महाकाल के प्रांगण में बैठकर काक भुशुण्डी शिव शिव चिल्ला रहे थे। काक भुशुण्डी सशंकित, तार्किक प्रवृत्ति के साधक थे परन्तु उनके गुरु महाकाल क्षेत्र में निवास करने वाले अत्यंत ही सरल हृदय महात्मा थे । वे गुरु से रोज जिद करते थे कि "प्रकट करके दिखाओ प्रकट करके दिखाओ"। शिव को गुरु से ज्यादा महत्व दे रहे थे । अचानक एक दिन उनके गुरु शिव शिव चिल्लाते-चिल्लाते काक भुशुण्डी के पास से निकले। काक भुशुण्डी ने गुरु की अवहेलना कर दी, गुरु के चरण स्पर्श नहीं किए और मंत्र जपते रहे। सहृदय गुरु शिष्य की अज्ञानता को भुला बैठे परन्तु तभी हूंकार के साथ महाकाल प्रकट हो गये और एक लात मारी काक भुशुण्डी को, बोले तूने शिवापराध किया, गुरु का तिरस्कार किया जा काक योनि में प्रविष्ट हो जा।
महाकाल क्षमा नहीं करते। मनुष्य गुप्त पाप करता है, बड़ी ही चालाकी और सफाई से पापकर्म सम्पन्न करता है एवं दुनिया की नजरों से बच जाता है। न्याय व्यवस्था को भी अंगूठा दिखा देता है। राज्याध्यक्ष, शक्ति सम्पन्न, सिद्ध इत्यादि स्वयं ही तथाकथित नियम गढ़ लेते हैं पाप कर्म को पुण्य में परिवर्तित कर लेते हैं। सब छले जाते हैं परन्तु महाकाल का दृष्टांत, महाकाल की दिव्य दृष्टि और महाकाली की शक्ति के आगे असत्य कभी नहीं छिपता, दण्ड भोगना ही पड़ता है । महाकाल चक्र में महाकाल के साथ मृत्यु प्रदान करने वाली शक्तियाँ, दुर्घटना ग्रस्त करने वाली शक्तियाँ, असाध्य रोग निर्मित करने वाली शक्तियाँ, अभिशप्त करने वाली शक्तियाँ, अंग-भंग करने वाली शक्तियाँ इत्यादि चलती हैं। आत्म हत्या की तरफ प्रवृत्त करने वाली शक्तियाँ, प्रेत ग्रस्त करने वाली शक्तियाँ, विक्षिप्त एवं पागल बना देने वाली शक्तियाँ इत्यादि सब की सब महाकाल के प्रांगण में विद्यमान हैं।
जब व्यक्ति अपने गुप्त कर्मों से जघन्य पाप करता है तब महाकाल कुपित हो इन शक्तियों को आदेशित करते हैं एवं ये सब जीवों को महादण्ड प्रदान करती इन दण्डों का ब्रह्माण्ड में कोई तोड़ नहीं है। समूह के समूह नष्ट हो जाते हैं, शहर के शहर उजड़ जाते हैं, बड़े-बड़े शासनाध्यक्ष काल कवलित हो जाते हैं। यही महाकाल की हूंकार का रहस्य है, वे दण्डेश्वर हैं तो न्यायेश्वर भी हैं। वे ही मह तत्व देते हैं और मह तत्व छीनते हैं। वे ही संहारकर्ता निर्मित करते हैं और वे ही संहारकर्ताओं का भी संहार करते हैं। कब क्या रच दे ? किसी को पता नहीं क्योंकि वे आदि पुरुष हैं । महाकाली प्रथम महाविद्या हैं और महाकाल प्रथम शिव हैं। बहुत से कल्प आये जीव भूल गया, बहुत से कल्प आयेंगे जीव को अभी कुछ नहीं मालूम परन्तु महाकाल साक्षी हैं।
वायवी कल्प आया, वायु में गति करने वाले जीवों की प्रचुरता थी। जलीय कल्प में जलीय जीवों की प्रचुरता थी, वनस्पति कल्प आया केवल वनस्पतियाँ ही वनस्पतियाँ थीं अग्नि कल्प आया तो केवल अग्नि ही अग्नि थी। आये और चले गये परन्तु महाकाल स्थिर रहे, चिर स्थिर रहेंगे। प्रत्येक जीव के अंदर जैविक काल रचना है। प्रत्येक कल्प के अंदर काल रचना महाकाल ने निर्मित कर दी है। कब उठेगा ? कब मरेगा ? कब नाचेगा? सब कुछ महाकाल ने पूर्व निर्धारित कर दिया है। कब किसको बिखरना है, कब किसको जुड़ना है, कब काल को बढ़ाना है, कब काल को घटाना है और कब किसको किसका काल बन जाना है यह सब कुछ महाकाल की संहिता में पूर्व निर्धारित है। महाकाल की संहिता से ही समस्त ब्रह्माण्ड का निर्धारण होता है ।
महाकाल स्तोत्रम्
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यह स्तोत्र महाकाल भैरव के नाम से तंत्र ग्रंथ में मिलता है। इस स्तोत्र को स्वयं भगवान महाकाल ने भगवती भैरवी के पूछने पर बतलाया था। भगवान महाकाल तथा उनके विभिन्न नामों का इसमें स्मरण हुए उन्हें नमन किया है। अंत में ॐ ह्रीं सच्चिदानन्दतेजसे स्वाहा। इस मंत्र का तथा सोऽहं हंसाय नमः इस मंत्र का स्वरूप भी व्यक्त किया है। इस स्तोत्र के पाठ से भगवान महाकाल के पूजन का फल प्राप्त होता है और यह साधकों को सुख प्रदान करने वाला हैं।
महाकाल स्तोत्र--
ॐ महाकाल महाकाय, महाकाल जगत्पते ।
महाकाल महायोगिन्, महाकाल नमोऽस्तुते ॥
महाकाल महादेव, महाकाल महाप्रभो ।
महाकाल महारुद्र, महाकाल नमोऽस्तुते ॥
महाकाल महाज्ञान, महाकाल तमोऽपहन् ।
महाकाल महाकाल, महाकाल नमोऽस्तुते ॥
भवाय च नमस्तुभ्यं, शर्वाय च नमो नमः ।
रुद्राय च नमस्तुभ्यं, पशूनां पतये नमः ॥
उग्राय च नमस्तुभ्यं, महादेवाय वै नमः ।
भीमाय च नमस्तुभ्यमीशानाय नमो नमः ॥
ईश्वराय नमस्तुभ्यं, तत्पुरुषाय वै नमः ।
सद्योजात नमस्तुभ्यं, शुक्लवर्ण नमो नमः ॥
अधः कालाग्नि रुद्राय, रुद्ररूपाय वै नमः । स्थित्युत्पत्ति-लयानां च हेतु-रूपाय वै नमः ॥
परमेश्वर-रूपस्त्वं नीलकण्ठ नमोऽस्तुते।
पवनाय नमस्तुभ्यं हुताशन नमोऽस्तुते ॥
सोमरूप नमस्तुभ्यं, सूर्य रूप नमोऽस्तुते ।
यजमान नमस्तुभ्यमाकाशाय नमो नमः ॥
सर्वरूप नमस्तुभ्यं, विश्वरूप नमोऽस्तुते ।
ब्रह्मरूप नमस्तुभ्यं, विष्णुरूप नमोऽस्तुते ॥
रुद्ररूप नमस्तुभ्यं महाकाल नमोऽस्तुते ।
स्थावराय नमस्तुभ्यं, जङ्गमाय नमो नमः ॥
नम उभय रूपाभ्यां शाश्वताय नमो नमः ।
हुं हुङ्कार ! नमस्तुभ्यं, निष्कलाय नमो नमः ॥
अनाद्यन्त महाकाल, निर्गुणाय नमो नमः ।
सच्चिदानन्द रूपाय, महाकालाय ते नमः ॥
प्रसीद मे नमो नित्यं, मेघवर्ण ! नमोऽस्तुते ।
प्रसीद मे महेशान दिग्वासाय नमो नमः ॥
ॐ ह्रीं माया स्वरूपाय, सच्चिदानन्द-तेजसे ।
स्वाहा सम्पूर्णमन्त्राय, सोऽहं हंसाय ते नमः ॥
फलश्रुति--
इत्येवं देव-देवस्य, महाकालस्य भैरवि ! । कीर्तितं पूजनं सम्यक्, साधकानां सुखावहम् ॥
महाकाल रहस्यम्
तीनों लोकों के नायक विष्णु के दरवाजे पर खप्परधारी दक्षिणामूर्ति शिव "भिक्षां देहि" कह उठे । ब्रह्माण्डीय राज सिंहासन पर विराजमान विष्णु अचानक दम्भ ग्रसित हो उठे और भिक्षुक दक्षिणामूर्ति शिव को भिक्षा देने की बजाय तर्जनी दिखा लौटाने लगे। अचानक भिक्षुक दक्षिणामूर्ति शिव ने हूंकार भरी क्योंकि विष्णु काल के अधीन हो गये थे, भूतकाल को भूल गये थे, स्वयं के निर्माता की अबहेलना कर उठे । काल की महिमा ही ऐसी है कि गद्दी पर बैठने वाला गद्दी पर बैठाने वाले को भूल जाता है। भुलाना ही काल का महाअस्त्र है, स्मृति विहीन कर देना ही काल की शक्ति है अगर जीव स्मृति विहीन न हो तो वह काल को जीत लेगा एवं कालजयी हो जायेगा। दक्षिणामूर्ति शिव ने देखा कि विष्णु काल के अधीन हो रहा है अर्थात यह तो कालान्तर काल कवलित हो जायेगा, काल इसे धूल में मिला देगा, इसकी छवि काल के साथ विस्मृत हो जायेगी एवं कालान्तर लोग विष्णु कभी हुआ भी था कहने लग जायेंगे। अतः काल ग्रसित विष्णु की तर्जनी शिव ने अपने त्रिशूल से काट ली । रक्त की धारा बह उठी, खप्परधारी शिव ने भिक्षा के रूप में विष्णु के काल प्रदूधित रक्त को अपने भिक्षा पात्र में भर लिया और इस प्रकार विष्णु की चेतना जाग उठी वे पुन: दक्षिणामूर्ति गुरु को पहचान गये, वे इस ब्रह्माण्ड के सम्राट को पहचान गये, वे आदि देव महाकाल को पहचान गये, वे प्रथम पुरुष महाकाल की हूंकार के सामने नतमस्तक हो गये। भिक्षा पात्र में से कुछ बूंदे पृथ्वी पर गिर पड़ी और शिप्रा मचल उठी।
विष्णु के रक्त से शिप्रा का जन्म हुआ शिप्रा साक्षी है दक्षिणामूर्ति शिव गुरु के विष्णु को कालजयी बनाने की अर्थात विष्णु को महाकाल तत्व प्रदान करने की। दक्षिणामूर्ति शिव गुरु ने जिस स्थान पर अपना त्रिशूल ठोका वह भारतवर्ष की मानवाकार आकृति का नाभि बिन्दु बन गया अर्थात उज्जयिनी का उदय हो गया। शिव ने कहा विष्णु तेरा कार्य सृष्टि का पोषण करना है, ब्रह्मा को मैंने समझाया था कि सृष्टि की रचना में जल्दी न कर। ब्रह्मा की मदद हेतु शिव ने ब्रह्माण्डीय क्षीर सागर में गोता लगाया और औषधि एवं वनस्पति का निर्माण ही कर पाये थे कि ब्रह्मा की चीख पुकार सुन ब्रह्माण्डीय क्षीर सागर से बाहर निकलना पड़ा। ब्रह्मा ने जल्दी बाजी में सृष्टि की रचना कर दी, भक्षण करने वाले जीव सामने खड़े थे और ब्रह्मा को ही खाने दौड़ रहे थे। ब्रह्मा ने कहा शिव रक्षा करो, मेरे द्वारा रचित जीव मेरा ही भक्षण करने को तत्पर हैं। शिव की दृष्टि पड़ते ही कुछ जीव । कह उठे “वयं यक्षामः" अर्थात हम उपासना करेंगे, पूजन करेंगे, सृष्टि को कुछ अलग नजरिये से देखेंगे शिव कह उठे ब्रह्मा सृष्टि की रचना तो हो गई, जैसी होनी थी तुमने कर दी। इस सृष्टि में अधिकांशतः जीव सारा जीवन भोजन के लिए मारामारी करता रहेगा, भोजन ही उसका आधार होगा परन्तु तेरे द्वारा बनाये गये मुख, कर्ण, नासिका, नेत्र, इन्द्रियाँ, रोम छिद्रों के अलावा भी भक्षण के कुछ और मार्ग होंगे एवं इन सबसे पहले पोषण नाभि के द्वारा होगा यही एकमात्र उपाय है।
यही शिव का तंत्र है, यही अध्यात्म का बीज है कि जब तक जीव में ब्रह्मा द्वारा प्रदत्त समस्त भक्ष्य-कर्ता अंग विकसित नहीं हो जाते, जीव का पोषण शिव करेगा, उसे नाभि मार्ग के द्वारा सभी तत्वों की प्राप्ति होगी अन्यथा जीव तो ब्रह्मा को ही खा जायेगा, पुरुष के वीर्य में उपस्थित जीवन पुरुष का ही भक्षण कर जायेगा, माता के गर्भ में उपस्थित अण्ड मातृत्व ही खा जायेगा। माता पिता के संयोग से निर्मित पूर्ण जीव गर्भ के अंदर ही अपने भक्षणकर्ता अंगों की मदद से माता को ही खा जायेगा । अतः उसे बांधना होगा, विष्णु का पोषण कर्म गर्भ से बाहर आने के बाद प्रारम्भ होगा, गर्भ के अंदर तो नाभि केन्द्र ही जीव का पोषण करेगा अर्थात अध्यात्म ही जीवन को विकसित करेगा। नास्तिक से नास्तिक, पापी से पापी, अधर्मी से अधर्मी, अति में कुमार्गी मनुष्य भी अनंत काल से अध्यात्म को नहीं नकार पाये। अनेकों बार इस पृथ्वी पर कोशिश हुई कि अध्यात्म को समाप्त कर दिया जाय, अध्यात्म का नामोनिशान मिटा दिया जाय परन्तु कभी ऐसा न हो सका क्योंकि जीवन के प्रथम नौ मास सभी ने महाकाल के सानिध्य में बिताये हैं और नाभि से पोषण प्राप्त किया है।
क्रमशः
गर्भावस्था के नौ मास में जीव काल से परे होता है और महाकाल के सानिध्य में होता है। वह देख रहा होता है अपने पूर्व जन्म के कर्मों को, वह देख रहा होता है काल की मार को, वह देख रहा होता है अपने अनेक घटिया जन्मों को तभी वह तड़फ कर कह उठता है कि जन्म लेते ही मैं धर्म के मार्ग पर चलूंगा, मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होऊंगा, जन्म और मरण के कालरूपी चक्र से मुक्त होऊंगा इसलिए रोता हुआ पैदा होता है, पश्चाताप करता हुआ पैदा होता है, एक मौका और मिला भक्ष्य भक्ष्य की इस दुनिया से छुटकारा पाने हेतु इसलिए शिशु सहमा हुआ होता है। दक्षिणामूर्ति शिव के हाथ में उपस्थित खप्पर ब्रह्मा द्वारा रचित भक्ष्य भक्ष्य की इस घटिया सृष्टि की ओर ही इंगित करता है। बड़ी विकट है भक्षण की सृष्टि, पुरुष की काम वासना स्त्री का भक्षण कर रही है एवं स्त्री की कामवासना पुरुष का भक्षण कर रही है, जीव-जीव का भक्षण कर रहा है। कहीं प्रकाश का भक्षण हो रहा है, कहीं जल का भक्षण हो रहा है, कहीं अग्नि का भक्षण हो रहा है। बनाना आसान है, निर्माण काल के अधीन है इसलिए निर्माण काल ग्रसित होता है। शरीर चरमराते हैं, भवन ढहते हैं, सभ्यताएं मिटती हैं, ग्रह नक्षत्र टिमटिमाना बंद कर देते हैं, सूर्य लय खोता है, अग्नि भी मंद पड़ती है क्योंकि सबके सब काल के अधीन हैं।
देवताओं को आहुति चाहिए भक्षण के रूप में, विष्णु को पूजन चाहिए, अनेकानेक ग्रह नक्षत्रों, पिण्डों, देवी-देवताओं इत्यादि को स्तुतियाँ चाहिए, स्तोत्र चाहिए, उपासना चाहिए, देवालय चाहिए क्योंकि यह सब उनके भक्ष्य पदार्थ हैं, यह सब उनकी संतुष्टि का हेतु हैं, उनकी आनंद प्राप्ति के पोषक तत्व हैं। राजा को गद्दी चाहिए, कोई किसी का पोषक नहीं है अपितु सबके सब शोषक हैं। पोषक केवल शिव हैं, पोषक केवल दक्षिणामूर्ति हैं, वह भक्ष्य भक्ष्य से परे हैं। जहाँ जीव गर्भ से बाहर आया नाभि की क्रियाशीलता समाप्त वह सूक्ष्मातीत हो गई उसे पोषण की जरूरत नहीं है उसे भक्षण की जरूरत नहीं है। वह तो शिव कृपा है जीव को पुनः पंचतत्वीय जीवन प्रदान करने की। अतः महाकाल भारत वर्ष की धर्म भूमि के नाभि केन्द्र पर स्थित हैं। नाभि खिसकी तो हाजमा खराब एवं भक्ष्य भक्ष्य की आदत से ग्रसित जीव उदर पकड़कर बैठ जायेगा उसे अपना अस्तित्व बिखरता दिखाई पड़ेगा तभी तो संन्यासी कहते हैं कि नाभि पर ध्यान केन्द्रित करो, नाभि से श्वास लो, मणिपुर चक्र को जगाओ ।
मणि कौन ? मणि है शिव, मणि है महाकाल और उनका पुर है उज्जयिनी उज्जयिनी अर्थात जहाँ सूर्य छाया उत्पन्न नहीं करता, जहाँ सूर्य छाया विहीन है। जहाँ सूर्य की किरणें इस पृथ्वी पर सबसे न्यूनतम मात्रा में छाया को प्रादुर्भावित करतो हैं अर्थात सिर के ठीक ऊपर सूर्य उज्जयिनी भूमध्य रेखा पर स्थित है। समस्त पृथ्वी पर सूर्य केवल 21 मार्च से लेकर चार माह तक उज्जयिनी में ही सिर के ऊपर होता है। सूर्य काल का प्रवर्तक है। सूर्य काल का निर्माण करता है दिन, रात, मास, वर्ष, ऋतु इत्यादि सूर्य आधारित हैं परन्तु सूर्य भी काल के अधीन है वह महाकाल नहीं है वह भी छाया को पत्नी समझ बैठा और शनि को जन्म दे बैठा। छाया छदम् रुपिणी है, वास्तव में छाया ने सूर्य पत्नी संज्ञा का छदम् रूप धर सूर्य को छला था। छले तो सूर्य भी गये और अपनी प्रथम पत्नी संज्ञा से उत्पन्न यम को श्राप दे बैठे परन्तु शिव ने यम को लंगड़ा होने से बचा लिया। दुःखी यम, माता-पिता के द्वारा प्रताड़ित यम दक्षिण की ओर भाग गये। दक्षिण को अपना निवास स्थान बनाया भक्ष्य-भक्ष्य की इस संस्कृति में जीव निष्कासित होता है, प्रताड़ित होता है, पीड़ित होता है तो वह दक्षिण की तरफ भागता है।
दुनिया के नियम बड़े अजीब हैं, दुनिया के नियम काल के अधीन हैं। अतः काल के अधीन नियमों के कारण काल ग्रसित व्यक्ति अन्याय करते हैं, असत्य को सत्य के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। जो अभक्ष्य हैं वह सदैव निष्कासित होते हैं, जो अमहत्वपूर्ण हो जाते हैं उन्हें दक्षिण की तरफ भागना ही पड़ता है, एकांतवासी होना ही पड़ता है। राम के कुछ पूर्वज दक्षिण की तरफ भाग गये थे क्योंकि उन्हें अनार्य घोषित कर दिया गया था। रावण के पूर्वज भी वेदज्ञ थे पर काल के अनुसार दक्षिण की तरफ गमन करना पड़ा क्योंकि निष्कासित कर दिए गये थे, अमहत्वपूर्ण हो गये थे, हार गये थे, श्री विहीन हो गये थे। मृत्यु होती है तो जीव की आत्मा को दक्षिण दिशा से ही यमराज के दूत आकर ले जाते हैं अर्थात मोक्ष नहीं हुआ। जीव ने काल को नहीं समझा इसलिए काल ग्रसित हुआ अतः पुनः आना पड़ेगा, पुनः काल के सामने खड़ा होना पड़ेगा, पुनः चित्रगुप्त को कर्मों का हिसाब किताब देना होगा।
इस प्रकार तो काल अत्यंत ही बलवान हो गया ठीक है काल बलवान है परन्तु एक स्थान ऐसा भी है जहाँ काल नतमस्तक है जहाँ काल का प्रभाव शून्य है, जहाँ काल भी शरणागत है। और वह है महाकाल अर्थात उज्जयिनी । एक तरफ महाकाल का महाश्मशान धू-धू करके जल रहा था तो दूसरी तरफ महाकाल के मंदिर में मृदंग बज रहे थे और बीच में शिप्रा इठला रही थी तभी नाव पर सवार आदि शंकर शिप्रा की मध्य धारा में आ पहुँचे अचानक दौड़ते हुए नाव के किनारे पर खड़े हो गये, दोनों हाथ ऊपर थे और भावातीत ध्यानावस्था लग गई। शिष्य दौड़े, नाविक दौड़ा कि कहीं उफनती हुई शिप्रा में आदि शंकर गिर न पड़ें परन्तु वे अश्रु पूर्ण नेत्रों से चिताओं को निहार रहे थे, देखते-देखते कितना समय बीत गया उन्हें इसका भान ही नहीं रहा। मैंने पहले कहा कि महाकाल के सानिध्य में अगर काल का भास हो जाये तो फिर महाकाल का क्या महत्व ?
अचानक शंकर की समाधि सम्पूर्ण हुई, शिष्यों ने पूछा आप क्या निहार रहे थे हमें तो सिर्फ चिताओं की लपटें ही दिखाई दे रही थीं, ऐसा कौन सा दिव्य दृश्य था जिसे देख आप भाव विभोर हो उठे। आदि शंकर ने कहा काल आवरण डालता है एवं उसके निर्मित आवरण जीव को दिव्यता का अनुभव नहीं होने देते अन्यथा जीव क्षण भर में मुक्त हो जायेगा। मैंने आवरणों को भेद लिया है, मैंने काल को समझ लिया है, इसलिए मैं देख रहा था कि परम करुणामूर्ति शिव हाथ में त्रिशूल लिए हुए महाकाल के इस दिव्य श्मशान में प्रत्येक चिता के ऊपर सुसज्जित जीव के कर्ण में तारक मंत्र "ॐ" फूंककर उसे मुक्ति प्रदान कर रहे हैं और महाकाली चिता के ऊपर स्थित हो जीव के पिण्ड शरीर के कर्म बंधनों को बड़े यत्न के साथ एक-एक करके खोल रही हैं एवं ब्रह्माण्डीय सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा जीव का सूक्ष्म शरीर काल को भेदते हुए शिव लोक की तरफ प्रस्थान कर रहा है। गौर वर्णीय शिव और महाकाली के इस दिव्य करुणामय कर्म को ही मैं भावातीत ध्यान अवस्था में देख परम आनंदित हो रहा था।
जिस प्रकार शरीर में सुषुम्ना नाड़ी स्थित होती है उसी प्रकार ब्रह्माण्ड की सुषुम्ना नाड़ी उज्जयिनी के ठीक ऊपर स्थित है और इसी मार्ग का अनुसरण कर जीव काल चक्र से मुक्त हो जाता है। महाकाल के सानिध्य में मृत्यु, महाकाल का दर्शन, महाकाल का स्पर्श इसलिए दुर्लभ है। संसार की समस्त शक्तियां जोर लगा देती हैं कि जीव दक्षिणामूर्ति गुरु की शरण में न पहुँच सके, जीव महाकाल का सानिध्य न प्राप्त कर सके अन्यथा वह अजेय हो जायेगा वह कालजयी हो जायेगा फिर वह दिन रात, वर्ष, अवस्था, ॠतु इत्यादि से प्रभावित नहीं होगा, फिर उस पर ग्रहों के योग कार्य नहीं करेंगे। फिर किस बात की शनि की महादशा, फिर कैसी साढ़े साती, फिर मंगल की अंतर्दशा कुछ नहीं करेगी, फिर राहु और केतु पीड़ित नहीं करेंगे। तब मनुष्य शुक्र की उच्च दशा, मारकेश, मंगल की नीच अवस्था, शूद्र ग्रहों की कुदृष्टि से मुक्त हो जायेगा एवं उस पर किसी का वश नहीं चलेगा। वह महान हो जायेगा, उसका महत्व बढ़ जायेगा, वह "मह" को ग्रहण कर लेगा यही है महाकाल रहस्यम्।
12 ज्योतिर्लिङ्गों में 5 को अति महत्वपूर्ण बताया गया एवं इन 5 में से फिर 3 और भी ज्यादा महत्वपूर्ण कहे गये और उनमें से एक हैं महाकाल ब्रह्माण्ड का यह एकमात्र तांत्रोक्त ज्योतिर्लिङ्ग है। यहाँ शिव दक्षिण की तरफ मुख किए हुए हैं। गर्भ गृह का द्वार ही दक्षिण की तरफ है सूर्य पूर्व से उगकर पश्चिम में अस्त होता है दक्षिण को सबसे कम प्रकाश प्रदान करता है अतः शिव दक्षिणामुखी हो गये। वे उन्हें प्रकाश प्रदान करते हैं, वे उन्हें कृपा प्रदान करते हैं जिनका कोई नहीं होता। अत्यंत ही दयालु शिव रूप हैं महाकालेश्वर ।
एक सच्ची घटना है, एक स्त्री थी जिसकी बहिन उज्जैन में निवास करती थी और वह मुम्बई में उसकी बड़ी इच्छा थी कि वह देह त्यागे तो महाकाल के सानिध्य में परन्तु वृद्धावस्था के कारण, अर्थ की कमी के कारण वह आ नहीं पा रही थी। अंत समय में उसे घोर द्वंद हुआ, उसकी अंतिम श्वासें महाकाल के दर्शन हेतु अटक रही थीं तभी उसने प्राण त्याग दिए। कुछ दिनों पश्चात् महाकाल की आरती हो रही थी और उसकी बहिन ने देखा कि भीड़ में उसकी मृत बहिन खड़ी है, वह अचम्भित हो गई परन्तु उसने महसूस किया कि अन्य लोग उसकी उपस्थिति नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि सबके सब काल के अधीन हैं। आरती के पश्चात् उसने अपनी बहिन से पूछा कि तुम्हारी तो मृत्यु हो गई थी फिर तुम यहाँ कैसे ? उसकी मृत बहिन बोली मैं विदेह अवस्था में हूँ जीवन के अंतिम क्षण में मैंने अत्यंत ही उद्विग्न हो दक्षिणामूर्ति को याद किया था और वे स्वयं लेने चले आये इसी कारणवश आज महाकाल के प्रागंण में खड़ी हुई हूँ एवं कल सदा के लिए मुक्त हो जाऊंगी।
महाकाल की यात्रा अपने आपमें दुर्लभ है अगर कोई व्यक्ति महाकाल की यात्रा के समय काल कवलित होता है तो स्वयं महाकाल चलकर उसके पास आ जाते हैं, यही इस ज्योतिर्लिङ्ग की सबसे बड़ी विशेषता है। यही दीक्षा का महत्व है। महाकाल में शिव का नित्य आगमन है यहाँ पर शिव सोते नहीं है, यहाँ पर शिव विश्राम नहीं करते, यही एकमात्र ज्योतिर्लिङ्ग है जिसे कापालिकों ने अपनी पद्धति से पूजा जिसका रक्ताभिषेक भी हुआ है, जिसके सानिध्य में काला मुखों ने तपस्या की है, जिसे अघोरियों ने अपनी मनमर्जी से सजाया है, जिसे नाथों ने अपने हाथों से श्रंगारित किया है और वेदज्ञों ने वेद मंत्रों से गुंजित किया है। चिता भस्म लेपन, भस्म आरती यह पूर्णतः तांत्रोक्त प्रक्रिया है जो कि नित्य महाकाल के प्रांगण में ही सम्पन्न होती है अन्य कहीं और नहीं। पूर्व जन्मकृत पापों एवं काल के अधीन समस्त क्रियाओं का अघोर दाह भस्म आरती दर्शन के पश्चात् ही होता है। यह काल से मुक्ति का परिचायक है।
बैकुण्ठ चतुर्दशी को जब शिव की चल यात्रा निकलती है तो वह द्वारिका धीश के मंदिर तक भी पहुँचती है और द्वारिका-धीश अर्थात विष्णु को भी भस्म चढ़ती है, बिल्व पत्र अर्पित होता है और शिव को तुलसी अर्पित होती है विष्णु भी भस्म से श्रंगारित हो जाते हैं उज्जैन में यह सब अति दुर्लभ आध्यात्मिक प्रक्रियायें हैं, जिनका अपना विशेष आध्यात्मिक महत्व है। भांग से श्रंगार, मक्खन से श्रंगार, मेवे से श्रंगार केवल महाकाल का ही होता है। श्रंगार की यह प्रक्रिया अनंत फलदायी है इसके महत्व को क्या वर्णित करें? जीवन में कभी ऐसा सुखद महाक्षण आये तो स्वयं अनुभूत करे महाकाल के प्रांगण में खड़े होकर।
महाकाल तो स्वयंभू बनने का मूल स्थान है, इस सृष्टि ने मह प्राप्त नहीं किया ? तो फिर क्या प्राप्त किया। मह ही पहचान है जीव की जब तक मह नहीं मिलेगा जीव का भटकाव खत्म नहीं होता। महत्व तो सभी चाहते हैं, महत्वपूर्ण तो सभी होना चाहते हैं। तप, साधना, उपासना, युद्ध, विद्या, पद इत्यादि ये सब क्या हैं? सिद्धियाँ क्या हैं? इन सबका एकमात्र ध्येय है मह तत्व की प्राप्ति अर्थात महत्वपूर्ण होना उपयोगी होना उपयोगी होने की इसी दौड़ में महत्वपूर्ण बनने की इसी चेष्टा में अन्याय होते हैं, पाप होते हैं, शोषण होता है, प्रदूषण फैलता है, हिंसा भी होती है, कोई कुचल जाता है जाने अनजाने में कदमों के नीचे मह तत्व प्राप्त करना आसान नहीं है इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। मह ही श्री विद्या है। सृष्टि क्रम से भी श्री विद्या का पूजन है और संहार क्रम से भी श्री विद्या का पूजन है। अतः असुर लक्ष्मी, अलक्ष्मी भी संहार क्रम के द्वारा आ ही जाती हैं। महत्वपूर्ण बनने, महा बनने की होड़ में बोझ सिर पर आ ही जाता है, कदम बोझिल हो ही जाते हैं। अतः बंधन जकड़ लेते हैं तब पाँव महाकाल की तरफ दौड़ते हैं। जीव महाकाल स्थित महाश्मशान की तरफ भाग उठता है अघोर दाह हेतु, यहीं शिव अलक्ष्मी का दाह करते हैं, असुर लक्ष्मी का भी दाह करते हैं। यही ब्रह्माण्ड में एकमात्र जगह है जहाँ पर जीव असुर लक्ष्मी को भस्म कर सकता है क्योंकि असुर लक्ष्मी के भस्म होने के पश्चात् ही उसकी भस्म को शिव यहीं पर ग्रहण करते हैं अतः भस्म से विभूषित महाकाल को स्पर्श करते ही समस्त जन्मों में किये गये पाप आधे हो जाते हैं। शरीर में मौजूद अलक्ष्मी भस्म हो जाती हैं। नीचे महाकाल ऊपर श्रीयंत्र, यही है गर्भ गृह की शोभा साथ बैठे हैं। गणेश, पार्वती और कार्तिकेय महाकाल के गर्भ गृह में स्थित शिवलिङ्ग इस प्रकार से निर्मित हैं कि कोई उनकी सम्पूर्ण परिक्रमा नहीं लगा सकता। महाकाल की परिक्रमा लगाने की किसमें ताकत ? योनि के एक छोर से दूसरे छोर तक जाओ और पुनः उल्टे पैर लौटकर आ जाओ। यही है महाकाल के दर्शन की विधि।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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