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नारद कृत शिव स्तुति ।।

        शिव अष्टोत्तरशतदिव्यनामामृतस्तोत्रं यह प्रसंग मानस तथा शिवपुराण के रुद्रसंहिता के सृष्टि खण्ड में प्रायः यथावत् आया है। इस पर प्रायः लोग शङ्का करते हैं कि वह शिवशतनाम कौन-सा है, जिसका नारद जी ने जप किया, जिससे उन्हें परम कल्याणमयी शान्ति की प्राप्ति हुई ? यहाँ पाठकों के लाभार्थ वह शिवशतनामस्तोत्र विनियोग आदि के साथ मूलरूप में दिया जा रहा है, न्यास ध्यानपूर्वक इसका श्रद्धापूर्वक पाठ करना चाहिये। इस स्तोत्र का उपदेश साक्षात् नारायण ने पार्वती जी को भी दिया था, जिससे उन्हें भगवान शंकर पतिरूप में प्राप्त हुए और वे उनकी साक्षात् अर्धाङ्गिनी बन गयीं।

                           पार्वत्युवाच
         शरीरार्धमहं शम्भोर्येन प्राप्स्यामि केशव।
        तदिदानीं समाचक्ष्व स्तोत्रं शीघ्रफलप्रदम् ॥
                         नारायण उवाच 
        अस्ति गुह्यतमं गौरि नाम्नामष्टोत्तरं शतम् । 
        शम्भोरहं प्रवक्ष्यामि पठतां शीघ्रकामदम् ॥

विनियोग 
ॐ अस्य श्रीशिवाष्टोत्तरशतदिव्यं- नामामृतस्तोत्रमालामन्त्रस्य नारायण ऋषिरनुष्टुप् छन्दः श्रीसदाशिवः परमात्मा देवता श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।

 शिवसंकल्प इति हृदयम् । पुरुषसूक्तमिति शिरः । उत्तरनारायणेति शिखा ॥ अप्रतिरथेति कवचम्।
ॐ विभ्राडिती नेत्रम् । शतरुद्रियमित्यस्त्रम्। आत्मानं रुद्ररूपं ध्यायेत् । (इन सूत्रों का पाठ करते हुए न्यास करें।)

ध्यान

 धवलवपुषमिन्दोर्मण्डले संनिविष्टं भुजगवलयहरं भस्मदिग्धाङ्गमीशम् । 
हरिणपरशुपाणि चारु चन्द्रार्ध मौलिं हृदयक मलमध्ये संततं चिन्तयामि ॥ 

चन्द्रमण्डल में श्रीशिवजी विराजमान हैं, उनका गौर शरीर है, सर्पका ही कंगन तथा सर्प का ही हार पहने हुए हैं तथा शरीर में भस्म लगाये हुए हैं, उनके हाथों में मृगी मुद्रा एवं परशु है और अर्धचन्द्र सिर पर विराजमान है। मैं उन भगवान् शंकर का हृदय में अहर्निश चिन्तन करता हूँ।

स्तोत्र
             शिवो महेश्वरः शम्भुः पिनाकी शशिशेखरः । 
             वामदेवो विरूपाक्षः कपर्दी नीललोहितः ॥ 

             शंकरः शूलपाणिश्च खट्वाङ्गी विष्णुवल्लभः।                          
             शिपिविष्टोऽम्बिकानाथः श्रीकण्ठो भक्तवत्सलः॥ 

             भवः शर्वस्त्रिलोकेश: शितिकण्ठः शिवाप्रियः । 
             उग्रः कपालिः कामारिरन्धकासुरसूदनः॥
 
             गङ्गाधरो ललाटाक्षः कालकालः कृपानिधिः। 
             भीमः परशुहस्तश्च मृगपाणिर्जटाधरः ॥ 

             कैलासवासी कवची कठोरस्त्रिपुरान्तकः । 
             वृषाङ्को वृषभारूढो भस्मोद्धूलितविग्रहः॥
 
             सामप्रियः स्वरमयस्त्रयीमूर्तिरनीश्वरः । 
             सर्वज्ञः परमात्मा च सोमसूर्याग्निलोचनः॥
 
             हविर्यज्ञमयः सोमः पञ्चवक्त्रः सदाशिवः । 
             विश्वेश्वरो वीरभद्रो गणनाथः प्रजापतिः ॥ 

             हिरण्यरेता दुर्धर्षो गिरीशो गिरिशोऽनघः ।
             भुजङ्गभूषणो भर्गो गिरिधन्वा गिरिप्रियः ॥ 

             कृत्तिवासा पुरारातिर्भगवान् प्रमथाधिपः ।
             मृत्युंजयः सूक्ष्मतनुर्जगद्व्यापी जगद्गुरुः ।।

             व्योमकेशो महासेनजनक श्चारुविक्रमः ।
             रुद्रो भूतपतिः स्थाणुरहिर्बुध्न्यो दिगम्बरः ॥

             अष्टमूर्तिरनेकात्मा सात्त्विकः शुद्धविग्रहः ।
             शाश्वंतः खण्डपरशुरंजपाशविमोचकः ॥ 

             मृडः पशुपतिर्देवो महादेवोऽव्ययः प्रभुः ।
             पूषदन्तभिदव्यग्रो दक्षाध्वरहरो हरः॥ 

             भगनेत्रभिदव्यक्तः सहस्त्राक्षः सहस्रपात् ।  
              पवर्गप्रदोऽनन्तस्तारक: परमेश्वरः ॥

             एतदष्टोत्तरशतनाम्नामाम्नायेन सम्मितम् । 
             विष्णुना कथितं पूर्वं पार्वत्या इष्टसिद्धये ॥ 

            शंकरस्य प्रिया गौरी जपित्वा त्रैकालमन्वहम् ।
            नेदिता पद्माभेन वर्षमेकं प्रयत्नतः ॥ 

            अवाप सा शरीरार्धं प्रसादाच्छूलधारिणः । 
            यस्त्रिसंध्यं पठेच्छम्भोर्नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ॥

            शतरुद्रित्रिरावृत्त्या यत्फलं प्राप्यते नरैः ।
            तत्फलं प्राप्नुयादेतदेकवृत्त्या जपन्नरः ॥
 
            बिल्वपत्रैः प्रशस्तैर्वा पुष्पैश्च तुलसीदलैः । 
            तिलाक्षतैर्यजेद् यस्तु जीवन्मुक्तो न संशयः ॥ 

            नाम्नामेषां पशुपतेरेकमेवापवर्गदम् । 
            अन्येषां चावशिष्टानां फलं वक्तुं न शक्यते ॥
 
            इति श्रीशिवरहस्ये गौरीनारायणसंवादे। 
            शिवाष्टोत्तरशतदिव्यनामामृतस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

इस प्रकार 108 नाम, जो वेद के तुल्य हैं, श्रीविष्णु ने पहले इष्ट सिद्धि हेतु माता पार्वती जी को बतलाये थे। शंकरप्रिया भगवती गौरी ने भगवान् पद्मनाभ की प्रेरणा से एक वर्ष तक प्रतिदिन त्रिकाल इसका जप किया। त्रिशूलधारी की कृपां से उन्होंने उनका शरीराध प्राप्त किया। शतरुद्री के तीन बार पाठ करने से जो फल मनुष्य को प्राप्त होता है, वह फल उसे इसके एक बार के पाठ करने से प्राप्त हो जाता है। बेलपत्र अथवा फूल और तुलसीदल से या तिल तथा अक्षत से जो महादेव जी का यजन करते हैं, वे जीवनमुक्त हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं। भगवान् शंकर के इस शतनामों में से केवल एक नाम ही मोक्ष देने वाला है तो शतनाम का महत्व (फल) वर्णनातीत है।

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