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द्विजोत्तम --- ब्राह्मण के लिये गायत्री क्या है?

   अति गहन जो केवल ब्रह्मकी इच्छा वालोंके लियेही बतलाया गया है वह इस विषयमें छान्दोग्योपनिषदमें बहुत विस्तृत ज्ञान दिया गया है---- अध्याय १ खण्ड ४ के दूसरे मन्त्र से बतलाया गया है----
    देवा वै मृत्योर्बिभ्यतस्त्रयीं विद्यां प्रविशंस्ते
    छन्दोभिरच्छादयन्यदेभिरच्छादयँस्तच्छन्दसां 
    छन्दस्त्वं ॥२॥
    [एक बार] मृत्युसे भय मानते हुए देवताओंने त्रयीविद्यामें प्रवेश किया । उन्होंने अपनेको छन्दोंसे आच्छादित कर लिया । देवताओंनें जो उनके द्वारा अपनेको आच्छादित किया वही छन्दोंका छन्दपन है । [अर्थात् देवताओंको आच्छादित करनेके कारण ही मन्त्रोंका नाम छन्द हुआ है] ॥२॥
    इसके अलावा भी छान्दोग्यादि उपनिषदों में गायत्री छंद का गुणगान गाते हुए बहुत गर्भित ज्ञानवर्धक बात बतलायी गयी है----
    छान्दोग्योपनिषद् में गायत्रीद्वारा ब्रह्मकी उपासना---- कहते हैं ब्रह्मविद्या अतिशय फलवती है इसलिये उसका अन्य प्रकार से भी वर्णन करना चाहिये; इसीसे दसवें खण्डमें ‘गायत्री वा’ इत्यादि मन्त्र का आरम्भ किया गया है । गायत्री द्वारा भी ब्रह्म का निरूपण किया गया है, क्योंकि ‘नेति नेति’ इत्यादि प्रकारसे विशेषोंके प्रतिषेध द्वारा अनूभूत होनेवाला सर्व विशेष रहित ब्रह्म कठिनतासे समझमें आनेवाला है । अनेकों छन्दोंके रहते हुए भी प्रधानताके कारण गायत्रीका ही ब्रह्मज्ञानके द्वाररूपसे ग्रहण किया जाता है । सोमाहण---- (एक बार सोमाभिलाषी देवताओंने सोम लानेके लिये गायत्री, त्रिष्टुप और जगती---- इन तीन छन्दोंको नियुक्त किया; परन्तु असमर्थ होनेके कारण जगती और त्रिष्टुप्---ये दो छन्द तो मार्गमेंसे ही लौट आये, केवल गायत्री छन्द ही सोमके पास जा सका और वही सोमके रक्षकोंको परास्त कर उसे देवताओंके पास लाया । यह कथा ऐतरेय ब्रह्मणमें ‘सोमो वै राजामुष्मिन्लोक आसित्’ इस प्रसङ्गमें आयी है ।) करनेसे अन्य छन्दोंके अक्षरोंको लानेसे----(गायत्रीके सिवा जो और छन्द सोम लानेके लिये गये थे वे मार्गमें ही थक जानेके कारण अपने कुछ अक्षर छोड़ आये थे । जगती के तीन अक्षर और त्रिष्टुपका एक अक्षर-- ये मार्गमें रह गये थे इन्हें लाकर गायत्रीने उनकी पूर्ति की ।), इत्तर छन्दोंमें व्याप्त---- (उष्णिक् और अनुष्टुप् आदि छन्दोंके प्रत्येक पादमें क्रमशः ७ और ८ आदि अक्षर होते हैं और गायत्रीके एक पादमें ६ अक्षर होते हैं; इसलिये यह उन छन्दोंमें भी व्याप्त है, क्योंकि अधिक संख्या की सत्ता न्यून संख्याके बिना नहीं हो सकती ।) सवनोंमें व्यापक होनेसे (प्रातःसवन गायत्र है, मध्याह्नसवन त्रैष्टुभ है और तृतीय सवन जागत है । अर्थात् गायत्री, त्रिष्टुप और जगती ये क्रमशः उनके छन्द हैं । गायत्री त्रिष्टुप् और जगतीमें व्याप्त है; इसलिये वह उन सवनोंमें भी व्यापक है ।) यज्ञमें गायत्रीकी प्रधानता है । क्योंकि ब्राह्मणका सार गायत्री है, इसलिये उपर्युक्त ब्रह्म भी माताके समान गुरुतरा गायत्रीको छोड़कर उससे उत्कृष्टतर किसी अन्य आलम्बनको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उसमें लोकका अत्यन्त गौरव प्रसिद्ध ही है । अतः गायत्रीके द्वारा ही ब्रह्मका निरूपण किया जाता है----  
बृहद्आरण्यक उपनिषद् में विशिष्ट ब्रह्म की उपासना जो बतलायी गयी है वह गायत्री ही है----

ॐ : तीन मात्राएँ :- अ उ म : चार पाद: --- विश्व(जागृत), तैजस (स्वप्न), प्राज्ञ (सुषुप्ति), तुरिय-- अपद ; इसका उपनिषदों में विस्तार से ज्ञान बतलाया गया है । 
भू:( प्राणस्वरूप), पृथिवी, अग्नि, ऋक्, मृत्युलोक । 
भुवः : -- (दुःख नाशक) , अंतरिक्ष, वायु (प्राण) , यजूंषि, पितृलोक। 
स्वः :-- (सुखस्वरूप) , द्योः, सामानि, आदित्य मंडल। 
"तत्सवितुर्वरेण्यं" : - ८ अक्षर, गायत्री का प्रथम पाद--- उपनिषद् में (भूमि, अंतरिक्ष, द्योः यह ८ आक्षर) 
"भर्गो देवस्य धीमहि" :- ८ अक्षर गायत्री का द्वितीय पाद , उपनिषद् में (ऋचः, यजूंषि, सामानि यह ८ अक्षर) 
"धियो यो नः प्रचोदयात्" : गायत्री का तृतीय पाद, उपनिषद् में ( प्राण, अपान, व्यान यह ८ अक्षर) 
   गय अर्थात् प्राण, त्र अर्थात् त्राण --- रक्षा, जो प्राणोंकी रक्षा करे वही गायत्री, 
   गायत्री का चतुर्थ पाद आदित्य स्वयं, इससे भी पर उस गायत्री का अपद स्वरूप--- जिसे नेति- नेति से सभी आवरणोंका प्रतिषेध करने के बाद भी उसका ज्ञान नहीं होता वही अपद गायत्री, 
  विषय अत्यंत गहन है, इसका अनुभव केवल साधनासे हो सकता है, तैरना सिखना है तो पानीमें गोता लगाना अनिवार्य है, केवल पुस्तक में बतलाया गया विधिसे पानीमें तैरना नहीं आता इसका यही तात्पर्य है; 

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