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संसार रोग हरणम् ।।

              संसार रोग से ग्रसित हिमालय ने अपनी पुत्री पार्वती का विवाह विष्णु से तय करने की ठानी। हिमालय की नजर में शिव रोगी थे, यही तो विडम्बना है, इस संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? इस संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि रोगी रोग नहीं पहचान पाता। रोग को पहचान ले तो फिर शिव नहीं हो जायेगा। स्व उपचार,स्व आरोग्यता,स्व रोगविहीनता ही अध्यात्म है। कहीं तुम्हें आत्म प्रशंसा का रोग तो नहीं लग गया,कहीं तुम्हें सुरक्षा का रोग तो नहीं लग गया,कहीं तुम्हें पंथ या किसी महापुरुष के आकर्षण का रोग तो नहीं लग गया,लग गया हो तो बता देना । चिकित्सकों की जरूरत हर स्तर पर जीव को इस संसार में पड़ती है। आध्यात्मिक रोगों के लिए आध्यात्मिक चिकित्सक,समझने समझाने के रोग से मुक्ति के लिए समझने और समझाने वाले प्रवचनबाज चिकित्सकों की जरूरत । आध्यात्मिक धरातल पर विपन्न हुए लोगों को तथाकथित गुरुओं और वंश से चिकित्सा की जरूरत महसूस होती है। चिकित्सकों की जरूरत स्वयं अपने आपमें महारोग है इसलिए आजकल जिधर देखो उधर आध्यात्मिक चिकित्सक मिल जायेंगे। वास्तु रोग चिकित्सक मिल जायेंगे। वास्तु रोग चिकित्सक,पिरामिड चिकित्सक,हस्तरेखा चिकित्सक चलो बंद करता हूँ ज्यादा समय खराब न हों। 

               परन्तु मजेदार बात यह है, गूढ़ तत्व यह है कि चिकित्सक स्वयं रोगी हैं और उनके चिकित्सक हैं उनके रोगी। अर्थात रोगी चिकित्सक हैं और चिकित्सक रोगी। समझ समझ के भी जो न समझे मेरी समझ में वह ना समझ है। हाथ जोड़कर विनती है "शिव शरणम गच्छामि " शिवाय नमः शिवंलिंगाय नमः, भवाय नमः, भव लिंगाय नमः, शर्वाय नमः, शर्वलिंगाय नमः, भीमाय नमः भीमलिंगाय नमः, बलाय नमः, बलनाथाय नमः, यही मूलभूत औषधि है इसके ऊपर की परम औषधि है हराय नमः, हर नाथाय नमः और इससे भी ऊपर के सूक्ष्मातीत औषधि है ॐ नमः शम्भवाय च मयोभयाव च नमः शंकराय च मयस्कराय च, नमः शिवाय च शिवतराय च । अंत मे आरोग्यता का महामंत्र है शिवोऽहम् शिवोऽहम्।

        परम प्रतापी अंगिरा ऋषि के महातेजस्वी पुत्र थे अंगीरस । शिव के प्रेम में ओत- प्रोत बस पहुँच गये काशी,निर्मित किया शिवलिङ्ग और घुस गये गुफा के अंदर वृहद तपस्या हेतु पता नहीं कितने वर्ष बीत गये,आ गये शिव जी बोले अंगीरस तेरी तपस्या तो अत्यंत वृहद है अतः मैं तुझे वृहद् बना देता हूँ आज से तू वृहस्पति और तेरे शिवलिङ्ग का नाम वृहदेश्वर। आज से तू देवताओं का गुरु और जो भी तेरे शिवलिङ्ग का पूजन करेगा वह इस संसार में जगद्गुरु के नाम से विख्यात् होगा। शिव का आदेश आदि शंकर ने भी जगत्गुरु की पदवी प्राप्त करने के लिए वृहदेश्वर का अर्चन किया,कृष्ण ने भी यही किया। शिव, शिवलिङ्गों को गोपनीय कर देते है, शिव शिवलिङ्गों को दुर्गम कर देते है, शिव शिवलिङ्गों तक साधकों को पहुँचने नहीं देते क्योंकि अगर पहुँच गया तो वह प्राप्त हो जायेगा जो शायद विधाता ने उसकी किस्मत में न लिखा हो शिव विष्णु का मान रखते हैं,महामाया का सम्मान रखते हैं क्योंकि शिव व्यवस्था में पाप और पुण्यों का लेखा जोखा नहीं है। 

              चित्रगुप्त की किताब का महत्व शून्य है, ब्रह्मा की लेखनी की शिव को कभी परवाह नहीं रही। जीव कह उठता है। देवी लोक में देवी ने डाँट कर भगा दिया कहा जा मुझे फुर्सत नहीं है अभी मैं असुरों के विनाश में लगी हुई हूँ,नियम बड़े कड़े हैं, पृथ्वी तो सामाजिक और बेतुके नियम से शासित है मनुष्य तो मनुष्य को भगाता ही है,मनुष्य,मनुष्य को क्या शरण देगा ? पशु तो हिंसक हैं भक्षण कर जायेंगे,देवता कदापि जीव का सानिध्य पसंद नहीं करते एवं उसे हेय दृष्टि से देखते हैं,बैकुण्ठ में तो सात्विकता है विष्णु आसानी से प्रविष्ठी नहीं देते,कर्मों की बात करते हैं। कर्म आधारित गीता सुनाते हैं,यमराज तो पाप और पुण्यों का सांख्य योग लगाते हैं अतः अंत में थक हारकर सब तरफ से निष्कासित,अल्प बुद्धि,निरीह जीव को केवल शिव ही शरण देते हैं। शिव लोक का नियम ही यही है कि सब लोकों से निष्कासित,सब लोकों से तिरस्कृत,सब लोकों के अयोग्य जीव को केवल एकमात्र शिव ही शरण देते हैं, वे ही गले लगाते हैं, वे ही सानिध्य देते हैं क्योंकि शिव को ही जीव से प्रेम है। यह है शिव लोक की विहंगमता,इसी कारणवश दुर्लभ शिवलिङ्ग गोपनीय हो गये हैं।

                 शिव नित्य प्रतिनित्य कर्मों में हस्तक्षेप नहीं करते, लोकान्तर की व्यवस्था नहीं बिगाड़ते। ब्रह्मा की लेखनी को सामान्यतः मिथ्या साबित नहीं करते परन्तु शिव शिव हैं। स्वयं कालकूट विष पिया,विष को कण्ठ से नीचे उतरने नहीं दिया क्योंकि उदरस्थ प्राणियों से प्रेम था और नील कण्ठेश्वर हो गये। जिन देवताओं को अमृत दिया उनके पद बदलते हैं, इन्द्र का पद बदलता है, ब्रह्मा का पद बदलता है, विष्णु के भी अवतार होते रहते हैं अतः शिव अमृत से ऊपर की स्थिति हैं,शिवत्व के

आगे अमृत्व हीन है। शक्ति तो शिथिल होती है, रोगग्रस्त होती है अतः पुनः ऊर्जावान होने के लिए, पुनः स्वस्थ होने के लिए शिव सानिध्य में विराजती है। यही भैरवी रहस्यम् है । काली के चरणों में शिव लेट जाते हैं जिससे कि काली पवित्र बनी रहे । राजराजेश्वरी लेटे हुए सदाशिव के ऊपर विराजती हैं, राज राजेश्वरी राजाओं की अधिष्ठात्री हैं एवं शिव नीचे से देखते रहते हैं, त्रिशूल लिए हुए सतर्क रहते हैं ।

         सभी देवियों के साथ धीरें से शिव जाकर विराजमान हो जाते हैं, वे शक्ति को अकेला नहीं छोड़ते। सिंह के ऊपर सदाशिव लेट गये और उनके नाभिकमल पर कामाख्या विराजमान हो गईं, आधार शिव ही देते हैं। जगत जननी पार्वती रत्न जड़ित सिंहासन पर बैठी हुई हैं अभी शिव से विवाह होने वाला था बस छः वर्ष के बालक का रूप धर शिव आ गये और पार्वती के सामने नृत्य करने लगे। पार्वती की दृष्टि शिव पर अटक गई। नाचते-नाचते पार्वती की गोद में चढ़कर बैठ गये शिव। सब देवताओं ने जोर लगा लिया पर शिव को पार्वती की गोद से नहीं उतार पाये, भैरव आ गये, यह है भैरव रहस्यम् । शक्ति के पीछे-पीछे चलते है भैरव, शक्ति की गोद में खेलते है भैरव मातृत्व की सृष्टि हो गई, माँ की गोद से बच्चे को अलग करके दिखाओ। सर्वप्रथम यह सृष्टी जीवन विहीन थी बस चारों तरफ जड़ पिण्ड घूम रहे थे अचानक विराट पुरुष ने असंख्य जीवों का निर्माण कर सब के अंदर अपने आपको स्थित कर लिया और इस प्रकार सृष्टि जीवमय हो उठी। 

          शिव का एक कार्य है सब जगह जाकर बैठ जाऊं चाहे किसी भी रूप में क्यों न बैठना पड़े। विष्णु के हृदय में बैठ गये, योगमाया की गोद में बैठ गये, राम के पास हनुमान के रूप में बैठ गये, कृष्ण के पास राधा के रूप में बैठ गये, अर्जुन के पास भील के रूप में जाखड़े हुए, उमा तपस्या कर रही थीं वृद्ध ब्राह्मण के रूप में पहुँच गये। संसार रोग का वर्णन करने लगे, कहने लगे शिव के पास कुछ नहीं है नग्न हैं, दरिद्र हैं, महल भी नहीं है, सिंहासन भी नहीं है, मुकुट भी नहीं है इत्यादि इत्यादि कहाँ पड़ी है चक्कर में, विष्णु से विवाह कर ले। परख रहे थे पार्वती की आरोग्यता, कहीं रोगिणी को गले न लगा लूं परन्तु पार्वती आरोग्यता का कुण्ड निकलीं। शिव भी उन्हें संसार रोग से ग्रसित नहीं कर पाये। शिव परम वैभव स्वरूपाय हैं। शिव की बारात जा रही थी लोगों ने विष्णु के वैभव को देखा सोचने बैठे यही शिव हैं विष्णु बोले नहीं भाई हम तो शिव के उपासक हैं फिर इन्द्र के वैभव को देखा तो लोग उन्हें शिव समझकर उनकी तरफ दौड़ पड़े, इन्द्र ने विनम्रता से कहा हम तो शिव के उपासकों के भी उपासक हैं। प्रजापति का वैभव देखा तो लोगों ने सोचा शायद यही शिव हैं परन्तु प्रजापति बोल उठे नहीं हम तो पृथ्वी पर शिव के सकाम लिंग के पूजक हैं, हम कैसे शिव हो सकते हैं? 

           राजा हिमालय की प्रजा सोचने लगी जब इतने सारे वैभवशाली शिव के उपासक हैं तो फिर शिव का वैभव तो अद्भुत ही होगा परन्तु क्या देखते हैं बूढ़े नंदी पर सवार नंग-धड़ंग शिव, भूत-प्रेतो, आढ़े तिरछे, आधे अधूरे, चित्र-विचित्र, महाविकराल सेवकों और गणों के साथ चले आ रहे हैं। ये शिव हैं, ये शिव का वैभव, ये कैसा वैभव ? किसी की कुछ समझ में नहीं आया और न कभी आयेगा । वैभव देखा हो तो वैभव को पहचाने बस इतनी सी बात है। आगे कुछ नहीं कहना है। विवाह प्रारम्भ हुआ आचार्य ने पूछा शिव के पिता कौन ? ब्रह्मा बोले मैं हूँ इनका पिता, आचार्य पुनः बोला पितामह कौन ? विष्णु बोले मैं इनका पितामह, आचार्य ने पुनः पूछा शिव के पर पितामह कौन ? बस शिव बोल उठे मैं ही सबका बाप हूँ, यही मेरा परिचय है। सभा में सन्नाटा छा गया आचार्य ने जल्दी-जल्दी फेरे लगवा दिए, यही शिव का परिचय है। स्वयं के मुख से स्वयं का परिचय, अतः जो शिव ने कहा वही शाश्वत्।

               शिव ही सबके पिता हैं। 19 वीं सदी खत्म हो गई है एवं बीसवी सदी प्रारम्भ हो गई हैं। 19 वीं सदी की सबसे भयंकरतम भूल मानव समाज ने यह की कि अध्यात्म को गौण समझा, वेद एवं शैव साहित्य को एक तरह से नष्ट करने की कुचेष्ठा की। 15 वीं सदी से हम देखें या फिर हमें 1500 वर्ष का इतिहास देखना पड़ेगा तो मानव समाज पतोन्मुखी क्यों हुआ ? पहली बात पिछले 1500 वर्षों में मानव समाज में कृत्रिम आध्यात्मिक महापुरुषों का अभ्युदय हुआ, कृत्रिम धर्मों का निर्माण हुआ, शरीर धारियों की पूजा प्रारम्भ हुई जो कि मानव समाज के लिए विनाशकारी सिद्ध हुई। वैसे इसकी शुरुआत कृष्ण के जमाने से हो गई थी। गीता के कुछ श्लोकों को कृष्ण प्रेमियों ने अति में तोड़-मरोड़कर कृष्ण की गलत ढंग से उपासना प्रारम्भ की फिर देखा देखी विश्व के अनेक हिस्सों में इस तरह का प्रचलन प्रारम्भ हुआ। नई-नई, आधी-अधूरी पुस्तकों का निर्माण हुआ। जीवन दर्शन पुरंजक आधारित एवं व्यक्ति विशेष आधारित हो गया बस इसी कारणवश आपसी टकराव एवं धर्म के नाम पर भयंकर रक्तं पात हुआ, अभी भी यह चल रहा है। इन मार्गों से किसी ने भी पूर्णत्व प्राप्त नहीं किया। 

         अगर आप एक पंथ या धारा विशेष में क्रियाशील होते हैं तो इसका तात्पर्य है आप असुरक्षा के रोग से ग्रसित हैं। आप अप्राकृतिक शरण के जिज्ञासु हैं। एक सम्प्रदाय विशेष के पूजा स्थलों पर निवास करना, एक सम्प्रदाय विशेष के हाथों भोजन करना, उन्हीं में अपनी ऊर्जा नष्ट कर देना अध्यात्म नहीं है। अध्यात्म के मार्ग पर चले सरलीकरण का विधान नहीं ढूंढते। एक धारा विशेष के सिद्धातों को प्रतिपादित करना, आज से 1500 या 2000 वर्ष पूर्व किसी हाड़-मांस के व्यक्ति के कथनों को दोहराना कहाँ का अध्यात्म है ? मदर टेरेसा ने अपनी निजी डायरी में लिखा ईश्वर हैं भी कि नहीं मुझे विश्वास नहीं। दलाई लामा नें कहा मुझे भी शंका है ईश्वर के अस्तित्व पर इत्यादि ऐसे ही उद्गार एक धारा विशेष में काम करने वाले लोगों को सबसे बड़ा दण्ड है। सारा जीवन धर्म का उपदेश दिया सारा जीवन धर्म की चादर ओढ़कर बिता दी, धर्म की रोटी खाई, धर्म के नाम पर माला पहनी परन्तु मरते वक्त तक भी हृदय पर हाथ रखकर ये न कह सके कि हमें ईश्वर ने दर्शन दिया। अब क्या बचा ? इससे बड़ा दण्ड क्या हो सकता है ?

            शून्य से ऊपर उठने की कला आपने कभी सीखी ही नहीं है। पाशुपतास्त्र आपने कभी अंगीकार किया ही नहीं, अण्ड को फोड़कर निकलने की ताकत आपमें है ही नहीं आपने तो बस एक धारा में बहने का संकल्प जो ले लिया था, शिवत्व आपमें है ही नहीं। आत्म अवलोकन जरूरी है। आज आप सभी से यही बोल रहा हूं कि सनातन धर्म की धारा को मत छोड़ना । कभी पंथ, वंशवाद, व्यक्ति पूजन इत्यादि में मत पड़ना । शिव शाश्वत् है। शाश्वतता से ही प्राकृतिक का जन्म होता है, शाश्वतता का चिन्ह हैं प्राकृतिक । प्राकृतिक अर्थात मानव हाथों से सर्वथा अनिर्मित । वेद के रचयिता कौन हैं ? कोई मनुष्य नहीं हैं, वेदों के ऊपर किसी लेखक का नाम नहीं लिखा है अतः वेद शाश्वत् हुए। आप वृक्ष से फल प्राप्त कर अगर सेवन करते हैं तो उसकी गुणवता मानव निर्मित कारखाने में उपलब्ध अप्राकृतिक पेय से कई गुना ज्यादा होगी एवं वह शरीर को शिवत्व भी प्रदान करेगी। ठीक इसी प्रकार शाश्वत् ज्ञान संस्थागत मनुष्य बुद्धि निर्मित ज्ञान की अपेक्षा ज्यादा हितकर है। इसका एकमात्र उपाय है योगात्मक, साधनात्मक एवं तंत्रात्मक जीवन तंत्र साधनाओं के माध्यम से प्राप्त शक्ति अमृतमयी होगी।

             पिछले सौ वर्षों में जन मानस नास्तिक क्यों बना ? कम्युनिष्ट क्यों बने ? धर्म से विरक्त लोग क्यों हुए? क्योंकि अप्राकृतिक, शिवत्व विहीन धर्मत्व का निर्माण हुआ। लोगों ने एक झटके से धर्म को नकार दिया, अच्छा किया। विषाक्त भोजन करने से अच्छा तो उपवास करना है। अप्राकृतिक धर्म के (साइड इफेक्ट्स) भी ऐलोपैथी दवाओं के समान हैं। मानव जगत ने इसे महसूस किया इसलिए सेवन बंद कर दिया, आप सबको सोचना पड़ेगा। शिव के सामने नंदीश्वर विराजमान हैं, नंदी धर्म का प्रतीक हैं, नंदी ब्रह्मचर्य का प्रतीक है अतः नंदी खतरनाक हुआ क्योंकि धर्म में प्रचण्ड बल है, ब्रह्मचर्य से अघोर बल की उत्पत्ति होती है इसलिए शिव नंदी के ऊपर विराजमान हैं। धर्म के ऊपर आरूढ़ हैं शिव, ब्रह्मचारियों की पीठ पर बैठे हैं शिव। धर्म को नियंत्रित करना ब्रह्मचर्य को नियंत्रित

करना, शिव के ही बस में है। सर्पों की दो जीभ होती है। अतः धर्म की बातें करने वाले एक जीभ से कुछ स्पंदन करते हैं तो दूसरी जीभ से कुछ और इसलिए शिव इन्हें अपने पास रखते हैं। ब्रहचारी बहुत खतरनाक होते हैं उल्टी सीधी व्यवस्था कर सकते हैं, अध्यात्म को तोड़-मरोड़कर पेश कर सकते हैं, धारा को परिवर्तित कर सकते हैं, गंगा को उल्टी दिशा में बहा सकते हैं अतः इन पर नियंत्रण अत्यधिक आवश्यक हैं, इन्हें शिव को ढोना ही पड़ता है। शिव के सामने नंदी रखा ही जाता है नहीं तो शिव के तेज को जनमानस नहीं झेल सकता। 

           तीन बिल्व पत्र चबा लो, भीषण से भीषण नशा उतर जायेगा। शरीर कितना भी विषाक्त हो गया हो बिल्व पत्र खाना शुरु कर दो, कठिन से कठिन गुप्त रोगों का विष भी मर जायेगा। मस्तिष्क रोग से ग्रसित होने पर, बुद्धि मंद पड़ जाने पर, यौवन नष्ट होने की स्थिति में बिल्व का शर्बत पीना शुरु कर दो। 21 दिन में चमत्कार हो जायेगा और ताप नियंत्रित हो जायेंगे। रुद्राक्ष गले में धारण कर लो रक्त चाप, दुःस्वप्न, कुविचार, हिंसा इत्यादि स्वतः ही नियंत्रित हो जायेगी। दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल देंगे रुद्राक्ष ! अकाल मृत्यु, अपमृत्यु, ग्रहबाधा निवारणार्थ, उन्नति हेतु रुद्राक्ष तो धारण करना ही पड़ेगा। मुधमेह के रोगियों के लिए तो बिल्व पत्र अमृत तुल्य है, जो कुछ शिव को चढ़ता है वह सब अमृत मय होता है।

                     शिव शासनत: शिव शासनत:

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