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योनि कवचम् ।।


               आम के वृक्ष से जब फल टूटता है तो उस फल में स्थित बीज पुनः एक नये वृक्ष की संरचना कर देता है। वृक्ष यह भूल जाता है कि सामने खड़ा वृक्ष कभी मेरा ही अंश था, मेरे अंदर ही पला बड़ा था एवं वह उसे अपने से अलग समझने लगता है परन्तु वास्तविकता यह नहीं है, वास्तविकता तो यह है कि सभी एक दूसरे में से उत्पन्न हुए हैं। मूल संरचना कभी नहीं बदलती डी.एन.ए. कभी नहीं बदलता बस रंग रूप थोड़ा बहुत बदल जाता है, यही माया का खेल है। मूल संरचना क्यों नहीं बदलती? क्योंकि वह शिव के द्वारा निर्मित है। मूल संरचना में तो इतनी विलक्षणता है कि मृत्यु कब होगी ? भाग्योदय कब होगा? कितनी पीढ़ी बाद मूल संरचना में कुछ विलक्षण उत्पन्न होगा इत्यादि मूल संरचना में यह सब कुछ पूर्व नियोजित होता है। कब जीव को स्थानांतरित होना है? कितने हजार वर्ष बाद रूप परिवर्तन करना है? कितने लाख वर्ष बाद क्या खाना है? क्या पीना है? किस वातावरण में ढलना है ? यह सब कुछ मूल संरचना में अर्थात डी.एन.ए. में अनंत काल पहले शिव ने लिख दिया है। आज अगर जीव पंचभूतीय है, प्राण वायु ग्रहण कर रहा है तो हो सकता है कि कुछ लाख वर्ष बाद जीव अदृश्य होना सीख जाये एवं प्राण वायु की जगह किसी अन्य प्रकार की वायु को ग्रहण करना सीख जाये। आज जो जीव स्थूल भोजन पर निर्भर हैं कल वह सूर्य की ऊर्जा का भक्षण करता हुआ आज के मुकाबले ज्यादा शक्तिशाली हो जाये, ऐसा हुआ है और ऐसा होता रहेगा। मूल कोशिका के कवच के माध्यम से ही जीव पूर्ण रूप से कवचित है, योनि कवच सबसे सूक्ष्मतम और रहस्मय कवच है एवं इस कवच का भेदन, उत्कीलन, विखण्डन शिव के अलाक कोई नहीं कर सकता। साधकों को इस कवच का पाठ अवश्य करना चाहिए।परम् रहस्यमयी कवच है ये।शाक्त मार्गियों के लिए तो वरदान है, देवी भक्तों के लिए भी अत्यंत कल्याणमय है।

योनि कवचम्

देव्युवाचा

भगवन् श्रोतुमिच्छामि कवचं परमाद्भुतम्।
इदानीं देवदेवेश कवचं सर्वसिद्धिदम् ॥

महादेव उवाच

शृणु पार्वति! वक्ष्यामि अतिगुह्यतमं प्रिये ।यस्मै कस्मै न दातव्यं दातव्यं निष्फलं भवेत् ॥

अस्य कुलटाच्छेन्दा राजविघ्नोपातविनाशे श्रीयोनिकवचस्य गुप्तऋषिः विनियोगः ।

ह्रीं योनिमें सदा पातु स्वाहा विघ्नविनाशिनी ।
शत्रुनाशात्मिका योनिः सदा मां रक्ष सागरे ।।

ब्रह्मात्मिका महायोनिः सर्वान् प्ररक्षतु ।
राजद्वारे महाघोरे क्रीं योनिः सर्वदावतु ॥

हुमात्मिका सदा देवी योनिरूपा जगन्मयी ।
सर्वाङ्गं रक्ष मां नित्यं सभायां राजवेश्मनि ॥

वेदात्मिका सदा योनिर्वेदरूपा सरस्वती ।
कीर्त्ति श्रीं कान्तिमारोग्यं पुत्रपौत्रादिकं तथा ॥

रक्ष रक्ष महायोने सर्वासिद्धि प्रदायिनी।
राजयोगात्मिका योनिः सर्वत्र मां सदावतु ॥

इति ते कथितं देवि कवचं सर्वासिद्धिदम् ।
त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नित्यं राजोपद्रवनाशकृत् ॥

सभायां वाक्पतिश्चैव राजवेश्मनि राजवत् ।
सर्वत्र जयमाप्नोति कवचस्य जपेन हि ॥

श्रीयोन्याः सङ्गमे देवीं पठेदेनमनन्यधीः ।
स एव सर्वसिद्धीशो नात्र कार्या विचारणा ॥

मातृकाक्षरसंपुटं कृत्वा यदि पठेन्नरः ।
भुङ्गक्ते च विपुलान् भोगान् दुर्गया सह मोदते ॥

इति गुह्यतमं देवि सर्वधर्म्मोत्तमोत्तमम् ।
भूर्जे वा ताड़पत्रे वा लिखित्वा धारयेद् यदि ॥

हरिचन्दनमिश्रेण रोचना-कुङ्कमेन च ।
शिरवायामथवा कण्ठे सोऽपीश्वरो न संशयः ॥

शरत्काले महाष्टम्यां नवम्यां कुलसुन्दरि ।
पूजाकाले पठेदेनं जयी नित्यं न संशयः ॥

॥ इति शक्ति कागमसर्वस्वे हरगौरीसंवादे श्रीयोनिकवचं समाप्तम् ॥

     
                शिव शासनत: शिव शासनत:

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