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संस्कृत शिक्षा ।।

यही महेश्वर सूत्र है, या इसे पाणीनि के सूत्र के नाम से भी जानते हैं यही संस्कृत व्याकरण का मूल भी है ।
व्याकरण के सभी सूत्र महादेव की डमरू से फूटे हैं. वेद पहले से थे लेकिन उनको समझने के लिए तपस्या की दृष्टि चाहिए थी. घोर तप करके वेद देवता को प्रसन्न करना होता था तब वह अपना ज्ञान साधक के मन में प्रविष्ट कराते थे.

साधना और तपस्या का यह कार्य सरल नहीं था. इसीलिए वेदपाठी ब्राह्मण ऋषिगण या साधु-महात्मा ही होते थे. वेदों के ज्ञान के सार को सरल रूप में आम लोगों के लिए उपलब्ध कराने के लिए एक माध्यम की आवश्यकता थी.

महादेव के डमरू से फूटे चार ध्वनि अक्षरों की साधना करके पाणिनी जिन्हें वेद का अंशावतार माना जाता है, ने संस्कृत के सभी सूत्रों की रचना की और संस्कृत के सबसे बड़े ज्ञानी की उपाधि पाई. महादेव की कृपा से कैसे हुआ यह सब इसकी कथा सुनते हैं.

एक बार ऋषियों ने सूतजी से पूछा- भगवन! तीर्थों का दर्शन, दान, पूजा और व्रत-उपवास आदि में सबसे उत्तम धर्म साधन क्या है जिसका पालन करके मनुष्य इस भवसागर को सरलता से पार कर ले?

सूतजी बोले– ऋषियों आपने उत्तम प्रश्न किया है. इस संदर्भ में एक कथा सुनाता हूं. ध्यान से सुनो और समझो.

साम ऋषि के सबसे बड़े पुत्र का नाम पाणिनि था. पाणिनी मन लगाकर विद्या अभ्यास करते थे. ज्ञान प्राप्ति के हर संभव प्रयास में लगे रहते. उनमें सबसे बड़ा ज्ञानी बनने की धुन सवार हो गई पर उस समय पृथ्वी अद्वितीय विद्वानों से भरी थी.

ईश्वर की लीला देखिए. एक दिन अचानक पाणिनि को दैवयोग से यह आभास हुआ कि उनमें कुछ शक्ति ऐसी आ गई है कि वह कुछ असाधारण कर सकते हैं.

पाणिनि के पास ज्ञान साधारण ही था परंतु परमात्मा को जब कोई खेल रचना होता है तो वह कुछ न कुछ ऐसा कराते ही हैं जो अप्रत्याशित हो.

भगवान भोलेनाथ की माया ऐसी हुई कि पाणिनी ने अपनी बुद्धि जांचने के लिए सभी विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी. जिसे अभी ठीक से ज्ञान नहीं हुआ था उसने विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती दे दी

बात इतनी ही नहीं थी. अज्ञानता में पाणिनी ने सबसे पहले चुनौती दी भी तो किसे?
पणिनि ने कणाद ऋषि को ही शास्त्रार्थ की पहली चुनौती दे दी. कणाद उस समय के श्रेष्ठ विद्वानों में थे. उनके ज्ञान का सम्मान स्वयं वेद करते थे.

कणाद दिव्यदृष्टा थे. वह सब समझ गए. वह जानते थे कि पणिनी विलक्षण हैं किंतु उन्हें मिथ्या अभिमान हो गया है. कणाद ने पाणिनी की आंखें खोलने का निश्चय किया.

पाणिनी उनके पास शास्त्रार्थ के लिए आए तो कणाद ने बड़े आदर से स्वागत किया.

उन्होंने पाणिनी से कहा- पाणिनी पहले मेरे शिष्यों से ही शास्त्रार्थ कर लो. यदि तुम उन्हें पराजित कर सको तो फिर मैं तुमसे शास्त्रार्थ करने को सहर्ष तैयार हूं.

पाणनि का कणाद के शिष्यों के साथ शास्त्रार्थ आरंभ हुआ परंतु शीघ्र ही कणाद के शास्त्रज्ञ शिष्यों से वह पराजित हो गए. उन्हें अपनी क्षमता का बोध हो चुका था. वह लज्जित होकर उस क्षेत्र से निकले.

लज्जावश वह अपने घर भी नहीं लौट सकते थे. इसलिए तीर्थयात्रा के लिए चले गए.

सभी तीर्थों में स्नान तथा देवता-पितरों का तर्पण कर चुकने के बाद भी मन शांत न हुआ. पाणिनी के समक्ष जीवन आशाहीन लग रहा था.

उन्हें जगत के गुरू महादेव को प्रसन्नकर ज्ञान प्राप्त करने की सूझी तो केदारक्षेत्र में रहकर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए तप करने लगे.

पाणिनी का तप धीरे-धीरे कठोर होता जा रहा था. पहले तो वह पूरी तरह से वृक्ष के पत्तों के आहार पर निर्भर रहे. सात दिनों बाद एकबार जल ग्रहण करते थे.

इसके बाद दसवें दिन केवल जल ग्रहण करने. बाद में उन्होंने जल भी त्याग दिया और दस दिनों तक केवल वायु के ही आहार पर निर्भर रहकर भगवान शिव का ध्यान करते रहे.

इस प्रकार अठ्ठाइस दिन बीत गये. पाणिनी की कठोर तपस्या निरंतर चल रही थी. पाणिनि की प्रतिज्ञा उनकी तपश्चर्या में दीख रही थी. अंतत: शीघ्र प्रसन्न होने वाले औघड़ दानी महादेव ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा.

भगवान् शिव की स्तुति करने लगे- महान रुद को नमस्कार है. सर्वेश्वर सर्वहितकारी भगवान् को नमस्कार है. विजय एवं विद्या प्रदान करनेवाले भगवान महादेव को नमस्कार है. देवेश! मुझे मूल विद्या एवं परम शास्त्रज्ञान प्रदान करने की कृपा करें.

सूत जी बोले– हे ऋषिगणों, महादेवजी ने प्रसन्न होकर अपने डमरू से ध्वनि निकाली और उससे निकले ‘अ इ उ ण’ जैसे मंगलकारी वर्ण और व्याकरण सूत्र प्रदान किया.

शिवजी बोले- पाणिनी! मैंने जो प्रदान किया उसे सर्वोत्तम तीर्थ समझना. आत्मज्ञान से बड़ा कोई तीर्थ नहीं. बिना ज्ञान प्राप्त किए तीर्थ दर्शन का पूर्ण लाभ नहीं होता. यह महान-ज्ञानतीर्थ ब्रह्म के साक्षात्कार कराने तक में समर्थ है. सभी धर्म साधनों का एक साथ लाभ देने वाला है.

इस के बाद भगवान रूद्र अंतर्धान हो गए और पाणिनि पूरे आत्मविश्वास से अपने घर लौटे.
शिवजी की संध्या तांडव के समय उनके डमरू से निकली हुई ध्वनि उन्हें याद थी. पाणिनी उस ध्वनि का ध्यान करने लगे. उन ध्वनियों के ध्यान से संस्कृत में वर्तिका नियम की रचना की प्रेरणा हुई और उन्होंने रचा भी.

पाणिनी को भगवान का आदेश था कि समस्त तीर्थों का लाभ ज्ञानतीर्थ से प्राप्त करना है. उन्होंने एक स्थान पर आसन जमाया और डमरू की ध्वनियों के और रहस्य तलाशने लगे.

उनकी दृष्टि जितनी विस्तृत होती जाती उन्हें उतनी ही प्रेरणा मिलती गई. इस तरह पाणिनि ने सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ और लिंगसूत्र-रूप व्याकरण शास्त्र का निर्माण कर दिया.

पाणिनी की इस रचना से जब संसार परिचित हुआ तो वह उनकी पूजा करने लगा. इस तरह पाणिनी ने परम निर्वाण प्राप्त किया.

कथा सुनाकर सूतजी बोले- ज्ञान एक सरोवर है. उस सरोवर का सत्य रूपी जल राग-द्वेष रूपी मल का नाश करने वाला है.

तीर्थों के दर्शन, दान, पूजा और व्रतोपवास से भी उत्तम धर्म साधन है मानस तीर्थ का दर्शन करता अर्थात ज्ञान प्राप्त करना. उससे समस्त पुण्य लाभ प्राप्त हो जाते हैं.

(भविष्य पुरांण प्रतिसर्गपर्व, द्वितीय खंड के पन्द्रहवें अध्याय की कथा)

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