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वासुकये नमो नमः ।।

     
          समुद्र मंथन चल रहा था एक-एक कर | दिव्य विग्रह प्रकट हो रहे थे एवं समस्त ब्रह्माण्ड टकटकी लगाकर उन्हें निहार रहा था तभी उच्चैःश्रवा अश्व का प्राकट्य हुआ। महर्षि कश्यप की दस पत्नियों में से दो वनिता एवं कद्रू आपस में बोल उठीं। कद्रू ने कहा उच्चैःश्रवा अश्व काले रंग का है, वनीता बोलीं नहीं वह श्वेत वर्ण का है। दोनों में विवाद हो गया, कद्रू ने कहा अगर उच्चेः श्रवा घोड़ा श्वेत वर्ण का होगा तो मैं तुम्हारी दासी बन जाऊंगी अन्यथा वनीता तुम्हें मेरी दासता स्वीकार करनी होगी। वनीता पक्षीराज गरुड़, वरुड़ एवं अरुड़ की माता हैं, पक्षी वंश वनीता के गर्भ से उत्पन्न हुआ है। दूसरी तरफ कद्रू नागों की जननी हैं, कद्रू ने अपने नाग पुत्रों से कहा कि तुम सब केश के समान सूक्ष्म बन जाओ और जाकर उच्चैःश्रवा अश्व से इस प्रकार लिपट जाओ कि वह काले वर्ण का दिखाई पड़े। कुछ नागों ने अपनी माता के इस छल को मानने से इन्कार कर दिया दूसरे ही क्षण कद्रू ने मातृ द्रोह के रूप में उन्हें सर्प विनाश यज्ञ में भस्म हो जाने का श्राप दे दिया और कुछ सर्पों ने डर के मारे उनकी आज्ञा मान ली कालान्तर कद्रू ने छल के द्वारा वनीता एवं उनके पुत्र जटायु, सम्पाती समेत अनेक पक्षीराजों को बंधक बना लिया। 

                मातृ शाप से ग्रसित सर्प रोते बिलखते हुए ब्रह्मा के पास पहुँचे, पितामह व्यथित हो उठे। उनके व्यथित होते ही उनके मानस में एक पुत्री ने जन्म ले लिया, पितामह ब्रह्मा के व्यथित होते ही उनके श्वेत केशों का भी पात हो गया एवं ब्रह्मा के श्वेत केशों से देखते ही देखते श्वेत वर्ण के अति सुन्दर एवं सौम्य सर्पों का सृष्टि में आगमन हो गया। ब्रह्मा के मानस से उत्पन्न होने वाली श्वेत वर्ण की वह बालिका नाग कन्या मनसा कहलाईं एवं उनके श्वेत वर्णीय शरीर में नाग लिपट गये, नाग कन्या सीधे शिव लोक में पहुँची और घोर शिव तपस्या में लीन हो गईं। उनके वस्त्र जगह-जगह से फट गये, सूखकर कांटा हो गईं, समस्त शरीर जर्जर हो गया, शिव जी उन पर प्रसन्न हो गये और बोल उठे जरत्कारु अर्थात जर्जर शरीर वाली स्वयं शिव ने उन्हें दीक्षा दी, उन्हें संजीवनी मंत्र प्रदान किया। 

                शिव रूपी गुरु से उन्हें कृष्ण मंत्र प्राप्त हुआ। अंत में कृष्ण प्रकट हो गये स्वयं कृष्ण ने उनका पूजन किया और समस्त लोकों में उनका पूजन करवाया। इस प्रकार नागमाता मनसा का प्रादुर्भाव हुआ। जो भी जातक काल सर्प योग चाहे वह किसी भी प्रकार का क्यों न हो उससे पीड़ित हो अगर वह नागमाता मनसा के 12 नामों की स्तुति करता है तो वह सभी प्रकार के नाग कोपों से सदैव मुक्त रहता है। वे शिवांगी हैं, उनका एक नाम शिवांगी है क्योंकि शिव उनके गुरु हैं, उनका एक नाम नाग भामिनी क्योंकि वह नागों की बहिन हैं, एक नाम नाग रक्षिणी है क्योंकि उन्होंने नागों की रक्षा की है, उनका एक नाम श्वेता है क्योंकि वे श्वेत वर्ण की हैं, उनका एक नाम सिद्धयोगिनी है क्योंकि उन्होंने सिद्ध विद्या शिव से सीखी है, उनका एक नाम कृष्णा भी है क्योंकि वे कृष्ण के द्वारा पूजी गईं हैं, उनका एक नाम जगतकारिणीं हैं उन्हीं के गर्भ से आस्तिक का जन्म हुआ जिसने कि जनमेजय यज्ञ में सर्पों की रक्षा की।
 
            सर्पों पर भी काल आता है, सर्प भी काल से ग्रसित होते हैं, कौन शादी करे ? कौन इस संसाररूपी भयानक सर्प के चंगुल में फँसे, संसार तो सर्प की भांति है और स्त्री साक्षात् विषकन्या जिसका दंश मृत्यु तुल्य कष्ट ही देता है। संसार को ही काल सर्प योग समझने वाले जरत्कारु ऋषि सब कुछ त्याग घूम रहे थे तभी एक गहरे और सूखे कुएं में उन्हें सर्प नुमा रस्सी से लटकी हुईं कुछ अति बुजुर्ग दिव्य आत्माएं दिखाई दीं एवं रज्जू बने हुए उस सर्प की पूंछ को एक चूहा कुतर रहा था। वे दिव्य आत्माएं घोर हाहाकार कर रही थीं। पितरों के कर्म से, पूर्वजों के कर्म से, वंशजों में काल सर्प योग आ जाता है और वंशजों के कर्म से, अधार्मिक कुकृत्यों से पूर्वजों को, पितरों को भी कालसर्प योग ग्रसित कर लेता है। अब भारत वर्ष को ही लीजिए, अगर आप भारत वर्ष की जन्मकुण्डली बनायेंगे तो वह महाभयंकर सर्प योग से ग्रसित मिलेगी। 
                          शिव शासनत: शिव शासनत:
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           देश की कुण्डली ही काल सर्प योग से ग्रसित है तभी तो काल सर्प योग से ग्रसित नेता, अफसर, व्यापारी, उच्च पदों पर आसीन होते हैं। पिछले 60 वर्षों में इन सब मिलकर जोंक की भांति देश का खून चूस लिया, विभाजन पर विभाजन, अकाल, अविकास, गरीबी, निर्धनता, भ्रष्टाचार, नैतिक पतन, धर्म विरुद्ध कार्य, धर्म से भटकाव बस यही सब कुछ पिछले 50 वर्षों से भारत में हुआ है। प्रजनन तो काल सर्प योग भी करता है, उसके भी अण्डे बच्चे तेजी से होते हैं। वह नपुंसक नहीं है, वह संन्यासी नहीं है, वह ब्रह्मचारी भी नहीं है अपितु वह तेजी के साथ विकसित होने वाला एक जीवित जागृत योग है, यही विडम्बना है। इस जीव की संतति न बढ़े, इस जीव की जनसंख्या वृद्धि न हो, इसे उगने का, फैलने का विकसित होने का, जड़े जमाने का मौका रोकना पड़ेगा। एक व्यक्ति के काल सर्प निवारण कर देने से कुछ नहीं होगा। वर्ष भी काल सर्प योग से ग्रसित होते हैं। सन 2004 का जून महीना काल सर्प योग से ग्रसित था, विश्वास न हो तो पंचांग उठाकर देख लीजिए। माह, वर्ष, दिन, देश का राजा, देश के मंत्री, स्वयं देश इत्यादि अगर काल सर्प योग से ग्रसित हैं तो असर तो पड़ेगा ही, कोई नहीं बच सकता। अतः क्या निवारण है इसका ? कलियुग की शुरुआत ही कालसर्प योग की घटना से होती है । अभिमन्यु पुत्र परीक्षित वन में शिकार के लिए घूम रहे थे भूखे प्यासे तभी एक ऋषि-मुनि समाधिस्थ दिखे। परीक्षित पूछते रहे अन्न और जल के बारे में परन्तु समाधिस्थ ऋषि कुछ नहीं बोले । काल सर्प योग बुद्धि भ्रष्ट कर देता है। परीक्षित ने एक मरे हुए सर्प को ऋषि के गले में लपेट दिया। जिस कुल में युधिष्ठिर हुए, भीष्म हुए, अभिमन्यु हुए उस कुल में भी परीक्षित की बुद्धि भ्रष्ट हो गई। ऋषि पुत्र कह उठा जिसने मेरे पिता के गले में मृत सर्प लपेटा है उसकी मृत्यु सात दिन के भीतर तक्षक सर्प काटने से हो जाये। अधर्म आचरण, अमर्यादित व्यवहार, अनैतिकता, मद, घमण्ड इत्यादि काल सर्प योग के लिए पुष्टिवर्धक तत्व हैं। शैव धर्म, शैवोपासना, वास्तविक आध्यात्मिक मस्तिष्क ही वह तत्व हैं जो कि काल सर्प योग रूपी जीव को नपुंसक बना सकते हैं, उसकी जनसंख्या वृद्धि रोक सकते हैं, उसे निष्क्रिय कर सकते हैं। 
      
            आप अध्यात्म जगत से, अध्यात्म की सत्ता से, अध्यात्म के क्षेत्र से आप एक कील भी नहीं उठा सकते जब तक कि गुरु सत्ता शिव सत्ता पूर्ण हृदय से स्वीकार नहीं करते। , मंत्र जप ढकोसला है इससे कुछ नहीं होता। सबसे प्रमुख बात है धर्म की सत्ता स्वीकार करना शरणं होना, गुरु शरणं होना, शिव शरणं होना, धर्मं शरणं होना, सम्पूर्ण समर्पण कहीं कोई शिकायत नहीं, कहीं कोई सौदा नहीं, कहीं कोई गणित नहीं। वैसे भी शरणागत होने का कोई नियम नहीं है परन्तु अहं आड़े आता है, गणित आ आता है, कमजोरियाँ आड़े आती हैं बहुत कुछ आड़े आता है, सत्ता स्वीकारना आसान नहीं है। यही है. काल सर्प योग बाधा का मूल कारण।

                          शिव शासनत: शिव शासनत:

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