जीवन महासंग्राम है। आप साधु बन जाओ, जंगल में जाकर पेड़ के नीचे बैठ जाओ, अपने आपको चार-दीवारी में कैद कर लो, जो मर्जी आये वो विधान अपना लो, चाहे जितनी बुद्धि लगा लो, जितना चाहे उतना अपने आपको सुरक्षित कर लो परन्तु महा संग्राम आप तक आ धमकेगा किसी न किसी रूप में और आप बच नहीं सकते। करोड़ों वर्षों सत्य, अहिंसा, दया, सेवा, सात्विकता, प्रेम, सौहाद्र, मैत्री इत्यादि की विचारधाराओं का प्रचार-प्रसार, पुराण, प्रवचन सीख इत्यादि के माध्यम से होता आ रहा है, होता रहेगा और होता आया है अपितु मैं इनका विरोधी नहीं हूँ, मैं किसी का विरोधी नहीं हूँ, विरोध और समर्थन जाने अनजाने में व्यक्ति को महासंग्राम में खींच लाते हैं। विरोध और समर्थन दोनों महासंग्राम के दो हाथ हैं इसलिए मैं शाश्वत सत्य की बात कर रहा हूँ, सनातन धर्म की बात कर रहा हूँ, प्रत्यंगिरा की शरण में जा रहा हूँ अर्थात भागो यहाँ से क्रीं का महाषोढान्यास कर, क्रीं वह महाबीज मंत्र है जिसके हाथ में न जाने कितने अस्त्र-शस्त्र विराजमान हैं पाशुपतास्त्र, आग्नेयास्त्र, त्रिशूलास्त्र, घोरास्त्र, अघोरास्त्र, प्रकाशास्त्र, दिव्यास्त्र से लेकर छुरी, तलवार, डमरु, खड्ग इत्यादि इत्यादि ।
हे महाप्रत्यंगिरे तू शस्त्र निर्मात्री है, तू शस्त्र बिन्दु है, तू अस्त्र सुसज्जिता है। नमोऽस्तुते नमोऽस्तुते समस्त शस्त्र धारिणी नमोऽस्तुते अतः इस महा षोढान्यास से जातक के अंदर समस्त शस्त्रों का प्रादुर्भाव स्वतः ही हो जाता है, एक महाशस्त्र संस्थान मस्तिष्क में क्रियाशील हो उठता है साथ ही साथ सहस्त्रार के मुख्य बिन्दु में शस्त्र बीज पल्लवित हो उठता है, सारे राडार अपने आप क्रियाशील हो उठते हैं एवं पर-शस्त्र आप तक पहुँचें, शत्रु आप तक पहुँचे इससे पहले ही रास्ते में उसका काम तमाम हो जाता है, उसके षडयंत्र का भांडा-फोड़ हो जाता है, उसके कुत्सित प्रवास जग जाहिर हो जाते हैं। आपके शरीर की समस्त गुप्तचर प्रणालियाँ सक्रिय हो उठती है और प्रत्यंगिरा, उपासना के माध्यम से आपको पहले ही सटीक सूचना प्रदान कर देती और आप बच निकलते हैं। इसके पश्चात् भी अगर शत्रु से आमना सामना हो जाये तो उसको हार निश्चित है। हे परम गोपनीय कालिका तुझे काली कहा जाता है क्योंकि जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह काले में से ही उत्पन्न होता है और काले में ही विलीन हो जाता है। सातों रंग काले रंग में से निकलते हैं और पुन: काले रंग में विलीन हो जाते हैं।
जीवन क्या है? आप किसे जीवन कहते हैं? प्रथम जन्म लेने से पूर्व हम कहाँ थे वह परम गोपनीय है अर्थात काली के काले रंग में छिपा हुआ है, मृत्यु के बाद हम कहाँ जायेंगे? वह भी परम गोपनीय है और यह भी काली के काले रंग में छिपा हुआ है। कहाँ से आये ? कहाँ गये? काली जो जानें। जन्म से मृत्यु तक की इस समयावधि में भी 50 प्रतिशत हम निद्रा के आगोश में रहते हैं अर्थात काली की गोद में लेटे रहते हैं अत: काली हो हमारी माता है, वास्तविक माता इसलिए वह महाप्रत्यंगिरा के रूप में इन जागृत प्रकाशमय समयावधि में हमारी रक्षा करती है। जब चिकित्सक की समझ में कुछ नहीं आता तो वह नींद की दवा दे देता है, जब दर्द बहुत होता है तब नशे का इंजेक्शन लगा दिया जाता है। दर्द निवारक औषधि क्या है ? एक तरह से नींद की औषधि है, जिस स्थान विशेष पर दर्द हो रहा हो उस स्थान विशेष को सुला दो, निद्रित कर दो। जब हम बहुत थक जाते हैं तो सो जाते हैं और पता नहीं कहाँ से पुनः सोम आकर हमें स्फूर्तिवान बना देता है। जब बच्चा रोता है तो माँ उसे सुला देती है क्या करें उसकी तथाकथित माँ ? अतः वह उसे निद्रा-रूपी मां कालिका की शरण में भेज देती है। जो सारे गम भुला दे सारे गिले शिकवे मिटा दे, कुछ पल के लिए चिंताओं से मुक्त कर दे वही प्रत्यंगिरा अर्थात कृत्य और कर्म के दुष्प्रभाव (साइडइफेक्ट्स) को हमारे मस्तिष्क से निकाल दे।
मनुष्य इस ब्रह्माण्ड में परम ऊर्जा का केन्द्र है, मनुष्य का निर्माण ऊर्जा के एक महत्वपूर्ण स्तोत्र के रूप में किया गया है एवं मनुष्य के अंदर कालिका सोम भरती है अतः वह सबकी नजरों में चढ़ा हुआ है और इसी सोम की प्राप्ति के लिए चाहे सूर्य हों, चाहे चंद्रमा, चाहे भूमि हो, चाहे राहु-केतु, चाहे शनि हों, चाहे गुरु हों, चाहे बुध हों, चाहे बृहस्पति हो, रोग ग्रह, बाल ग्रह, चौर ग्रह, शूद्र ग्रह, हिंसक पशु, मनुष्य, देवता, असुर, गंधर्व, यक्ष इत्यादि इत्यादि सबके सब मनुष्य से ऊर्जा प्राप्त करने में लगे हुए। होते हैं, सबकी निगाहें हम पर लगी हुई है, सब अपने-अपने अस्त्र-शस्त्रों, अपने-अपने विधानों, अपने-अपने प्रपंचों, अपने-अपने तंत्र के द्वारा मनुष्य का शोषण करने पर उतारू हैं।
उन्हें ऊर्जा चाहिए, उन्हें कालिका की शक्ति चाहिए, उन्हें सोम चाहिए इसलिए मनुष्य नुच रहा है, चुथ रहा है, भाग रहा है, रो रहा है, गिड़गिड़ा रहा है, दुःखी है,भयभीत है, परेशान है। वह अपने ज्ञान से, वह अपने विज्ञान से, वह अपने तथाकथित धर्म और अध्यात्म से करोड़ों वर्षों से प्रयत्नरत है कि वह इस पृथ्वी पर आनंदमय हो जाये, सुखी हो जाये पर ऐसा क्यों नहीं हो रहा? क्योंकि सबको मनुष्य से चाहिए।
चाहे सूर्य हों, चाहे देवता, चाहे ग्रह, चाहे नक्षत्र इत्यादि येन केन प्रकरेण ये सब ऊर्जा प्राप्त कर लेते हैं और मनुष्य का एक-एक अणु उपयोग कर लिया जाता है, यह अघोरा का नग्न सत्य है। जिसे जीवन में एक न एक दिन सभी मनुष्य समझ लेते हैं। न दो तो कष्ट, न दो तो युद्ध, न दो तो प्रताड़ना इत्यादि-इत्यादि । न दो तो दण्ड अर्थात वे लेकर ही मानते हैं। कर्म। वेद आये, अनेक धर्मो ने अनेकों ग्रंथ निकाले पर उनसे क्या हुआ? मानव कभी सुखी हुआ? वह इस मूलभूत समस्या का निवारण कर पाया? नहीं कदापि नहीं । मृत्यु क्या है? मृत्यु सम्पूर्ण शोषण है, पूरी तरह से उपयोग कर लेने की ब्रह्माण्डीय विधि है। हम एक विशेष ब्रह्माण्डीय व्यवस्था में आकर फँस गये हैं, हमने शरण ले रखी है अतः इस ब्रह्माण्डीय तंत्र में श्वास लेने की भी हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है एवं इन सबके पीछे महाप्रत्यंगिरा तत्व चिंतन, महाप्रत्यंगिरा महाविद्या के ज्ञान का नितांत अभाव है। जब तक हम इसे नहीं समझेंगे जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन सम्भव नहीं है और भागमभाग में हम एक दिन ऊर्जा-विहीन हो जायेंगे।
काली का तात्पर्य है कि जो कबाड़ को आत्मसात करे, कबाड़ का भक्षण कर फिर उसमें से कुछ अद्भुत सृजित कर दे वही काली। सबको शक्ति चाहिए, आज आप देखिए हम पुराने यंत्र, पुराने कपड़े, पुरानी कार, पुराना रेडियो इत्यादि- कबाड़ में फेंक देते हैं क्योंकि हमें अब वे ऊर्जा नहीं दे रहे हैं या फिर हमें उनसे और परिष्कृत ऊर्जा प्रदान करने वाले संसाधन और यंत्र मिल गये हैं अतः हम उन्हें कबाड़खाने में फेंक देते हैं ऐसा ही हमारे साथ होता है हमारे मस्तिष्क में बहुत सारा कबाड़ा इकट्ठा हो जाता है और उस कबाड़ का भक्षण करती हैं प्रत्यंगिराएं जो कि महाप्रत्यंगिरा के साथ चलती हैं। हमारे मस्तिष्क में झाड़ लगाती हैं प्रत्यंगिराएं, हमारे मस्तिष्क में पनप रहे अनाधिकृत सूक्ष्म जीवों को अपनी प्रतिरोधक क्षमताओं से मारती हैं प्रत्यंगिराएं। जब साधक कालिकामय होता है तब हौले से उसके सहस्त्रार से सोम का एक बिन्दु टपका देती हैं महाकालिका और काल के सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अंश में वह सोम देखते ही देखते उसके रक्त में घुलकर सम्पूर्ण शरीर में क्रियाशील हो उठता है और कालिका का साधक पुनः उठ खड़ा होता है एवं चल पड़ता है कर्म रूपी रणभूमि की तरफ यौद्धाओं के समान छाती ताने और कहता है कि आओ ढूंढो मेरे अंदर मौजूद सोम को । कर्म के द्वारा वह घोर युद्ध करता है सभी से पर कोई उसके अंदर से सोम निकाल नहीं पाता।
वैज्ञानिक कई शताब्दियों से इस प्रकार को संरचना बनाने में लगे हुए है जो कि परम ठोस हो और पूर्ण गोलाकार हो, मैंने कहा पूर्ण गोलाकार अर्थात एक ऐसा गोला जिसके अंदर मौजूद सभी अणु परमाणु भी सम्पूर्ण गोलाकार हो। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बिन्दु बनाने की प्रक्रिया है, महाबिन्दु का निर्माण है, यह भौतिक संसाधनों के माध्यम से महा प्रत्यंगिरा के निर्माण करने की योजना है। आप पृथ्वी को देखिए, वह पूर्ण रूप से गोलाकार नहीं है। उसकी सतह पहाड़ों से, गड्डों से, चट्टानों से, घाटियों से, दरों से पटी पड़ी है अतः आप इसे कैसे पूर्ण गोलाकार कह सकते हैं? यही हाल चंद्रमा, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, सूर्य एवं ब्रह्माण्ड के सभी पिण्डों का है पूर्ण गोलाकार कोई नहीं है, यही श्रीविद्या रहस्यम् है। जब सम्पूर्णता के साथ पूर्ण गोलाकार स्थिति प्राप्त कर ली जायेगी तो वह गोल स्वत: ही घूमने लगेगा, उसे घुमाने के लिए किसी अन्य शक्ति की जरूरत नहीं पड़ेगी और उसके ऊपर जलवायु, प्रकाश, अग्नि, उल्कापिण्ड इत्यादि किसी का कोई असर नहीं पड़ेगा। उस पर कुछ नहीं टिक सकता।
हे महाप्रत्यंगिरे तू शस्त्र निर्मात्री है, तू शस्त्र बिन्दु है, तू अस्त्र सुसज्जिता है। नमोऽस्तुते नमोऽस्तुते समस्त शस्त्र धारिणी नमोऽस्तुते अतः इस महा षोढान्यास से जातक के अंदर समस्त शस्त्रों का प्रादुर्भाव स्वतः ही हो जाता है, एक महाशस्त्र संस्थान मस्तिष्क में क्रियाशील हो उठता है साथ ही साथ सहस्त्रार के मुख्य बिन्दु में शस्त्र बीज पल्लवित हो उठता है, सारे राडार अपने आप क्रियाशील हो उठते हैं एवं पर-शस्त्र आप तक पहुँचें, शत्रु आप तक पहुँचे इससे पहले ही रास्ते में उसका काम तमाम हो जाता है, उसके षडयंत्र का भांडा-फोड़ हो जाता है, उसके कुत्सित प्रवास जग जाहिर हो जाते हैं। आपके शरीर की समस्त गुप्तचर प्रणालियाँ सक्रिय हो उठती है और प्रत्यंगिरा, उपासना के माध्यम से आपको पहले ही सटीक सूचना प्रदान कर देती और आप बच निकलते हैं। इसके पश्चात् भी अगर शत्रु से आमना सामना हो जाये तो उसको हार निश्चित है। हे परम गोपनीय कालिका तुझे काली कहा जाता है क्योंकि जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह काले में से ही उत्पन्न होता है और काले में ही विलीन हो जाता है। सातों रंग काले रंग में से निकलते हैं और पुन: काले रंग में विलीन हो जाते हैं।
जीवन क्या है? आप किसे जीवन कहते हैं? प्रथम जन्म लेने से पूर्व हम कहाँ थे वह परम गोपनीय है अर्थात काली के काले रंग में छिपा हुआ है, मृत्यु के बाद हम कहाँ जायेंगे? वह भी परम गोपनीय है और यह भी काली के काले रंग में छिपा हुआ है। कहाँ से आये ? कहाँ गये? काली जो जानें। जन्म से मृत्यु तक की इस समयावधि में भी 50 प्रतिशत हम निद्रा के आगोश में रहते हैं अर्थात काली की गोद में लेटे रहते हैं अत: काली हो हमारी माता है, वास्तविक माता इसलिए वह महाप्रत्यंगिरा के रूप में इन जागृत प्रकाशमय समयावधि में हमारी रक्षा करती है। जब चिकित्सक की समझ में कुछ नहीं आता तो वह नींद की दवा दे देता है, जब दर्द बहुत होता है तब नशे का इंजेक्शन लगा दिया जाता है। दर्द निवारक औषधि क्या है ? एक तरह से नींद की औषधि है, जिस स्थान विशेष पर दर्द हो रहा हो उस स्थान विशेष को सुला दो, निद्रित कर दो। जब हम बहुत थक जाते हैं तो सो जाते हैं और पता नहीं कहाँ से पुनः सोम आकर हमें स्फूर्तिवान बना देता है। जब बच्चा रोता है तो माँ उसे सुला देती है क्या करें उसकी तथाकथित माँ ? अतः वह उसे निद्रा-रूपी मां कालिका की शरण में भेज देती है। जो सारे गम भुला दे सारे गिले शिकवे मिटा दे, कुछ पल के लिए चिंताओं से मुक्त कर दे वही प्रत्यंगिरा अर्थात कृत्य और कर्म के दुष्प्रभाव (साइडइफेक्ट्स) को हमारे मस्तिष्क से निकाल दे।
मनुष्य इस ब्रह्माण्ड में परम ऊर्जा का केन्द्र है, मनुष्य का निर्माण ऊर्जा के एक महत्वपूर्ण स्तोत्र के रूप में किया गया है एवं मनुष्य के अंदर कालिका सोम भरती है अतः वह सबकी नजरों में चढ़ा हुआ है और इसी सोम की प्राप्ति के लिए चाहे सूर्य हों, चाहे चंद्रमा, चाहे भूमि हो, चाहे राहु-केतु, चाहे शनि हों, चाहे गुरु हों, चाहे बुध हों, चाहे बृहस्पति हो, रोग ग्रह, बाल ग्रह, चौर ग्रह, शूद्र ग्रह, हिंसक पशु, मनुष्य, देवता, असुर, गंधर्व, यक्ष इत्यादि इत्यादि सबके सब मनुष्य से ऊर्जा प्राप्त करने में लगे हुए। होते हैं, सबकी निगाहें हम पर लगी हुई है, सब अपने-अपने अस्त्र-शस्त्रों, अपने-अपने विधानों, अपने-अपने प्रपंचों, अपने-अपने तंत्र के द्वारा मनुष्य का शोषण करने पर उतारू हैं।
उन्हें ऊर्जा चाहिए, उन्हें कालिका की शक्ति चाहिए, उन्हें सोम चाहिए इसलिए मनुष्य नुच रहा है, चुथ रहा है, भाग रहा है, रो रहा है, गिड़गिड़ा रहा है, दुःखी है,भयभीत है, परेशान है। वह अपने ज्ञान से, वह अपने विज्ञान से, वह अपने तथाकथित धर्म और अध्यात्म से करोड़ों वर्षों से प्रयत्नरत है कि वह इस पृथ्वी पर आनंदमय हो जाये, सुखी हो जाये पर ऐसा क्यों नहीं हो रहा? क्योंकि सबको मनुष्य से चाहिए।
चाहे सूर्य हों, चाहे देवता, चाहे ग्रह, चाहे नक्षत्र इत्यादि येन केन प्रकरेण ये सब ऊर्जा प्राप्त कर लेते हैं और मनुष्य का एक-एक अणु उपयोग कर लिया जाता है, यह अघोरा का नग्न सत्य है। जिसे जीवन में एक न एक दिन सभी मनुष्य समझ लेते हैं। न दो तो कष्ट, न दो तो युद्ध, न दो तो प्रताड़ना इत्यादि-इत्यादि । न दो तो दण्ड अर्थात वे लेकर ही मानते हैं। कर्म। वेद आये, अनेक धर्मो ने अनेकों ग्रंथ निकाले पर उनसे क्या हुआ? मानव कभी सुखी हुआ? वह इस मूलभूत समस्या का निवारण कर पाया? नहीं कदापि नहीं । मृत्यु क्या है? मृत्यु सम्पूर्ण शोषण है, पूरी तरह से उपयोग कर लेने की ब्रह्माण्डीय विधि है। हम एक विशेष ब्रह्माण्डीय व्यवस्था में आकर फँस गये हैं, हमने शरण ले रखी है अतः इस ब्रह्माण्डीय तंत्र में श्वास लेने की भी हमें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है एवं इन सबके पीछे महाप्रत्यंगिरा तत्व चिंतन, महाप्रत्यंगिरा महाविद्या के ज्ञान का नितांत अभाव है। जब तक हम इसे नहीं समझेंगे जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन सम्भव नहीं है और भागमभाग में हम एक दिन ऊर्जा-विहीन हो जायेंगे।
काली का तात्पर्य है कि जो कबाड़ को आत्मसात करे, कबाड़ का भक्षण कर फिर उसमें से कुछ अद्भुत सृजित कर दे वही काली। सबको शक्ति चाहिए, आज आप देखिए हम पुराने यंत्र, पुराने कपड़े, पुरानी कार, पुराना रेडियो इत्यादि- कबाड़ में फेंक देते हैं क्योंकि हमें अब वे ऊर्जा नहीं दे रहे हैं या फिर हमें उनसे और परिष्कृत ऊर्जा प्रदान करने वाले संसाधन और यंत्र मिल गये हैं अतः हम उन्हें कबाड़खाने में फेंक देते हैं ऐसा ही हमारे साथ होता है हमारे मस्तिष्क में बहुत सारा कबाड़ा इकट्ठा हो जाता है और उस कबाड़ का भक्षण करती हैं प्रत्यंगिराएं जो कि महाप्रत्यंगिरा के साथ चलती हैं। हमारे मस्तिष्क में झाड़ लगाती हैं प्रत्यंगिराएं, हमारे मस्तिष्क में पनप रहे अनाधिकृत सूक्ष्म जीवों को अपनी प्रतिरोधक क्षमताओं से मारती हैं प्रत्यंगिराएं। जब साधक कालिकामय होता है तब हौले से उसके सहस्त्रार से सोम का एक बिन्दु टपका देती हैं महाकालिका और काल के सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अंश में वह सोम देखते ही देखते उसके रक्त में घुलकर सम्पूर्ण शरीर में क्रियाशील हो उठता है और कालिका का साधक पुनः उठ खड़ा होता है एवं चल पड़ता है कर्म रूपी रणभूमि की तरफ यौद्धाओं के समान छाती ताने और कहता है कि आओ ढूंढो मेरे अंदर मौजूद सोम को । कर्म के द्वारा वह घोर युद्ध करता है सभी से पर कोई उसके अंदर से सोम निकाल नहीं पाता।
वैज्ञानिक कई शताब्दियों से इस प्रकार को संरचना बनाने में लगे हुए है जो कि परम ठोस हो और पूर्ण गोलाकार हो, मैंने कहा पूर्ण गोलाकार अर्थात एक ऐसा गोला जिसके अंदर मौजूद सभी अणु परमाणु भी सम्पूर्ण गोलाकार हो। यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बिन्दु बनाने की प्रक्रिया है, महाबिन्दु का निर्माण है, यह भौतिक संसाधनों के माध्यम से महा प्रत्यंगिरा के निर्माण करने की योजना है। आप पृथ्वी को देखिए, वह पूर्ण रूप से गोलाकार नहीं है। उसकी सतह पहाड़ों से, गड्डों से, चट्टानों से, घाटियों से, दरों से पटी पड़ी है अतः आप इसे कैसे पूर्ण गोलाकार कह सकते हैं? यही हाल चंद्रमा, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, सूर्य एवं ब्रह्माण्ड के सभी पिण्डों का है पूर्ण गोलाकार कोई नहीं है, यही श्रीविद्या रहस्यम् है। जब सम्पूर्णता के साथ पूर्ण गोलाकार स्थिति प्राप्त कर ली जायेगी तो वह गोल स्वत: ही घूमने लगेगा, उसे घुमाने के लिए किसी अन्य शक्ति की जरूरत नहीं पड़ेगी और उसके ऊपर जलवायु, प्रकाश, अग्नि, उल्कापिण्ड इत्यादि किसी का कोई असर नहीं पड़ेगा। उस पर कुछ नहीं टिक सकता।
वह किसी की पकड़ में नहीं आयेगा,किसी की दृष्टि में भी वह नहीं पड़ेगा क्योंकि दृष्टि भी फिसल जायेगी, ध्वनि भी उससे टकराकर फिसल जायेगी,मन की तरंगे भी उस गोलाकार से टकराकर फिसल जायेंगी। वह सूक्ष्म भी होगा और विशाल भी, वह अस्तित्ववान भी होगा और अस्तित्व विहीन भी,वह काल से सदा मुक्त होगा, काल भी उस पर प्रभाव नहीं डाल पायेगा, महाकाल भी उस पर प्रभाव नहीं डाल पायेंगे। वह काल के छोटे से छोटे कण को भी मात दे देगा। उस गोले को घुमाने के लिए किसी ईंधन की जरूरत भी नहीं पड़ेगी वह स्वतः ही गति का अविष्कारक होगा, उसकी गति ही कालांतर अन्यों को गति प्रदान करेगी। वह आकाश गंगा के किसी भी गुरुत्वाकर्षण बल के द्वारा आकर्षित नहीं होगा अर्थात सब जगह से फिसल जायेगा, सबको भेदता हुआ सर्वत्र सभी परिस्थितियों में अपने आपको सुरक्षित रख लेगा, वह मार गणों को भी मार डालेगा यही है शिव रहस्यम्, यही है मणिद्वीप रहस्यम् जो सम्मुख होते हुए भी असम्मुख है,जो द्वैत होते हुए भी अद्वैत है। जिस दिन वैज्ञानिक इस सम्पूर्ण गोलाई को प्राप्त कर लेंगे उस दिन जीवन अद्भुत होगा एवं जीवन की प्रचलित मान्यताएं, जीवन में प्रचलित चिंतन, जीवन की प्रचलित सोच, जीवन का प्रचलित विज्ञान क्षण भर में बदल जायेगा और देखते ही देखते क्षण के छोटे से हिस्से में जो कुछ वर्तमान में महिमा मण्डित है वे सबके सब कबाड़ खाने में सुशोभित हो जायेंगे, अनुपयोगी हो जायेंगे। यहीं प्रत्यंगिरा का मुख्य लक्षण है कि वह क्षण भर में उपयोगी को अनुपयोगी बना देती है, महान को धूल-धुसरित कर देती है, मान्यताओं को बदल देती है अर्थात उलट देती है।
हे कृष्ण जब आपने अर्जुन के समक्ष अपना विराट स्वरूप दिखाया तो अग्र भाग में जो कुछ था वह तो अर्जुन देख गये। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण के पृष्ठभाग में क्या था? अब मैं यह बताता हूँ असंख्य असुरगण, असंख्य दैत्य-गण, असंख्य शिवगण, कालिका, भद्रकालिका, वीरभद्र, विषैले सर्प, एक आँख वाले मनुष्य, दुर्दात, दस्यु, परम हिंसक जीव, भूत-प्रेत, पिशाच-गण, डाकिनी शाकिनी, वेताल, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, महान कुकृत्यकारी, महाविध्वंसक, महाषडयंत्रकारी, विप्लव को साक्षात् मूर्तियां, प्रचण्ड उग्रायें, शिव-योगनियाँ इत्यादि-इत्यादि नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से युक्त एवं ब्रह्मा द्वारा रचित अविकसित, त्याजित, खराब हो गई संरचनाएं प्रभु श्रीकृष्ण अपने पृष्ठ भाग में सजोये हुए हैं। अग्र भाग का दर्शन, दायीं तरफ का दर्शन, बायीं तरफ का दर्शन, निचले तरफ का दर्शन, ऊर्ध्वं भाग का दर्शन कुछ अलग है तो वहीं कृष्ण के विराट स्वरूप में उनके पृष्ठ भाग का दर्शन तो अर्जुन कर ही नहीं सके और उनकी आँखें मुंद गईं। प्रत्येक आकाश गंगा के पीछे ब्लैक मैटर चलता है, काला तत्व चलता है जो जब चाहे तब आकाश गंगा को निगल सकता है।
अनंत व्यास की आकाश गंगा काले तत्व के सीमित व्यास में पता नहीं कहाँ गुम हो जाती है इसलिए हे प्रत्यंगिरा तेरे काले घने बाल तेरे नितम्बों तक लटक रहे हैं, हे योगनियों तुम्हारी जटायें तुम्हारे चरणों तक लटक रही हैं। हे छिन्नमस्ता, हे धूमा, हे कमला, हे शोडषी, हे त्रिपुर सुन्दरी, हे महाकाली, हे दक्षिणकाली, हे मातंगी, हे वल्गा आप सबके घने केश नितम्बों से भी नीचे पहुँच रहे हैं और आपके पृष्ठ को ढँक रहे हैं क्योंकि पीछे बहुत कुछ ऐसा है जो किसी काम का नहीं है, किसी योग्य नहीं है एवं उसे कालिका भक्षण करती हैं। आज से 500 वर्ष पूर्व पृथ्वी पर यह मान्यता थी कि यह चपटी है फिर एक प्रत्यंगिरा चली और यह मान्यता उलट गई। कालान्तर तथाकथित ज्ञानियों ने कह दिया कि पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र है और समस्त ग्रह-नक्षत्र उसके इर्द-गिर्द घूम रहे हैं फिर गैलेलियो आ गया उसने एक प्रत्यंगिरा चला दी कि पृथ्वी गोल है और देखते ही देखते पूर्व के ग्रंथ जो कि पृथ्वी को चपटा कहते थे कबाड़ खाने की शोभा बन गये। कुछ दिनों बाद एक और ज्ञान रूपी प्रत्यंगिरा चल गई कि पृथ्वी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्कर लगाती है बस फिर क्या था? देखते ही देखते वे ग्रंथ, वे विज्ञान, वे वैज्ञानिक, वह दार्शनिक, वे आध्यात्मिक व्यक्तित्व जो कि यह कह रहे थे कि समस्त ब्रह्माण्ड पृथ्वी के इर्द-गिर्द घूमता है सबके सब कबाड़ खाने की शोभा बन गये अर्थात कालिका एवं उनकी उग्राओं का भोज्य बन गये।
अब वैज्ञानिक कहने लगे हैं कि पृथ्वी गोल नहीं अपितु नारंगी के समान है, इस विज्ञान रूपी प्रत्यंगिरा ने उन सबको कबाड़खाने में डाल दिया जो कि पृथ्वी को गोल कहते थे फिर वैज्ञानिकों ने कहा कि पृथ्वी अपनी धूरी पर कांपती है जो इसे स्थिर मानते थे वे सबके सब कबाड़ खाने के रास्ते की तरफ चल दिए अर्थात कालिका के मुख का ग्रास बन गये। आगे पता नहीं कौन सी ज्ञान रूपी प्रत्यंगिरा चलेगी जो सब कुछ उलट पलट कर रख देती है।
हे प्रत्यंगिरे तू क्रांति की जननी है न जाने कब कैसी क्रांति जीवन के किस क्षेत्र में तू रच दे।एक मिनट लगता है मनुष्य के अंदर क्रांतिकारी परिवर्तन होने में और वह परम नास्तिक से परम आस्तिक बन जाता है,परम भोगी से परम योगी बन जाता ह है, परम अज्ञानी से परम ज्ञानी बन जाता है जरुरत है सिर्फ पलटने की।
कालीदास को हे कालिके तूने पलट दिया महाकवि बन गया,तुलसी दास को हे प्रत्यंगिरे तूने पलट दिया और वह रामचरित मानस रच बैठे, विवेकानंद को हे प्रत्यंगिरे तूने पलट दिया वह मूर्ख तो राम कृष्ण परमहंस के पास बाबू-गिरी की नौकरी मांगने गया था,गिड़गिड़ा कर रामकृष्ण परमहंस से कह रहा था कि गुरुजी कुछ करो ताकि मुझे किसी सरकारी विभाग में बाबू का पद प्राप्त हो जाये पर हे महाकाली स्वरूपिणी प्रत्यंगिरे तूने विवेकानंद को पलट दिया एवं उसका जो स्वरूप बाबू बनने जा रहा था उसे तू खा गई,उसका तू भक्षण कर गई और देखते ही देखते विवेकानंद का प्राकट्य हो गया। हे प्रत्यंगिरे तू वाल्मीकि रूपी डाकू को खा गई और उसमें से महर्षि वाल्मीकि का उदय हो गया। जब-जब तू चलती है, जिसके जीवन में तू चलती है तो तू कभी निष्फल नहीं होती,तू सम्पूर्ण परिवर्तन कर देती है।राजाराम से भगवान राम, कपि से श्री हनुमान,राजा सिद्धार्थ से बुद्ध,महाराजा से महावीर इत्यादि इत्यादि तू बना ही देती है इसलिए चाणक्य ने अपनी शिखा बांध ली थी जिसके कारण बहेलिए में से चंद्रगुप्त च मौर्य का प्राकट्य हो गया।प्रत्यंगिरा वह शक्ति है जो प्रत्यक्ष करती है,प्रत्यक्षीकरण का नाम ही है प्रत्यंगिरा।हे कालिके जब तेरी कृपा होती है तो तू प्रत्यक्ष कर देती है और अप्रत्यक्ष करने वाले सभी तत्वों का सम्पूर्णता के साथ निवारण कर देती है।महायौद्धा अशोक में से धर्म-सम्राट अशोक का उदय हो गया,जिसका तू प्रत्यक्षीकरण करती है उसकी प्रत्यक्ष रूप से रक्षा भी करती है,उसे प्रत्यक्ष रखती है,कोई उसे अप्रत्यक्ष फिर कभी नहीं कर सकता।
पृष्ठ भाग से अग्र भाग की तरफ की यात्रा है प्रत्यंगिरा साधना। हिमाचल प्रदेश में सिरमोर नामक जगह है जहाँ पर भगवती प्रत्यंगिरा का साक्षात् शक्तिपीठ है भंगायणी देवी के रूप में।यहाँ पर देवी जी की गर्दन पीछे की तरफ है अर्थात गर्दन पीठ की तरफ है यह संसार में एकमात्र प्रत्यंगिरा पीठ है पहले यहाँ पशु बलि चलती थी अब नहीं होती। यहाँ पर पुजारी अक्षत देता है जिसका नाम लेकर अक्षत चला दो 15दिन से 20दिन के अंदरयहाँ से महाप्रत्यंगिरा चल पड़ती हैं और शत्रु शमन निश्चित है। बंधु-बांधव,उसके देवी-देवता,उसकई आध्यात्मिक शक्ति सहित सब कुछ कूट पीसकर रख देती हैं,पलट कर रख देती हैं। हिमाचल के लोग बहुत डरते हैं प्रत्यंगिरा शक्ति पीठ पर जाने से एक बड़ी विचित्र कहानी है इस प्रत्यंगिरा शक्ति पीठ की शिरगुल महाराज महादेव नामक एक सिद्ध पुरुष थे एवं वे तंत्र शक्ति में अत्यंत ही पारंगत थे,उस समय दिल्ली में तुर्कों का शासन था।दिल्ली पहुँचकर इन सिद्ध देव पुरुष ने दिल्ली के दरबार में तंत्र शक्ति का अद्भुत प्रदर्शन किया,उन्हें बड़ा काम का समझकर तुर्की शासन ने चमड़े की जंजीरों से उन्हें बांधकर कारावास में रख दिया।इनके एक मित्र थे गोगा पीर जो कि राजस्थान में निवास करते थे वे भी बहुत सिद्ध पुरुष थे।
कारावास में बंद हिमाचल के उस सिद्ध पुरुष ने कौए के माध्यम से अपनी सहायता हेतु गोगा पीर के पास संदेश भेजा उस समय गोगा पीर भोजन कर रहे थे परन्तु संदेश मिलते ही वे भोजन अधूरा छोड़कर अपने मित्र की सहायता हेतु दिल्ली चले गए गोगा पीर एवं हिमाचल के सिद्ध पुरुष दोनों गुरु भाई थे और गुरु गोरखनाथ की सिद्ध-श्रृंखला में दीक्षित थे।कहाँ ढूंदू मैं अपने मित्र को?दिल्ली में गोगा पीर चिंतित हो रहे थे। उन्होंने तुरंत प्रत्यंगिरा का ध्यान किया तभी अचानक उनकी मुलाकात उस अति रूपवान, अति सौन्दर्यवान 19 वर्षीया स्त्री से हो गई जो कि मुगलों के कारावास में साफ-सफाई एवं झाड़ू लगाने का कार्य करती थी।गोगा पीर ने उससे मदद मांगी,उसने कहा जहाँ तुम्हारा मित्र बंद है। वहाँ मैं तीन बार झाड़ पटक दूंगी और तुम इशारे से समझ जाना कि यहाँ तुम्हारा मित्र बंद है ठीक ऐसा ही हुआ और गोगा पीर अपने मित्र को छुड़ाकर चल पड़े एवं साथ में वह स्त्री भी चल पड़ी।तीनों मुगल सेना से बचते हुए सिरमोर आ गये। एक रात्रि तीनों ने यहाँ पर निवास किया इसके बाद पता नहीं अचानक क्या हुआ अर्थात प्रत्यंगिरा चल पड़ीं और वह स्त्री सिद्ध स्वरूप में आ गई। उसे वरदान प्राप्त हुआ कि जो कोई भी जैसी भी इच्छा लेकर तुम्हारे पास आये उसे पूर्ण कर देना। सही-गलत, नैतिक-अनैतिक इनसे आप परे हो,सब कुछ उलट पुलटकर रख देना।यह अति चैतन्य शक्तिपीठ है एवं यहाँ पर बिल्ली के रूप में भैरवी भगवती के आगे सदा विराजमान रहती हैं।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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