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दिगिभेन्द्रपदट्टम् ।।

         अध्यात्म मानवीय बुद्धि से नहीं समझा जा सकता, दोनों भुर्वो के बीच में भूमध्य होता है एवं यहीं पर जब ध्यान करते हैं तब आज्ञा चक्र विकसित होता है। आज्ञा चक्र के भेदन के पश्चात् ही तीसरा नेत्र विकसित होता है, आध्यात्मिक ग्रंथि क्रियाशील होती है और तब जाकर अध्यात्म का क ख ग समझ में आता है। अगस्त्य मुनि ने अपने शिष्य से कहा अगर तुम्हें दक्षिणा देने की इतनी पड़ी है तो जाओ राघवेन्द्र सरकार के मुझे दर्शन करा दो। अगस्त्य मुनि का वह शिष्य प्रभु श्रीराम एवं लक्ष्मण को ले आश्रम पर आ गया, उसने अगस्त्य मुनि से कहा श्रीराम एवं लक्ष्मण आश्रम के दरवाजे पर आपसे मिलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, अगस्त्य मुनि दौड़ पड़े। जैसे ही श्रीराम चंद्र एवं लक्ष्मण जी ने अगत्स्य मुनि को देखा वे उनके चरणों में साक्षात् दण्डवत हो गये, अगत्स्य मुनि की आँखों से आँसू बह निकले भगवान स्वयं चलकर अगत्स्य मुनि के आश्रम पर आये थे एवं अगत्स्य मुनि मनुष्य देह में इसलिए रुके हुए थे।

               अवतार का कोई नियम नहीं होता, प्रभु श्रीराम सब नियम धर्म से परे हैं। कब किसके चरणों में झुक जायें ? कब किसे गले लगा ले, कब क्या दे दें उनकी मर्जी । वशिष्ठ एवं विश्वामित्र कुल गुरु बन गये, राजगुरु बन गये केवल इसलिए कि अवतार के रूप में स्वयं भगवान आ रहे हैं फिर कैसी मर्यादा ? जो सेवा मिल जाये, जो चाकरी मिल जाये वही मंजूर है। वशिष्ठ ब्रह्मपुत्र हैं शुरू में वे आना कानी कर रहे थे पंडिताई हेतु परन्तु जब मालूम चला कि स्वयं भगवान आ रहे हैं तो पंडिताई भी मंजूर कर ली दिव्य रथ सजा हुआ था, यक्ष गंधर्व गान कर रहे थे, ब्रह्मलोक के पार्षद महर्षि शरभंग को ब्रह्म लोक ले जाने के लिए उनके दरवाजे पर खड़े हुए थे परन्तु जेसे ही शरभंग को पता लगा कि श्रीराम एवं श्री लक्ष्मण स्वयं उनके आश्रम आ रहे हैं उन्होंने ब्रह्मलोक का दिव्य रथ वापस कर दिया, अपनी सारी ब्रह्मोपासना तिरोहित कर दी जब भगवान स्वयं आ रहे हैं तब फिर क्या जरुरत पड़ी है ? ब्रह्मलोक जाने की। भरत को खड़ाऊ दे दी बोले राज्य करो। लात मारकर सत्ता ठुकरा दी, अयोध्या वासियों को गंगा नदी के किनारे सोते में छोड़कर चले गये, बालि को मार गिराया, समुद्र से कह दिया रास्ता दे नहीं तो तेरी सत्ता नष्ट, सुग्रीव को राजा बना दिया सत्ता उसमें प्रतिष्ठित कर दी, भीलनी शबरी को ऋषितुल्य बना दिया, विभीषण का राज्याभिषेक कर दिया, उसे लंकेश घोषित कर दिया, अपनी समस्त भूमि उठाकर ब्राह्मणों को दान कर दी और ब्राह्मणों ने अमानत के तौर पर वह भूमि श्रीराम को दे दी राज्य हेतु, अश्वमेघ का घोड़ा दौड़ा दिया "रोक सके तो रोक, " कौन रोक पाया ?

               सम्पूर्ण पृथ्वी पर 11,000 वर्षों तक एक छत्र राज्य किया। सबकी सत्ता को अपने हस्तगत कर लेना, सबकी सत्ता को अपने अनुरूप चलाना ही राम राज्य है। वायु से कह दिया जब तक राम राज्य है मंद-मंद ही रहना नहीं तो तेरी सत्ता नष्ट, तू सत्ता विहीन, इन्द्र से कह दिया कभी उत्पात मत करना न अल्प वृष्टि करना न अति वृष्टि करना, औकात में रहना नहीं तो तेरी सत्ता छिन जायेगी। कुबेर से कह दिया, पर्वतों से कह दिया, नदियों से कह दिया, भूमि से कह दिया, वृक्षों से कह दिया, यक्षों से कह दिया कि अपनी छोटी-छोटी सत्ताएं मर्यादा में रखना, उत्पात मत करना, प्रपंच मत करना, मदमस्त मत होना, पगलाना मत नहीं तो समूलता के साथ नष्ट कर दिए जाओगे, अस्तित्वविहीन कर दिए जाओगे इसलिए राम राज्य में नदियाँ निर्मल थीं, अकाल मृत्यु नहीं थी अगर किसी की इच्छा मृत्यु की नहीं है तो उसकी मृत्यु नहीं होती थी। पिता के सामने पुत्र नहीं मरता था, विधवाएं नहीं थीं, पशु खूब दूध देते थे, फसलें लहराती थीं, वृक्ष सदैव फल फूल से लदे रहते थे, दुर्जनता नहीं थीं, ताले नहीं थे, बंधन नहीं थे, नपुंसकता नहीं थी, संतानहीनता नहीं थी क्योंकि राज राजेश्वर स्वयं पृथ्वी पर विद्यमान थे।

             सूर्य से कह दिया केवल स्निग्ध किरणें ही वायुमण्डल पर अवतरित करो, चंद्रमा से कह दिया हमेशा अमृत ही छिड़को, क्रूर ग्रहों से कह दिया कि किसी की भी जन्मकुण्डली में उल्टा सीधा मत बैठना, अपनी मर्यादा में रहना, राजा बनने का स्वांग मत करना, जैसा मैं कहूं वैसा करना, मेरे अनुकूल रहना, मेरे लिए परेशानी का कारण मत बनना, अपनी तुच्छ सत्ता पर मत इतराना अन्यथा सत्ता छीन ली जायेगी और सबने एक स्वर में भय के मारे, मर्यादा के मारे कि कहीं सत्ता छिन न जाये इस कारणवश राम राज्य में दुर्लभ समायोजन बनाये रखा। जिससे जो चाहा वो काम ले लिया, जिसमें चाही उसमें सत्ता स्थापित कर दी, जिसे चाहा उसे पुजवाया, जिसे चाहा उसे धूल में मिला दिया। सीता जी के लिए युद्ध किया और स्वयं सीता जी का त्याग कर दिया, हनुमान को गले लगाया।

राम नाम की सत्ता बता दी, पत्थर तैर गये, वानर राक्षसों से ज्यादा वीर हो गये, भालुओं ने राक्षसों को पीट डाला। जैसे ही श्री हनुमान माता सीता का पता लगाकर लौटे परब्रह्म परमेश्वर श्रीराम ने उनकी तारीफ करना शुरु कर दी तो श्री हनुमान रोने लगे, चरणों को पकड़ लिया बोले यह सिर्फ आपकी सत्ता है, आपके द्वारा प्रतिरोपित शक्ति है मैं कुछ नहीं हूँ, श्री हनुमान सत्ता के रहस्य को समझ गये थे ।

           अनंत कोटि ब्रह्माण्ड के राजा श्री राघवेन्द्र सरकार को लोग मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं परन्तु मैं कहता हूँ वे दूसरों को मर्यादित रखते हैं उन्हें मर्यादित रहने की जरुरत नहीं है। विभीषण कहने लगा मैं रावण का दाह संस्कार नहीं करूंगा इसने मुझे लात मारकर लंका से निकाला है श्रीराम बोले हे विभीषण इसका दाह संस्कार करो पूर्ण विधान के साथ मेरी आँखों के सामने क्या तुम खुद नहीं देख रहे हो कि इसकी मृत्यु के उपरांत इसके शरीर से प्राण निकलकर मेरे चरणों में विलीन हो गये, मृत्यु के अंतिम क्षण में इसने हे राम ही कहा, मुझे नमस्कार किया अत: मैंने इसे इसकी सत्ता दी । हनुमान तो रावण के शरीर को विदीर्ण कर समस्त लंका में घुमाना चाह रहे थे परन्तु श्रीराम ने उसे एक राजा के समान मृत्यु के पश्चात् भी सम्मान दिया, उसकी अंत्येष्ठि लंकेश की भांति ही की गई। सम्पूर्ण रामायण में एक ही संदेश जाता है कि सत्ता के पीछे मत भागो, सत्ता के गुलाम मत बनो, सत्ता के लिए स्वयं की सत्ता मत खोओ अपितु जो सत्ता प्रदान कर रहा है, सत्ता जिसके हस्तगत है उसे पकड़ो।

              श्रीराम के सोलह पार्षद है, ये उनके नित्य पार्षद हैं। नित्य पार्षद का तात्पर्य है जिनकी सत्ता नित्य बनी रहती है, जो कभी सत्ता से च्युत नहीं होते। विभीषण आज भी लंकेश है, जाम्बवान आज भी राजा हैं, हनुमान आज भी राजा हैं। तंत्र का क्षेत्र बड़ा विचित्र है लंका में एक परम तांत्रोक्त नवग्रह मंदिर था जिसमें कि रावण ने अपनी तंत्र शक्ति से नवग्रहों का आह्वान कर सर्वप्रथम उन्हें बुलाया, उन्हें स्थापित किया और फिर उन्हें कैद कर लिया, उनकी सत्ता उनसे छीन ली। वास्तव में लंका में अनेकों तांत्रोक्त मंदिर थे जिनमें असंख्य देव शक्तियाँ, यक्ष शक्तियाँ, गंधर्व शक्तियाँ, देवियाँ रावण के द्वारा आह्वान करके बुला लीं गई और कालान्तर कैद कर ली गईं, उनके बाहर निकलने के मार्ग को अवरुद्ध कर दिया गया, उनकी सत्ता छीन ली गई। ब्रह्मा की ब्रह्म शक्ति तक रावण ने कैद कर ली थी, यह सब कैसे हुआ ? रावण ने तो आद्या को भी ले जाना चाहा था परन्तु गणेश जी के कारण नहीं ले जा पाया।

          वास्तव में अध्यात्म में भी विनिमय प्रणाली लागू है लोग कहते हैं हमारा काम नहीं हुआ, हमें फल नहीं मिला इत्यादि इत्यादि । अध्यात्म में भी आध्यात्मिक लखपति, करोड़पति, अरबपति, असंख्य पति होते हैं जो जितना आध्यात्मिक रूप से धनवान होगा वह उतनी ही दुर्लभतम श्रेष्ठतम आध्यात्मिक प्राप्ति करने में सक्षम होगा। मंत्र जप, अनुष्ठान, तपस्या, साधना, पूजन, योग, ध्यान इत्यादि नाना प्रकार की आध्यात्मिक गतिविधियों से अध्यात्म का सकल उत्पादन होता है और इस प्रकार जातक के पास आध्यात्मिक राशि का संचय होता है। आध्यात्मिक राशि भी भौतिक राशि के समान स्थांतरित होती है। चतुर जातक आध्यात्मिक विनिमय करता है वह चाहे तो दर्शन कर सकता है, ऐश्वर्य प्राप्त कर सकता है, दिव्य लोक में स्थान प्राप्त कर सकता है, देवी देवताओं एवं अन्य परा शक्तियों को अपने हस्तगत भी कर सकता है।

         शिव अल्कापुरी के नजदीक निवास करते हैं, अल्कापुरी का शासक कुबेर है एवं कुबेर रावण का सौतेला भाई है। रावण ने अपनी आध्यात्मिक राशि से ब्रह्मा से वरदान खरीद लिए, अमरता प्राप्त की। वह अमर तो हो ही गया जब तक श्रीराम का नाम लिया जायेगा रावण का नाम भी लिया जायेगा। आध्यात्मिक राशि पूर्ण चैतन्य एवं प्रजनन की क्षमता से युक्त है अर्थात बड़ी तेजी से फलती-फूलती है। रावण कौन ? रावण वह जिसने कुबेर को मार भगाया एवं ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण आध्यात्मिक राशि पर एक छत्र अधिकार जमा लिया। कुबेर तो हिमालय की श्रृंखलाओं में छिप गये सब कुछ छोड़कर। रावण ऋषि-मुनियों को क्यों सताता था ? क्यों यज्ञ नहीं होने देता था ? क्यों उन्हें अनुष्ठान नहीं करने देता था ? सीधी सी बात है कहीं कोई और आध्यात्मिक राशि का संचय न कर ले, उससे ज्यादा आध्यात्मिक रूप से अमीर न हो जाये इसलिए वह यह सब करता था। अगर आप चेक काटोगे और आपके बैंक खाते में पैसा नहीं होगा तो चेक निरस्त हो जायेगा ठीक इसी प्रकार लोग ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, हाथ जोड़ते हैं, मनोकामनाएं मांगते हैं इत्यादि इत्यादि । मनोकामना एक तरह से चैक पर लिखी हुई राशि है जो कि

आपके बैंक खाते में आध्यात्मिक राशि कम होने से पूर्ण नहीं हो पाती। इस व्यवस्था के चलते एक भारी असंतुलन हो गया रावण खुद तो यज्ञ करता, प्रकाण्ड शिव भक्त था, प्रकाण्ड कर्मकाण्डी था, वह दिन प्रतिदिन नित नये आध्यात्मिक अनुष्ठानों का अविष्कार करता, दसों महाविद्याएं सिद्ध कर रखी थी उसने परन्तु किसी अन्य को नहीं करने देता। इस प्रकार वह तीनों लोकों का एकमात्र शासक बन गया, जैसे ही प्रभु श्रीराम माता कौशल्या के गर्भ से प्रकट हुए उन्होंने अपना मुस्कुराता हुआ स्वरूप दिखाया, माता कौशल्या बोल उठीं रोइये प्रभु, रूदन कीजिए क्योंकि आप रावण के द्वारा शासित भूमि पर आ गये हैं।

           रावण का तात्पर्य है जो दूसरों को रुलाता हो, केवल रूदन का उत्पादन कराता हो अतः प्रभु श्रीराम रोये अनेकों बार रोये । वनवास जाते समय, अयोध्या वासियों से बिछड़ते समय रोये, सीता के लिए रोये, हनुमान के गले लगकर रोये, पिता की मृत्यु पर रोये, भरत के गले लगकर रोये, लक्ष्मण को शक्ति लगने पर रोये, जटायु की मृत्यु पर रोये बस यहीं रावण मार खा गया। राज राजेश्वर श्रीराम के एक-एक आँसू, राज राजेश्वरी श्री सीता के एक-एक आँसू की कीमत चुकाते चुकाते वह अपनी समस्त आध्यात्मिक राशि खो बैठा, कंगाल हो गया और मारा गया। लंका से सीता सर्वप्रथम मुक्त नहीं हुईं, सीता तो उग्रचण्डी बन अंत तक लंका में बैठी रहीं राम वियोग तो बहाना था, पहले सिंहिका मुक्त हुई, फिर नागमाता कद्रू मुक्त हुईं, फिर अनेकों देवियाँ मुक्त हुई, शनिदेव मुक्त हुए, सूर्य देव मुक्त हुए, नवग्रह मुक्त हुए, यक्ष, किन्नर मुक्त हुए । हनुमान जी ने एक-एक करके रावण के सभी तांत्रोक्त मंदिर जला डाले, यज्ञस्थान नष्ट कर दिए, सब यंत्रों का उत्कीलन कर दिया तब जाकर अंत में राज राजेश्वरी सीता ने लंका से प्रस्थान किया।

             कुंभकरण का एक पुत्र हुआ था मूल नक्षत्र में जिसे कुंभकरण ने मूल नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण वन में छुड़वा दिया था एवं उसका नाम पड़ा मूलकासुर। रावण एवं मेघनाथ की मृत्यु के कारण वह अत्यंत ही व्यथित था उसने पुनः लंका पर कब्जा कर लिया विभीषण को मार भगाया, वह ब्राह्मणों से बोल रहा था चण्डी सीता के कारण मेरे कुल का नाश हुआ। ब्राह्मण ने कहा जा वही चण्डी तेरा सर्वनाश करेगी, राम उससे नहीं जीत पा रहे थे वे कल्प वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे तभी पुष्पक विमान से श्रीसीता आ गईं और उनके शरीर से एक दिव्य तामसी शक्ति निकली जिसने देखते ही देखते मूलकासुर का वध कर दिया परन्तु काली रूपा वह शक्ति नियंत्रित ही नहीं हो रही थी सम्पूर्ण रूप से अमर्यादित होती जा रही थीं अतः राम को उठना पड़ा और कुछ ही क्षणों में उनका स्पर्श पा वह महाकाली स्वरूपा शक्ति मर्यादित हो गई, पुनः शांत हो गई।

                   शिव शासनत: शिव शासनत:


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