शिव नगरी काशी से एक विशेष शिव पंचाग प्रकाशित होता है जिसमें तिथि अनुसार शिवाभिषेक का महत्व वर्णित होता है। शिव-वास विचार नाम इस पंचांग में यह देखा जाता है कि विशेष तिथि पर शिव का वास कहाँ है? शिव श्मशान में हैं तो उस समय विशेष शैवानुष्ठान आयोजित करने पर मृत्युतुल्य कष्ट होता है, शिव अगर क्रीड़ा में हैं तो शैवानुष्ठान करने पर संतान को संताप होता है, शिव अगर सभागार में हैं तो उस समय शैवानुष्ठान करने परं शारीरिक कष्ट होता है, शिव अगर पार्वती सानिध्य में हैं तो शैवानुष्ठान सुख समृद्धि देने वाला होगा, शिव अगर वृषभ पर आरूढ़ हैं तो शैवानुष्ठान के द्वारा विजय प्राप्ति होती है, शिव अगर हिमालय पर हैं तो शैवानुष्ठान सुख की वृद्धि करता है, शिव अगर ध्यान में हैं तो शैवानुष्ठान सिद्धियों को साधक के चरणों में डाल देता है इत्यादि इत्यादि। यह उच्च स्तर का शैव चिंतन है एवं यह उनके लिए है जिन्होंने शिव ज्ञान में पारंगतता हासिल कर ली है, जिनकी संज्ञा में शिव तत्व की संवेदनशीलता रूप ले चुकी है परन्तु अगर नियमित रूप से ज्योतिर्लिङ्गों पर या विशेष शैव स्थान पर अनुष्ठान इत्यादि होता है तो उपरोक्त पंचांग को महत्व नहीं दिया जाता। नूतन शिवलिङ्ग की प्राण-प्रतिष्ठा व्यक्ति विशेष के नाम से किया जा रहा महामृत्युञ्जय अनुष्ठान इत्यादि में शिव पंचांग के दृष्टिकोण का अत्यंत ही सटीक महत्व है।
अनुष्ठान तंत्र क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं अतः त्रुटियां न हों इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए । दीक्षाएं, रुद्राक्ष धारण इत्यादि में परिणामों की तीव्रता शिव-वास विचार पर अत्यधिक निर्भर करती है। शिवरात्रि वह दिन है जब शंकर का दरबार खुला होता है, सारे नियम शिथिल होते हैं, ब्रह्माण्ड मण्डल स्थित समस्त शक्तियाँ शिवार्चन में लीन होती हैं, ब्रह्माण्ड का एक-एक अणु एवं परमाणु से भी अल्प कण शिवत्व से परिपूर्ण होता है। इस दिन की गई साधना, इस दिन मांगी गई मनोकामना, इस दिन प्राप्त की गई दीक्षा, इस दिन शिवलिङ्ग का स्पर्श, शिवलिङ्ग का स्थापन एवं शिवार्चन असंख्य गुना फल देने वाला होता है। सम्पूर्ण सृष्टि में केवल शिव ही चलते हैं, यह है शिवरात्रि महात्म्न ।
प्रभु श्रीराम लक्ष्मण के साथ जलती चिता में सीता के वियोग में दुःखी हो आहूत होने जा रहे थे। विष्णु अवतार आज पूर्ण रूप से मनुष्य हो गया था । मानुषिक प्रवृत्तियों के वेग ने श्रीराम के मस्तिष्क को कुण्ठित कर दिया था, वे स्वयं की दिव्यता को कुछ क्षण के लिए तिरोहित कर चुके थे। यह विडम्बना है, यह दोष है परम शक्तियों के पंचभूतीय जीव शरीर धारण करने का, मस्तिष्क ग्रहण करने का । जब भी अवतार होते हैं परम शक्तियों को भी मनुष्य रूपी पंचभूतीय शरीर धारण करना पड़ता है जिसके ऊपर मस्तिष्क आकार लिए हुए होता है। मानव शरीर की अपनी निश्चितताएं हैं ठीक वैसे ही जैसे कि अगर हमें वायुयान में बैठा दिया जाय तो हमारी 90 प्रतिशत शरीरिक क्रियाएं बाधित हो जायेंगी। हम दौड़ नहीं सकते, हम सीधे सो नहीं सकते, हम चल फिर भी नहीं सकते, हम बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि हम एक निश्चित, सीमित आकृति के अंदर आबद्ध हो गये हैं। हमें उस आकृति की न्यूनताओं, अल्पताओं और सीमितताओं के साथ स्वयं को अनुशासित करना होगा। लम्बे समय तक इस प्रकार की स्थिति में रहने से हमें हमारी मूलभूत शक्तियों को कुछ देर के लिए तिरोहित करना ही पड़ेगा । मनुष्य पृथ्वी पर उत्पन्न नहीं हुआ है, मनुष्य पृथ्वी पर स्थानांतरित किया गया है, मनुष्य पृथ्वी पर रोपा गया है केवल कार्य विशेष के लिए। पृथ्वी मनुष्य की अंतिम और पहली भूमि भी नहीं है। आने वाले युगों में मनुष्य को पृथ्वी से स्थानांतरित भी किया जा सकता है, मनुष्य को किसी और जगह पर भी बसाया जा सकता है, यही शिव उवाच है, यही शिव का महात्न हैं।
मेरे हाथ पर एक मच्छर बैठ रहा था, मैंने मार दिया। क्यों मारा? मेरी मर्जी । मारना था, मार दिया। यही शिव भाव है। मैं शिवार्चन करता हूँ, लिंगार्चन करता हूँ- बुद्ध या महावीर की उपासना नहीं करता, कृत्रिम अहिंसा को नहीं ओढ़ता, कृत्रिमता में नहीं जीता। महाकाल मेरा ईष्ट है। प्रलय क्यों होगा? कब होगा ? क्या कारण है प्रलय के ? किसी को नहीं मालूम। प्रलय क्यों हुए हैं? किसी को नहीं मालूम। यह शिव का क्षेत्र है। एक क्षण में या क्षण के करोड़वे हिस्से में सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, ग्रह, तारे, आकाश, पाताल, देवलोक, नागलोक, समस्त ब्रह्माण्डं मण्डल को शिव रच देता है। क्यों रचा ? उसकी मर्जी । किसी की हिम्मत नहीं पूछने की, क्यों समस्त जगत को सेकेण्ड के करोड़वे हिस्से में मिटा देगा? यह भी शिव की मर्जी ।
कोई जवाब सवाल नहीं, कोई सफाई नहीं, कोई कारण नहीं, कोई क्षोभ नहीं। मिटाना है तो मिटा दूंगा, पुनः निर्मित करना है तो निर्मित कर दूंगा। प्रलय के लिए न शिव किसी से राय लेते हैं, न कारण ढूंढते हैं क्योंकि यह उनका क्षेत्र है और न ही किसी में हिम्मत है उनसे कारण पूछने की क्योंकि वे कारणों के भी कारण हैं उनकी मर्जी चलती है। शैव चिंतन सबसे अलग है, शिव के आगे किसी की नहीं चलती, उनकी क्रियाएं विचारों, कारणों, चिंतन, बुद्धि, मन इत्यादि सबसे परे हैं। मुझे क्षमा करना हे शिव कहीं शिव गीता तो नहीं खोल दी क्योंकि शिव गीता ब्रह्माण्ड का सबसे गोपनीय तंत्र है।
जैसे ही राम चिताग्नि में चढ़ने के लिए उद्धत हुए अगत्स्य मुनि आ पहुँचे बोले आप यह क्या कर रहे हैं? एक स्त्री के लिए विष्णु अवतार को आहूत करने जा रहे हैं, नाना प्रकार से प्रभु श्रीराम को समझाया परन्तु श्रीराम बोले मुनि मेरा शोक कम नहीं हो रहा है, मेरा अशांत चित्त शांत ही नहीं हो रहा तब अगत्स्य ने श्रीराम को उसी क्षण शिव की शरण में जाने के लिए कहा एवं तुरंत उन्हें विरजा दीक्षा दी एवं शिवार्चन की विशेष विधि बता दी। श्रीराम लक्ष्मण सहित व्याघ्र चर्म धारण कर शिवार्चन में लीन हो गये तभी ब्रह्माण्ड मण्डल से तेजोमय ज्योर्तिपुंज का प्रादुर्भाव हुआ। देवाधिदेव महादेव पार्वती सहित वृषभ पर आरूढ़ राम के समीप आ पहुँचे एवं प्रभु श्रीराम को तुरंत अपनी गोद में उठाया और तेजोमय रथ पर सवार हो अंतरिक्ष में अंतरध्यान हो गये, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कृष्ण ने अर्जुन को रथ पर बिठाकर श्रीमद्गीता का संदेश दिया था उसी प्रकार शिव ने स्वयं प्रभु श्रीराम को शिव गीता प्रदान कर दी अर्थात शिव ने अपने मुख से विष्णु के सामने आज शिव रहस्य खोले एवं शिव के विराट स्वरूप का दर्शन कराया, तत्व का बोध कराया । प्रभु श्रीराम के महामाया से ग्रसित मस्तिष्क को योग माया से काटकर शिव वैभव के दर्शन कराये, परम सत्य से परिचित करवाया उन्हें पाशुपतास्त्र, अघोरास्त्र, कालिकास्त्र, चण्डिकास्त्र, ब्रह्मास्त्र इत्यादि प्रदान कर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अजेय योद्धा बनाया महामाया अलग हैं, योगमाया अलग है। शिव ने योग माया, महामाया से अलग की हैं।
शिव के पास योग है, वे योगियों के भी योगेश्वर और योगेश्वरों के भी ईष्ट हैं। योगमाया के माध्यम से ही महामाया का भेदन सम्भव है। योगमाया, शिव गीता के अंतर्गत निहित हैं। स्कन्द ने सर्वप्रथम शिव गीता सनत् कुमार को प्रदान की, सनत् कुमार ने कालान्तर यही शिव गीता सूत जी को प्रदान की परन्तु शिव ने कह दिया कि इसे परम गोपनीय रखना। इसे शिव उन्हीं को प्रदान करते हैं जिनसे उन्हें कार्य लेना होता है, जिन्होंने कि शिव की विशेष कृपा प्राप्त कर ली हो अन्यथा शिव गीता बाजार में उपलब्ध नहीं है, यह गोपनीय है, इसे महादेव ने गोपनीय किया है। महर्षि व्यास ने सोलह पुराण लिखे हैं पता नहीं कितने ग्रंथ, उपनिषद इत्यादि भगवान व्यास ने रचित किये हैं। व्यास मुनि परेशान थे कि किस प्रकार ग्रंथों का निर्माण करूं, कैसे शिव वाणी को उच्चारित करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा था बस काशी पहुँचे और व्यासेश्वर शिवलिङ्ग की स्थापना की एवं शिव ध्यान में डूब गये। समय बीतता गया एक दिन भगवान विश्वनाथ अन्नपूर्णा सहित आ पहुँचे। व्यास के कण्ठ को छुआ, उनके हाथों को स्पर्श किया और अचानक ज्ञान गंगा फूट पड़ी, शब्द धारायें बनकर बहने लगे। व्यास जी सीधे बद्रीनाथ की हिम गुफाओं में जाकर बैठ गये और एक-एक करके सनातन धर्म के अनेकों ग्रंथ रच डाले।
शिव ने कहा और पार्वती ने सुना, यही आगम विज्ञान है। शिव के मुख से शिव रहस्य केवल पार्वती के कानों को संतुष्ट करने के लिए ही उच्चारित होतें हैं। शिव और पार्वती के मध्य हुए संवाद से ही शिव रहस्य इस ब्रह्माण्ड में आज तक खुले हैं एवं इन दोनों की कृपा से ही व्यास मुनि ने उन दिव्य शिव आवृत्तियों को ग्रहण कर ग्रंथों के रूप में लिपिबद्ध किया जिसे शिव गीता प्राप्त होने वाली होती है उस पर ब्रह्माण्ड की सभी देव शक्तियाँ कुपित हो जाती हैं। जैसे ही साधक शिव गीता प्राप्ति हेतु प्रयत्न करता है देव शक्तियाँ, मनुष्य शक्तियाँ, असुर शक्तियां, यक्ष, किन्नर इत्यादि उसे परेशान करने लगते हैं, इन्द्र थर्रा उठता है क्योंकि शिव गीता मिल गई तो जीव मनुष्य बन जायेगा । पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता और देवता से जैसे ही वह शिव गण की परिधि में आने लगेगा महामाया से सम्बन्धित शक्तियाँ भी उसकी घोर विरोधी हो जाती है क्योंकि यह तो मनुष्य का महापरिवर्तन हो गया। उसने मानव मण्डल, जीव मण्डल, उपदेवता मण्डल, असुर मण्डल, ग्रह मण्डल, सूर्य मण्डल के साथ-साथ महामाया के चक्र का भी भेदन कर डाला।
कौन भेदन होने देगा अपना ? कौन अपना अस्तित्व खोना चाहेगा? कौन किसको उठते देखना चाहता है ? कोई नहीं। कौन अपने भेद खोलना चाहता है ? कौन अपने आवरण इस ब्रह्माण्ड में हटने देना चाहता है ? कौन अपने गुलाम को मालिक बनने देना चाहता है ? कल तक जो तुम्हारे दरवाजे । पर नतमस्तक हो रहा था, तुम्हें प्रणाम कर रहा था, तुम्हारी आज्ञा का पालन कर रहा था, तुम्हारे सामने सिर झुकाये खड़ा था, तुम्हारे भय से थर्रा रहा था, तुम्हारे कोप को नहीं झेलना चाह रहा था आज उसी के सामने तुम थर्रा रहे हो, तुम्हारा मस्तक झुका हुआ है, तुम उसे सम्मान दे रहे हो। इस तरह की विपरीत स्थिति भला इन्द्र देखना चाहेंगे? क्या मनुष्य देखना चाहेगा? आपके मित्र देखना चाहेंगे? क्या देवी शक्तियाँ देखना चाहेंगी? भूत-प्रेत और यक्ष या ऋषि मुनि इत्यादि किसी के भी हृदय इतने विशाल नहीं हैं, देवताओं के भी हृदय इतने विशाल नहीं रहे अतः यही कारण है कि योगियों का तो विरोध होता ही है, उनके पीछे तो लोग पड़े ही रहते हैं, मेरा भी व्यक्तिगत यही तर्जुबा है। लोग पचा नहीं पा रहे हैं मुझे। कल तक जो साथ थे वे ही विरोध करते हैं। बस इशारा ही काफी है इसीलिए शिव गीता इस ब्रह्माण्ड की सब से परम गोपनीय ग्रंथ है जिसे मिल गया, जिस पर शिव कृपा हो गई हो गई। कोई नियम नहीं, महादेव नियमों से परे हैं, महादेव का अर्चन भी नियमों से परे है।
एक चोर था, चोरी उसका कर्म था। उसने देखा कि शिवलिङ्ग के ऊपर एक धातु का घण्टा बंधा हुआ है वह तुरंत ही शिवलिङ्ग के ऊपर खड़ा हो गया और घण्टा चुराने लगा बस महादेव जागृत हो उठे, साक्षात् उसके सामने प्रकट हो गये। महादेव बोले लोग मेरे ऊपर कुछ धन चढ़ाते हैं, कुछ जल अर्पित करते हैं, कुछ फल फूल वा पत्ती इत्यादि चढ़ाते हैं पर तूने तो अपना सर्वस्व ही मुझे न्योछावर कर दिया, स्वयं को मुझे अर्पित कर दिया अतः मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हुआ, तुझे शिव लोक में स्थानं देता हूँ। अब कौन सा नियम ? शिव पूजा में, यही तो शिव की गोपनीयता है। शिकारी राजा का पुत्र तिण्ण अपने मित्रों के साथ शिकार करने निर्जन वन में गया, एक सुअर का शिकार किया तभी जोरों की प्यास लगी। उसके मित्रों ने कहा थोड़ी दूरी पर एक जलाशय है वही चलते हैं। तिण्ण ने जलाशय पर जाकर प्यास बुझाई और ऊपर पहाड़ी पर जाकर देखता है कि एक शिव मंदिर बना हुआ है। उसके मित्रों ने कहा इस निर्जन स्थान पर बस एक ब्राह्मण पता नहीं कैसे उल्टे सीधे शब्द बोलता हुआ शिव की रोज पत्तों, ठण्डे जल और फूल इत्यादि से पूजा अचना करता है।
तिण्ण के पाँव अपने आप मंदिर की ओर खिंचने लगे। वह जैसे ही मंदिर में पहुँचा उसका प्रेम महादेव पर उमड़ आया, वह वशीभूत हो गया एवं बोला हाय इतने सुन्दर देवता और उनके ऊपर कोई मूर्ख जल डालता है, पत्तों से ढकता है, इन्हें भोजन भी नहीं कराता । वह लिपट गया शिव से, उसका मन रम गया शिव में तुरंत जंगली सुअर का मांस पकाया, मुख में पानी भरा, बालों में कुछ जंगली पुष्प खोंसे और चल पड़ा शिव की सेवा हेतु । पहले मांस को चखकर देखा फिर भोग लगाने के लिए उसे पत्तल में लेकर चला। उसने मूर्ती पर लगे पत्ते और फूलों को साफ किया, शिव को मांस परोसा, मुख का जल शिव पर अर्पित कर दिया। अघोरेश्वर जाग उठे, प्रसन्न हो गये। भोले नाथ भोली भक्ति के आश्रित हो गये, रात भर तिष्ण धनुष बाण लिए देवता की रक्षा करता रहा कि कोई जंगली जानवर आकर उसके शिव का अहित न कर दे। सुबह ब्राह्मण आया, उसने देखा कि मंदिर में मांस है वह कुपित हो गया, सरोवर में ढेर सारा जल लाकर शुद्धिकरण किया, यज्ञ किया, वेद मंत्रों का उच्चारण किया। तिण्ण फिर संध्या के समय शिकार किए गये पशुओं का मांस लेकर आया, पुनः मुख में जल भर लाया और अपनी ही विधि से शिवार्चन किया। ब्राह्मण दूसरे दिन फिर वही दृश्य देख आशंकित हो उठा तभी रात्रि में महादेव ने उसे स्वप्न दिया और कहा सुनो ब्राह्मण वह मेरा निर्मल, कोमल और भोला भक्त है, वह मुझे प्रिय है। क्यों प्रिय है ? यह तुम्हारा विषय नहीं है। उसका पूजन मुझे स्वीकार्य है अतः उसे परेशान मत करना, यह मेरा आदेश है। मेरी उपासना कैसे होगी ? यह मैं निश्चित करूंगा, पुजारी या ब्राह्मण नहीं करेगा। सारा जगत मेरे अधीन है, मैं किसी के अधीन नहीं हूँ।
ब्राह्मण घबरा कर उठ गया एवं मूर्ति के पीछे छिपकर तिण्ण की प्रतिक्षा करने लगा। तभी तिण्ण हाथ में मांस लिए हुए आ पहुँचा, वह देखता है कि भगवान की एक आँख से रक्त की धारा बह रही है। उसने सोचा शायद मैं अपनी आँख से रक्त की धारा निकाल दूं तो भगवान की आँख ठीक हो जायेगी। उसने अपने आँख में तीर चुभोकर रक्त की धारा निकाल दी उसी क्षण भगवान की आँख से रक्त की धारा रूक गई परन्तु दूसरे क्षण दूसरी आँख से रक्त निकलने लगा। तिष्ण वनोषधियाँ ले आया, भगवान की आँखों पर लगाने लगा परन्तु रक्त की धारा नहीं रूकी, उसने सोचा क्यों न मैं अपनी आँख निकालकर भगवान को लगा दूं । एक आँख तो फूट ही गई थी अत: पाँव से उसने भगवान की दूसरी आँख पर लात रखी कि कहीं मैं गलत जगह अपनी आँख न लगा दूं। जैसे ही अपनी आँख निकालने को वह उद्धत हुआ, शिव प्रकट हो गये एवं बोले रुक जाओ कण्णप्य! मेरे कण्णप्य ! ठहर जाओ। (कण = आँख, अप्य- वत्स,कण्णय कण+अप ।) मैं तुम्हारी भक्ति पर प्रसन्न हुआ। ब्राह्मण देखता ही रहा शिव ने पुनः कण्णप्य को दृष्टिवान बना दिया, दिव्य दृष्टि से सुशोभित कर दिया, उसे शिव गीता प्रदान कर दी अर्थात जहाँ तक दृष्टि भी भेदन न कर सके उसके आगे का महाभेदन भी शिव ने कण्णप्य को सिखा दिया अतः शिव पूजन का कोई नियम नहीं है कोई धर्म नहीं है कोई विधान नहीं हैं ।
तीन बार महादेव बोलोतो सीधे शिव दौड़े चले आते हैं जैसे कि रम्भाते बछड़े को देख गाय सब कुछ छोड़कर भागी चली आती है । तीन बार शिव - शिव बोलो तो महादेव एक बार में ही कार्य कर देते हैं और दो बार का शिव उच्चारण कर्ज के रूप में ओढ़ लेते हैं अर्थात कर्जवान बन जाते हैं, स्वयं को बाधित कर लेते हैं, स्वयं दो बार ऋण उतारने की जुबान दे बैठते हैं। यह है शिव का चिंतन, सभी चिंतनों से परे । लोग शिव ने ऋण का निर्माण तो लोक कल्याण के लिए किया है। ऋण का भार ही तो उपकार का मार्ग है, ऋण का भुगतान ही तो भारहीन होने का विधान है। ऋणी होने में अपना एक अलग मजा है। शिव स्वयं ऋण ओढ़ते हैं, जितने बार शिव- शिव बोलोगे उतने वार शिव ऋण ओढ़ लेंगे और बार-बार जीव के पास आकर उसका कष्ट निवारण करते रहेंगे, उसे कुछ न कुछ देकर कर्ज से मुक्त होने की चेष्टा करते रहेगें। वह भक्त के पास आने के लिए ऋणी बनते है, यह उनका दृष्टिकोण है। कभी वह विष्णु के चरणों में लेट जाता है,कभी वह ब्रह्मा को प्रणाम कर उठते है, कभी वह स्वयं अपने हाथों से विष्णु का अभिषेक करने लगते है, कभी वह हिमालय छोड़ कृष्ण की रासलीला, की तरफ भागने लगते है और वह भी रोते हुए, रूदन करते हुए कृष्ण के समीप जाना चाहते है क्योंकि वह अवधूत है, क्योंकि वह माया से ऊपर है, क्योंकि वह महामाया के अधीन नहीं है । अतः वह शाश्वत् है, निष्कलंक है, निद्वंद है, उसमें द्वंद नहीं है, वह निश्चल है, यही उसका परम वैभव है, यही उसकी रुद्रता है, यही उसकी महानता है।
पुष्पदंत ने कहा समुद्र के जल में अगर हिमालय पर्वतों की अनेकों श्रृंखलाओं जितने काजल को घोलकर स्याही बनाई जाये एवं कल्प वृक्ष की कलम से स्वयं मां सरस्वती शिव की महिमा को इस पृथ्वी के ऊपर लिखे तो भी शिव की महिमा वर्णित नहीं की जा सकती तो भला पुष्पदंत में इतनी ताकत कहाँ कि वह शिव महिम्न स्तोत्र लिखे फिर भी इस भव सागर से संतृप्त यह शिव भक्त मुक्ति हेतु शिव महिम्न कह रहा है और जैसे ही रोते हुए पुष्पदंत ने इतना कहा ही था कि शिव कारागृह के समस्त द्वारों का भेदन करते हुए पुष्पदंत के समीप आ खड़े हुए। रूंदन तो होगा ही, रूंदन तो शिव प्रदान करते ही हैं क्योंकि क्षय होने की प्रवृत्ति को केवल तरलता रोक सकती है और रूदन जीव को तरल बनाता है, रूदन जीव के अंदर तरलता का निर्माण करता है। देखो ब्रह्माण्ड कितना तरल है पता नहीं कहाँ तक फैला हुआ है। कितना वेग है उसके पास, कितनी विराटता है उसके पास, देखो वायु कितनी तरल है, कहीं भी फैल जाती है, छोटे-से-छोटे छिद्र में से भी निकल जाती है। नदियों में कितनी तरलता है तभी तो वह वेगवान हो समुद्र की तरफ भागती रहती हैं। तरलता ही वेग का निर्माण करती है क्योंकि तरलता तभी आती है जब बंधन मुक्ति होती है।
सरसों का बीज तो कुछ समय में नष्ट हो जायेगा, उसका क्षय निश्चित है अतः समय रहते उसके अंदर से तरलता निकाल लो, तेल तो कई हजार वर्षों तक नष्ट नहीं होगा क्योंकि वह तरल है, शिव रुद्र भी हैं। रुद्रता से ही तरलता का जन्म होता है एवं तरलता के अंदर रुद्रता की ही शक्ति निहित है। बीज को पीसोगे तो रूदन तो होगा ही परन्तु तभी तरलता भी उत्पन्न होगी और तरल को जब गर्म करोगे अर्थात पुनः रुद्रता प्रदान करोगे तो वायु निर्मित होगी ही और परम तरलता वायु के रूप में अस्तित्व में आयेगी ही। यही सृष्टि का नियम हैं, रुद्र सूर्य की पकड़ से निकल भागने के लिए रोती चिल्लती, विकट अट्ठाहस करती हुई रुद्र किरणें कुछ ही क्षणों में समस्त ब्रह्माण्ड में आच्छादित हो जाती हैं एवं समस्त ब्रह्माण्ड प्रकाशमय हो जाता है अगर उनमें रूदन नहीं होगा, अगर वे रुद्रता से परिचित नहीं होगीं, अगर वे शिव की रुद्रता से संस्पर्शित नहीं होंगी तो यात्रा रुक जायेगी, सृष्टि रुक जायेगी।
मैंने कहा शिव मुक्त करता है, मुक्त करना ही शिव की पहचान है, वह प्रकाशत्व है क्योंकि सर्वप्रथम उसकी रुद्रता प्रकाश को भी मुक्त होना सिखाती है। सूर्य के गुरुत्व से सूर्य की पकड़ से आखिकार प्रकाश की किरणें निकल ही भागती हैं, यही सूर्य के जन्म की कहानी है, यही सबके पहचान की कहानी है, यही सृष्टि के उदय की कहानी है। रुद्र स्त्री पुरुष काम के वेग में आवेशित हो सम्भोग की पराकाष्ठा तक पहुँच जाते हैं, वीर्य स्खलित होता है रुद्रता के कारण, पुरुष के एक अंश वीर्य में 55 लाख रुद्र शुक्र कीट होते हैं जो कि पूर्ण प्रतिस्पर्धा, रुद्रता और रूदन के साथ स्त्री के डिम्ब कोश से उत्सर्जित मात्र एक अण्ड से मिलन के लिए भागते हैं सम्पूर्ण रुद्रता एवं वेग के साथ जैसे कि सौर किरणें सूर्य को छोड़कर भागती है। 55 लाख शुक्र कीट और एक अण्ड कितनी घोर, कितनी रुद्र प्रतिस्पर्धा, कितनी भीषण मारकाट, कितना उग्र भाव । लाखों शुक्र कीट आपस में लड़- कटकर मर जाते हैं, कुछ रास्ते में ही न्यून उग्रता के कारण नष्ट हो जाते हैं, कुछ अयोग्य होते हैं, कुछ बीमार होते हैं, कुछ लूले लंगड़े होते हैं, कुछ अर्ध विकसित होते हैं परन्तु इन 55 लाख शुक्र कीटों में से जो सबसे ज्यादा स्वस्थ, सबसे ज्यादा बलवान, सबसे ज्यादा रुद्र होता है वह अण्ड का भेदन करता है और इस प्रकार एक नये जीवन की गर्भ में स्थापना होती है।
कुम्भ का मेला लगा था मैं देख रहा था लाखों करोड़ों नर मुण्ड खड़े थे, कुछ गृहस्थ थे, कुछ बूढ़े थे, कुछ बालक थे, कुछ संन्यासी थे परन्तु सबसे आगे खड़े थे पूर्ण नग्न, पूर्ण स्वस्थ (शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक धरातल पर), पूर्ण रुद्र, हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिए नागा संन्यासी एवं जैसे ही शाही स्नान का क्षण आया सबसे पहले तेज वेग से हर हर महादेव चिल्लाते हुए ये नागा संन्यासी कूद पड़े सबको पीछे छोड़ते हुए शिव के मस्तक से उद्गमित हो बहने वाली गंगा की जल धाराओं में। शाही स्नान ही पहले होता है। कुम्भ भी शिव क्षेत्र में ही लगते हैं, सब जगह एक जैसा ही होता है चाहे वह कुम्भ स्नान हो, माता का गर्भ हो या सूर्य मण्डल। रुद्रता ही पहले चलती है, यही सृष्टि का नियम है, यही शिव क्षेत्र की विहंगमता है। रोना बुरी बात नहीं है, गुरु रूलाते भी हैं जो गुरु शिव स्वरूप होते हैं वे तो रूलाते ही हैं । वे तो रूदन अंदर उत्पन्न कर ही देते हैं। रूदन से ही तम का नाश होता है।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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