Follow us for Latest Update

स्वरविज्ञान और ज्योतिष शास्त्र ।।

स्नेह वंदन...!!! 

मानव - शरीर पंचतत्त्वों का बना हुआ ब्रह्माण्ड का ही एक छोटा स्वरूप है। ईश्वर की असीम कृपा से जन्म के साथ ही मानव को स्वरोदय-ज्ञान मिला है। यह विशुद्ध वैज्ञानिक आध्यात्मिक ज्ञान-दर्शन है, प्राण ऊर्जा है, विवेक शक्ति है।

संसार के सब जीवों में से मनुष्य ही एकमात्र कर्म योनि है। शेष सब भोग योनियाँ हैं। स्वर-साधना से ही हमारे
ऋषि-मुनियों आदि ने अनुभव से भूत, भविष्य और वर्तमान को जाना है। अब यह मनुष्य के हाथों में है कि इस स्वरोदय-
विज्ञान का कितना उपयोग और उपभोग करता है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में अंक-ज्योतिष, स्वप्न-ज्योतिष, स्वरोदय-ज्योतिष, शकुन-ज्योतिष, सामुद्रिक-हस्तज्योतिष, शरीरसर्वांगलक्षण ज्योतिष आदि पर अनेकानेक ग्रन्थ हैं। इन सबमें अति प्राचीन, तत्काल प्रभाव और परिणाम देने वाला स्वरोदय-विज्ञान है।मनुष्य की नासिका में दो छिद्र हैं-दाहिना और बायाँ। दोनों छिद्रों में से केवल एक छिद्र से ही वायु का प्रवेश और बाहर निकलना होता रहता है। दूसरा छिद्र बन्द रहता है। जब दूसरे छिद्र से वायु का प्रवेश और बाहर निकलना प्रारम्भ होता है तो पहला छिद्र स्वत ही स्वाभाविक रूप से बन्द हो जाता है अर्थात् एक चलित रहता है तो दूसरा बन्द हो जाता है। इस प्रकार
वायुवेग के संचार की क्रिया-श्वास-प्रश्वास को ही स्वर कहते हैं। स्वर ही साँस है। साँस ही जीवन का प्राण है। स्वर का दिन-रात २४ घंटे बना रहना ही जीवन है। स्वर का बन्द होना मृत्यु का प्रतीक है।

स्वर का उदय सूर्योदय के समय के साथ प्रारम्भ होता है। साधारणतया स्वर प्रतिदिन प्रत्येक अढ़ाई घड़ी पर अर्थात एक-एक घंटे के बाद दायाँ से बायाँ और बायाँ से दायाँ बदलते हैं और इन घड़ियों के बीच स्वरोदय के साथ पाँच तत्त्व-पृथ्वी (20 मिनट), जल (16 मिनट), अग्नि (12 मिनट), वायु (8 मिनट), आकाश (4 मिनट) भी एक विशेष समय-क्रम से उदय होकर क्रिया करते रहते हैं। प्रत्येक (दाहिना-बायाँ) स्वर का स्वाभाविक गति से 1 घंटा-900 श्वास संचार का क्रम होता है और
पाँच तत्त्व 60 घड़ी में 12 बार बदलते हैं। एक स्वस्थ व्यक्ति की श्वास-प्रश्वास-क्रिया दिन-रात अर्थात् 24 घंटे में 21600 बार होती है। 

नासिका के दाहिने छिद्र को दाहिना स्वर या सूर्यस्वर या पिंगला नाडी-स्वर कहते हैं और बायें छिद्र को बायाँ स्वर या चन्द्रस्वर या इडा नाडी-स्वर कहते हैं। इन स्वरों का आत्मानुभव व्यक्ति स्वयं मन से ही करता है कि कौन-सा स्वर चलित है, कौन-सा स्वर अचलित है। यही स्वरविज्ञान ज्योतिष है।
कभी-कभी दोनों छिद्रों से वायु-प्रवाह एक साथ निकलना प्रारम्भ हो जाता है, जिसे सुषुम्ना नाड़ी-स्वर कहते हैं । इसे उभय-स्वर भी कहते हैं । शरीर की रीढ़की - हड्डी में ऊपर मस्तिष्क से लगाकर मूलाधारचक्र (गुदद्वार) तक सुषुम्ना नाड़ी रहती है। इस नाड़ी के बायीं ओर चन्द्रस्वर नाड़ी और दायीं ओर सूर्यस्वर नाड़ी रहती है। स्वर-संचार-क्रिया में अनेकानेक प्राणवाही नाड़ियाँ होती हैं, जिसमें प्रमुख इडा, पिंगला और सुषुम्ना ही हैं। हमारे शरीर में 72 हजार नाड़ियों (धमनियों, शिराओं, कोशिकाओं) का जाल फैला हुआ होता है, जिसका नियन्त्रण-केन्द्र मस्तिष्क है। मस्तिष्क से उत्पन्न मन के शुभ-अशुभ विचारों का प्रभाव नाड़ी तन्त्र पर पड़ता है, जिससे स्वरों की संचार गति धीमी और तेज हो जाती है। इसका प्रभाव मूलाधारचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र, मणिपूरचक्र, अनाहतचक्र,
विशुद्धचक्र, आज्ञाचक्र और सहस्त्रारचक्र पर भी पड़ता है। इससे शारीरिक और मानसिक परिस्थितियों एवं घटनाओं का पूर्वाभास हो जाता है। यही स्वरोदय ज्योतिष है।

स्वरोदय-विज्ञान में चन्द्रमा को अधिष्ठात्री माना गया है। वर्षभर की अनुकूलता-प्रतिकूलता के सन्तुलन का पता
चैत्रशुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक स्वर-संचार गति को देखकर
मालूम किया जाता है कि वर्ष कैसा रहेगा? इन तीन दिनों की तिथि में सूर्योदय के समय शय्यात्याग के साथ प्रातःकाल चन्द्रस्वर (बायाँ स्वर)-का उदय-संचार अनुकूल-शुभ माना जाता है, जबकि सूर्यस्वर का उदय-संचार प्रतिकूल-अशुभ माना गया है। 

चन्द्रमा की गति के अनुसार प्रत्येक मास में पन्द्रह-पन्द्रह दिनों के शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष होते हैं। इनमें तिथियों की गणना सूर्यस्वर के समय से ही दिन-रात 24 घंटे की मानी जाती है। सूर्यस्वर के साथ स्वर और तिथियों का नैसर्गिक घनिष्ठ सम्बन्ध है। स्वस्थ पुरुष का स्वरोदय दोनों पक्षों में निम्न प्रकार है।

शुक्लपक्ष में स्वरोदय..शुक्लपक्षमें 1,2,3,7, 8,9,13,14,15 (पूर्णिमा) तिथियों तक प्रात: काल सूर्योदय काल में शय्या त्याग के साथ चन्द्रस्वर (बायें स्वर) का संचार होता है और इसी प्रकार 4,5,6,10,11,12 तिथियों को सूर्यस्वर (दायें स्वर) का संचार होता है।

कृष्ण पक्ष में स्वरोदय..कृष्ण पक्ष में 1,2,3,7,8, 9,13,14,15 (अमावस्या) तिथियों में सूर्योदयकाल में प्रात:काल शय्यत्याग के साथ सूर्यस्वर (दाहि ने स्वर)- का संचार होता है। इसी प्रकार 4, 5, 6, 10, 11, 12 तिथियों को चन्द्रस्वर का संचार होता है।

कभी-कभी तिथि के घटने पर 2 दिन में और बढ़ने पर 4 दिन में स्वर स्वत: बदल जाते हैं। 

स्वरों के गुण, धर्म, प्रकृति और कार्य.. (1) चन्द्रस्वर में सभी प्रकार के स्थिर, सौम्य और शुभ कार्य करने चाहिये। यह स्वर साक्षात् देवी स्वरूप है। यह स्वर शीतल प्रकृति का होने से गर्मी और पित्तजनित रोगों से रक्षा करता है।

(2) सूर्यस्वर में सभी प्रकार के चलित, कठिन कार्य करने से सफलता मिलती है। यह स्वर साक्षात् शिवस्वरूप है। उष्ण प्रकृति का होने से सर्दी, कफजनित रोगों से रक्षा करता है। इस स्वर में भोजन करना, औषधि बनाना, विद्या और संगीत का अभ्यास आदि कार्य सफल होते हैं।

(3) सुषुम्ना स्वर साक्षात् कालस्वरूप है। इसमें ध्यान, धारणा, समाधि, प्रभु-स्मरण और कीर्तन श्रेयस्कर है। स्वरोदय शास्त्र और आरोग्यता-आरोग्यता के वर्तमान परिप्रेक्ष्य में मनुष्य बड़ा उदासीन है। वह यम-नियम, आहार-विहार, आचार-विचार रहन-सहन, जल्दी सोना, जल्दी उठना आदि अनेकानेक नियमों तथा सिद्धान्तों का पालन करता दिखायी नहीं देता। इसके
विपरीत देर से सोने तथा देर से उठने का फैशन बन गया है। इसके परिणामस्वरूप स्वरों की गति-चाल में अनियमितता पैदा होने से व्यक्ति बीमार हो जाता है, रोगग्रस्त हो जाता है। वह चिकित्सा में धन और समय दोनों का व्यय करता है। जबकि स्वरोदय सरल, सुबोध, सस्ती, अहिंसक और अनौषधि चिकित्सा पद्धति है। इसमें किसी भी प्रकारका आर्थिक व्यय और समय नष्ट नहीं होता है। व्यक्ति स्वयं ही स्वरोदय-चिकित्सा द्वारा दमा, बुखार, सिरदर्द, पेटदर्द, अजीर्ण, रक्तचाप आदि
अनेकानेक बीमारियों को दूर भगा सकता है। इसके लिये स्वर-परिवर्तन विधियों की जानकारी होना आवश्यक है। स्वर की अमूल्य निधि का सही उपयोग करने वाला सर्वदा सुखी और स्वस्थ रहता है।

स्वर-परिवर्तन की विधियाँ

(1) जो स्वर चलाना चाहो, उसके विपरीत करवट बदलकर उसी हाथ का तकिया बनाकर लेट जाओ। थोड़ी देर में स्वर बदल जायगा। जैसे यदि सूर्यस्वर चल रहा है और चन्द्रस्वर चलाना है तो दाहिनी करवट लेट जाओ।

(2) कपड़े की गोटी बनाकर या हाथ के अंगूठे से नासिका का एक छिद्र बन्द कर दो। जो स्वर चलाना हो, उसे खुला रखो, स्वर बदल जाएगा।

(3) बगल में तकिया दबाकर रखने से भी स्वर बदल जाते हैं।

(4 ) अनुलोम-विलोम, नाडीशोधन, प्राणायाम, पूरक, रेचक, कुम्भक, आसन तथा वज्रासन से भी स्वर- परिवर्तन हो जाता है। स्वर-परिवर्तन में मुँह बन्द रखना चाहिये। नासिका से स्वर-साधन करें।।

चलित स्वर की प्रधानता में कार्य

(1) प्रात:काल सूर्योदयकाल के बाद भी चलित स्वरवाली करवट से उठो और बैठकर उसी तरफ की हथेली के दर्शन कर मुँह पर घुमाओ। फिर दोनों हथेलियों को देखकर, मिलाकर रगड़ो, फिर चेहरे पर घुमाओ, फिर सारे शरीर के हाथ-पैर पर घुमाओ। इसके बाद मंत्र बोलो-

"कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती।
करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम" 

अर्थात्... हाथों के अग्रभाग में लक्ष्मी, मध्य में सरस्वती और मूल में ब्रह्माका निवास है। ऐसे पवित्र हाथों का प्रात:काल स्वर के साथ दर्शन करना चाहिये। कर्म का प्रतीक हाथ ही है। कुछ भी प्राप्त करने के लिये कर्म जरूरी है। इसके बाद बिस्तर त्यागने के साथ जिस ओर का स्वर चल रहा हो, उसी ओर का पैर पृथ्वी पर बढ़ायें और मन्त्र बोलें।

"समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डिते।
विष्णुपनि नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे॥"

अर्थात्... समुद्ररूपी वस्त्रों को धारण करने वाली पर्वतरूपी स्तनों से मण्डित भगवान् विष्णु की पत्नी पृथ्वीदेवि! आप मेरे पादस्पर्श को क्षमा करें। इस मन्त्र से सिद्ध होता है कि भारतीय संस्कृति में जड़ वस्तुओं में चेतन को देखने की क्षमता है। तत्पश्चात् चलित स्वर के अनुसार कदम बढ़ाये। यदि चन्द्रस्वर है तो 2, 4, 6 सम में और सूर्यस्वर है तो 1, 3, 5 विषम में कदम बढ़ाये। ऐसा करने से दिन का प्रारम्भ शुभ होता है और इच्छित कार्य में सफलता मिलती है। आरोग्यता के साथ मनोकामना सिद्ध होती है।

(2) चलित स्वर की ओर से हाथ-पैर डालकर कपड़े पहनने से प्रसन्नता बनी रहती है।

(3) दूसरे को देने में, उससे ग्रहण करने में, घर से बाहर जाने पर जिस तरफ का स्वर चलित हो उसी हाथ तथा पैर को आगे करके कार्य करने में सफलता मिलती है। ऐसा करने से व्यक्ति सर्वदा सुखी और उपद्रवों से बचा रहता है।

(4) चलित स्वरोंके अंगोंको प्रधानता देकर हर स्थिति में कार्य किया जा सकता है और सफलता प्राप्त होती है। स्वर-ज्योतिष की जानकारी से मनुष्य शरीर और मन को नियन्त्रित कर रोग, कलह, हानि. कष्ट और असफलता को दूर कर सकता है, इसके साथ ही वह जीवन को आनन्दमय बनाकर परलोक को भी सुधारकर कल्याणको प्राप्त हो सकता है।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय


0 comments:

Post a Comment