञों को अपने आभूषणों के समान स्वीकार कर लेते हैं। आप पार्वती नन्दन हैं हम आपके चरणों में बारम्बार प्रणाम करते हैं ।

गणेश गायत्री

एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्ती प्रचोदयात् । 
तत्पुरुषाय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नोदन्ती प्रचोदयात् ।

          अर्थात हम एकदन्त परमपुरुष गणपति भगवान को जानते हैं, मानते हैं और उन वक्रतुण्डभगवान का हम ध्यान करते हैं। वे हमारे विचारों की सत्कार्य के लिये प्रेरित करें ।

परिक्रमा

बाह्य परिशिष्ट के अनुसार गणेशजी की एक परिक्रमा करनी चाहिये ।
एकां विनायके कुर्यात किन्तु ग्रन्थान्तर के तिस्रः कार्या विनायके ॥

इस वचन के अनुसार तीन परिक्रमाओं का विकल्प भी. आदरणीय है।

गणेश जी के पार्श्वक

         गणपति भगवान को निवेदित किया हुआ नैवेद्य सर्वप्रथम उनके पार्श्वकों (सेवकों) को देना चाहिये । पार्श्वकों के नाम हैं गणेश, गालव, गार्ग्य, मंगल और सुधाकर ये पाँच एवं मतान्तर से गणप, गालव, मुद्रल और सुधाकर ये चार गणेशजी के सेवक हैं।

विभिन्न प्रतीकों द्वारा गणेश पूजन

          सामान्य तौर पर गणेश जी का पूजन हरिद्रा (हल्दी) की मूर्ति से किया जाता है हरिद्रा में मंगलाकर्षिणी शक्ति है तथा वह लक्ष्मी का प्रतीक भी है। नारद पुराण में यद्यपि श्री गणेश जी की स्वर्ण प्रतिमा बनाने का निर्देशन दिया गया है किन्तु उसके अभाव में हरिद्रा की मूर्ति बनाने का विकल्प है। गोमय में लक्ष्मी जी का स्थान होने के कारण लक्ष्मी प्राप्ति के लिए गोमय से गणेश प्रतिमा बनाकर पूजन का विधान है। इसके अलावा शीघ्र श्री गणेश जी की विशेष कृपा प्राप्त करने के लिये श्वेतार्क गणपति के पूजन का विधान है ।
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

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