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शुक्राचार्य जी द्वारा रचित महामृत्युंजय स्तोत्र ।।

      यह पृथ्वी पुरुष क्षेत्र है। पुरुष वही है जिसमें कि पुरुषार्थ का सृजन होता है। इस पृथ्वी पर भले ही अवतारी व्यक्तित्व ही क्यों न हो उसे भी पुरुषार्थ का प्राकट्य करना पड़ता है। राम ने भी पुरुषार्थ किया, कृष्ण से लेकर सभी महामानव पुरुषार्थ का ही प्राकट्य करते हैं। पुरुषार्थ के अभाव में कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जो । रोते हैं, भाग्य को कोसते हैं, अपने आपको दीनहीन समझते हैं, नाना प्रकार के प्रपंच रच अकर्मणता प्रस्तुत करते हैं निस्संदेह वे पुरुषार्थहीन हैं। अध्यात्म में पुरुषार्थ के बल पर ही सिद्धि, ज्ञान, तपस्या इत्यादि प्राप्त की जाती है। सनातन धर्म के ऋषि मुनि अत्यंत ही पुरुषार्थी रहे हैं। इन्हीं में से एक भृगु नंदन शुक्राचार्य जी भी हैं। वे असुरों के महागुरु हैं, उन्होंने अपने पुरुषार्थ से मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की है। शिव जी उन्हें निगल गये थे। शिव जी के जठर में उन्हें निकलने का मार्ग दिखाई नहीं पड़ रहा था तब उन्होंने दिव्य मंत्रों के साथ शिव जी की स्तुति की कालान्तर उनके वीर्य मार्ग से वे प्रकट हुए और शिव पुत्र कहलाये। 

           शुक्राचार्य जी को स्वयं शिव जी के जठर में जीवित रहकर अपनी सिद्धि की परीक्षा देनी पड़ी। गुरु चलता-फिरता, जीवित जाग्रत मृत्युञ्जय रूपी शिव विग्रह है। जीवन के चौराहे पर खड़े शिष्य को वह नवजीवन प्रदान करता हैं। अनिर्णय को निर्णय में परिवर्तित करता है। जब- जब सनातन धर्म की अनेकों धाराओं में ज्ञान, तंत्र, ज्योतिष, सिद्धि, उपासना इत्यादि लुप्त होने की कगार पर पहुँचती है कोई एक ऋषि मृत्युञ्जय रूपी शिव विग्रह बन पुनः धर्म की संस्थापना कर देता है। पुनः शिष्यों की एक अखण्ड श्रृंखला को चलायमान कर देता है। स्तोत्र जड़ हैं कल्पवृक्ष की। शुक्राचार्य जी द्वारा रचित मृत्युञ्जय स्तोत्र से ही कालान्तर विभिन्न प्रकार के मृत्युञ्जय अनुष्ठान मंत्र इत्यादि प्रकट हुए हैं। नीचे मूल स्तोत्र को हिन्दी अर्थ के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ। संकट काल में मात्र एक आवृत्ति हृदयंगम भाव से पढ़ने पर जातक की रक्षा निश्चित ही होती है। इसके साथ ही शिव जी के 108 नामों से की गई अंधक द्वारा स्तुति भी दे रहा हूं । जिसके पठन से जातक को तुरंत ही शिव सानिध्य की प्राप्ति होती है। 

      शिव जी का एक-एक नाम उच्चारित करते हुए एक-एक अखण्डित बिल्वपत्र शिवलिङ्ग पर अर्पित करने से शुक्रेश्वर पूजन सम्पन्न होता है। शुक्र ही सबसे महत्वपूर्ण ग्रह है। शुक्र ही पराक्रम, पुरुषार्थ, यश, प्रसिद्धि कीर्ति और नाना प्रकार के वैभव प्रदान करता है। जिसका शुक्र अस्त हो अर्थात कुण्डलिनी में शुक्र का प्रकाश क्षीण हो वे जीवन के हर क्षेत्र में असफल होते हैं। शुक्र अस्त व्यक्तियों का वैवाहिक, पारिवारिक एवं गृहस्थ जीवन पूरी तरह से बर्बाद होता है। शुक्र पर्वत के दबे होने के कारण व्यक्ति कायर, अवसाद से ग्रसित, सम्मोहन एवं वशीकरण हीन निर्जीव बनकर रह जाता है। शुक्र पर्वत के बिगड़े होने के कारण या शुक्र पर्वत पर काला तिल होने से व्यक्ति चरित्रहीन, यौन रोगों से ग्रसित और विकृत कामुक प्रवृत्ति का होता है। जीवन की लय ही शुक्र है। शुक्र प्रधान व्यक्ति उच्च श्रेणी के दार्शनिक, गुरु पद पर आसीन शास्त्रार्थ में निपुण, यौद्धा, वीर और सदैव चमत्कारिक सम्मोहन एवं वशीकरण से युक्त होते हैं। पूर्ण विकसित शुक्र पर्वत सौन्दर्य, स्वास्थ्य एवं सर्व सफलता का द्योतक है। 

शुक्र को विकसित करने के लिए 11 अखण्डित बिल्व पत्र इस मंत्र के साथ शिवलिङ्ग पर अर्पित करने चाहिए। मात्र 21 दिनों में जातक को अनुकूल परिणाम मिल जाते हैं।
॥ ॐ नमः शिवाय शुभं शुभं कुरु कुरु शिवाय नमः ॐ ॥ 

ॐ नमस्ते देवेशाय सुरासुरनमस्कृताय भूतभव्यमहादेवाय हरितपिङ्गललोचनाय बलाय बुद्धिरूपिणे वैयाघ्र वसनच्छ दायार णे याय त्रैलोक्यप्रभवे ईश्वराय हराय हरिनेत्राय युगान्तकरणायानलाय गणेशाय लोकपालाय महाभुजाय महाहस्ताय शूलिने महादंष्ट्रिणे कालाय महेश्वराय अव्ययाय कालरूपिणे नीलग्रीवाय महोदराय गणाध्यक्षाय सर्वात्मने सर्वभावनाव सर्वगाय मृत्युहन्त्रे पारियात्रसुव्रताय ब्रह्मचारिणे वेदान्तगाय तपोऽन्तगाय पशुपतये व्यङ्गाय शूलपाणये वृषकेतवे हरये जटिने शिखण्डिने लकुटिने महायशसे भूतेश्वराय गुहावासिने वीणापणवतालवते अमराय दर्शनीयाय बालसूर्यनिभाय श्मशानवासिने भगवते उमापतये अरिंदमाय भगस्याक्षिपातिने पूष्णो दशननाशनाय क्रूरकर्तकाय पाशहस्ताय प्रलयकालाय उल्कामुखायाग्निकेतवे मुनये दीप्ताय विशाम्पतये उन्नयते जनकाय चतुर्थकाय लोकसत्तमाय वामदेवाय वाग्दाक्षिण्याय वामतो भिक्षवे । 

भिक्षुरूपिणे जटिने स्वयं जटिलाय शक्रहस्तप्रतिस्तम्भकाय वसूनां स्तम्भकाय कृतवे ऋतुकराय कालाय मेधाविने मधुकराय चलाय वानस्पत्याय वाजसने तिसमाश्रमपूजिताय जगद्धात्रे जगत्कर्त्रे पुरुषाय शाश्वताय ध्रुवाय धर्माध्यक्षाय त्रिवर्त्मने भूत भावनाय त्रिनेत्राय बहुरूपाय सूर्यायुतसमप्रभाव देवाय सर्वतूर्यनिनादिने सर्वबाधाविमोचनाय बन्धनाय सर्वधारिणे धर्मोत्तमाय पुष्पदन्तायाविभागाय मुखाय सर्वहराय हिरण्यश्रवसे द्वारिणे भीमाय । भीमपराक्रमाय ॐ नमो नमः ।

ॐ जो देवताओं के स्वामी, सुर-असुरद्वारा वन्दित, भूत और भविष्य के महान् देवता, हरे और पीले नेत्रों से युक्त, महाबली, बुद्धिस्वरूप, बांबंबर धारण करने के वाले, अग्निस्वरूप, त्रिलोकी के उत्पत्तिस्थान, ईश्वर, हर हरिनेत्र प्रलयकारी अग्निस्वरूप, गणेश, लोकपाल, महाभुज, महाहस्त, त्रिशूल धारण करने वाले, बड़ी बड़ी दाढ़ोंवाले कालस्वरूप, महेश्वर, अविनाशी, कालरूपी, नीलकण्ठ, महोदर, गणाध्यक्ष, सर्वात्मा, सबको उत्पन्न करने वाले, सर्वव्यापी, मृत्यु को हटानेवाले, पारियात्र पर्वत पर उत्तम व्रत धारण करनेवाले, ब्रह्मचारी, वेदान्तप्रतिपाद्य, तप की अन्तिम सीमा तक पहुँचने वाले, पशुपति, विशिष्ट अंङ्गों वाले, शूलपाणि, वृषध्वज, पापापहारी, जटाधारी, शिंखण्ड धारण करने वाले, दण्डधारी, महायशस्वी, भूतेश्वर गुहा में निवास करने वाले, वीणा और पणव पर ताल लगाने वाले, अमर, दर्शनीय, बालसूर्य- सरीखे रूपवाले श्मशानवासी, ऐश्वर्यशाली, उमापति, शत्रुदमन, भग के नेत्रों को नष्ट कर देने वाले, पूषा के दाँतों के विनाशक, क्रूरतापूर्वक संहार करने वाले, पाशधारी, प्रलयकालरूप, उल्कामुख, अग्निकंतु, मननशील, प्रकाशमान प्रजापति, ऊपर उठानेवाले, जीवों को उत्पन्न करने वाले, तुरीयतत्त्वरूप, लोकों में सर्वश्रेष्ठ वामदेव वाणी की चतुरतारूप, वाममार्ग में भिक्षुरूप, भिक्षुक, जटाधारी, जटिल दुराराध्य इन्द्र के हाथ को स्तम्भित करने वाले, वसुओं को बिजड़ित कर देने वाले, यज्ञस्वरूप, यज्ञकर्ता, काल, मेधावी, मधुकर चलने-फिरने वाले, वनस्पति का आश्रय लेनेवाले वाजसन नाम से सम्पूर्ण आश्रमों द्वारा पूजित, जगद्धाता, जगत्कर्ता, सर्वान्तर्यामी, सनातन, ध्रुव, धर्माध्यक्ष भूः भुवः स्वः - इन तीनों लोकों में विचरने वाले, भृतभावन त्रिनेत्र बहुरूप, दस हजार सूर्यो के समान प्रभावशाली, महादेव, सब तरह के बाजे बजानेवाले सम्पूर्ण बाधाओं से विमुक्त करने वाले, ।बन्धन स्वरूप सबको धारण करने वाले, उत्तम धर्मरूप, पुष्पदन्त विभागरहित, मुख्यरूप, सबका हरण करने वाले सुवर्ण के समान दीप्त कीर्तिवाले मुक्ति के द्वारस्वरूप, भीम तथा भीमपराक्रमी हैं, उन्हें नमस्कार है. नमस्कार है।

अंधक द्वारा शिव जी की 108 नामों से स्तुति

महादेवं विरूपाक्षं चन्द्रार्धकृतशेखरम् । 
अमृतं शाश्वतं स्थाणुं नीलकण्ठं पिनाकिनम् ॥ 
वृषभाक्षं महाज्ञेयं पुरुषं सर्वकामदम् । 
कामारिं कामदहनं कामरूपं कपर्दिनम् ॥ 
विरूपं गिरीशं भीमं सृविकणं रक्तवाससम् । 
योगिनं कालदहनं त्रिपुरघ्नं कपालिनम् ॥ 
गूढव्रतं गुप्तमंत्रं गम्भीरं भावगोचरम् । 
अणिमादिगुणाधारं त्रिलोकैश्वर्यदायकम् ॥ 
वीरं वीरहणं घोरं विरूपं मांसलं पटुम् । 
महामांसादमुन्मत्तं भैरवं वै महेश्वरम् ॥ 
त्रैलोक्यद्रावणं लुब्धं लुब्धकं यज्ञसूदनम्। 
कृत्तिकानां सुतैर्युत्त मुन्मत्तं कृत्तिवाससम् ॥ 
गजकृत्तिपरीधानं क्षुब्धं भुजगभूषणम् । 
दत्तालम्बं च वेतालं घोरं शाकिनिपूजितम् ॥ 
अघोरं घोरदैत्यघ्नं घोरघोषं वनस्पतिम् । 
भस्माङ्गं जटिलं शुद्धं भेरुण्डशतसेवितम् ॥ 
भूतेश्वरं भूतनाथं पञ्चभूताश्रितं खगम् । 
क्रोधितं निष्ठरं चण्डं चण्डीशं चण्डिकाप्रियम् ॥ 
चण्डतुण्डं गरुत्मन्तं निस्त्रिंशं शवभोजनम् । 
लेलिहानं महारौद्रं मृत्युं मृत्योरगोचरम् ॥ 
मृत्योर्मृत्यं महासेनं श्मशानारण्यवासिनम् । 
रागं विरागं रागान्धं वीतरागं शतार्चिषम् ॥ 
सत्त्वं रजस्तमोधर्ममधर्मं वासवानुजम् । 
सत्यं त्वसत्यं सद्रूपमसद्रू पमहे तुकम् ॥ 
अर्धनारीश्वरं भानुं भानुकोटिशतप्रभम् । 
यज्ञं यज्ञपतिं रुद्रमीशानं वरदं शिवम् ॥ 
अष्टोत्तरशतं ह्येतन्मूर्तीनां परमात्मनः । 
शिवस्य दानवो ध्यायन् मुक्तस्तस्मान्महाभयात् ॥.

                          शिव शासनत: शिव शासनत:


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