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अद्वैत ।।

आध्यात्मिक जगत में ब्रह्म, माया और जीव को स्वीकार करना होगा। साधना की दो उच्च अवस्थाएँ है।

 प्रथम में जीव और आत्मा अलग होते हैं। यहाँ जीव भवसागर में अर्थात् अहंकार युक्त भाव में रह जाता है और आत्मा जीवभाव से मुक्त, कर्म बंधन से मुक्त, अपने चैतन्य स्वरूप में स्थित होता है। माया सहयोगिनी होती है ऐसे विशिष्ट योगी की।

 द्वितीय है उच्चतम स्थिति जहाँ चैतन्य आत्मा में विलय हो जाता है माया का, अर्थात् वह आत्मा त्रिगुणातीत हो जाता है। इसे ही ब्रह्म संज्ञा दी गई है।

जीव को माया का ही एक रूप माना गया है। जीव का माया में और माया का चैतन्य आत्मा में लय होना ही एक ध्यान-योगी को ब्रह्म-योगी के उच्चतम शिखर पर प्रतिष्ठित करता है। 

यह है अद्वैत, अहं ब्रह्मास्मि, या एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, या शिवोSहं।

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