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महामुत्युंजय साधना ।।

''ॐ हौं जूँ सः । ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । स्वः भुवः भूः ॐ । सः जूँ हौं ॐ ''

         शास्त्रों के अनुसार 64 करोड़ प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग हैं। यह तो हुई शरीर एवं मानस के प्रति विपरीत स्थिति इसके अलावा जन्म लेते ही जीव को प्रकृति की विपरीत परिस्थितियाँ, देश, समाज और परिवार की भी विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियाँ झेलनी पड़ती हैं। एक जीव को इन सब विषम परिस्थितियों के अलावा दूसरे जीव या मनुष्य से भी प्रतिक्षण जीवन का खतरा बना रहता है। इस पर से दैवीय आपदायें भी मुँह बाये खड़ी रहती हैं। ऐसी स्थिति में सामान्य जीवन निर्वाह करना एक शरीर धारी मनुष्य के लिए अत्यंत ही विकट है। इतना विकट कि जीवन की प्रारम्भिक आवश्यकतायें ही पूरी करने में सारी ऊर्जा चली जाती है। साधना तो बहुत दूर की बात है। अनंत काल से परिस्थितियाँ प्रतिकूल बनी हुई हैं। मनुष्य को इन विपरीत परिस्थितियों में ही जीवन की पूर्णता प्राप्त करनी है। जीवन के प्रत्येक पक्ष को जीना है तो फिर ऐसी कौन सी साधना है, ऐसा कौन सा महाबल है, ऐसी कौन सी दिव्य शक्ति है जिसकी स्तुति से निर्धारित जीवन के क्षण हम पूरे कर सकते हैं। जीवन को पूर्णता प्रदान करने वाली एक ही महाशक्ति है और वह है शिव । अतः प्रत्येक साधक और व्यक्ति को भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन महामृत्युञ्जय आराधना अवश्य करनी चाहिए। आराधना के अंतर्गत महामृत्युञ्जय अनुष्ठान एवं महामृत्युञ्जय रूपी विस्तृत और समग्र चिंतन का होना नितांत आवश्यक है। प्रत्येक सद्गुरु अपने शिष्यों को सर्वप्रथम महामृत्युञ्जय साधना ही सम्पन्न करवाता है।

           साधरण जन महामृत्युञ्जय साधना का तात्पर्य यह समझते हैं कि अगर व्यक्ति अस्पताल में किसी कारणवश या दुर्घटनावश मृत्यु से संघर्ष कर रहा है तभी इसे सम्पन्न करनी चाहिए। यह आधा-अधूरा चिंतन है। यह स्थिति आग लगने पर कुँआ खोदने की प्रक्रिया के समान है। विवेक, बुद्धिमत्ता और ज्ञान का इस प्रकार के चिंतन में सर्वथा अभाव है। मैंने ऊपर कहा 64 करोड़ प्रकार के रोग होते हैं। सर्वप्रथम रोग क्या है? यह समझना चाहिए। रोगों का सीधा सम्बन्ध कर्म की श्रृंखला से जुड़ा हुआ है। मानव शरीर का सम्पूर्ण विकास एक परम चेतना के अंतर्गत पूरी तरह से नियंत्रित है। इस परम चेतना ने शरीर को इस प्रकार से निर्मित किया है कि कर्मों के अनुसार उसमें अतिशीघ्र परिवर्तन हो जाता है। सारी कोशिकायें कर्मों के अनुसार ही प्रारूप बदलती है। शक्ति संचालन की आंतरिक प्रक्रिया कर्मों के अनुसार ही निर्धारित होती है। यह परम व्यवस्था इतनी सूक्ष्म और दिव्य है कि इसी के कारण यह संसार चल रहा है। अगर एक क्षण के लिए भी परम चेतना के नियंत्रण से कर्म श्रृंखला हट जाये तो फिर जीव-जगत हमेशा के लिए समाप्त हो जायेगा। एक क्षण का असंतुलन अनंत वर्षों के जीव संतुलन को समाप्त करके रख देगा। कर्मों के अंतर्गत अनेकों जीवन के कर्म, सामूहिक कर्म, पैतृक कर्म, जीव की जाति विशेष के कर्म इत्यादि सभी कुछ आते हैं। रोग और निरोग इसीलिए सम्पूर्ण रूप से कर्म श्रृंखला पर आधारित है। 

             अब बात करते हैं खण्डित और अखण्डता की। आप कार्य शुरू करते हैं परन्तु लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही कार्य खण्डित हो जाता है, अचानक अवरोध आ जाते हैं। आपके लक्ष्य में सहयोगी कम होते हैं एवं अवरोध डालने वालों की संख्या ज्यादा होती है। आप साधना के पथ पर अग्रसर होते हैं तो सारा परिवार, पत्नी इत्यादि उसमें विघ्न डालने लगते हैं। कभी कभी आप पूरे जोर शोर से अध्यात्म के पथ पर अग्रसर होते हैं परन्तु कुछ ही महीनों बाद आप निस्तेज हो पुनः पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। इसे कहते हैं आध्यात्मिक यात्रा की अकाल मृत्यु । अर्थात यात्रा का खण्डित हो जाना। यात्रा सम्पूर्ण नहीं हो सकी तो फिर जीवन में अपूर्णता तो निश्चित है, मृत्यु भी पूर्ण नहीं होगी। अंतिम समय मे कुछ न कुछ मलाल रह जायेगा। अधिकांशतः व्यक्ति सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक दबाव के चलते मन- मसोसकर निराश हो जाते हैं। जीवन अत्यधिक उदासीन हो जाता है। जीवन जीने की शक्ति खत्म हो जाती है। इसे कहते हैं मृत्यु के मुख में जाने की तैयारी । मृत्यु के पाश से व्यक्ति का जकड़ जाना। इस पाश को तोड़ने के लिए पुन: आपको जरूरत पड़ेगी दिव्य महामृत्युञ्जय बल की। महामृत्युञ्जय बल ही वह दिव्य शक्ति है जिसके कारण जीव कहता है अभी कुछ बाकी है। अंधेरे में भी उजाले की प्रबल सम्भावना बनी रहती है। दिव्य महामृत्युञ्जय बल के कारण मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हुआ है। इसी बल ने उसे हिम्मत न हारने की इच्छा शक्ति प्रदान की असफलताओं को पीछे छोड़ते हुए सफलताओं तक पहुँचाया है। .

जिस मानव जाति ने महामृत्युञ्जय बल को आत्मसात किया वे सर्वश्रेष्ठ कहलाये हैं। जब मनुष्य ने सर्वप्रथम सुदूर अंतरिक्ष में यात्रा सम्पन्न करने ने की ठानी तो उसे सैकड़ों वर्ष अनुसंधान करने पड़े। पता नहीं कितने अंतरिक्ष यान या राकेट उड़ने से पूर्व ही फट गये। कितने मनुष्य और पशु यात्रा पथ में ही मारे गये, कई पीढ़ियों ने सामूहिक रूप से अनुसंधान किया तब कहीं जाकर मानव जगत ने चन्द्रमा पर साक्षात रूप से पैर रखने का सौभाग्य प्राप्त किया। महामृत्युञ्जय साधना को समझने के लिए आपको यात्रा को समझना होगा। चन्द्रमा पर पहुँचना यात्रा का प्रथम चरण है और पुनः अंतरिक्ष यात्री का पृथ्वी पर वापस लौटना दूसरा चरण है। इन दोनों चरणों के बीच अनेकों उपचरण हैं, अनेकों विषम परिस्थितियाँ में हैं, समस्याऐं है, अवरोध है इत्यादि इत्यादि कहने का तात्पर्य है कि प्रतिक्षण यात्रा के खण्डित होने का भय है। यात्रा एक चुनौती है। जीवन भी एक चुनौती है इसीलिए महामृत्युञ्जय बल यात्रा को निर्विघ्न समाप्त करने के लिए अति आवश्यक है। 

         साधक का तात्पर्य मात्र आध्यात्मिक साधक से ही नहीं लेना चाहिए। प्रत्येक अनुसंधान, प्रत्येक खोज, सभी कुछ साधकों की ही देन है। इनके पीछे भी निश्चित ही आध्यात्मिक बल है। साधक का सीधा तात्पर्य कर्मशील व्यक्ति से है। साधक भगवान श्री कृष्ण के अनुसार कर्मयोगी ही होते हैं। निखट्टु, कर्महीन एवं शेखचिल्ली के समान सोच वाले व्यक्ति साधक कदापि नहीं हो सकते चाहे वह आध्यात्मिक अनुसंधान हो या भौतिक अनुसंधान, साधना का पथ कर्मशीलता मांगता है। एकाग्रता मांगता है। असफलताओ अवरोधों एवं कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना हो महामृत्युञ्जय साधना है। निरंतरता के लिए अथक कर्म करने पड़ते हैं। इस संसार में जीवन को सुलभ बनाने के लिए की गई प्रत्येक खोज, शरीर को रोग मुक्त करने के लिए किया गया प्रत्येक अनुसंधान, चिकित्सा जगत का चर्मोत्कर्ष पर पहुँचना इत्यादि महामृत्युञ्जय साधना के अंतर्गत ही आता है। जिस भी क्रिया या कर्म से जीवन का बचाव होता है, जीवन की अवधि बढ़ती है वह महामृत्युञ्जय साधना का ही प्रतीक है। 

         महामृत्युञ्जय भगवान शिव का वह दिव्य बल है जो कि जीव को मृत्यु के मुख से प्रतिक्षण खींचता है। यह बल समय, काल एवं व्यक्ति अनुसार विभिन्न स्वरूपों में प्रकट होता है। आपके जीवन में ऐसे मनुष्य भी आ सकते हैं जो कि तोड़- तोड़कर आपको खा जायेंगे। आपकी ऊर्जा नष्ट कर देंगे। आपको धोखा देंगे, आपके साथ छल करेंगे, आपको भारी नुकसान पहुँचायेंगे। आपको कहीं का नहीं छोड़ेंगे। इसे कहते हैं आस्तीन में सांप पालना। भगवान शिव के मूर्ति रूपी विग्रह में इसीलिए सर्प भी शांत अवस्था में बैठे दिखाई पड़ते हैं। वे अधिष्ठाता हैं भूत-प्रेत, बेताल एवं अन्य जीवन को क्षति पहुँचाने वाली योनियों के। शिव ही इन सब नकारात्मक शक्तियों को नियंत्रित कर सकते हैं। अतः उनकी कृपा प्राप्ति के लिए प्रतिदिन महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप कीजिए। 

           प्रत्येक मनुष्य एक निश्चित ऊर्जा का स्वामी है। उसके पास ऊर्जा का एक निश्चित भण्डार है। ऐसी स्थिति में ऊर्जा का क्षय रोकना नितांत आवश्यक है। मनुष्य मनुष्य की ऊर्जा खा जाता है। जब तक ऊर्जा होती है चाहे वह किसी भी स्वरूप में हो ऊर्जा का शोषण करने वाले आपके पास मंडराते ही रहेंगे। जैसे ही ऊर्जा क्षीण होगी आप सब तरफ से त्याग दिये जायेंगे। अतः आपको ऊर्जा का अनुसंधान करना होगा। प्रतिक्षण आपको अपने शरीर में मौजूद दिव्य ऊर्जा केन्द्रों को खोजना होगा। संजीवनी विद्या समझनी होगी। पुनः मस्तिष्क को चैतन्य करने के विधान ढूंढने होंगे। ब्रह्माण्ड से अक्षय ऊर्जा प्राप्त करनी होगी। यह सब कलायें महामृत्युञ्जय साधना के अंतर्गत ही आती हैं। जिस प्रकार बहती हुई एक नदी अनेकों गुप्त स्त्रोतों से जल प्राप्त करती रहती है, वर्षा से भी जल प्राप्त करती रहती है, स्थान अनुसार स्वरूप परिवर्तन करती रहती है, कहीं पर भूमिगत हो जाती है, कहीं पर तीव्र हो जाती है तो कहीं गुप्त रूप से बहती है इत्यादि इत्यादि परन्तु यात्रा अविरल जारी रहती है। यही संजीवनी विद्या है। प्रतिक्षण पुनः जीवन प्राप्त करने की कला । मृत्यु को प्रतिक्षण भगाने की कला । ऐसा भी सम्भव है जब आपमें सक्रियता, चेतना का स्तर अत्यंत ही उच्च हो । 

          आपका शरीर पंचभूतों से निर्मित हो । इन पंचभूतों की आयु और संतुलन आपके जीवन का निर्धारण करेंगी। पंचभूत अगर विकार ग्रस्त होते हैं तो जीवन भी विकार ग्रस्त हो जायेगा । वायु प्रदूषित होगी तो श्वास भी प्रदूषित हो जायेगी । श्वास प्रदूषित होगी तो रक्त प्रदूषित हो जायेगा। इसी प्रकार प्रदूषित जल का सेवन शरीर को प्रदूषित कर देता है। संजीवनी विद्या के अंतर्गत विष का निष्कासन, मल का निष्कासन जीवन के प्रत्येक तल पर आवश्यक है। .

महामृत्युञ्जय का साधक अमरता प्राप्त करता है । अमरता भी है भूख लगती है तो हम भोजन करते हैं, प्यास लगती है तो हम जल पीते हैं, जब मस्तिष्क में प्यास होगी तभी तो जल पीयेंगे। इसी प्रकार अमरता के ख्याल आते हैं तो हम अमृतमय कोषों की तलाश करते हैं। तुलसीदास जी ने कहा है कि 

सकल पदारथ है जग माहीं । 
करम हीन नर पावत नाहीं ॥

         जो कुछ मस्तिष्क सोचता है वह इस जगत में निश्चित ही मौजूद है। जरूरत है तो सिर्फ उचित कर्मों को सम्पन्न करने की मृत्युञ्जयी साधक वही है जो कि अपनी इच्छानुसार मृत्यु को प्राप्त कर सकता है। वैसे तो सभी को यह अधिकार प्राप्त है। कुछ मूर्ख आत्महत्या भी करते हैं उन पर मैं यह विचार नहीं कह रहा हूँ। मेरा कहने का तात्पर्य है कि मृत्यु के अंतिम क्षण हमारी चेतना अनुसार हों। शरीर का त्याग हम उसी प्रकार करें जिस प्रकार महायोगी करते है। यह अमरता का प्रतीक है। चेतना से चेतना को मिलाने का अनुसंधान कठिन है पर असम्भव नहीं है। आप देखिए अनेकों जीवों में अंग कट जाने के पश्चात फिर से उग आने की प्रवृत्ति होती है। वृक्ष की एक डगाल टूट जाने पर पुन: नई शाखायें उग जाती है, प्रतिक्षण फल टूटते रहते हैं फिर भी वृक्षों का वंश तो समाप्त नहीं होता है। कुछ फल निश्चित ही बीज को उचित जगह पर रोपित कर देते हैं। प्रतिवर्ष आम के असंख्य फल मनुष्य भक्षण करता है, पशु-पक्षी भी खाते हैं परन्तु आम के वृक्ष भी प्रतिवर्ष सभी जगह ऊगते हैं। उनमें न्यूनता नहीं आती है। यही महामृत्युञ्जय बल है। 

         इस देश में पचास वर्ष पहले बीस करोड़ लोग थे तब भी श्वास लेते थे आज एक अरब से भी ज्यादा है फिर भी किसी को निःशुल्क श्वास लेने में कहीं कोई कठिनाई नहीं है। वायु तो कम नहीं हुई यही ईश्वर की लीला है। बीस करोड़ लोग पचास वर्ष पहले अकाल और भुखमरी से ग्रसित थे परन्तु एक अरब हो जाने पर भी अब अन्न कम नहीं पड़ रहा है। सभी को कम से कम एक वक्त का भोजन मिल ही जाता है। शिव की प्रौद्योगिकी अत्यंत ही परिष्कृत है। कहीं न कहीं वृक्ष में पत्तों के बीच एक न एक फल मनुष्य और पशुओं की आँखों से बचते हुए समस्त मौसमों की मार सहते हुए पूर्ण आयु अर्थात पकने के पश्चात ही स्वतः वृक्ष से विस्थापित हो नवजीवन सम्पन्न करता है जो फल वृक्ष से स्वतः ही सम्पूर्णता प्राप्त करने के पश्चात भूमि पर गिरता है उसी का बीज सर्वश्रेष्ठ होता है। वही एक स्वस्थ एवं सम्पूर्ण आयु को प्राप्त करने वाले वृक्ष को जन्म देने में सक्षम है। बाकी सब आधे अधूरे कर्मों को सम्पन्न करेंगे क्योंकि उसी फल ने सभी बाधाओं, अवरोधों और अकस्मात मृत्यु प्रदान करने वाले तत्वों को हराया है। उसने अपनी यात्रा निर्विघ्न समाप्त की है। वह स्वेच्छाचारी हैं। स्वेच्छा से वृक्ष का त्याग किया है। शिव स्वेच्छाचारी हैं। महामृत्युञ्जय बल स्वेच्छा का प्रतीक है। स्वेच्छा ही पूर्णता है किसी और की इच्छा या बल का प्रभाव यहाँ पर शून्य है। यही संजीवनी साधना का रहस्य है। 

         कितना भी मारने की कोशिश करो, मृत्यु प्रदान करने की कोशिश करो परन्तु हम मृत्यु को प्राप्त होने का कारण तुम्हें नहीं बनने देंगे। ऐसी सोच वाले ही शिव सानिध्य को प्राप्त करते हैं। शिव की रुद्रता यही है। यही श्रीकृष्ण का संदेश है। मृत्यु क्या है? मृत्यु टुकड़ों टुकड़ों में भी प्राप्त होती है। जीवन की अवधि बढ़ायी भी जा सकता है। आप 36 वर्ष की आयु को 50 वर्ष भी कर सकते हैं। इसके लिए निद्रा को कम करना होगा। बारह घण्टे सोने की अपेक्षा चार घण्टे में भी काम चला सकते हैं। ऐसा भी होता है। साधक के लिए यह नितांत आवश्यक है। प्रतिदिन व्यर्थ के मनुष्यों में बैठने की अपेक्षा अपनी इच्छानुसार कार्य कर सकते हैं। सफल व्यक्ति चाहे वह वैज्ञानिक हो, आध्यात्मिक साधक हो इत्यादि इत्यादि ऐसा ही करते हैं। अनेकों अनुपयोगी और निम्र कर्मों को सम्पन्न करने की अपेक्षा आप कुछ इच्छानुसार कर सकते हैं। साधक को ऐसा ही होना चाहिए। मूर्ख व्यक्ति टी.वी देखते हैं, समय व्यर्थ करते हैं, उनका भोजन घटिया मनोरंजन है इसके विपरीत ग्रह-नक्षत्रों पर अनुसंधान करने वाले रात्रि में ब्रह्माण्ड को निहारते हैं। वे जगत को कुछ नया प्रदान करते हैं। भीड़ तंत्र के पीछे भागने वाले भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं। जो स्वेच्छा पूर्वक जीवन बिताते हैं वह अनुसंधानकर्ता हैं। वही सच्चे साधक हैं। पुनः प्राप्ति की क्रिया सीखनी होगी। 

            आज से 60 - 70 वर्ष पूर्व चेचक का अत्यधिक प्रकोप था इसके कारण अनंत लोगों का असमय जीवन चला गया एवं जो बचे उनका रूप और सौन्दर्य चला गया। सारा शरीर बदनुमा दागों से ढँक गया। अगर जा सकता है तो प्राप्त भी किया जा सकता है। पुनः प्राप्ति होनी ही चाहिए। .

अब देखिए किसी का रूप और सौन्दर्य चेचक के कारण नहीं जाता। रोकने की कला तो हमने सीख ही ली प्राप्ति की कला भी सीखनी होगी। पहले समझो फिर साधना सम्पन्न करो। साधना बुद्धिजीवी को भी करनी चाहिए। कहीं बुद्धि मृत्यु का कारण न बन जाये। शिव से आपको अलग न कर दे इसलिए इतना सब कुछ कहना पड़ा। 

        सामान्य मनुष्यों और ईश्वर पुत्र के रूप में जीवन जीने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों की नियति में जमीन आसमान का फर्क होता है। सामान्य मनुष्य स्वयं के लिए जीता है तो वहीं उसके कर्म ही उसकी नियति निर्धारित करते हैं इसके विपरीत इस धरा पर ईश तत्व का प्रसार करने वाले ईश पुत्रों की नियति स्वयं भगवान शिव निर्धारित करते हैं।इनका जीवन मात्र प्राणी जगत को शिव सानिध्य में पुनः लाने के लिए ही होता है। ऐसे महापुरुष और ऋषिगणों की रक्षा के लिए भगवान सदैव तत्पर रहते हैं। उनके जीवन पर किसी भी प्रकार की आँच न आये, वे इस पृथ्वी के मायाजाल में भटककर समय व्यर्थ न गवा दें और कहीं अकाल मृत्यु को प्राप्त न कर लें इसके लिये शंकर प्रकृति में भी हस्तक्षेप करने से भी नहीं चूकते हैं क्योंकि इसी में प्राणियों का कल्याण छिपा हुआ है। इन्हीं महापुरुषों के जीवन से अनंत वर्षों तक हम प्रेरणा प्राप्त करते है। जो जीवन देता है वही जीवन को बढ़ाने की क्षमता भी रखता है।

        भगवान शिव नीलकण्ठ हैं वे समस्त जगत का विष-पान कर इस जगत को जीवन प्रदान करते हैं, वे ही भूत भावन हैं उनके अंदर विष भी अमृत में बदल जाता है। महामृत्युञ्जय मंत्र भगवान शिव की उस विलक्षण शक्ति को मनुष्यों की चेतना में स्थापित करता है जिसके द्वारा वे अपना जीवनकाल सम्पूर्णता के साथ सम्पन्न कर सकते हैं। इसी विद्या को संजीवनी विद्या कहा गया है। महामृत्युञ्जय मंत्र के प्रचारक मार्कण्डेयजी नामक ऋषि रहे हैं उन्होंने ही इस मंत्र को आत्मसात कर जन-जन में प्रसारित किया है। वे भगवान शिव के परम भक्त रहे हैं और शंकर जी ने उनकी निष्काम भक्ति से प्रसन्न हो उन्हें सभी लोकों के दर्शन कराये हैं एवं वरदान में कलपान्त तक अमर रहने और पुराणाचार्य होने का वरदान दिया है। मार्कण्डेय पुराण के उपदेशक मार्कण्डेय मुनि ही हैं। 

          पदम पुराण उत्तर खण्ड के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि के पिता मुनि मृकण्डु ने अपनी पत्नी के साथ घोर तपस्या कर के भगवान शिव को प्रसन्न किया था। उन्हीं के वरदान स्वरूप मार्कण्डेय जी को पुत्र रूप में प्राप्त किया था परन्तु भगवान शंकर ने उनकी आयु 16 वर्ष निर्धारित कर दी थी। अतः जैसे ही मार्कण्डेय जी ने 16 वें वर्ष में प्रवेश किया उनके पिता व्यथित हो उठे। पुत्र के द्वारा पूछे जाने पर पिता ने मार्कण्डेय जी के सामने वास्तविकता प्रकट कर दी। इस पर मार्कण्डेय जी ने अपने पिता को समझाते हुये कहा कि आप चिंता न करें मैं भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिये घोर तपस्या करूँगा जिससे कि मेरी मृत्यु हो ही नहीं और इस प्रकार माता-पिता की आज्ञा लेकर मार्कण्डेय जी दक्षिण समुद्र के तट पर चले गये ओर वहाँ विधि पूर्वक शिवलिङ्ग की स्थापना कर के महामृत्युञ्जय मंत्र का जाप करने लगे। उनके द्वारा जप किया जा रहा मंत्र इस प्रकार है 

''ॐ हौं जूँ सः । ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् । उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । स्वः भुवः भूः ॐ । सः जूँ हौं ॐ ''

    यह सम्पुट युक्त मंत्र है। यही मंत्र आगे चलकर जन मानस में महामृत्युंजय मंत्र के नाम से विख्यात हुआ। समय पर काल आ पहुँचा मार्कण्डेयजी ने काल से कहा मैं शिवजी का मृत्युंजय स्तोत्र से स्तवन कर रहा हूँ, इसे पूरा कर लूँ, तब तक तुम ठहर जाओं काल ने कहा ऐसा नहीं हो सकता। तब मार्कण्डेय जी ने भगवान शंकर के बल पर काल को फटकारा। काल ने क्रोध में भरकर ज्यों ही मार्कण्डेय को हठपूर्वक ग्रसना चाहा, त्यों ही स्वयं महादेवजी उसी लिङ्ग से प्रकट हो गये। हुँकार भरकर मेघ के समान गर्जना करते हुए उन्होंने काल की छाती में लात मारी। मृत्यु देवता उनके चरण-प्रहार से पीड़ित होकर दूर जा पड़े। .

                        शिव शासनत: शिव शासनत:

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