जब त्रिपुर सुंदरी अति प्रसन्न थी तब भगवती त्रिपुर सुंदरी ने मुस्कुराते हुए कहा कि आज मैं अति प्रसन्न हूं अतः वाग्देवी आप जो सबके कंठ में विराजमान रहती हैं आज आप कुछ दिव्य स्तुति की रचना कीजिए। वाग्देवी सभी के कर्णों से निकलकर प्रकट हो गई और ब्रह्मांड में मौजूद अनेकों मातृकाओं, व्यंजनों, स्वरों, अक्षरों इत्यादि के माध्यम से श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम के द्वारा भगवती त्रिपुर सुंदरी की उपासना करने लगी श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम का जैसे जैसे वाग्देवी पाठ करती जाती वैसे वैसे श्री ललितेश्वरी आनंद में डुबति जाति अंत में परम प्रसन्न हो भगवती त्रिपुर सुंदरी ने कहा कि जो कोई श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ करेगा उस पर मैं अति प्रसन्न होंउगी। यह मेरी सबसे सर्वश्रेष्ठ उपासना है, जो जातक अपने जीवन में एक हजार बार ललितासहस्रनाम का पूर्ण आस्था एवं हृदय से पाठ करता है उसे क़्रुर काल भी स्पर्श नहीं करता। भगवान शरभ के विग्रह के सामने जो जातक मात्र एक बार पूर्ण श्रद्धा के साथ श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ करता है उसके समस्त शत्रुओं का भक्षण शरभ तत्काल कर लेते हैं। भगवान शरभ की भूख है श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम। जो जातक अपने जीवन में प्रत्येक पूर्णिमा के दिन श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ करता है उसे परम सौंदर्यवान स्त्री की प्राप्ति होती है जिसने अपने जीवन में 21 हजार बार श्री ललिता सहस्त्रनाम का पाठ कर लिया उसका राज्याभिषेक निश्चित है। श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, शरभ, इंद्र, यम, गणेश, कार्तिकेय इत्यादि सभी देवाधिदेव एवं इनके साथ साथ महादेव भगवान सदाशिव की भूख है। आप भगवती त्रिपुर सुंदरी के श्री विग्रह को देखिए उनके चार पायों के रूप में ब्रह्मा विष्णु रुद्र एवं ईश्वर हाथ जोड़े हुए आंख बंद कर परम समाधि अवस्था में लीन हैं एवं इन सब के कर्ण श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम की आवृत्ति को ग्रहण कर इन्हें पुनः शक्ति युक्त कर रहे हैं। धन्य है वह कर्ण धन्य है वह मुख धन्य है वह शरीर धन्य है वह शिष्य धन्य है वह गुरु जो कि अपने जीवन में श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम की आवृत्ति यों को ग्रहण करते हैं।
हे त्रिपुरे तू ही गुरु कुंडलिनी है, तू ही सूर्य कुंडलिनी है, तू ही चंद्र कुंडलिनी है, तू ही गणेश रूपी कुंडलिनी है, तू ही देवकुंडलीनी है, तू ही धर्म संप्रदाय एवं ज्ञान कुंडलिनी है, तू ही विज्ञान है। तू ही तू है, तू ही सर्वस्व है। सुप्त मूर्छित निमृत चैतन्य जागृत ये अवस्थाएं कहीं पर भी लागू हो सकती है। यह अवस्थाएं मनुष्यों में जिवों में भूमि में आकाश में जल में वायु में अग्नि में गुरु तत्व में भी देखने को मिलती है। यह अवस्थाएं इस बात पर निर्भर करती है कि उस तत्व विशेष में कितनी मात्रा में श्री श्री ललिता सहस्त्रनाम की आहुतियां ग्रहण की कितना उसमें श्री तत्व है। गुरु सुप्त भी होते हैं गुरु अर्ध-चेतन भी होते हैं बहुत से गुरु मूर्छित भी होते हैं बहुत से गुरु नींद्रित भी होते हैं परंतु कुछ एक परम चैतन्य परम जागृत भी होते हैं। अब यह आपका सौभाग्य यह आपकी क्षमता कि आपको परम चैतन्य परम जागृत गुरु मिले या फिर ऊधते हुए।
जो जैसा होते हैं उन्हें वैसे गुरु मिल जाते हैं। निद्रित शिष्य को निद्रत गुरु मिल जाते हैं मूर्छित लोगों को मूर्छित गुरु मिल जाता है सुसुप्त लोगों को सुसुप्त गुरुओं की आवश्यकता होती है कौन रत-जगा करना चाहते हैं? अर्थात सारी रात जागना चाहते हैं रात रूपी शब्द को मिटा देना चाहता है रात और दिन का फर्क समाप्त कर देना चाहता है? क्या जरूरत है इनकी मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे परम जागृत एवं चेतन सदगुरु मिले जो रत-जगा करते हैं। जब आप श्रीविद्योपासक बन जाओगे तब आप रात में आंख बंद करके सो गए तब भी मस्तिष्क दिव्य प्रकाश से भरा दिखाई देगा ऐसा लगेगा कि असंख्य मणियाँ मस्तिष्क में चमक रही हैं तब अंधेरा नहीं होगा शुन्य नहीं होगा अपितु भगवती त्रिपुर सुंदरी का मणिमय प्रकाश होगा कुछ अनूठी जिंदगी होगी। तब आप जहां से निकलोगे वहां पर मौजूद श्री आवृत्तिया आप ग्रहण कर सकते हो फिर आप मथुरा में खड़े होकर 5000 वर्ष बाद ही कृष्ण को सुंध सकते हो फिर आप सामने बैठे साधक की तरफ देख कर उसके कुल में की गई दत्तात्रेय की उपासना के प्रकाश को या फिर दत्त चित्र को उसके अंदर से उदित होते हुए देख सकते हो फिर आप नर्मदा के किनारे खड़े होकर उसके ऊपर नृत्य कर रही अप्सराओं को देख सकते हो उनके दिव्य मन्त्रों से सृजित ध्वनियों को आपके कर्ण ग्रहण कर सकते हैं उनके शरीर से आ रही दूध चंदन इत्यादि की खुशबुओं को आपकी नासिका ग्रहण कर सकती है। आप वह सुन देख सकते हो वह स्पर्श कर सकते हो वह महसूस अनुभव कर सकते हो
जिसे की सुषुप्त, मूढ़, निद्रत, मूर्छित गुरुओं के द्वारा दीक्षित साधक जन्म जन्मांतर तक नहीं कर सकता। तब दुनिया बदल जाती है तबकुछ कहने को कुछ सिखाने को कुछ प्रवचन देने को कुछ बड़बड़ने को नहीं रह जाता बस एक हल्की सी मुस्कुराहट एक अद्भुत सा आनंद एक अद्भुत सी मस्ती साधक आत्मसात कर लेता है और वह श्री युक्त हो जाता है इसे कहते हैं कुंडलिनी जागरण की अवस्था ऐसे त्रिपुरामय साधकों को सूर्य देव नमस्कार करते हैं, चंद्रमा भी नमस्कार करता है, ग्रह नक्षत्र योगिनीयाँ भी आदर प्रदान करती है। यही जन्म लेने का वास्तविक ध्येय है यही वास्तविक आध्यात्म है बाकी सब पाखंड।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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