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सिंहासन बत्तीसी ।।

             अंग्रेजी केलेण्डर के हिसाब से समय को ईसा के जन्म से नापा जाता है अर्थात 2001 का तात्पर्य आज से 2000 वर्षे पूर्व ईसा का जन्म हुआ था। अब जिनकी बुद्धि अंग्रेजी केलेण्डर में अटक गई है उनके हिसाब से तो विश्व का इतिहास 2000 वर्ष पुराना है। कुछ थोड़े ज्यादा ज्ञानी हो गये वे ईसा के जन्म से सौ वर्ष पूर्व 200 वर्ष 500 वर्ष पूर्व के हिसाब से गणना करते हैं। वर्तमान भारतीय पद्धति के अनुसार विक्रम सम्वत् चलता है अर्थात विक्रमादित्य समय की पहचान बन गये हैं। वैसे विक्रमादित्य से पहले भी भारतीय समय अत्यंत ही विकसित रहा है विक्रमादित्य कई हुए हैं प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ राजवंश की परम्परा अनुसार विक्रमादित्य उज्जैयिनी के राजा हुए हैं उनके दरबार में सर्वप्रथम नौ रत्नों के रूप में एक से बढ़कर एक मनीषी प्रतिष्ठित रहे हैं। वे अत्यंत ही न्याय प्रिय राजा थे। महाकवि कालीदास उन्हीं के नौ रत्नों में से एक थे। राजा होना और वह भी उज्जैन का बस यही मेरे लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उज्जैन में साक्षात् महाकाल विराजमान हैं। 

                कालों से परे महाकाल। उज्जैन का आज भी यह रिवाज है कि अगर सिन्धिया परिवार का कोई वंशज उज्जैन आता है तो वह रात्रि में वहाँ निवास नहीं करता क्योंकि वहाँ के महाराजाधिराज सम्राट तो महाकाल ही हैं। पिछली कुछ शताब्दियों से उज्जैन सिंधिया राजवंश के अंतर्गत आता था। प्रत्येक राजवंश ने उज्जैन को पूर्ण सम्मान दिया है। किसी राजवंश में इतनी ताकत नहीं है कि वह महाकाल को चुनौती दे और जो चुनौती देगा उसका नाश तो निश्चित है, उसका निष्कासन तो निश्चित है। जो महाकाल के द्वारा शापित हो, गुरु के द्वारा निष्कासित हो वही अब गद्दी पर विराजमान है लोग उसी के चरण धोकर पीते हैं। उलट राज राजेश्वरी विद्या इस कलयुग में चल गयी है। 

          कहने का तात्पर्य यह है कि उज्जैन का शासक बनना महाकाल की कृपा के बिना सम्भव नहीं है। विक्रमादित्य उज्जैन के शासक थे। उन्हें वेताल सिद्धि थी वीरता और धर्म निरपेक्षता में उनका कोई सानी नहीं था। बचपन में वे गाय चराते थे गाय चराते चराते जब उनकी गाय एक टीले पर पहुँचती तो अचानक ही थनों से दुग्ध की धारा बहने लगती। बालक विक्रम इस टीले पर बैठ जाते और फिर राजा के समानं न्याय करने लगते। उनके हाव-भाव और भंगिमा किसी भी सम्राट से कम नहीं होती थी। इस टीले के नीचे ही गड़ा हुआ था अद्भुत सिंहासन बत्तीसी जिसमें बत्तीस प्रतिमाऐं अंकित थी। बत्तीस योगिनियों की प्रतिमाऐं। यह जादुई, चमत्कारी और पूर्ण तांत्रोक्त सिंहासन था। इस पर बैठते ही विक्रमादित्य शक्ति से सम्पुट हो जाते थे उनके न्याय एवं निर्णय का कोई सानी ही नहीं होता था। 

           बत्तीस योगनियाँ अर्थात बत्तीस मातृ शक्तियाँ सिंहासन को इस तरह से सम्हाली हुई थी जैसे कि हैदराबाद के निकट कृष्णा नदी के समीप बना श्री शैलम ज्योतिर्लिङ्ग। इस ज्योतिर्लिङ्ग की विशेषता यह है कि यहाँ पर शिवलिङ्ग का स्थान अलग है एवं माता पराम्बरा का मंदिर करीब, शिवलिङ्ग से तीन सौ फिट की दूरी पर स्थित है। प्रतिदिन शिवानुष्ठान के बाद शिवजी की बारात माता पराम्बरा के मंदिर में जाती हैं और फिर वे वहीं उनके साथ निवास करते हैं इसीलिए इसका नाम श्री शैलम पड़ा है। द्वादश ज्योतिर्लिङ्गों में एक ही जगह श्री शैलम में शिव और पराम्बरा एक साथ निवास करते हैं। शिव जाते हैं पराम्बरा के पास माता पराम्बरा का मंदिर अत्यंत ही मन को मोह लेने वाला है। हूबहु श्रीयंत्र के समान चौंसठ मातृका शक्तियाँ इस मंदिर के गुम्बज तक अंकित हैं। इतनी अद्भुत और चैतन्य मातृका शक्तियों के विग्रह हैं कि मैं देखता ही रह गया। अतुलनीय एवं दैवीय सौन्दर्य से युक्त आँखें ही नहीं हटतीं और बीच गर्भगृह में शिव और पराम्बरा निवास करते हैं। इसी से मिलता-जुलता सिंहासन बत्तीसी का भी निर्माण हुआ था। एक योगिनी शक्ति जब इतना प्रचण्ड कार्य कर सकती हैं, जीवन को बदलकर रख सकती है, एक योग से जीवन की धारा ही बदल जाती है तब आप सोचे कि अगर बत्तीस योगनियाँ शक्तियाँ एक साथ मिलकर अगर योग करेंगी तो परिणाम कितने चमत्कारिक होंगे। उस पर बैठा व्यक्ति कितना शक्तिशाली हो जायेगा। 

         विशुद्धानंद जी ने भी बाद में सिंहासन बत्तीसी से प्रेरणा लेकर अपने आश्रम में एक अद्भुत प्रस्तर के आसन की संरचना की थी। आज भी यह सिंहासन मौजूद है। इस पर बैठते ही मस्तिष्क अध्यात्म की दुनिया में प्रविष्ट हो जाता है। जितने भी ज्योतिर्लिङ्गों का निर्माण हुआ है वह ऐसे ही नहीं हो गया। शिव और पराम्बरा स्थापना के लिए जिस भुवन का निर्माण किया जाता है वह चौंसठ योगिनीयों की शक्तियों के योग का ही प्रतिफल होता है। जब तक चौंसठ मातृकाऐं शक्तियाँ एक स्थान पर योग नहीं करेंगी तब तक शिव स्थापना सम्भव ही नहीं है । .

अगर उचित वास्तु शास्त्र एवं उचित योगिनी शक्तियों के अभाव में कोई व्यक्ति मंदिर निर्माण, गृह निर्माण या फिर अपने व्यापार व्यवसाय के कक्ष इत्यादि में बैठता है तो उसे अत्यंत ही तकलीफें होती हैं,उसकी कुर्सी अभिशप्त हो जाती है। प्रधान मंत्रियों की सत्ता गिर जाती है, मुख्य मंत्री सड़कों पर घूमते हैं। यही रहस्य है सिंहासन बत्तीसी का कुर्सी या गद्दी इस पृथ्वी की सभी सभ्यताओं में मनुष्य को प्रचण्ड शक्ति प्रदान करती है। पदविहीन व्यक्ति की कोई पूछ नहीं है, उसका कोई प्रमाणीकरण नहीं है। गद्दी पूजी जाती है, गद्दी जीवित जागृत और चैतन्य होती है। वह लात मारकर गिरा देती है। किसी और को अपने ऊपर बिठा लेती है, गद्दी गई व्यक्ति का मान खत्म।अतः गद्दी की प्राण प्रतिष्ठा को स्वीकार करना ही होगा। 

           मनुष्य को बैठना आता है बस एकमात्र छोटी सी बैठने की विद्या ने सर्वशक्तिमान बना दिया अन्य कोई प्राणी बैठ ही नहीं पाता परन्तु मनुष्य घण्टों वर्षों बैठा रह सकता है। बड़े-बड़े योगी और सिद्ध भी अपने आसन, अपने कक्ष एवं अपनी कुर्सी पर किसी को बैठने नहीं देते क्योंकि वे गद्दी की महिमा जानते हैं। जो गद्दी पर बैठ गया उसके आगे तो सारा देश झुकेगा ही। भले ही वह मूर्खाधिराज क्यों न हो। किसमें इतनी ताकत है जो गद्दी की शक्ति को नकार सके। शक्तिहीन को भी शक्ति शाली बनाती है गद्दी और शक्तिशाली को शक्तिहीन बनाती है गद्दी । वैसे तो कुर्सी स्वयंभू प्रतीक है चौंसठ योगिनी शक्तियों का परन्तु अगर जानकार एवं सिद्धं व्यक्ति उचित तरीके से कुर्सी को प्राण प्रतिष्ठित कर लें।उसे चौंसठ योगिनी की शक्ति से सम्पुट कर ले तो उसे चमत्कारिक परिणाम तुरंत मिल जायेंगे। सिंहासन की अपनी मर्यादा है। तिब्बत के लामा जिस सिंहासन पर बैठते थे उसे कोई, स्पर्श नहीं कर सकता।उसके सामने प्रत्येक व्यक्ति को पहुँचकर सर्वप्रथम झुकना पड़ता है। कोई भी व्यक्ति पीठ दिखाकर प्रस्थान नहीं करता। वैसे भी मूर्तियों एवं मंदिरों से बाहर निकलते समय भक्तजनों को पीठ मूर्ति के सामने नहीं करनी चाहिए, न ही किसी गुरु के दरबार में पीठ दिखाकर बाहर जाना चाहिए अन्यथा अवमानना हो जायेगी और काम होते रुक जायेंगे।

             गुरु भी कुर्सी की मर्यादा के प्रति प्रतिबद्ध हैं। कुर्सी के नियमों की अवमानना नहीं करनी चाहिए जो कुर्सी जिस कार्य के लिए मिली है उस पर विराजमान हो वही कार्य सम्पादित करना चाहिए। आसन सिद्धि अति महत्वपूर्ण है। आप अपने व्यापार व्यवसाय या कार्य क्षेत्र में उपयोग आने वाली गद्दी को पूरा सम्मान दीजिए।उसकी मर्यादाओं का कठोरता के साथ पालन कीजिए।किसी अन्य की कुर्सी पर मत बैठिए। न ही किसी अन्य को अपनी कुर्सी पर बैठने दीजिए।कुर्सी की स्थापना अमृत सर्वार्थ सिद्धि योग में ही करनी चाहिए।कुर्सी इत्यादि में आध्यात्मिक दृष्टिकोण से धातु का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए,न प्लास्टिक इत्यादि का।कुर्सियाँ बार-बार नहीं बदली जाती।कुर्सी बदलने से त्वरित परिणाम आते हैं।कुछ व्यापार व्यवसाय कुर्सी बदलने के कारण ठप्प हो जाते हैं।नई कुर्सी पर ऊटपटांग निर्णय हो जाते हैं लेने के देने पड़ जाते हैं। मैं ऐसे बहुत से सफल व्यक्तियों को जानता हूँ जो विगत चालीस वर्षों से एक ही कुर्सी पर बैठ रहे हैं, वे कुर्सी को माता की गोद के समान सम्मान देते हैं।वास्तव में कुर्सी माता की गोद ही है।माता की गोद ही पुत्र के लिए सुख प्राप्ति का सबसे उत्तम स्थान है।अन्यों की गोद सुख कम कष्ट ज्यादा देगी।कुर्सी को मातृ भाव से देखना चाहिए,उसका आदर और पूर्ण सम्मान करना चाहिए। 

          व्यापार व्यवसाय की सफलता हेतु अति उच्चकोटि का पारद श्रीयंत्र या फिर स्फटिक श्रीयंत्र गुरु के हाथों से प्राप्त कर अपने व्यापार कक्ष में अवश्य स्थापित करना चाहिए। पूजा कक्ष,व्यापार कक्ष हो,नौकरी का कक्ष हो सभी जगह श्री की उपस्थिति अनिवार्य है। बहुत से तांत्रिक प्रयोग होते हैं कुर्सियों पर।उल्लू की पूंछ अभिमंत्रित करके कुर्सी पर डाल दी जाती है। शाही का काँटा उच्चाटन मंत्र से प्राणप्रतिष्ठित कर कुर्सी में गाढ़ दिया जाता है बैठने वाले को घोर उच्चाटन हो जाता है।वह अपनी कुर्सी पर बैठ ही नहीं पाता है।तंत्र तो चलते ही रहते हैं जब मंदिर अपवित्र कर दिए जाते हैं तो फिर कुर्सी की क्या बात।कुर्सी छिनने से वही दुःख होता है जितना कि एक बालक को माता की गोद से विमुख होने पर होता है।आदमी तिलमिला कर रह जाता है। ईश्वर न करे किसी की गद्दी छिने।कुर्सी को भी उसके ऊपर बैठने वाले से उतना प्रेम होता है जितना कि माता को अपने बालक से। बस यही भाव कुर्सी और उस पर बैठने वाले दोनों को आनंदित करते हैं और उनके सम्बन्ध चिरस्थाई बनाये रखते हैं। कुर्सी को प्राण-प्रतिष्ठित करने की क्रिया,उसे सिद्ध करने की क्रिया फिर कभी आगे लिखूंगा अभी इतना ही काफी है.

                   शिव शासनत: शिव: शासनत

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