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ओंकार साधना ।।

उपासना विधि

हृत्युण्डरीकं विरजं विशोकं विशदं परम् ।
अष्टपत्रं केशराढ्यं कर्णिकोपरि शोभितम् ॥
आधारशक्तिमारभ्य त्रितत्त्वान्तमयं पदम् ।
विचिन्त्य मध्यतस्तस्य दहरं व्योम भावयेत् ॥
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मां त्वया सह । चिन्तयेन्मध्यतस्तस्य नित्यमुद्युक्तमानसः ॥

                 अर्थात उपासक स्वच्छ, शोकरहित, उज्ज्वल, अष्टदल कमल के समान मकरन्दयुक्त, कर्णिका से शोभायमान हृदय कमल के मध्य में आधार-शक्ति से आरम्भ करके त्रितत्त्वमय उत्तम पद का ध्यान करके दहरव्योम की भावना करे। ॐ इस एकाक्षर ब्रह्म का उच्चारण कर तुम्हारे साथ मेरा दहराकाश के बीच में सदा उत्कण्ठा से चिन्तन करें।

उपासना का फल

एवंविधोपासकस्य मल्लोकगतिमेव च ।
मत्तो विज्ञानमासाद्य मत्सायुज्यफलं प्रिये ॥

           अर्थात हे प्रिये । इस प्रकार उपासना करने वाले को मेरे लोक की गति प्राप्त होती है और मुझसे ज्ञान प्राप्त कर वह मेरे ही सायुज्य को प्राप्त हो जाता है।

जप-विधि

ॐ अस्य श्रीप्रणवमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छन्दः, परमात्मा सदाशिवो देवता, अं बीजम्, उं शक्तिः, मं कीलकम्, मम मोक्षार्थे जपे विनियोगः ।

अङ्गन्यास

शिरसि, ब्रह्मणे ऋषये नमः । मुखे, गायत्रीच्छन्दसे नमः । हृदि, परमात्मने देवतायै नमः । गुह्ये, अं बीजाय नमः । पादयोः, उं शक्तये नमः । नाभौ, मं कीलकाय नमः । सर्वाङ्गे, मम मोक्षार्थे जपे विनियोगः ।

करन्यास

अं अङ्गुष्ठाभ्यां नमः । उं तर्जनीभ्यां नमः । मं मध्यमाभ्यां नमः । अं अनामिकाभ्यां नमः । उं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । मं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

हृदयादिन्यास

ॐ ब्रह्मणे हृदयाय नमः । उं विष्णवे शिरसे स्वाहा। मं रुद्राय शिखायै वषट्।अं ब्रह्मणे कवचाय हुम् । उं विष्णवे नेत्रत्रयाय वौषट । मं रुद्राय अस्त्राय फट् ।

ध्यान

ॐ कारं निगमैकवेद्यमनिशं वेदान्ततत्त्वास्पदं चोत्पत्तिस्थितिनाशहेतुममल विश्वस्य विश्वात्मकम्। विश्वत्राणपरायणं श्रुतिशतैः सम्प्रोच्यमानं प्रभुं सत्यं ज्ञानमनन्तमूर्तिममलं शुद्धात्मकं तं भजे ॥

नमस्कार

ॐकारं विन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ॐकाराय नमो नमः ॥

प्रणव-जप का फल

महर्षि पतञ्जलि ने कहा है
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्चं ।
अर्थात् प्रणव के जप से आत्मस्वरूप की प्राप्ति तथा सारे विघ्नों का नाश होता है।

                    भगवान् शंकर ब्रह्मा-विष्णु से कहते हैं-

तत्तन्मन्त्रेण तत्सिद्धिः सर्वसिद्धिरितो भवेत्।
अनेन मन्त्रकन्देन भोगो मोक्षश्च सिध्यति ।
सकला मन्त्रराजानः साक्षाद् भोगप्रदाः शुभाः ।।

          अर्थात् उस उस मन्त्र से वह वह सिद्धि होती है, किंतु प्रणव मंत्र से सब सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। यह सकल मन्त्रों का मूल है और भोग मोक्ष दोनों का देने वाला है।

वेदादौ च प्रयोज्यं स्याद्वन्दने संध्ययोरपि । नवकोटिजपाञ्जप्त्वा संशुद्धः पुरुषो भवेत् ॥
पुनश्च नवकोट्या तु पृथिवीजयमाप्नुयात्।
पुनश्च नवकोट्यातु ह्यपां जयमवाप्नुयात् ॥
पुनश्च नवकोट्यातु जेजसां जयमवाप्नुयात्।
पुनश्च नवकोट्यां तु "वायोर्जयमवाप्नुयात्
आकाशजयमाप्नोति नवकोटिजपेन वै ।
गन्धादीनां क्रमेणैव नवकोटिजपेन वै ।।
अहंकारस्य च पुनर्नवकोटिजपेने वै ।
सहस्रमन्त्रजप्तेन नित्यं शुद्धो भवेत् पुमान् ।।
ततः परं स्वसिद्धयर्थं जपो भवति हि द्विजाः । एवमष्टोत्तरशतकोटिजप्तेन वै पुनः ।।
प्रणवेन प्रबुद्धस्तु शुद्धयोगमवाप्नुयात् ।
शुद्धयोगेन संयुक्तो जीवन्मुक्तो न संशयः ।।

            अर्थात् वेद के आदि में तथा दोनों काल के संध्या-वन्दन में भी ॐकार का प्रयोग करना चाहिये। नौ करोड़ जप करने से पुरुष शुद्ध हो जाता है। फिर नौ करोड़ जप करने से पृथिवी तत्त्व का जय होता है । इसी प्रकार नौ-नौ करोड़ से क्रमश: जल, अग्नि, वायु एवं आकाश तत्त्व का जय होता है । पश्चात् नौ-नौ करोड़ से क्रमशः पञ्चतन्मात्राओं तथा अहंकार - तत्त्व का जय होता है। नित्य सहस्र मन्त्र जपने से पुरुष शुद्ध रहता है, फिर इससे अधिक जप आत्मज्ञान की सिद्धि के लिये होता है। इस प्रकार 108 करोड़ जप करने से पुरुष प्रबुद्ध होकर शुद्ध योग को प्राप्त होता है और शुद्ध योग से निःसन्देह जीवन्मुक्त हो जाता है। प्रणव रूप शिव का सदा जप और ध्यान करने वाला महायोगी समाधि में स्थित होकर शिवरूप हो जाता है।.
                         ॥ शिव एव न संशयः ॥


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