Follow us for Latest Update

शुभ काल /अशुभ काल से संबंधित पंचांग ।।

    भारतीय वैदिक ज्योतिष में एक दिन में अलग अलग अवधि होती है और उन सभी अवधि में अलग-अलग काल का उल्लेख किया गया है। जिसमें से जहां कुछ काल को शुभ तो कुछ काल को अशुभ की श्रेणी में रखा गया है।

इसी के अनुसार जहाँ शुभ काल के दौरान किया गया कार्य फलित होता है, वहीं अशुभ काल के दौरान कोई भी शुभ या मांगलिक कार्य करना वर्जित माना जाता है। 

पंचांग अनुसार शुभ काल व अशुभ काल 
--------------------------------------------------------
प्रात:काल : 
========
सबसे प्रथम काल की अवधि प्रात:काल कहलाती है। ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 48 मिनट पूर्व का समय होता है।

अरुणोदय काल : 
============
ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 1 घंटे और 12 मिनट पूर्व की होती है, जिसे हम पंचांग अनुसार अरुणोदय काल कहते हैं। 

उषा काल : 
=========
ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 2 घंटे पूर्व का समय होता है, इसे हम सरल भाषा में उषाकाल कहते हैं। 

अभिजित काल : 
============
भारतीय समय के अनुसार ये अवधि दोपहर में लगभग 11 बजकर 36 मिनट से लेकर 12 बजकर 24 मिनट तक रहती है। जो लगभग एक घंटे की होती है। ज्योतिष विशेषज्ञों अनुसार अभिजीत काल बुधवार को वर्जित होता है।

प्रदोष काल : 
=========
ये अवधि सूर्यास्त होने से लेकर 48 मिनट बाद तक का समय होता है, जिसे हम प्रदोष काल कहते हैं।

गोधूलि काल : 
===========
ये अवधि सूर्यास्त होने से 24 मिनट पूर्व से शुरू होती है और सूर्यास्त के 24 मिनट बाद तक माननीय होती है।

राहुकाल : 
========
राहुकाल रोजाना डेढ़ यानी 1 घंटे 30 मिनट का होता है।सूर्योदय अगर प्रात: 6 बजे है तो ऐसा काल नियम अनुसार होगा,राहुकाल के दौरान कोई भी शुभ व नया कार्य करने से बचना चाहिए। राहुकाल सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है। 

सोमवार को प्रातः 7 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है।

मंगलवार को दोपहर 3 बजे से 4 बजकर 30 मिनट तक होता है।

बुधवार को दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है।

गुरुवार को दोपहर 1 बजकर 30 मिनट से 3 बजे तक होता है।

शुक्रवार को राहुकाल प्रातः 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है। 

शनिवार को राहुकाल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।

रविवार को सायं 4 बजकर 30 मिनट से 6 बजे तक होता है। 

गुलिक काल : 
==========
इस काल की अवधि भी डेढ़ यानी 1 घंटे 30 मिनट की होती है। माना जाता है कि कुछ विशेष कार्य को इस समय काल के दौरान करने से बचना चाहिए। गुलिक काल सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है:

रविवार को गुलिक काल का समय दोपहर 3 बजे से 4 बजकर 30 मिनट तक होता है। 
सोमवार का गुलिक काल दोपहर 1 बजकर 30 मिनट से 3 बजे तक होता है।
मंगलवार को गुलिक काल दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है।
बुधवार को गुलिक काल प्रात: 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है।
गुरुवार को गुलिक काल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।
शुक्रवार का गुलिक काल प्रातः 07 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है। 
शनिवार को गुलिक काल प्रातः 6 बजे से 7 बजकर 30 मिनट तक होता है।

यमगंड काल : 
==========
इस काल की अवधि भी प्रतिदिन डेढ़-डेढ़ घंटे की होती है। साथ ही यमगंड काल में भी शुभ कार्यों को करने से परहेज करना चाहिए। इसके काल की अवधि सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है:  

रविवार को यमगंड काल का समय दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है। 
सोमवार को यमगंड काल प्रात: 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है।
मंगलवार को यमगंड काल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।
बुधवार को यमगंड काल प्रातः 07 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है।
गुरुवार को यमगंड काल प्रातः 6 बजे से 7 बजकर 30 मिनट तक होता है।
शुक्रवार को यमगंड काल दोपहर 3 बजे से 04 बजकर 30 मिनट तक होता है। 
शनिवार को यमगंड
काल 1:30 से 3 pm होता है।

ब्रह्म विद्या ।।

           आप किसी जल से भरे पात्र में एक बूंद पानी डालिए आपको तुरंत ही कुछ बुलबुले उठते हुए दिखाई देंगे। किसी भी वस्तु को पानी में फेंकिए नीचे से एक साथ बुलबुलों का गुच्छा उठेगा। एक बुलबुले से सेकेण्ड के सौवें हिस्से में अनेकों बुलबुले उत्पन्न हो जायेंगे। बस इसी सिद्धांत को BIG-BANG सिद्धांत कहते हैं। अभी हाल में वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि की है जबकि वेदान्त कई कल्प पहले ओंकार नाद के द्वारा सृष्टि के उत्पत्तिकरण की सटीक रूप से व्याख्या कर चुका है। बुलबुला प्रारम्भिक जीवन है। यह जीवन की प्रथम अवस्था है। जीवन सर्वप्रथम बुलबुले के रूप में ही विकसित होगा, यही ओंकारनाद है। यही एक से अनेक होने की ब्रह्मा की प्रक्रिया है। इसे ही कहते हैं एको बहुष्याम। सारे बुलबुले नष्ट नहीं हो जायेंगे कुछ एक बर्तन के तल पर चिपके हुए होंगे। कालान्तर यही बुलबुले ग्रह नक्षत्र का रूप लेंगे। इन्हीं से सूर्य का निर्माण होगा। ब्रह्माण्ड में ऐसा ही होता है। यही बुलबुले स्वरूप परिवर्तन कर अणु-परमाणु और उनके भी न्यूनतम अंशों के रूप में दिखाई देंगे। बुलबुले उठते ही रहते हैं और धीरे-धार जीव में परिवर्तित हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में भी सब कुछ 'आंतरिक रूप से बुलबुलों के समान ही होता है। हृदय की धड़कन हो, मस्तिष्क की क्रियाशीलता हो इत्यादि सब जगह बस बुलबुले ही धड़कते हैं। वे ही उठते और मिटते हैं।

           मैंने बुलबुले को जीवन कहा, उसे जीवित कहा। इस सृष्टि में जो भी एक से अनेक होगा वह जीवित है। जीवन की सबसे प्रारम्भिक अवस्था बुलबुला ही है वह आपकी आँखों के सामने एक से अनेक हुआ। इससे पहले की प्रक्रिया तो शक्ति की धारा है। वह भी किसी बुलबुले से, बनी होगी। यहीं रहस्य है लिंगार्चन का अर्थात रुद्राभिषेक का। शिव के ऊपर गिरती निरंतर जलधारा का। जीवन के लिए जरूरी प्राण विद्युत की उत्पत्ति का बुलबुला बना अर्थात किसी एक क्रिया ने प्राण को सक्रिय किया। जलधारा गिरती है विद्युत का निर्माण होता है एवं सारा विश्व प्रकाशवान होता है। यह मनुष्य करता है एवं इससे कृत्रिम प्रकाश का निर्माण होता है परन्तु प्राकृतिक प्रकाश अर्थात प्राण का निर्माण भी ऐसी ही गिरती हुई जलधारा से होता है। प्राण ही प्राण को शक्ति प्रदान करेगा। प्राणतत्व- प्राणतत्व को ही ग्रहण करेगा एवं प्राणतत्व की शिथिलता को प्राणतत्व ही दूर करेगा बस इतनी सी कहानी है ब्रह्मविद्या की। प्राणों को समझने की क्रिण, प्राणों के उत्पत्तिकरण को जानने की क्रिया प्राणों को मजबूत बनाने की विद्या ही ब्रह्म विद्या है। प्राणों को निरंतर चलायमान रखना ही ब्रह्मविद्या का कार्य है। प्राणों का स्थापन ही सीखना पड़ेगा।

            प्रत्येक पिण्ड का मूल अर्क है प्राण शक्ति। हम तो अभी तक (मैं वैज्ञानिकों की बात कर रहा हूँ) सूर्य ऊर्जा को भी संचय करने में सफल नहीं हो पाये हैं। सूर्य के द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा अभी भी हम पूर्ण रूप से मानव निर्मित यंत्रों में संचित नहीं कर पा रहे हैं। जो प्राण तत्व सूर्य से उत्सर्जित हो रहे हैं उन्हें जिस दिन मानव अपने अंत्रों में संचित करने में सक्षम हो जायेगा तो सारी दुनिया एक क्षण में ही परिवर्तित हो जायेगी। एक क्षण में ही वर्तमान यंत्र प्रागैऐतिहासिक हो जायेंगे। ऊर्जा के समस्त संसाधन व्यर्थ हो जायेंगे परन्तु जीव अनंत काल से अपने अंदर सूर्य के द्वारा उत्सर्जित प्राण शक्ति को कुछ काल सीमा के लिए संचित, स्तम्भित, कीलित और परिवर्तित करने में सक्षम हो गया है। यही जैविक यंत्रों की कहानी है। कम से कम 24 घण्टे तो साधारण से साधारण जीव भी अपने अंदर प्राण शक्ति को आवृत्ति प्रदान करने में सक्षम है। संचय कैसे होगा? संचय तभी सम्भव है जब प्राण शक्ति आवृत्ति में गतिमान हो एक चक्र के रूप में गतिशील बनी हुई हो। ऐसा ही शरीर में होता है तभी जैविक शरीरों में बुलबुले के समान हृदय फूलता एवं पिचकता है और धमनियों के माध्यम से रक्त प्रवाह पूरे शरीर में प्राण शक्ति को चक्राकार स्थिति में घुमाता रहता है।

          आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शरीर के अंदर प्राण शक्ति आवृत्ति बद्ध होती है और इसी आवृत्ति में से घूमते-घूमते एक और आवृत्ति जन्म ले लेती है। यह ब्रह्म कला है। एक माध्यम जब थक जाये तो अपने अंदर स्थित प्राण शक्ति को दूसरे माध्यम में स्थानांतरित कर देना या स्वयं के अंदर से एक नया शरीर उत्पन्न कर देना जो कि पुनः प्राण शक्ति को आवृत्ति में गति प्रदान करता रहे। इस प्रकार अनंत काल से जीव संरचनायें अपने आपको प्राण शक्ति से आबद्ध रखे हुए हैं। इसलिए प्रत्येक जीव में बला की इच्छा होती है स्वयं के द्वारा संरचना करने की अर्थात सृष्टि करने की। स्वयं के शरीर से स्वयं के समान संतति उत्पन्न करने की। 

 इसी बह्य कला के कारण जीव भी अजर-अमर है। सभी प्रारम्भिक लक्षण अजर-अमर है। सभी तत्व बस इसी आदि इच्छा के कारण आज तक अजर-अमर एवं अपने अस्तित्व को बरकरार रखे हुए हैं। 

            शत्रुत्व को मालुम है कि वह एक समय तक एक माध्यम में क्रियाशील रह सकता है और जैसे ही माध्यम अक्रियाशील होने की तरफ बढ़ेगा शत्रुत्व दूसरा शरीर ग्रहण कर चुका होगा या कहीं और पर विकसित हो रहा होगा। नष्ट होने से पहले ही विकास प्रारम्भ हो चुका होता है। 16 वर्ष की उम्र में ही संतान उत्पन्न की जा सकती है। स्वयं पिता अपनी संतान को अपने अस्तित्व के साथ-साथ, अपने द्वारा प्रदान किये गये तत्वों के अस्तित्व की रक्षा हेतु अस्तित्व प्रदान करता है। पिता का शरीर नष्ट हो जायेगा पर उससे पहले ही अनेकों पुत्रों के रूप में अस्तित्व पूर्ण रूप से विकसित हो चुका होगा। यहाँ तक कि पुत्र के पुत्र भी उत्पन्न हो चुके होंगे। यही ब्रह्म विद्या है। ब्रह्म विद्या मूल में स्थित है बाहर से नहीं लगाई जाती। स्वतः ही क्रियाशील होती रहती है। स्वतः ही व्यक्ति या जीव को उत्प्रेरित करती रहती है। स्वतः ही जीव के शरीर में परिवर्तन कर देती है एवं उसे परिवर्तन की ओर अग्रसर भी करती है। ब्रह्म विद्या मुँह से बांचने की विद्या नहीं है। यह आम विद्याओं के अंतर्गत नहीं आती है। ब्रह्म विद्या हर किसी को समझाने के लिए नहीं बनी हुई है। यह ब्रह्म ज्ञानियों का विषय है। जिन्हें विराट संरचना करनी होती है वे ही ब्रह्म विद्या में निपुण हो पाते हैं।

                जीव उत्पन्न हुआ, उसने मुख खोला और भोजन को स्वतः ही ग्रहण कर लिया। किसी ने उसे भोजन ग्रहण करना नहीं सिखाया। देखने में यह बात बहुत सामान्य लगती है परन्तु यह कदापि सामान्य नहीं है अगर उसके अंदर भोजन ग्रहण करने की जानकारी नहीं होती तो फिर जीवन की कड़ी आगे नहीं बढ़ पाती। कुछ ज्ञान ऐसा होता हे जिसे सीखने और सिखाने लग जाये तब तो फिर हो चुका। जब तक भोजन ग्रहण करना सिखाओगे तब तक तो प्राण उड़ चुके होंगे। सीखने सिखाने के लिए बहुत कुछ बकवास है। ये सब ब्रह्म विद्या के अंतर्गत नहीं आता। ब्रह्म विद्या का जो आवश्यक हिस्सा है वह तो सभी को प्राप्त हो जाता है। इसके पश्चात वाला भाग पुस्तकों में नहीं मिलता। यह ब्रह्म ज्ञानियों के पास होता है। ब्रह्म ज्ञानी गिने चुने होते हैं और वह यह ज्ञान केवल उन्हीं को देते हैं जो कि ब्रह्म ज्ञानी होने वाले हैं। बाकी सब पूजन पाठ, उपासना, सामान्य व्यवहार, सामान्य दक्षता इत्यादि दे दिया जाता है। ऐसा क्यों? मैंने पहले कहा एक पिता अपने जीवनकाल में पुत्र उत्पन्न कर लेता है। ठीक्र वैसे ही ब्रह्म ज्ञानी भी अपने जीवन काल में दूसरा ब्रह्म ज्ञानी रच लेता है। ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी ही रचेगा भूगोल का अध्यापक नहीं बनायेगा अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो फिर श्रृंखला टूट जायेगी।

         बगलामुखी की आराधना खण्डित हो जायेगी। बगलामुखी क्रियाशील इसलिए है कि श्रृंखला न टूटने पाये। देखिए दो मार्ग हैं प्राप्त करने के। एक मार्ग है तप का मार्ग। यह मार्ग सबके लिए खुला हुआ है। तप करके, तपस्या करके पूर्ण निष्ठा के साथ सेवा करके कोई भी कुछ भी प्राप्त कर सकता है। यह तपोनिष्ठ होने की प्रवृत्ति है। इसमें खूब बाधायें आयेंगी, खूब अवरोध आयेंगे फिर भी तपोनिष्ठ साधक लगा रहेगा। तप को अस्त्र बनाकर वह असुरों के समान ब्रह्मा और शिव से कुछ भी प्राप्त कर सकता है। उन्हें प्रसन्न कर सकता है। यह भी एक विधान है। तपोनिष्ठ के आगे उन्हें झुकना ही पड़ता है परन्तु यह जरूरी नहीं कि तपोनिष्ठ व्यक्ति अपने आपमें एक उत्कृष्ट संरचना हो। लंकेश भी तपोनिष्ठ था बहुत कुछ प्राप्त कर लिया था। तप से सिद्धि तो प्राप्त हो ही जाती है। इसमें, आदि शक्तियों की भी परीक्षा होती है। यह पूर्ण स्वतंत्रता का मार्ग है। हर जीव तप करने के लिए स्वतंत्र है परन्तु इसमें कृपा का अभाव हो जाता है। यह दुनिया तपनिष्ठों से भरी हुई है। तपानुसार, कर्मानुसार ये कुछ काल के लिए शक्तिशाली तो हो ही जाते हैं बाद में चाहे जो कुछ भी हो। दूसरा मार्ग है कृपा का मार्ग। इसमें कृपा प्राप्त होती है यह मूक मार्ग है। यह मांगने की प्रक्रिया नहीं है। कृपा मार्ग का प्रमाणीकरण भी नहीं होता है। इसमें जीव विशेष माध्यम होता है पराशक्ति की इच्छा का। वह अपने कृपाचारी को जीवित देखना चाहता है, विकसित देखना चाहता है, उसे पूर्ण रूप में देखना चाहता है। 

           अब एक वृतांत देता हूँ लंकेश तपोनिष्ठ थे उनके अंदर भी क्रियाशील थी रुद्र की शक्ति, ब्रह्म ज्ञान उनके अंदर भी था। उन्होंने इसे घोर तपस्या से प्राप्त किया था, स्व अर्जित किया था। देवाधिदेव महादेव की लंकापुरी में उन्हें गद्दी पर बिठाया गया था। प्रभु श्री राम पर कृपा हुई उनके साथ रुद्रांश हनुमंत थे। हनुमंत के रूप में बगलामुखी क्रियाशील हुई।

लांगुलास्त्र बगलामुखी की ही एक प्रक्रिया है। अंत में विजय कृपा की ही हुई। इसका क्या कारण है? कृपा क्यों हर बार विजयी होती है? तप क्यों हर बार हारता है? सीधी सी बात है तप सौदा है, इसमें मांग होती है, इसमें वरदान होता है, इसे पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्धता होती है। यह एक तरह से कीलन है परन्तु इसके विपरीत कृपा में स्वेच्छा चारिता होती है, गुरु की इच्छा होती है। केकैयी के बंधन में भरत को राजगद्दी मिल गई थी। दशरथ कीलित थे, प्रतिबंधित थे, केकैयी को वरदान देकर। इसमें उनकी इच्छा नहीं चली। कृपा का मार्ग श्रेयस्कर है लम्बे समय में विजयी होता है। बगलामुखी ब्रह्म विद्या के अंतर्गत आती है। युद्ध सभी करते हैं। जीवन में शत्रु सभी के होते हैं। यह सब जीवन का ही एक अंग है परन्तु विजय महत्वपूर्ण है। विजय की प्राप्ति ही बगलामुखी की आराधना में सफलता का द्योतक है। अतः अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को साधनाओं के माध्यम से कभी भी सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए सिर्फ कृपा प्राप्ति का ही ध्येय रखना चाहिए। विजय कृपा के अंदर ही निहित है। तपोनिष्ठ तो हारता है, हार तपोनिष्ठों के लिए ही बनी है, हार तपोनिष्ठ को परिवर्तित करती है सद्मार्ग अपनाने के लिए। हार तपोनिष्ठ को उद्वेलित करती है यह सोचने के लिए कि कृपा प्राप्ति ही श्रेष्ठ विधान है। यही ब्रह्म वर्चस्व की कहानी है। तपोनिष्ठ विश्वामित्र से ब्रह्मऋषि में परिवर्तित होने की प्रक्रिया है। 

            18 वीं शताब्दी में एक महान सिद्ध हुए उन्हें कच्चे बाबा के नाम से जाना जाता था। वो जो कुछ भी खाते थे सिर्फ कच्चा ही खाते थे अगर कोई मुट्ठी भर गेंहूँ दे आता तो उसी को कच्चा खा लेते थे। किसी ने सब्जी दे दी तो कच्ची खा ली। अद्भुत बात है। जार्ज पंचम जो कि इंग्लैण्ड के राजा थे एक बार हिन्दुस्तान आये। काशी आकर उन्होंने किसी सिद्ध संत से मिलने की इच्छा प्रकट की, लोग उन्हें कच्चे बाबा के पास ले गये, बाबा ने अपनी कुटिया में कुर्सी लगा दी साफ सफाई भी करवा दी, आखिर कार उनसे मिलने विश्व का सम्राट आ रहा था। जार्ज पंचम उस समय युवा थे फिर भी भारतीय संस्कृति से भली- भांति परिचित थे और गरिमानुकूल व्यवहार भी करते थे। वे कुर्सी पर नहीं बैठे जमीन पर ही बैठे जब सम्राट जमीन पर बैठ गया तो भारतीय नौकर चाकर और चाटुकार भी -बाबा के सामने लोटने लगे। 

             जार्ज पंचम ने बाबा से कहा आप जो चाहे मांग लीजिए आपके सामने सम्राट बैठा हुआ है। बाबा ने कहा मैं क्या मांगू? तू चलकर मेरे पासा आया । मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तू राज कर। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि ब्रह्म विद्या के धनी भिखारी नहीं होते। आज का कोई चाटुकार साधु संत होता तो तुरंत ही आश्रम के लिए जमीन मांग बैठता। मैं रोज ऐसे घटिया साधु-संतों को देखता हूँ जो कि राजनेताओं के सामने, कुबेर पतियों के सामने सिर्फ ट्रस्ट, संस्था और मठ के लिए भिक्षा मांगते रहते हैं। जो स्वयं भिखमंगा है वह किसी को क्या देगा? जो राजदरबार में आश्रम के लिए जमीन मांगने की याचना करता है उसे कहाँ ब्रह्म विद्या सिद्ध होगी?

              हरि गोस्वामी जी एक संत हुए हैं वे काशी में निवास करते थे, प्रतिदिन भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते और फिर वहीं पास की झाड़ियों में जाकर छिप जाते । वे झाड़ी में रहते थे उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना। अचानक एक दिन काशी से गायब हो गये कहाँ गये किसी को पता ही नहीं चला। यह है ब्रह्म ज्ञानियों की पहचान। उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना न कि पण्डाल बांधना। ऐसे ही एक और महात्मा हुए विश्वेश्वरदास जी वे छतरी वाले बाबा के नाम से जाने जाते थे। उनके पास बस एक छतरी थी छतरी गाड़ी और उसी के नीचे बैठ गये उन्हें विष्णु का वामन अवतार सिद्ध था। अब जिसे स्वयं वामन अवतार सिद्ध हो जो कि ढाई कदम में ही समस्त ब्रह्माण्ड के छोर को लांग दे उसे क्या जरूरत पड़ी मठ बनाने की। छतरी ही बहुत है। अयोध्या में एक ब्रह्म ज्ञानी हुए रामकृपा जी महाराज वह सारा जीवन एक छटाक चना ही खाते थे। उसके अलावा जीवन में उन्होंने कुछ खाया ही नहीं। प्रतिदिन बस एक छटाक चना खाते थे। जो भी आता था उसे चने के कुछ दाने दे देते थे। 
         
आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने उनके द्वारा प्राप्त चने के दाने सुरक्षित रखे हुए हैं। अस्सी वर्ष बीत गये उन्हें शरीर त्यागे फिर भी चने के दाने ऐसे लगते हैं जैसे कि इसी वर्ष उत्पन्न हुए हों। ये अयोध्या में ही रहते थे। इनका जबर्दस्त कीलन कर रखा था प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में। ये अंत तक अवधवासी ही रहे। एक बार इन्होंने अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश की। रात्रि को चुपचाप अयोध्या छोड़कर जाने लगे। ये तंग आ चुके थे जनता की भीड़-भाड़ से। जैसे ही अयोध्या छोड़कर निकले एक लम्बे चौड़े सिपाही ने आकर इनका रास्ता रोक लिया और इन्हें पुनः अयोध्या में भगा दिया। सारी रात यह दसों दिशाओं से अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश करते रहे पर हर बार वही सिपाही इन्हें डांट डपटकर पुनः भगा देता। अंत में ये समझ गये कि प्रभु श्री राम की इच्छा ही नहीं है कि मैं अयोध्या छोहूँ। इसे कहते हैं कृपा।

             आध्यात्मिक लोगों का जबर्दस्त कीलन होता है। वे अपने गुरुओं की बगलामुखी साधना के द्वारा पूरी तरह से स्तंभित होते हैं। जब तक वे अपने कार्यों को सम्पन्न नहीं कर लेंगे गुरु उन्हें नहीं छोड़ते। वे ही सारी व्यवस्था करते हैं। चारों तरफ से कीलन करके रख देते हैं। जब आप बगलामुखी यंत्र का तांत्रोक्त पूजन करेंगे तो उसमें पायेंगे कि इस ब्रह्म विद्या के द्वारा तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों के मुखों को स्तम्भित कर दिया गया है। ब्रह्मास्त्र, शिवास्त्र, महासुदर्शन चक्र सब के सब महादेवी ने कीलित कर दिए हैं अपने भक्त के लिए। यमास्त्र,कुबेरास्त्र, वायुअस्त्र, आयास्त्र इत्यादि सभी कीलित हैं। इन सभी पराशक्तियों से वह अपने भक्त को कवचित कर रही हैं। अर्थात अब भक्त के ऊपर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी कुपित नहीं हो सकते तो फिर अन्य किसी शक्ति की क्या औकात। यह सब क्यों? क्योंकि इन्हीं क्रियाओं के द्वारा अहं ब्रह्माऽस्मि का अभ्युदय होगा अर्थात मैं ही ब्रह्मा हूँ। यही बगलामुखी महाविद्या का सारांश है। जो कुछ हूँ वह मैं ही हूँ। अब कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। यही है ब्रह्मऋषियों की पहचान। 

                देखिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कुबेर, यम इत्यादि इत्यादि मानवाकृति के रूप में अत्यधिक मात्रा में क्रियाशील मिल सकते हैं। ऐसे भी मनुष्य हैं जिनके पास अकूत धन सम्पदा है साक्षात कुबेर के विग्रह। ऐसे भी मनुष्य हैं जो साक्षात चाण्डाल हैं। ऐसे भी मनुष्य है जो सिर्फ निदर्यता के साथ प्राण हरने को तैयार रहते हैं। ब्रह्मा के समान मनुष्य भी हैं जो कि नवीन संरचना करने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। उनमें इतना ब्रह्मत्व विकसित हो जाता है कि चालीस वर्ष में करोड़ों ऋषि पुत्र एवं ऋषि पुत्रियाँ उत्पन्न कर देते हैं। जैसे कि निखिलेश्वरानंद जी ने किया है। बस दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है सब कुछ यहीं पर दिखलाई दे जायेगा। संकट मोचन मनुष्यों के जीवन में ऐसे ही क्षण आते हैं कि अगर उसके ऊपर गुरु कृपा नहीं है तो वह पतनोन्मुख हो जायेगा। मैंने अपने जीवन में ऐसे स्त्री-पुरुषों को देखा है कि जिनके जीवन में अगर निखिलेश्वरानंद जी नहीं आते तो वे पतनोन्मुख हो गये होते, नर्क की गर्त में चले गये होते, कहीं सड़ रहे होते। ऐसे ही क्षणों में रक्षा करती है बगलामुखी। सर्वदुष्टानां, सर्वशत्रुनां का कीलन, उच्चाटन, मारण एवं मोहन ब्रह्म विद्या बगलामुखी के द्वारा ही गुरु करते हैं। ब्रह्म विद्या वह है जो लाखों करोड़ों पीड़ित शोषित और कुण्ठित जीवों का पुनः उद्धार कर सके। चाहे माध्यम कुछ भी क्यों न हो? गुरु, गणेश, शिव, रुद्र, सूर्य, चन्द्र, अग्नि देव इत्यादि सभी कल्याणकारी एवं सौम्य माहेश्वरी बगलामुखी के कारण ही बने है।

जप एवं ध्यान की महत्ता ।।

तीर्थयात्रा, देवदर्शन, स्तवन, पाठ, षोडशोपचार, परिक्रमा, अभिषेक, शोभायात्रा, श्रद्धाञ्जलि, रात्रि जागरण, कीर्तन आदि अनेकों विधियाँ विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों में अपने-अपने ढंग से विनिर्मित और प्रचलित हैं। इससे आगे का अगला स्तर वह है,जिसमें उपकरणों का प्रयोग न्यूनतम होता है और अधिकांश कृत्य मानसिक एवं भावनात्मक रूप से ही सम्पन्न करना पड़ता है। यों शारीरिक हलचलों, श्रम और प्रक्रियाओं का समन्वय उनमें भी रहता ही है।

उच्चस्तरीय साधना क्रम में मध्यवर्ती विधान के अन्तर्गत प्रधानतया दो कृत्य आते हैं- (१) जप (२) ध्यान 
न केवल भारतीय परम्परा में वरन् समस्त विश्व के विभिन्न साधना प्रचलनों में भी किसी न किसी रूप में इन्हीं दो का सहारा लिया गया है। प्रकार कई हो सकते हैं, पर उन्हें इन दो वर्गों के ही अंग-प्रत्यंग के रूप में देखा जा सकता है। साधना की अन्तिम स्थिति में शारीरिक या मानसिक कोई कृत्य करना शेष नहीं रहता। मात्र अनुभूति,संवेदना,भावना तथा संकल्प शक्ति के सहारे विचार रहित शून्यावस्था प्राप्त की जाती है। इसी को समाधि अथवा तुरीयावस्था कहते हैं। ब्रह्मानन्द का परमानन्द का अनुभव इसी स्थिति में होता है। इसे ईश्वर और जीव के मिलन की चरम अनुभूति कह सकते हैं। इस स्थान पर पहुँचने से ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो जाता है। यह स्तर समयानुसार आत्म-विकास का क्रम पूरा करते चलने से ही उपलब्ध होता है। उतावली में काम बनता नहीं बिगड़ता है। तुर्त-फुर्त ईश्वर दर्शन,समाधि स्थिति,कुण्डलिनी जागरण, शक्तिपात जैसी आतुरता से बाल बुद्धि का परिचय भर दिया जा सकता है। शरीर को सत्कर्मों में और मन को स‌द्विचारों में ही अपनाये रहने से जीव सत्ता का उतना परिष्कार हो सकता है, जिससे वह स्थूल और सूक्ष्म शरीरों को समुन्नत बनाते हुए कारण शरीर के उत्कर्ष से संबद्ध दिव्य अनुभूतियाँ और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त कर सके ।

निष्कर्ष : जप द्वारा अध्यात्म ही उस परमेश्वर को पुकारता है, जिसे हम एक प्रकार से भूल ही चुके हैं। मणि विहीन सर्प जिस तरह अशक्त एवं हताश बना बैठा रहता है, उसी प्रकार हम परमात्मा से बिछुड़कर अनाथ बालक की तरह डरे, सहमे बैठे हैं-अपने को असुरक्षित और आपत्तिग्रस्त स्थिति में अनुभव कर रहे हैं। लगता है हमारा कुछ बहुमूल्य खो गया है। जप की पुकार उसी को खोजने के लिए है। बिल्ली अपने बच्चों के इधर- उधर छिप जाने पर उन्हें ढूँढ़ने के लिए म्याऊँ म्याऊँ करती फिरती है और उस पुकार के आधार पर उन्हें खोज निकालती है। कोई बालक खो जाने पर उसको ढूँढ़ने के लिए नाम और हुलिया की मुनादी कराई जाती है। रामनाम की रट इसी प्रयोजन के लिए है।

आत्मचिंतन के क्षण ।।

आत्म-निर्माण के कार्य में सत्संग निःसन्देह सहायक होता है किन्तु आज की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में जो विडंबना फैली है, उससे लाभ के स्थान पर हानि अधिक है। सड़े-गले, औंधे-सीधे, रूढ़िवादी, भाग्यवादी, पलायनवादी विचार इन सत्संगों में मिलते हैं। फालतू लोग अपना समुदाय बढ़ाने के लिए सस्ते नुस्खे बताते रहते हैं या किसी देवी देवता के कौतूहल भरे चरित्र सुनाकर उनके सुनने मात्र से स्वर्ग, मुक्ति आदि मिलने की आशा बँधाते रहते हैं। ऐसा विडम्बनापूर्ण सत्संग किसी का क्या हित साधेगा?

आज सत्संग की आवश्यकता स्वाध्याय से ही पूरी करनी पड़ती है। जहाँ जीवन को प्रेरणाप्रद मार्गदर्शन कर सकने की दृष्टि से उपयुक्त सत्संग मिल सके, वहाँ जाने और लाभ उठाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। पर जहाँ व्यर्थ की विडम्बनाओं में समय बर्बाद किया जाता हो, वहाँ जाने में कुछ लाभ नहीं। आज की स्थिति में सरल सत्संग स्वाध्याय ही हो सकता है। आत्मबल बढ़ाने वाला, चरित्र को उज्ज्वल करने वाला, गुणकर्म, स्वभाव में प्रौढ़ता उत्पन्न करने वाला साहित्य उपलब्ध करके नियमित रूप से उसे पढ़ते रहने से भी घर बैठे सत्पुरुषों के साथ सत्संग का लाभ लेने की सुविधा मिल सकती है।

प्रत्येक मनुष्य को हर घड़ी अपने स्वयं के चरित्र का निरीक्षण करते रहना चाहिए कि उसका चरित्र पशु तुल्य है या सत्पुरुषों जैसा। आत्म-निरीक्षण की प्रणाली का नाम ही स्वाध्याय है। पूर्ण मानव बनने के सद् उद्देश्य से जिनने भी स्वाध्याय का अनुसरण किया है उनकी आत्मा अवश्यमेव परिष्कृत हुई है, उनकी महानता जागृत हुये बिना नहीं रही।


गुरुमंत्र की शक्तियाँ ।।

रक्षण शक्तिः -

ॐ सहित मंत्र का जप करते हैं तो वह हमारे जप तथा पुण्य की रक्षा करता है।
किसी नामदान के लिए हुए साधक पर यदि कोई आपदा आनेवाली है,कोई दुर्घटना घटने वाली है तो मंत्र भगवान उस आपदा को शूली में से काँटा कर देते हैं। साधक का बचाव कर देते हैं। ऐसा बचाव तो एक नहीं,मेरे हजारों साधकों के जीवन में चमत्कारिक ढंग से महसूस होता है। गाड़ी उलट गयी,तीन गुलाटी खा गयी किंतु .....हमको खरोंच तक नहीं आयी.... ! हमारी नौकरी छूट गयी थी,ऐसा हो गया था, वैसा हो गया था किंतु बाद में उसी साहब ने हमको बुलाकर हमसे माफी माँगी और हमारी पुनर्नियुक्ति कर दी। पदोन्नति भी कर दी... इस प्रकार की न जाने कैसी-कैसी अनुभूतियाँ लोगों को होती हैं। ये अनुभूतियाँ समर्थ भगवान की सामर्थ्यता प्रकट करती हैं।

गति शक्तिः -

जिस योग में,ज्ञान में,ध्यान में आप फिसल गये थे, उदासीन हो गये ,किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे उसमें मंत्र दीक्षा लेने के बाद गति आने लगती है। मंत्र दीक्षा के बाद आपके अंदर गति शक्ति कार्य में आपको मदद करने लगती है।

कांति शक्तिः-

मंत्रजाप से जापक के कुकर्मों के संस्कार नष्ट होने लगते हैं और उसका चित्त उज्जवल होने लगता है। उसकी आभा उज्जवल होने लगती है, उसकी मति-गति उज्जवल होने लगती है और उसके व्यवहार में उज्जवलता आने लगती है।इसका मतलब ऐसा नहीं है कि आज मंत्र लिया और कल सब छूमंतर हो जायेगा... धीरे-धीरे होगा। एक दिन में कोई स्नातक नहीं होता, एक दिन में कोई एम.ए. नहीं पढ़ लेता, ऐसे ही एक दिन में सब छूमंतर नहीं हो जाता। मंत्र लेकर ज्यों-ज्यों आप श्रद्धा से, एकाग्रता से और पवित्रता से जप करते जायेंगे त्यों-त्यों विशेष लाभ होता जायेगा।

प्रीति शक्तिः-

ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों मंत्र के देवता के प्रति,मंत्र के ऋषि,मंत्र के सामर्थ्य के प्रति आपकी प्रीति बढ़ती जायेगी।

तृप्ति शक्तिः-

ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों आपकी अंतरात्मा में तृप्ति बढ़ती जायेगी, संतोष बढ़ता जायेगा। जिन्होंने नियम लिया है और जिस दिन वे मंत्र नहीं जपते,उनका वह दिन कुछ ऐसा ही जाता है। जिस दिन वे मंत्र जपते हैं,
उस दिन उन्हें अच्छी तृप्ति और संतोष होता है।जिनको गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है उनकी वाणी में सामर्थ्य आ जाता है। नेता भाषण करता है तो लोग इतने तृप्त नहीं होते, किंतु जिनका गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है ऐसे महापुरुष बोलते हैं तो लोग बड़े तृप्त हो जाते हैं ।

अवगम शक्तिः-

मंत्रजाप से दूसरों के मनोभावों को जानने की शक्ति विकसित हो जाती है।
दूसरे के मनोभावों को आप अंतर्यामी बनकर जान सकते हो। कोई व्यक्ति कौन सा भाव लेकर आया है ? दो साल पहले उसका क्या हुआ था या अभी उसका क्या हुआ है ?उसकी तबीयत कैसी है? लोगों को आश्चर्य होगा किंतु आप तुरंत बोल दोगे कि 'आपको छाती में जरा दर्द है... आपको रात्रि में ऐसा स्वप्न आता है....कोई कहे कि 'महाराज ! आप तो अंतर्यामी हैं।' वास्तव में यह भगवत्शक्ति के विकास की बात है।

प्रवेश अवति शक्तिः-

अर्थात् सबके अंतरतम की चेतना के साथ एकाकार होने की शक्ति। अंतःकरण के सर्व भावों को तथा पूर्वजीवन के भावों को और भविष्य की यात्रा के भावों को जानने की शक्ति कई योगियों में होती है। वे कभी-कभार मौज में आ जायें तो बता सकते हैं कि आपकी यह गति थी,आप यहाँ थे,फलाने जन्म में ऐसे थे,अभी ऐसे हैं। जैसे दीर्घतपा के पुत्र पावन को माता-पिता की मृत्यु पर उनके लिए शोक करते देखकर उसके बड़े भाई पुण्यक ने उसे उसके पूर्वजन्मों के बारे में बताया था। यह कथा योगवाशिष्ठ महारामायण में आती है।

श्रवण शक्तिः-

मंत्रजाप के प्रभाव से जापक सूक्ष्मतम,गुप्ततम शब्दों का श्रोता बन जाता है। जैसे, शुकदेवजी महाराज ने जब परीक्षित के लिए सत्संग शुरु किया तो देवता आये। शुकदेवजी ने उन देवताओं से बात की। माँ आनंदमयी का भी देवलोक के साथ सीधा सम्बन्ध था। और भी कई संतो का होता है। दूर देश से भक्त पुकारता है कि गुरुजी !
मेरी रक्षा करो... तो गुरुदेव तक उसकी पुकार पहुँच जाती है !

स्वाम्यर्थ शक्तिः-

अर्थात् नियामक और शासन का सामर्थ्य। नियामक और शासक शक्ति का सामर्थ्य विकसित करता है प्रणव का जाप।

याचन शक्तिः-

अर्थात् याचना की लक्ष्यपूर्ति का सामर्थ्य देने वाला मंत्र।

क्रिया शक्तिः-

अर्थात् निरन्तर क्रियारत रहने की क्षमता, क्रियारत रहनेवाली चेतना का विकास।

इच्छित अवति शक्तिः-

अर्थात् वह ॐ स्वरूप परब्रह्म परमात्मा स्वयं तो निष्काम है किंतु उसका जप करने वाले में सामने वाले व्यक्ति का मनोरथ पूरा करने का सामर्थ्य आ जाता है। इसीलिए संतों के चरणों में लोग मत्था टेकते हैं, कतार लगाते हैं,प्रसाद धरते हैं,आशीर्वाद माँगते हैं आदि आदि।

इच्छित अवन्ति शक्ति:-

अर्थात् निष्काम परमात्मा स्वयं शुभेच्छा का
प्रकाशक बन जाता है।

दीप्ति शक्तिः-

अर्थात् ओंकार जपने वाले के हृदय में ज्ञान का प्रकाश बढ़ जायेगा। उसकी दीप्ति शक्ति विकसित हो जायेगी।

वाप्ति शक्तिः-

अणु-अणु में जो चेतना व्याप रही है उस चैतन्यस्वरूप ब्रह्म के साथ आपकी
एकाकारता हो जायेगी।

आलिंगन शक्तिः-

अर्थात् अपनापन विकसित करने की शक्ति। ओंकार के जप से पराये भी अपने होने लगेंगे तो अपनों की तो बात ही क्या ?जिनके पास जप-तप की कमाई नहीं है उनको तो घरवाले भी अपना नहीं मानते,किंतु जिनके पास ओंकार के जप की कमाई है उनको घरवाले, समाजवाले,गाँववाले,नगरवाले,राज्य वाले,राष्ट्रवाले तो क्या विश्ववाले भी अपना मानकर आनंद लेने से इनकार नहीं करते।

हिंसा शक्तिः-

ओंकार का जप करने वाला हिंसक बन जायेगा ?हाँ,हिँसक बन जायेगा किंतु कैसा हिंसक बनेगा ?दुष्ट विचारों का दमन करने वाला बन जायेगा और दुष्टवृत्ति के लोगों के दबाव में नहीं आयेगा। अर्थात् उसके अन्दर अज्ञान को और दुष्ट सरकारों को मार भगाने का प्रभाव विकसित हो जायेगा।

दान शक्तिः-

अर्थात् वह पुष्टि और वृद्धि का दाता बन जायेगा। फिर वह माँगनेवाला नहीं रहेगा,देने की शक्तिवाला बन जायेगा। वह देवी-देवता से,भगवान से माँगेगा नहीं,
स्वयं देने लगेगा।

भोग शक्तिः-

प्रलयकाल स्थूल जगत को अपने में लीन करता है, ऐसे ही तमाम दुःखों को, चिंताओं को,भयों को अपने में लीन करने का सामर्थ्य होता है प्रणव का जप करने वालों में। जैसे दरिया में सब लीन हो जाता है, ऐसे ही उसके चित्त में सब लीन हो जायेगा और वह अपनी ही लहरों में फहराता रहेगा,मस्त रहेगा... नहीं तो एक-दो दुकान,एक-दो कारखाने वाले को भी कभी-कभी चिंता में चूर होना पड़ता है। किंतु इस प्रकार की साधना जिसने की है उसकी एक दुकान या कारखाना तो क्या,एक आश्रम या समिति तो क्या,1100,1200 या 1500 ही क्यों न हों,सब उत्तम प्रकार से चलती हैं !उसके लिए तो नित्य नवीन रस, नित्य नवीन नंद,नित्य नवीन मौज रहती है।शादी अर्थात् खुशी ! वह ऐसा मस्त फकीर बन जायेगा।

वृद्धि शक्तिः-

अर्थात् प्रकृतिवर्धक, संरक्षक शक्ति। गुरुदेव का जप करने वाले में प्रकृतिवर्धक और
सरंक्षक सामर्थ्य आ जाता है।

अध्यात्मिक उर्जा का क्षय कैसे हो जाता है ।

मनुष्य के साथ सबसे बड़ी समस्या ही यह है की वह उर्जा के नियमो से अवगत नहीं है. अध्यात्मिक शक्ति अर्थात उर्जा का, मंत्र इत्यादि क्रियाओं से आहवाहन तो हो सकता है किन्तु दिव्य उर्जा को संचित कर उसका उचित समय पर उचित प्रयोग करना नही आता है.
इसके अलावा मनुष्य को इस बात का भी ज्ञान नहीं होता है कि किस प्रकार छोटे छोटे नकारात्मक कर्मों द्वारा अपनी कठिनता से प्राप्त दिव्य उर्जा का नुकसान कर देता है.

उर्जा के क्षय का सबसे प्रमुख कारण मन के सभी छोटे और बड़े नकारात्मक विचार होते है. मन की किसी भी वस्तु , व्यक्ति अथवा परिस्थिति को लेकर सबसे पहली जो प्रतिक्रिया होती है वह है – विचार. विचारो की प्रवृत्ति या तो भूतकाल की ओर रहती है या भविष्य की ओर रहती है. अधिकंशतः विचार भूतकाल मे हो चुकी घटना मे संलग्न व्यक्ति अथवा वस्तुओं से हमारा भावनात्मक लगाव होने के कारण चलते रहते है. ऐसे विचारो मे अधिकांशतः विचार तुलनात्मक , निषेधात्मक और अपेक्षात्मक होते है जो कि मानव मन को असहज बना देते है. भविष्य की आवश्यकता से अधिक चिन्ता भी मन को असंतुलित कर देती है.
ऊर्जा का निरंतर प्रवाह
भूतकाल और भविष्य काल में रहने से हो रहे शारीरिक और मानसिक असंतुलन का कारण यह है कि वह शक्ति जो भविष्य का उचित निर्माण कर सकती है और भूतकाल की असहज परिस्थितियों को पुनः उत्पन्न नहीं होने देती वर्तमान काल मे विद्यमान होती है . किन्तु मनुष्य कभी भी वर्तमान मे सहज हो कर नहीं रहता. वर्तमान का सही उपयोग ना कर पाने के कारण भविष्य की नयी शुभ सम्भावनाये स्वरूप नहीं ले पाती है. भूतकाल का कोई अस्तित्व नहीं होता है, किन्तु नकारात्मक विचारों द्वारा बार बार पोषित होने के कारण वह भविष्य में उसी प्रकार के व्यक्तियों से सम्बन्ध अथवा परिस्थित्यों के निर्माण की सम्भावना को सबल बनाते है.

विचार अध्यात्मिक उर्जा को गति प्रदान करते है.           
सकारात्मक उर्जा समय रहते सही दिशा देने पर उत्तम आतंरिक और वाह्य परिस्थितियों का निर्माण कर सकती है. किन्तु यदि अवांछनीय विचारो पर नियन्त्रण नहीं रखा जाये तो उर्जा का अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के लिये उपयुक्त मात्रा मे संचयन नहीं हो पाता है और सब कुछ यथावत नकारात्मक रूप मे चलता रहता है.

जैसे कि हम सभी जानते है कि उर्जा का हस्तान्तरण पाँच विधियों के द्वारा होता है – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध उर्जा को एक स्थान से दूसरे स्थान अथवा व्यक्ति तक पहुचाने के वाहक होते है. कटु , तीखे, क्रोधी, निन्दक और व्यंगात्मक शब्दों का यदि प्रयोग किया जाये तो उर्जा की हानि होती है. यही कारण है कि साधनकाल मे तथा अन्य समय मे भी किसी भी प्रकार से प्रेरित होकर अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये. किसी को अशीर्वाद दिया जाये अथवा श्राप ; दोनों ही स्थिति मे स्वयम की तपस्या से अर्जित की गयी उर्जा शब्दों के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित हो जाती है और उस समय की गयी इच्छा के अनुरूप दुसरे व्यक्ति को फल देती है .

तामसिक भोजन, मांस, मदिरा, धूम्रपान इत्यादी का उपयोग भी अध्यात्मिक शक्ति के ह्रास का प्रमुख कारण है.ऐसा भोजन जब तक सम्पूर्णतः शरीर को अपने प्रभाव से मुक्त नहीं कर देता उर्जा स्तर को प्रभवित करता रहता है. तामसिक भोजन के उपरान्त उर्जा को व्यवस्थित होने मे 2-4 दिन सााधरणतयः लग जाते है.

इसी प्रकार जब नकारात्मक विचारधारा के साथ जब भोजन बनाया जाता है तो स्पर्श के साथ विचारों की उर्जा पदार्थों मे प्रवेश कर उसकी सात्विक शक्ति को कम कर देते है. नकारात्मक व्यक्तियों के साथ हाथ मिलाने , उनके द्वारा दिए हुए वस्त्र पहनना अथवा उनके वस्त्र पहनने से भी उनकी ऊर्जा दूसरे व्यक्ति के अंदर प्रवेश कर अस्थिरता , बेचैनी और क्रोध जैसे अन्य विकार उत्पन्न करते है। सड़न इत्यादि से पैदा हुई और अन्य अप्रिय लग्ने वाली गंध वायु के माध्यम से नासिका से होती हुई सीधे सूक्ष्म शरीर को प्रभवित करती है और उर्जा भौतिक एवम सूक्ष्म शरीर के मध्य उर्जा मे असंतुलन पैदा करती है.

इन्ही सब कारणों से अध्यात्म मे मन की शुद्धता , भोजन , वाणी और स्पर्श इत्यादि की सावधानी पर बहुत अधिक बल दिया गया है. यदि इन माध्यमो का सही उपयोग किया जाता है तो सकारात्मक उर्जा की गति अंदर की ओर होती है जिससे उसका संचय होकर मात्रा मे वृद्धी होती है. इन माध्यमों का दुरूपयोग करने पर उर्जा की प्रवृत्ति वाह्य और अधोमुखी हो जाती है जिससे संचित उर्जा का भी क्षय हो जाता है. यह वाह्य प्रवृत्ति और अधोगामी गति तब तक रहती है जब तक सही प्रयासो और संकल्प के द्वारा उर्जा का मार्ग परिवर्तित ना किया जाये।

बंधन खोलना अपने आप में एक कला है ।।

प्रतिबंधात्मक जीवन में श्री की स्थापना सम्भव नहीं है। आदि शक्ति माँ बगलामुखी के मंत्र में बीज मंत्र के रूप में श्री भी स्थापित है। मंत्र गूंगे, बहरे और अंधे भी होते हैं। भारत वर्ष तीर्थ प्रधान देश है। जगह-जगह आपको प्राण प्रतिष्ठित तीर्थ स्थान मिल जायेंगे प्रत्येक व्यक्ति जीवन में भटकता हुआ कभी न कभी तीर्थ स्थानों, पर नदियों के तट पर, मंदिरों में या फिर गुरुओं के सानिध्य में पहुँच ही जाता है। एक अज्ञात शक्ति उसे बार- बार बाध्य करती है इन सब जगहों पर पहुँचने के लिए। यहीं पर बंधन खुलते हैं और व्यक्ति का उच्चाटन समाप्त होता है एवं उसे जीवन में एक निश्चित दिशा प्राप्त होती है। 


           शक्ति संचय की यह अद्भुत व्यवस्था है। प्रत्येक व्यक्ति के बंधन अलग- अलग स्थानों पर खुलते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का भाग्योदय के पूजन में रक्षा कवच का विधान है। मुख्य रूप से सभी रक्षा कवचों में बगलामुखी की शक्ति ही निहित होती है। महाविद्याओं की शक्तियाँ मूल स्तोत्र हैं जिनके द्वारा सभी आदि शक्तियाँ अस्त्र शस्त्र एवं कवचों से युक्त होती हैं और फिर यहीं अस्त्र शस्त्र और कवच भक्तजनों को उनके इष्टों के द्वारा प्राप्त होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग संरचना है इसीलिए उसका एक विशेष इष्ट देव होता ही है। उस इष्ट के माध्यम से वह आसानी से महाविद्याओं की शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। योग विद्या के माध्यम से या फिर अन्य क्रियाओं के माध्यम से साधक अपनी क्रियाशीलता बढ़ा सकता है। शरीर की क्रियाशीलता और मानस की क्रियाशीलता में जमीन आसमान का फर्क है। मनुष्य भाव प्रधान जीव है उसके अंदर अनेकों भाव होते हैं इसीलिए वह वमन की प्रक्रिया से ग्रसित होता है। जो उसके मानस में बनता है अगर उसका वह वमन नहीं करेगा तो जीवन मुश्किल हो जायेगा।

           अगर दुःख का निर्माण हो रहा है तो आंसू के माध्यम से वह उसे प्रकट करेगा। कभी-कभी कुछ लोगों में विचार ज्यादा बनने लगते है‌‌। जिनमें विचार ज्यादा बनते हैं वे उन्हें प्रकट किए बिना नहीं रह सकते। भाव की प्रधानता से मस्तिष्क का बहुत ज्यादा विकास नहीं हो सकता। अतः मस्तिष्क की क्रियाशीलता धीरे-धीरे भाव के कारण कम होने लगती है। भाव एक ऐसा द्वार जो अगर खुल गया तो आपके मस्तिष्क में परमंत्र,तंत्र एवं शत्रु द्वारा किया गया अभिचार कर्म शीघ्रता के साथ आपको उद्वेलित करके रख देगा। भाव के नियंत्रण के लिए ही मस्तिष्क का शून्यीकरण किया जाता है। अर्थात मस्तिष्क को शून्य कर देना। कुछ समय के लिए मस्तिष्क के अंदर उठ रही सारी क्रियाओं को समाप्त करना। यह इतना आसान नहीं हैं। इसे ही स्तम्भन की प्रक्रिया कहते हैं। यही ध्यान है। यही बगलामुखी अनुष्ठान का रहस्य है। 

           यह तभी सम्भव होगा जब मस्तिष्क का सम्प्रेषण केवल मनुष्यों के द्वारा ही नहीं अपितु अन्य इतर योनियों, ग्रह नक्षत्रों इत्यादियों से भी बाधित या स्तम्भित कर दिया जाय। तभी मस्तिष्क को क्रियाशीलता बढ़ाई जा सकती है। यह समाधि की अवस्था है। इसे ब्रह्म अवस्था भी कहते हैं। इस ब्रह्म अवस्था में ही मस्तिष्क वास्तविक सृजन कर सकेगा। एक ऐसा सृजन जो कि परिवर्तनकारी होगा। कुछ अलग हटकर होगा। मस्तिष्क को रोकना होगा व्यर्थ बर्बाद होने से। मस्तिष्क की गुणवत्ता सुधारनी होगी। मस्तिष्क को केवल संवेगों की क्रीड़ा स्थली बनकर नही रहने देना होगा। संवेगों और इन्द्रियों के ऊपर बहुत कुछ है। भाव प्रधान मस्तिष्क बहुत मिल जाएंगे क्रूर और निर्दयी मस्तिष्क बहुत मिल जायेंगे। आलोचक मस्तिष्कों की भरमार है। भिखमंगे मस्तिष्क जगह-जगह पर लगे हुए हैं। इन सब मस्तिष्कों से बगलामुखी को आराधना कदापि नहीं होगी। कुछ एक विरले सृजनशील मस्तिष्क होते हैं। इन सृजनशील मस्तिष्कों के द्वारा ही ब्रह्म विद्या को समझा जा सकता है सृजनशील मस्तिष्क वो देख सकता है, वो महसूस कर सकता है जो कि आम मस्तिष्क सोच भी नहीं सकता। यह बंधन मुक्त मस्तिष्क होता है और बंधन से मुक्तता ही बगलामुखी या अन्य दस महाविद्याओं आराधना का ध्येय है ।

भारतीय क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ मुखर्जी 'बाघा जतीन' ।। जयंती ।।


जन्म : 07 दिसम्बर 1879
मृत्यु : 10 सितंबर 1915

जतीन्द्रनाथ मुखर्जी ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ एक बंगाली क्रांतिकारी थे। इनकी अल्पायु में ही इनके पिता का देहांत हो गया था। इनकी माता ने घर की समस्त ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और उसे बड़ी सावधानीपूर्वक निभाया। जतीन्द्रनाथ मुखर्जी के बचपन का नाम 'जतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय' था। अपनी बहादुरी से एक बाघ को मार देने के कारण ये 'बाघा जतीन' के नाम से भी प्रसिद्ध हो गये थे। जतीन्द्रनाथ ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कार्यकारी दार्शनिक क्रान्तिकारी थे। वे 'युगान्तर पार्टी' के मुख्य नेता थे। उस समय युगान्तर पार्टी बंगाल में क्रान्तिकारियों का प्रमुख संगठन थी।

जतीन्द्रनाथ मुखर्जी का जन्म ब्रिटिश भारत में बंगाल के जैसोर में सन 7 दिसम्बर 1879 ई. में हुआ था। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया था। माँ ने बड़ी कठिनाईयाँ उठाकर इनका पालन-पोषण किया था। जतीन्द्रनाथ ने 18 वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली और परिवार के जीविकोपार्जन हेतु स्टेनोग्राफ़ी सीखकर 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से जुड़ गए। वह बचपन से ही बड़े बलिष्ठ थे। उनके विषय में एक सत्य बात यह भी है कि 27 वर्ष की आयु में एक बार जंगल से गुज़रते हुए उनकी मुठभेड़ एक बाघ से हो गयी। उन्होंने बाघ को अपने हंसिये से मार गिराया था। इस घटना के बाद जतीन्द्रनाथ ‘बाघा जतीन’ के नाम से विख्यात हो गए थे।

इन्हीं दिनों अंग्रेज़ों ने बंग-भंग की योजना बनायी। बंगालियों ने इसका विरोध खुलकर किया ऐसे समय में जतीन्द्रनाथ मुखर्जी का भी नया रक्त उबलने लगा। उन्होंने साम्राज्यशाही की नौकरी को लात मारकर आन्दोलन की राह पकड़ी। सन 1910 में एक क्रांतिकारी संगठन में काम करते वक्त जतीन्द्रनाथ 'हावड़ा षडयंत्र केस' में गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हें साल भर की जेल काटनी पड़ी। जेल से मुक्त होने पर वह 'अनुशीलन समिति' के सक्रिय सदस्य बन गए और 'युगान्तर' का कार्य संभालने लगे। उन्होंने अपने एक लेख में उन्हीं दिनों लिखा था- "पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवन-यापन का अवसर देना हमारी मांग है।"

क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का प्रमुख साधन डकैती था। दुलरिया नामक स्थान पर भीषण डकैती के दौरान अपने ही दल के एक सहयोगी की गोली से क्रांतिकारी अमृत सरकार घायल हो गए। विकट समस्या यह खड़ी हो गयी कि धन लेकर भागें या साथी के प्राणों की रक्षा करें!

अमृत सरकार ने जतीन्द्रनाथ से कहा कि धन लेकर भाग जाओ, तुम मेरी चिंता मत करो, लेकिन इस कार्य के लिए जतीन्द्रनाथ तैयार न हुए तो अमृत सरकार ने आदेश दिया- "मेरा सिर काटकर ले जाओ, जिससे कि अंग्रेज़ पहचान न सकें।" इन डकैतियों में 'गार्डन रीच' की डकैती बड़ी मशहूर मानी जाती है। इसके नेता जतीन्द्रनाथ मुखर्जी ही थे। इसी समय में विश्वयुद्ध प्रारंभ हो चुका था। कलकत्ता में उन दिनों 'राडा कम्पनी' बंदूक-कारतूस का व्यापार करती थी। इस कम्पनी की एक गाडी रास्ते से गायब कर दी गयी थी, जिसमें क्रांतिकारियों को 52 मौजर पिस्तौलें और 50 हज़ार गोलियाँ प्राप्त हुई थीं। ब्रिटिश सरकार हो ज्ञात हो चुका था कि 'बलिया घाट' तथा 'गार्डन रीच' की डकैतियों में जतीन्द्रनाथ का ही हाथ है।

1 सितम्बर, 1915 को पुलिस ने जतीन्द्रनाथ का गुप्त अड्डा 'काली पोक्ष' ढूंढ़ निकाला जतीन्द्रनाथ अपने साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि राज महन्ती नमक अफ़सर ने गाँव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशश की। बढ़ती भीड़ को तितर-बितर करने के लिए जतीन्द्रनाथ ने गोली चला दी। राज महन्ती वहीं ढेर हो गया। यह समाचार बालासोर के ज़िला मजिस्ट्रेट किल्वी तक पहुँचा दिया गया। किल्वी दल बल सहित वहाँ आ पहुँचा। यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था।

जतीन्द्रनाथ उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चली। चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गया। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे।

🤔 क्या करें, क्या न करें ? 🤔

आचार संहिता

।। शयन ।।

१- प्राच्यां दिशि शिरश्शस्तं याम्यायामथ वा नृप।
सदैव स्वपत: पुंसो विपरीतं तु रोगदम्।।
           विष्णुपुराण ३।११।११३

२- प्राक्शिर:शयने विद्याद्धनमायुश्च दक्षिणे।
पश्चिमे प्रबला चिन्ता हानिमृत्युरथोत्तरे।।
    भगवंतभास्कर, आचारमयूख

३- अवाङ्मुखो न नग्नो वा न च भिन्नासने क्वचित्।
न भग्नायान्तु खट्वायां शून्यागारे तथैव च।।
      लघुव्याससंहिता २।८८-८९

४- नाविशालां न वै भग्नां नासमां मलिनां न च।
न च जन्तुमयीं शय्यामधितिष्ठेदनास्तृताम्।।
         विष्णुपुराण ३।११।११२

अर्थात् ।।

१- सदा पूर्व या दक्षिणकी तरफ सिर करके सोना चाहिये। उत्तर या पश्चिमकी तरफ सिर करके सोनेसे आयु क्षीण होती है तथा शरीरमें रोग उत्पन्न होते हैं।

२- पूर्वकी तरफ सिर करके सोनेसे विद्या प्राप्त होती है। दक्षिणकी तरफ सिर करके सोनेसे धन तथा आयुकी वृद्धि होती है। पश्चिमकी तरफ सिर करके सोनेसे प्रबल चिंता होती है। उत्तरकी तरफ सिर करके सोनेसे हानि तथा मृत्यु होती है अर्थात आयु क्षीण होती है।

३- अधोमुख होकर, नग्न होकर, दूसरेकी शय्यापर, टूटी हुई खाटपर तथा जनशून्य घरमें नहीं सोना चाहिये।

४- जो विशाल (बड़ी) ना हो, टूटी हुई हो, ऊंची- नीची हो, मैली हो अथवा जिसमें जीव हों या जिसपर कुछ बिछा हुआ न हो, उस शय्यापर नहीं सोना चाहिये।

कार्तिक पूर्णिमा कल जानिए शुभ मुहूर्त एवं पूजन विधि ।।


उदयातिथि के अनुसार, कार्तिक मास की पूर्णिमा इस बार 27 नवंबर, सोमवार को है।

हिंदू धर्म में पूर्णिमा का बेहद खास महत्व बताया गया है और कार्तिक पूर्णिमा तो सबसे ज्यादा शुभ मानी जाती है क्योंकि इस दिन गंगा स्नान भी होता है, साथ ही गुरु नानक जयंती भी है।
मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा पर शाम के समय भगवान विष्णु का मत्स्यावतार अवतरित हुआ था, इस दिन गंगा स्नान के बाद दीप-दान का फल दस यज्ञों के समान माना जाता है।
पंचांग के अनुसार, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को कार्तिक पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है।
पूर्णिमा के दिन चंद्रमा अपने पूरे आकार में होता है, हिंदू मान्यताओं के अनुसार, पूर्णिमा के दिन दान, स्नान और सूर्यदेव को अर्घ्य देने का बेहद खास महत्व भी बताया गया है, इस दिन सत्यनारायण की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन भगवान शिव ने राक्षस त्रिपुरासुर का संहार किया था, इसलिए इस तिथि को त्रिपुरा तिथि के नाम से भी जाना जाता है।

कार्तिक पूर्णिमा शुभ मुहूर्त ।

कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि की शुरुआत 26 नवंबर को दोपहर 3 बजकर 53 मिनट पर होगी और समापन 27 नवंबर को दिन में 2 बजकर 45 मिनट पर होगा।
उदयातिथि के अनुसार, इस बार कार्तिक पूर्णिमा 27 नवंबर को ही मनाई जाएगी।

कार्तिक पूर्णिमा शुभ योग।

इस बार की कार्तिक पूर्णिमा बेहद खास मानी जा रही है क्योंकि इस दिन शिव योग, सर्वार्थ सिद्धि योग और द्विपुष्कर योग का निर्माण होने जा रहा है।

शिव योग- 27 नवंबर को रात 1 बजकर 37 मिनट से लेकर रात 11 बजकर 39 मिनट तक

सर्वार्थ सिद्धि योग- दोपहर 1 बजकर 35 मिनट से लेकर 28 नवंबर को सुबह 6 बजकर 54 मिनट तक।

कार्तिक पूर्णिमा पूजा विधि।

पूर्णिमा के दिन प्रातः काल जाग कर व्रत का संकल्प लें और किसी पवित्र नदी, सरोवर या कुंड में स्नान करें, इस दिन चंद्रोदय पर शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसुईया और क्षमा इन छः कृतिकाओं का पूजन अवश्य करना चाहिए, कार्तिक पूर्णिमा की रात में व्रत करके बैल का दान करने से शिव पद प्राप्त होता है। गाय, हाथी, घोड़ा, रथ और घी आदि का दान करने से संपत्ति बढ़ती है, भेड़ का दान करने से ग्रहयोग के कष्टों का नाश होता है। कार्तिक पूर्णिमा से प्रारंभ होकर प्रत्येक पूर्णिमा को रात्रि में व्रत और जागरण करने से सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं।
कार्तिक पूर्णिमा का व्रत रखने वाले व्रती को किसी जरूरतमंद को भोजन और हवन अवश्य कराना चाहिए, इस दिन पवित्र नदी मे कार्तिक स्नान का समापन करके राधा-कृष्ण का पूजन और दीपदान करना चाहिए।

हमारी अतृप्ति और असंतोष का कारण ।।

आवश्यकताओं को मर्यादा से बढ़ा देने का नाम अतृप्ति और दुःख है उन्हें कम कर पूर्ति करने से सुख और सन्तोष प्राप्त होता है। मनुष्य एक ही प्रकार के सुख से तृप्त नहीं रहता। अतः असंतोष सदैव बना रहता है। वह असंतोष निंदनीय है जिसमें किसी वस्तु की प्राप्ति के लिए मनुष्य दिन रात हाय-हाय करता रहे और न पाने पर असंतुष्ट, अतृप्त, और दुःखी रहे।

तृष्णाएं एक के पश्चात् दूसरी बढ़ेगी। एक आवश्यकता की पूर्ति होगी, तो दो नई आवश्यकताएं आकर उपस्थित हो जायेंगी। अतः विवेकशील पुरुष को अपनी आवश्यकताओं पर कड़ा नियंत्रण रखना चाहिए। इस प्रकार आवश्यकताओं को मर्यादा के भीतर बाँधने के लिए एक विशेष शक्ति-मनोनिग्रह की जरूरत है।

एक विचारक का कथन है-“जो मनुष्य अधिकतम संतोष और सुख पाना चाहता है, उसको अपने मन और इन्द्रियों को वश में करना अत्यन्त आवश्यक है। यदि हम अपने आपको तृष्णा और वासना में बहायें, तो हमारे असंतोष की सीमा न रहेगी।”

अनेक प्रलोभन तेजी से हमें वश में कर लेते हैं, हम अपनी आमदनी को भूल कर उनके वशीभूत हो जाते हैं। बाद में रोते चिल्लाते हैं। जिह्वा के आनन्द, मनोरंजन आमोद प्रमोद के मजे हमें अपने वश में रखते हैं। हम सिनेमा का भड़कीला विज्ञापन देखते ही मन को हाथ से खो बैठते हैं और चाहे दिन भर भूखे रहें, अनाप-शनाप व्यय कर डालते हैं। इन सभी में हमें मनोनिग्रह की नितान्त आवश्यकता है। मन पर संयम रखिये। वासनाओं को नियंत्रण में बाँध लीजिये, पॉकेट में पैसा न रखिये। आप देखेंगे कि आप इन्द्रियों को वश में रख सकेंगे।

आर्थिक दृष्टि से मनोनिग्रह और संयम का मूल्य लाख रुपये से भी अधिक है। जो मनुष्य अपना स्वामी है और इन्द्रियों को इच्छानुसार चलाता है, वासना से नहीं हारता, वह सदैव सुखी रहता है।

प्रलोभन एक तेज आँधी के समान है जो मजबूत चरित्र को भी यदि वह सतर्क न रहे, गिराने की शक्ति रखती है। जो व्यक्ति सदैव जागरुक रहता है, वह ही संसार के नाना प्रलोभनों आकर्षणों, मिथ्या दंभ, दिखावा, टीपटाप से मुक्त रह सकता है। यदि एक बार आप प्रलोभन और वासना के शिकार हुए तो वर्षों उसका प्रायश्चित करने में लग जायेंगे।

आत्मचिंतन के क्षण ।।

 Aatmchintan Ke Kshan ।।


🔷 अक्सर अनुकूलताओं में सुखी और प्रतिकूलताओं में दुःखी होना हमारा स्वभाव बन गया है। उन्नति के, लाभ के, फल-प्राप्ति के क्षणों में हमें बेहद खुशी होती है तो कुछ न मिलने पर, लाभ न होने पर दुःख भी कम नहीं होता। लेकिन इसका आधार तो स्वार्थ, प्रतिफल, लगाव अधिकार आदि की भावना है। इन्हें हटाकर देखा जाय तो सुख-दुःख का कोई अस्तित्व ही शेष न रहेगा। दोनों ही निःशेष हो जायेंगे।

🔶 सुख-दुःख का सम्बन्ध मनुष्य की भावात्मक स्थिति से मुख्य है। जैसा मनुष्य का भावना स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दुःख की अनुभूति होगी। जिनमें उदार दिव्य सद्भावनाओं का समुद्र उमड़ता रहता है, वे हर समय प्रसन्न, सुखी, आनन्दित रहते हैं। स्वयं तथा संसार और इसके पदार्थों को प्रभु का मंगलमय उपवन समझने वाले महात्माओं को पद-पद पर सुख के सिवा कुछ और रहता ही नहीं। काँटों में भी वे फलों की तरह मुस्कुराते हुए सुखी रहते हैं। कठिनाइयों में भी उनका मुँह कभी नहीं कुम्हलाता।        
                                                
🔷 संकीर्णमना हीन भावना वाले, रागद्वेष से प्रेरित स्वभाव वाले व्यक्तियों को यह संसार दुःखों का सागर मालूम पड़ेगा। ऐसे व्यक्ति कभी नहीं कहेंगे कि “हम सुखी हैं।” वे दुःख में ही जीते हैं और दुःख में ही मरते हैं। दुर्भावनायें ही दुःखों की जनक है। इसी तरह वे हैं जिनका पूरा ध्यान अपनेपन पर ही है। उनका भी दुःखी रहना स्वाभाविक है। केवल अपने को सुखी देखने वाले, अपना हित, अपना लाभ चाहने वाले, अपना ही एकमात्र ध्यान रखने वाले संकीर्णमना व्यक्तियों को सदैव मनचाहे परिणाम तो मिलते नहीं। अतः अधिकतर दुःख और रोना-धोना ही इस तरह के लोगों के पल्ले पड़ता है।

पितृपक्ष में श्राद्ध क्यों करें ?


🔸 पितृपक्ष में वातावरण में तिर्यक (रज-तमात्मक) तरंगों की  तथा यमतरंगों की अधिकता होती है । इसलिए पितृपक्ष में श्राद्ध करने से रज-तमात्मक कोषों से संबंधित पितरों के लिए पृथ्वी के निकट आना सरल होता है ।

🔸 हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार पितृपक्ष व्रत है । इसकी अवधि भाद्रपद पूर्णिमा से आमावस्या तक रहती है । इस काल में प्रतिदिन महालय श्राद्ध करना चाहिए ।

🔸 पितृपक्ष में पितर यमलोक से धरती पर अपने वंशजों के घर रहने आते हैं इस काल में एक दिन श्राद्ध करने पर, पितर वर्षभर तृप्त रहते हैं ।

🔸 पितृपक्ष में अपने सब पितरों के लिए श्राद्ध करने से उनकी वासना, इच्छा शांत होती है और आगे जाने के लिए ऊर्जा मिलती है ।

गुरुकुल में क्या पढ़ाया जाता था ?? यह जान लेना अति आवश्यक है।

◆ अग्नि विद्या ( metallergy )

◆ वायु विद्या ( flight ) 

◆ जल विद्या ( navigation ) 

◆ अंतरिक्ष विद्या ( space science ) 

◆ पृथ्वी विद्या ( environment )

◆ सूर्य विद्या ( solar study ) 

◆ चन्द्र व लोक विद्या ( lunar study ) 

◆ मेघ विद्या ( weather forecast ) 

◆ पदार्थ विद्युत विद्या ( battery ) 

◆ सौर ऊर्जा विद्या ( solar energy ) 

◆ दिन रात्रि विद्या ( day - night studies )

◆ सृष्टि विद्या ( space research ) 

◆ खगोल विद्या ( astronomy) 

◆ भूगोल विद्या (geography ) 

◆ काल विद्या ( time ) 

◆ भूगर्भ विद्या (geology and mining ) 

◆ रत्न व धातु विद्या ( gems and metals ) 

◆ आकर्षण विद्या ( gravity ) 

◆ प्रकाश विद्या ( solar energy ) 

◆ तार विद्या ( communication ) 

◆ विमान विद्या ( plane ) 

◆ जलयान विद्या ( water vessels ) 

◆ अग्नेय अस्त्र विद्या ( arms and amunition )

◆ जीव जंतु विज्ञान विद्या ( zoology botany ) 

◆ यज्ञ विद्या ( material Sc)

● वैदिक विज्ञान
( Vedic Science )

◆ वाणिज्य ( commerce ) 

◆ कृषि (Agriculture ) 

◆ पशुपालन ( animal husbandry ) 

◆ पक्षिपालन ( bird keeping ) 

◆ पशु प्रशिक्षण ( animal training ) 

◆ यान यन्त्रकार ( mechanics) 

◆ रथकार ( vehicle designing ) 

◆ रतन्कार ( gems ) 

◆ सुवर्णकार ( jewellery designing ) 

◆ वस्त्रकार ( textile) 

◆ कुम्भकार ( pottery) 

◆ लोहकार ( metallergy )

◆ तक्षक ( guarding )

◆ रंगसाज ( dying ) 

◆ आयुर्वेद ( Ayurveda )

◆ रज्जुकर ( logistics )

◆ वास्तुकार ( architect)

◆ पाकविद्या ( cooking )

◆ सारथ्य ( driving )

◆ नदी प्रबन्धक ( water management )

◆ सुचिकार ( data entry )

◆ गोशाला प्रबन्धक ( animal husbandry )

◆ उद्यान पाल ( horticulture )

◆ वन पाल ( horticulture )

◆ नापित ( paramedical )

इस प्रकार की विद्या गुरुकुल में दी जाती थीं।

इंग्लैंड में पहला स्कूल 1811 में खुला 
उस समय भारत में 732000 गुरुकुल थे।
खोजिए हमारे गुरुकुल कैसे बन्द हुए ? 

और मंथन जरूर करें वेद ज्ञान विज्ञान को चमत्कार छूमंतर व मनघड़ंत कहानियों में कैसे बदला या बदलवाया गया। वेदों के नाम पर वेद विरुद्ध हिंदी रूपांतरण करके मिलावट की ।

अपरा विधा- भेाैतिक विज्ञान को व अपरा विधा आध्यात्मिक विज्ञान को कहा गया है। इन दोनों में १६ कलाओं का ज्ञान होता है।

तैत्तिरीयोपनिषद , भ्रगुवाल्ली अनुवादक ,५, मंत्र १, में ऋषि भ्रगु ने बताया है कि-

विज्ञान॑ ब्रहोति व्यजानात्। विज्ञानाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। विज्ञानेन जातानि जीवन्ति। विज्ञान॑ प्रयन्त्यभिस॑विशन्तीति।
 
अर्थ- तप के अनातर उन्होंने ( ऋषि ने) जाना कि वास्तव मैं विज्ञान से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं। उत्पत्ति के बाद विज्ञान से ही जीवन जीते हैं। अंत में प्रायान करते हुए विज्ञान में ही प्रविष्ठ हो जाते हैं।

तैत्तिरीयोपनिषद ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवादक ८, मंत्र ९ में लिखा है कि-

 विज्ञान॑ यज्ञ॑ तनुते। कर्माणि तनुतेऽपि च। विज्ञान॑ देवा: सर्वे। ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते। विज्ञान॑ ब्रह्म चेद्वेद।

अर्थ- विज्ञान ही यज्ञों व कर्मों की वृद्धि करता है। सम्पूर्ण देवगण विज्ञान को ही श्रेष्ठ ब्रह्म के रूप में उपासना करते हैं। जो विज्ञान को ब्रह्म स्वरूप में जानते हैं, उसी प्रकार से चिंतन में रत्त रहते हैं, तो वे इसी शरीर से पापों से मुक्त होकर सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि प्राप्त करते हैं। उस विज्ञान मय देव के अंदर ही वह आत्मा ब्रह्म रूप है। उस विज्ञान मय आत्मा से भिन्न उसके अन्तर्गत वह आत्मा ही ब्रह्म स्वरूप है।

( संसार के सभी जीव शिल्प विज्ञान के द्वारा ही जीवन यापन करते हैं।)

★ वेद ज्ञान है शिल्प विज्ञान है

त्रिनो॑ अश्विना दि॒व्यानि॑ भेष॒जा त्रिः पार्थि॑वानि॒ त्रिरु॑ दत्तम॒द्भ्यः। 
आ॒मान॑ श॒योर्ममि॑काय सू॒नवे त्रि॒धातु॒ शर्म॑ वहतं शुभस्पती॥

ऋग्वेद (1.34.6)

हे (शुभस्पती) कल्याणकारक मनुष्यों के कर्मों की पालना करने और (अश्विना) विद्या की ज्योति को बढ़ानेवाले शिल्पि लोगो ! आप दोनों (नः) हम लोगों के लिये (अद्भ्यः) जलों से (दिव्यानि) विद्यादि उत्तम गुण प्रकाश करनेवाले (भेषजा) रसमय सोमादि ओषधियों को (त्रिः) तीनताप निवारणार्थ (दत्तम्) दीजिये (उ) और (पर्थिवानि) पृथिवी के विकार युक्त ओषधी (त्रिः) तीन प्रकार से दीजिये और (ममकाय) मेरे (सूनवे) औरस अथवा विद्यापुत्र के लिये (शंयोः) सुख तथा (ओमानम्) विद्या में प्रवेश और क्रिया के बोध करानेवाले रक्षणीय व्यवहार को (त्रिः) तीन बार कीजिये और (त्रिधातु) लोहा ताँबा पीतल इन तीन धातुओं के सहित भूजल और अन्तरिक्ष में जानेवाले (शर्म) गृहस्वरूप यान को मेरे पुत्र के लिये (त्रिः) तीन बार (वहतम्) पहुंचाइये ॥

भावार्थ- मनुष्यों को चाहिये कि जो जल और पृथिवी में उत्पन्न हुई रोग नष्ट करनेवाली औषधी हैं उनका एक दिन में तीन बार भोजन किया करें और अनेक धातुओं से युक्त काष्ठमय घर के समान यान को बना उसमें उत्तम २ जव आदि औषधी स्थापन कर देश देशांतरों में आना जाना करें।

विश्वकर्मा कुल श्रेष्ठो धर्मज्ञो वेद पारगः।
सामुद्र गणितानां च ज्योतिः शास्त्रस्त्र चैबहि।।
लोह पाषाण काष्ठानां इष्टकानां च संकले।
सूत्र प्रास्त्र क्रिया प्राज्ञो वास्तुविद्यादि पारगः।।
सुधानां चित्रकानां च विद्या चोषिठि ममगः।
वेदकर्मा सादचारः गुणवान सत्य वाचकः।। 

(शिल्प शास्त्र) अर्थववेद

भावार्थ – विश्वकर्मा वंश श्रेष्ठ हैं विश्वकर्मा वंशी धर्मज्ञ है, उन्हें वेदों का ज्ञान है। सामुद्र शास्त्र, गणित शास्त्र, ज्योतिष और भूगोल एवं खगोल शास्त्र में ये पारंगत है। एक शिल्पी लोह, पत्थर, काष्ठ, चान्दी, स्वर्ण आदि धातुओं से चित्र विचित्र वस्तुओं सुख साधनों की रचना करता है। वैदिक कर्मो में उन की आस्था है, सदाचार और सत्यभाषण उस की विशेषता है।

 यजुर्वेद के अध्याय २९ के मंत्र 58 के ऋषि जमदाग्नि है इसमे बार्हस्पत्य शिल्पो वैश्वदेव लिखा है। वैश्वदेव में सभी देव समाहित है।

शुल्वं यज्ञस्य साधनं शिल्पं रूपस्य साधनम् ॥

(वास्तुसूत्रोपनिषत्/चतुर्थः प्रपाठकः - ४.९ ॥)

अर्थात - शुल्ब सूत्र यज्ञ का साधन है तथा शिल्प कौशल उसके रूप का साधन है।

शिल्प और कुशलता में बहुत बड़ा अन्तर है ( एक शिल्प विद्या द्वारा किसी प्रारूप को बनाना और दूसरा कुशलता पूर्वक उसका उपयोग करना , ये दोनो अलग अलग है 

कुशलता 

जैसे शिल्प द्वारा निर्मित ओजारो से नाई कुशलता से कार्य करता है , शिल्पी द्वारा निर्मित यातायन के साधन को एक ड्राईवर कुशलता पूर्वक चलता है आदि 

सामान्यतः जिस कर्म के द्वारा विभिन्न पदार्थों को मिलाकर एक नवीन पदार्थ या स्वरूप तैयार किया जाता है उस कर्म को शिल्प कहते हैं । ( उणादि० पाद०३, सू०२८ ) किंतु विशेष रूप निम्नवत है

१- जो प्रतिरूप है उसको शिल्प कहते हैं "यद् वै प्रतिरुपं तच्छिल्पम" (शतपथ०- का०२/१/१५ ) 

२- अपने आप को शुद्ध करने वाले कर्म को शिल्प कहते हैं 

(क)"आत्मा संस्कृतिर्वै शिल्पानि: " (गोपथ०-उ०/६/७)

(ख) "आत्मा संस्कृतिर्वी शिल्पानि: " (ऐतरेय०-६/२७) 

३- देवताओं के चातुर्य को शिल्प कहकर सीखने का निर्देश है (यजुर्वेद ४ / ९, म० भा० )

 ४- शिल्प शब्द रूप तथा कर्म दोनों अर्थों में आया है -

(क)"कर्मनामसु च " (निघन्टु २ / १ )

(ख) शिल्पमिति रुप नाम सुपठितम्" (निरुक्त ३/७)

५ - शिल्प विद्या आजीविका का मुख्य साधन है। (मनुस्मृति १/६०, २/२४, व महाभारत १/६६/३३ )

६- शिल्प कर्म को यज्ञ कर्म कहा गया है।

( वाल्मि०रा०, १/१३/१६, व संस्कार विधि, स्वा० द० सरस्वती व स्कंद म०पु० नागर६/१३-१४ )

।।पांचाल_ब्राह्मण।।

शिल्पी ब्राह्मण नामान: पञ्चाला परि कीर्तिता:।
(शैवागम अध्याय-७)
अर्थात-पांच प्रकार के श्रेष्ठ शिल्पों के कर्ता होने से शिल्पी ब्राह्मणों का नाम पांचाल है।
 
पंचभि: शिल्पै:अलन्ति भूषयन्ति जगत् इति पञ्चाला:। (विश्वकर्म वंशीय ब्राह्मण व्यवस्था-भाग-३, पृष्ठ-७६-७७)
अर्थात- पांच प्रकार के शिल्पों से जगत को भूषित करने वाले शिल्पि ब्राह्मणों को पांचाल कहते हैं।

ब्रह्म विद्या ब्रह्म ज्ञान (ब्रह्मा को जानने वाला) जो की चारो वेदों में प्रमाणित है जो वैदिक गुरुकुलो में शिक्षा दी जाती थी ये (metallergy) जिसे अग्नि विद्या या लौह विज्ञान (धातु कर्म) कहते है , ये वेदों में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मकर्म ब्रह्मज्ञान है पृथ्वी के गर्भ से लौह निकालना और उसका चयन करना की किस लोहे से , या किस लोहे के स्वरूप से, सुई से लेकर हवाई जहाज, युद्ध पोत जलयान, थलयान, इलेक्ट्रिक उपकरण , इलेक्ट्रॉनिक उपकरण , रक्षा करने के आधुनिक हथियार , कृषि के आधुनिक उपकरण , आधुनिक सीएनसी मशीन, सिविल इन्फ्रास्ट्रक्चर सब (metallergy) अग्नि विद्या ऊर्फ लोहा विज्ञान की देन है हमारे वैदिक ऋषि सब वैज्ञानिक कार्य करते थे वेदों में इन्हीं विश्वकर्मा शिल्पियों को ब्राह्मण की उपाधि मिली है जो वेद ज्ञान विज्ञान से ही संभव है चमत्कारों से नहीं वेद ज्ञान विज्ञान से राष्ट्र निर्माण होता है पाखण्ड से नहीं, इसी को विज्ञान कहा गया है बिना शिल्प विज्ञान के हम सृष्टि विज्ञान की कल्पना भी नहीं कर सकते इसलिए सभी विज्ञानिंक कार्य इन्ही सुख साधनों से संभव है इसलिए वैदिक शिल्पी विश्वकर्मा ऋषियों द्वारा भारत की सनातन संस्कृति विश्वगुरु कहलाई
भगवान (विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों) ने अपने रचनात्मक कार्यों से इस ब्रह्मांड का प्रसार किया है। जो सभी वैदिक ग्रंथों में प्रमाणित

जैसे जैसे हम् आधुनिक होते गए वैसे वैसे हम् हमारी जड़ों को काटते गए उन्हीं जड़ों में से एक महत्वपूर्ण जड़ है पितृ ।

सबसे पहले पितृ होते कौन हैं ?

इन्हें आम भाषा में पितर , घर का प्रेत भी बोलते हैं। यह आपके परिवार की वो आत्माएं होती हैं जिनका अभी दूसरा जन्म नहीं हुआ है मुक्ति नहीं हुई है । ये आत्माएं पितृ बनके पितृ लोक नामक सूक्ष्म लोक में वास करते हैं । यह लोक हमारी धरती पर ही स्थित होता है । जिसके कारण पितरों से संपर्क बनाना या इनकी कृपा प्राप्त करना सहज हो जाता है । वहीं दूसरी और यह रूष्ट होने पर शीघ्र विपरीत प्रभाव भी दिखाते हैं।

इनमें अलग अलग श्रेणी होती है पितृ की जिसे आऊत प्रेत , जुझार , सगस , वीर आदि कहकर संबोधित करते हैं । इनपर बाद में बात करेंगे ।

इनका पितृ लोक में फसने का मुख्य कारण होता है अपूर्ण इच्छाएं एवं अविवाहित मृत्यु को प्राप्त होना , निसंतान मृत्यु को प्राप्त होना , अन्य भी कारण कहे गए है इसके जैसे पराई स्त्री का हरण , माता पिता की हत्या करना , गौ हत्या आदि , इनके विषय में गरुड़ पुराण में विस्तार से बताया गया है ।

पितृ हमारा सबसे पहला और सबसे महत्वपूर्ण रक्षा कवच होते हैं, पितृ रूष्ट होने पर अन्य देवता तक आपका पूजन नहीं पहुंचता है न ही कोई अन्य कार्य सिद्ध होता है । यह ठीक उसी प्रकार है अगर नींव कमजोर हो तो ऊपर की मंजिल नहीं डाली जा सकती और अगर नींव मजबूत है तो मंजिल के ऊपर मंजिल डाल सकते हैं ।

हर व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वो अपने कुल के पितरों की मुक्ति एवं सद्गति के लिए प्रयास करें , जिसके विपरीत आज लोग अपने घर के पितृ को अपने स्वार्थ के लिए बैठा कर उनसे काम लेते है । जो कि पितृ और स्वयं दोनों के लिए हितकारी नहीं है ।

पितृ दोष या पितृ के रूष्ट होने के लक्षण क्या है ?

● घर में बरकत न रहना
● किसी बात को लेकर हर छोटी छोटी बात पर झगड़ना
● घर के एक दूसरे सदस्य को बैर भाव से देखना
● संतान नहीं होना
● परिवार में किसी भी प्रकार का संतुलन नहीं होना
● हमेशा बीमारी बने रहना
● अजीब अजीब घटना होना
● घर के सदस्य आपस में किसी की भी नहीं बने
● संतान माता-पिता का आदर नहीं करती हैं
● माता-पिता भी संतान को हमेशा प्रताड़ित करते रहते हैं
● मरे हुए बच्चों के सपने आना
● मरी स्त्रियों दिखना
● हमेशा मन में शंका बनी रहना कि कुछ न कुछ होने वाला है
● आदमी अपने कार्य की सफलता के लिए आश्वस्त रहता है 95 पर्सेट तक पहुंचता है और फिर नीचे गिर जाता है
● हर बनते काम बिगड़ जाना
● सपने में बार बार सर्पो का दिखना
● परिवार के बुजुर्गों का स्वप्न में दिखना
● सपनो में अपने माता पिता दादा दादी को रोते हुए देखना
● घर परिवार में क्लेश होना

जो कुंवारे पितृ होते है उनका दिन चौदस का होता है और जो विवाहित होकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए हो उनका मुख्य दिन अमावस्या का होता है , जो पूर्ण आयु में जाते है उनके लिए पूर्णिमा ।

पितृ प्रसन्नता हेतु सबसे आसान उपाय तो यह है कि इन 4 दिनों में ( दोनो चतुर्दशी , अमावस्या एवं पूर्णिमा ) पितृ के लिए नियमित धूप दीप करे तो वो हमेशा प्रसन्न रहते है ।

दूसरा एक सरल एवं असरदार उपाय है वो है - पितृ के लिए श्रीमद्भागवत गीता का पाठ । 

यह उपाय आप श्राद्ध में करें ।

पूर्णिमा के दिन सुबह पितरों को हल्दी चावल से निमंत्रण दें कि आज से मैं आपके लिए श्रीमद्भागवत गीता का पाठ कर रहा हूँ आपको यह पाठ सुनने के लिए रोज आना होगा जो आपको समय उचित लगे उन्हें वो समय भी बता दें कि इतने बजे पाठ करूंगा । ऐसा कहकर हल्दी चावल दहली के बाहर डाल दें ।

अब जो निश्चित समय है उससे थोड़ा पहले से यह तैयारी कर लें ।

अपने कक्ष को झाड़ू पोंछा करके साफ करें । फिर गौमूत्र का छिड़काव करें । गाय के गोबर से भूमि लीपें । फिर उसपर सफेद वस्त्र बिछाएं , 2 गांठ का एक हरा बांस का टुकड़ा लाएं । इसके एक तरफ सफेद कपड़ा कलावे से बांध दें । सुपारी जनेऊ और हल्दी की गांठ लाएं ।

सफेद वस्त्र के ऊपर 1 पीछे और 7 ढेरी आगे लगाएं चावल की एक के ऊपर बांस को खड़ा रखें जसमे वस्त्र बांधा हुआ हिस्सा ऊपर की तरफ होगा और बाकी 7 ढेर पर एक एक सुपारी रखें और सुपारी पर जनेऊ पहनाए , सुपारी की जगह चुना पत्थर मिल जाये तो अति उत्तम होगा । अब आपके दिये गए निश्चित समय पर दहली पर खड़े होकर हल्दी कुमकुम और अक्षत डालकर पितरों का स्वागत करें और उनके अंदर आने का बोलें और सफेद आसन के ऊपर उनका आसान बताये और कहे आप अपने आसन पर विराजमान होजाये । अब आप धूप दीप प्रज्वलित करें । बांस पर और चुना पत्थरों ( सुपारी ) पर हल्दी कुमकुम आदि चढ़ाएं ।

अपने सामने श्रीमद्भागवत गीता रखें , ग्रंथ का कुमकुम अक्षत से पूजन करें ।

पितृ हेतु भोजन एवं पानी रखें भगवान विष्णु के लिए 2 पीली मावे की मिठाई रखें ।

अब पाठ शुरू करें , रोज इसी प्रकार पाठ करना है संभव हो तो रोज सभी अध्यायों का पाठ करें और अगर सामर्थ्य नही हो तो 16 दिन में 18 अध्यायों का पाठ पूरा करलें ।

पाठ पूरा होने के बाद जो पितृ के लिए भोग रखा था वो गाय के उपलों की अगियारी करके उसपर भोजन करवाये फिर जल अर्पित करें।

फिर उन्हें कहे अब अपने स्थान को चले जाइये कल फिर इस समय पर आजायेगा । आगे भी इसी तरह से करना है

जब 16 दिन के पाठ पूरे होजाये तब भगवान विष्णु से अपने पितरों की सद्गति हेतु प्रार्थना करें । उनहे वैकुंठ में स्थान देने के लिए प्रार्थना करें ।

अगर आप चाहे तो पाठ 15 दिन में पूरे करके सोलहवें दिन सर्व पितृ अमावस्या को ब्राह्मण जन से पितृ हेतु तर्पण भी करवा सकते है । 7 ब्राह्मणों को सात सफेद वस्त्र दान करें ।

क्रिया पूरी होने के बाद सभी सामग्रियों को एकत्रित करके किसी बहती नादि में प्रवाहित करदें । क्रिया के बाद निश्चित लाभ होगा ।

अंतिम दिन पितरों को वापिस आने का नही बोलें उन्हें बोलें की अबसे आप श्री हरि के लोक में वास करना ।
आप चाहे तो अंतिम दिन तर्पण एवं त्रिपिंडी भी करवा सकते है । सोने पर सुहागा होगा ।

अब दूसरा प्रयोग बताते है ।

🚩🚩 दूसरा प्रयोग 🚩🚩

यहां एक स्तोत्र दे रहा हूँ । जिसकी पाठ विधि इस प्रकार है ।

पहले इसका एक पाठ पूरा होगा १ श्लोक से लेकर २४ फिर २२ २३ २४ के क्रम में दो बार पाठ करें ।

एक पूरे पाठ का क्रम यह होगा -

१ २ ३ ...... २४ , २२ २३ २४ , २२ २३ २४

फिर इसका हवन भी इसी क्रम से होगा काले तिल और गाय के घी से ।

१ , २२ , २३ , २४ वे श्लोक में आहुति के समय स्वधा बोलके आहुति देनी है और अन्य श्लोकों में स्वाहा बोलकर ।

स्तोत्र --

नमो वः पितरो, यच्छिव तस्मै नमो, वः पितरो यतृस्योन तस्मै।
नमो वः पितरः, स्वधा वः पितरः । ।।१।।

नमोऽस्तु ते निर्ऋर्तु, तिग्म तेजोऽयस्यमयान विचृता बन्ध-पाशान्।
यमो मह्यं पुनरित् त्वां ददाति। तस्मै यमाय नमोऽस्तु मृत्यवे । ।।२।।

नमोऽस्त्वसिताय, नमस्तिरश्चिराजये। स्वजाय वभ्रवे नमो, नमो देव जनेभ्यः। ।।३।।

नमः शीताय, तक्मने नमो, रूराय शोचिषे कृणोमि।
यो अन्येद्युरूभयद्युरभ्येति, तृतीय कायं नमोऽस्तु तक्मने। ।।४।।

नमस्ते अधिवाकाय, परा वाकाय ते नमः। सुमत्यै मृत्यो ते नमो, दुर्मत्यै त इदं नमः। ।।५।।

नमस्ते यातुधानेभ्यो, नमस्ते भेषजेभ्यः। नमस्ते मृत्यो मूलेभ्यो, ब्राह्मणेभ्य इदं मम। ।।६।।

नमो देव वद्येभ्यो, नमो राज-वद्येभ्यः। अथो ये विश्वानां, वद्यास्तेभ्यो मृत्यो नमोऽस्तु ते। ।।७।।

नमस्तेऽस्तु नारदा नुष्ठ विदुषे वशा। कसमासां भीम तमा याम दत्वा परा भवेत्। ।।८।।

नमस्तेऽस्तु विद्युते, नमस्ते स्तनयित्नवे। नमस्तेऽस्तु वश्मने, येना दूड़ाशे अस्यसि। ।।९।।

नमस्तेऽस्त्वायते, नमोऽस्तु पराय ते। नमस्ते प्राण तिष्ठत, आसीनायोत ते नमः। ।।१०।।

नमस्तेऽस्त्वायते, नमोऽस्तु पराय ते। नमस्ते रूद्र तिष्ठत, आसीनायोत ते नमः। ।।११।।

नमस्ते जायमानायै, जाताय उत ते नमः। वालेभ्यः शफेभ्यो, रूपायाघ्न्ये ते नमः। ।।१२।।

नमस्ते प्राण क्रन्दाय, नमस्ते स्तनयित्नवे। नमस्ते प्राण विद्युते, नमस्ते प्राण वर्षते। ।।१३।।

नमस्ते प्राण प्राणते, नमोऽस्त्वपान ते।
परा चीनाय ते नमः, प्रतीचीनाय ते नमः, सर्वस्मै न इदं नमः। ।।१४।।

नमस्ते राजन् ! वरूणा मन्यवे, विश्व ह्यग्र निचिकेषि दुग्धम्।
सहस्त्रमन्यान् प्रसुवामि, साकं शतं जीवाति शरदस्तवायं। ।।१५।।

नमस्ते रूद्रास्य ते, नमः प्रतिहितायै। नमो विसृज्य मानायै, नमो निपतितायै। ।।१६।।

नमस्ते लांगलेभ्यो, नमः ईषायुगेभ्यः। वीरूत् क्षेत्रिय नाशन्यप् क्षैत्रियमुच्छतु। ।।१७।।

नमो गन्धर्वस्य, नमस्ते नमो भामाय चक्षुषे च कृण्मः।
विश्वावसो ब्रह्मणा ते नमोऽभि जाया अप्सासः परेहि। ।।१८।।

नमो यमाय, नमोऽस्तु, मृत्यवे, नमः पितृभ्य उतये नयन्ति।
उत्पारणस्य यो वेद, तमग्नि पुरो दद्येस्याः अरिष्टतातये। ।।१९।।

नमो रूद्राय, नमोऽस्तु तक्मने, नमो राज्ञ वरूणायं त्विणीमते।
नमो दिवे, नमः पृथिव्ये, नमः औषधीभ्यः। ।।२०।।

नमो रूराय, च्यवनाय, रोदनाय, घृष्णवे। नमः शीताय, पूर्व काम कृत्वने।। ।।२१।।

नमो वः पितर उर्जे, नमः वः पितरो रसाय। ।।२२।।

नमो वः पितरो भामाय, नमो वः पितरा मन्धवे। ।।२३।।

नमो वः पितरां पद घोरं, तस्मै नमो वः पितरो, यत क्ररं तस्मै। ।।२४।।

कई बार पितृ तांत्रिक बंधन में बंधे होते है तब कितना ही कर्म कांड करने पर भी उनका शुभ प्रभाव नही मिलता , ऐसी स्थिति में तांत्रिक प्रयोग के द्वारा उनकी मुक्ति का मार्ग खोला जाता है ।
चलिए यह एक अलग विषय है आगे,,,

तज मन हरि विमुखन को संग भावार्थ सहित।।


तज मन हरि विमुखन को संग।
जिनके संग कुमति उपजत है, परत भजन में भंग॥ [1]
कहा होत पय पान कराए विष, नहिं तजत भुजंग।
कागहि कहा कपूर चुगाये, स्वान न्हवाऐ गंग॥ [2]
स्वर को कहा अरगजा लेपन, मरकट भूपन अंग।
गज को कहा सरित अन्हवाऐ, बहुरि धरै वह ढंग॥ [3]
पाहन पतित बान नहिं बेधत, रीतो करौ निषंग।
'सूरदास' कारी काँमरि पे चढ़त न दूजौ रंग॥ [4]
- श्री सूरदास जी, सूर सागर, वीनय तथा भक्ति (44)


भावार्थ:

हे मेरे मन ! जो जीव हरि भक्ति से विमुख हैं, उन प्राणियों का संग न कर। उनकी संगति के माध्यम से तेरी बुद्धि भ्रष्ट हो जाएगी क्योंकि वे तेरी भक्ति में रुकावट पैदा करते हैं, उनके संग से क्या लाभ? [1]

आप चाहे कितना ही दूध साँप को पिला दो, वो ज़हर बनाना बंद नहीं करेगा एवं आप चाहे कितना ही कपूर कौवे को खिला दो वह सफ़ेद नहीं होगा, कुत्ता (स्वान) कितना ही गंगा में नहा ले वह गन्दगी में रहना नहीं छोड़ता। [2]

आप एक गधे को कितना ही चन्दन का लेप लगा लो वह मिट्टी में बैठना नहीं छोड़ता, मरकट (बन्दर) को कितने ही महंगे आभूषण मिल जाए वह उनको तोड़ देगा। एक हाथी द्वारा नदी में स्नान करने के बाद भी वह रेत खुद पर छिड़कता है। [3]

भले ही आप अपने पूरे तरकश के तीर किसी चट्टान पर चला दें, चट्टान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। श्री सूरदास जी कहते हैं कि "एक काले कंबल दूसरे रंग में रंगा नहीं जा सकता (अर्थात् जिस जीव ने ठान ही लिया है कि उसे कुसंग ही करना है तो उसे कोई नहीं बदल सकता इसलिए ऐसे विषयी लोगों का संग त्यागना ही उचित है)।" [4]

श्री राधा ।।


परम धन राधा नाम आधार ।
जाकौ श्याम मुरली में टेरत, सुमिरत बारम्बार ॥ [1]
जंत्र, मंत्र और वेद तंत्र में, सभी तार को तार ।
श्री शुक, प्रगट कियू नहीं जाएं, जानी सार को सार ॥ [2]
कोटिन रूप धरे नंदनंदन, तोउ न पायौ पार ।
'व्यासदास' अब प्रगट बखानत डारि भार में भार ॥ [3]
- श्री हरिराम व्यास, व्यास वाणी, पूर्वार्ध (38)

श्री हरिराम व्यास जी कहते हैं कि श्री राधा नाम ही हमारा परम धन है।  जिस नाम को श्री कृष्ण मुरली में गाते हैं, और बार बार सुमिरन करते हैं । [1]

जंत्र, मन्त्र और वेद तंत्र में जिसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती जो नाम रहस्यों का भी परम रहस्य है। श्री शुकदेव परमहंस जी ने वेदों का सार का भी सार मान कर इसको प्रगट नहीं किया । [2] 

श्री कृष्ण कोटि रूप धारण कर के भी श्री राधा नाम का पार नहीं पा सके। श्री हरिराम व्यास जी कहते हैं कि अब श्री राधारानी की ही कृपा जान उन्होंने  श्री राधा नाम प्रगट कर दिया, अब उन्हें किसी की कोई परवाह नहीं (सब भाड़ में जाए) । [3]


कर्म और भाग्य ।।

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहिं तब फल चाखा।।


कर्म चाहे आज के हों अथवा पूर्व जन्म के उनका फल असंदिग्ध है। परिणाम से मनुष्य बच नहीं सकता। दुष्कर्मों का भोग जिस तरह भोगना पड़ता है, शुभ कर्मों से उसी तरह श्री-सौभाग्य और लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। यह सुअवसर जिसे प्राप्त हो वही सौभाग्यशाली है और इसके लिए किसी दैवी के भरोसे नहीं बैठना पड़ता। कर्मों का संपादन मनुष्य स्वयं करता है। अतः अपने अच्छे व बुरे भाग्य का निर्णायक भी वही है। हमारा श्रेय इसमें यही है कि सत्कर्मों के द्वारा अपना भविष्य सुधार लें। जो इस बाथशत को समझ लेंगे और इस पर आचरण करेंगे उनको कभी दुर्भाग्य का रोना नहीं रोना पड़ेगा।

भ्रम इस बात से पैदा हो जाता है कि बार -बार प्रत्यक्ष रूप से कर्म करने पर भी विपरीत परिणाम प्राप्त हो जाते हैं, तो लोग उसे भाग्य-चक्र मानकर परमात्मा को दोष देने लगते हैं। किंतु यह भाग्य तो अपने पूर्व संचित कर्मों का ही परिणाम है। यहां मनुष्य जीवन के विराट् रुप की कल्पना की गई है और एक जीवन का दूसरे जीवन से संस्कार-जन्य संबंध माना गया है। इस दृष्टि से भी जिसे आज भाग्य कहकर पुकारते हैं, यह भी कर के अपने कर्म का ही परिणाम है।

प्राकृतिक विधान के अनुसार तो यह भाग्य अपनी ही रचना है। अपने किए हुए का प्रतिफल है। मनुष्य भाग्य के वश में नहीं है, उसका निर्माता मनुष्य स्वयं है। परमात्मा के न्याय के अभेद देखें तो यही बात पुष्ट होती है कि भाग्य स्वयं हमारे द्वारा अपने को संपन्न करता है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व कुछ भी नहीं है।

वास्तव में हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि कर्म-फल किसी भी दशा में नष्ट नहीं होता। किसी न किसी समय वह अवश्य सामने आता है। विवशतावश उस समय उसे भले ही भाग्य कहकर टाल दिया जाय, पर इससे कर्म-फल का सिद्धांत तो नहीं मिट सकता।

अपने कर्मों के द्वारा स्वयं हम ही अपने भाग्य-निर्माता हैं, पर हमारे द्वारा सृष्टि भाग्य हमें बांधता है, क्योंकि हमने जो कुछ बोया है, उसे इस जीवन या दुसरे जीवन में हमें अवश्य काटना होगा। फिर भी हम लोग वर्तमान में भूतकाल से प्राप्त प्राचीन भाग्य को कोसते हुए ही भविष्य के लिए अपने भाग्य का निर्माण कर रहे हैं। यह बात हमारे लिए संकल्प और कर्म को एक अर्थ प्रदान करती है।

पुरुषार्थ की भाग्य के ऊपर विजय का सशक्त प्रतिपादन 'योगवशिष्ठ' में किया गया है। महर्षि वशिष्ठ जी इसके मुमुक्षु प्रकरण के षष्ठ सर्ग में कहते हैं -

"द्वौ हुडाविव युध्येते पुरुषार्थौ परस्परम्।
य एव बलवांस्तत्रस से एव जयतिक्षणात्।।"


अर्थात पूर्वजन्म और इस जन्म के कर्मरुपी दो भेंड़े आपस में लड़ते हैं, उनमें जो बलवान होता है, वह विजयी होता है। उदार स्वभाव और सदाचार वाले, इस जगत् मोहक दैव से (भाग्य चक्र से) वैसे ही निकल जाते हैं जैसे पिंजरे से सिंह। पौरुष का फल हाथ में रखे गए आंवले के समान स्पष्ट है। प्रत्यक्ष को छोड़कर दैव के मोह में निमग्न लोग मूढ़ हैं।

अथर्ववेद में कहा गया है -

"अयं मे हस्तो भगवानयं में भगवत्तरः"

अर्थात यह हाथ ही भगवान है, यह भगवान से भी बलवान है। कर्म ही भाग्य है। कर्म का कारण और फल दोनों ही हाथ में है।

'नियमितवादिता' अकर्मण्यता नहीं सिखाती। कर्म करना और फल को कृष्णार्पण कर देना, यही बात तो स्पष्ट रुप से गीता हमें सिखाती है। पूर्वजन्म एवं पूर्वजन्म का सिद्धांत यदि सत्य है, मनुष्य को अपने पूर्वजन्म के कर्मों का अच्छा-बुरा फल भोगना पड़ता है, यदि यह सत्य है तो 'भाग्यवादी' का सिद्धांत भी सत्य है, इसमें कोई संदेह नहीं। भाग्यवाद कभी भी अकर्मण्यता को जन्म नहीं देता। जब आलसी अपने आलस्य का समर्थन करते हैं, भाग्य का नाम लेकर उसकी आड़ में जो अपनी अकर्मण्यता का समर्थन करते हैं तो वे न केवल धूर्त हैं वरन् समाज को भारी हानि पहुंचाने वाले हैं। 'भाग्य' मनुष्य की विवशता है संचित प्रारब्ध उसका नियंत्रण करता है पर पुरुषार्थ तो उसका आज का कर्तव्य है, इस कर्त्तव्य की उपेक्षा करना एक प्रकार से ईश्वर की उपेक्षा करना है। हमारे भाग्य के अटपटेपन में भी किन पुरुषार्थियों का पुरुषार्थ काम कर रहा हो, यह कौन जानता है?

अंग्रेजी में कहावत है कि ईश्वर उसकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। अर्थात जो क्रियाशील व पुरुषार्थी हैं ईश्वर का वरदहस्त उनके साथ है। लोग तर्क देते हैं कि भगवत अनुग्रह से फल प्राप्ति बिना कर्म के ही हो जाती है। वे भूल जाते हैं कि भगवद्भक्ति, स्मरण, कीर्तन, चिंतन आदि भी तो कर्म है, कर्म नहीं बल्कि विशिष्ट कर्म हैं।

भाग्य का अस्तित्व यदि है तो वह कर्म से जुड़ा है। यहां कर्म के सूक्ष्म भेद को जानना आवश्यक है।

कर्म तीन प्रकार के होते हैं-

१) क्रियमाण कर्म,
२) संचित कर्म, और
३) प्रारब्ध कर्म

१) संचित कर्म :-  जो दबाव में बेमन से, परिस्थितिवश किया जाए ऐसे कर्मों का फल 1000 वर्ष तक भी संचित रह जाता है। इस कर्म को मन से नहीं किया जाता। इसका फल हल्का धुंधला और कभी-कभी विपरीत परिस्थितियों से टकराकर समाप्त भी हो जाता है।

२) प्रारब्ध कर्म :- तीव्र मानसिकता पूर्ण मनोयोग से योजनाबद्ध तरीके से तीव्र विचार एवं भावना पूर्वक किए जाने वाले कर्म। इसका फल अनिवार्य है, पर समय निश्चित नहीं है। इसी जीवन में भी मिलता है और अगले जन्म में भी मिलता है।

३) क्रियमाण कर्म :- शारीरिक कर्म जो तत्काल फल देने वाले होते हैं। क्रिया के बदले में तुरंत प्रतिक्रिया होती है।

इस तरह क्रियमाण ही संचित कर्म बनते हैं तथा संचित कर्म ही प्रारब्ध है। जब यह प्रारब्ध कर्म फलित होते हैं तो इनके कारण उत्पन्न अदृश्य एवं परिस्थितियों को समझना पाने के कारण इसे भाग्य रूपी अदृश्य शक्ति का नाम देते हैं व इसका अस्तित्व मानने लगते हैं, जबकि यह कर्म से जुड़ा है। मनुष्य अपनी इच्छा व पुरुषार्थ द्वारा कर्म की गति को दिशा दे सकता है।

प्रारब्ध यदि कष्ट कर हो तो भी उसे भोगना तो पड़ता है, लेकिन उसको हल्का किया जा सकता है। 'मंत्र तंत्रौषधि बलात्' से उसको हल्का किया जा सकता है। शूल की पीड़ा को सुई में बदला जा सकता है। दरिद्र व्यक्ति संचित कर्म का नाश तपस्या से कर सकता है। नि: संतान किसी तपस्वी के आशीर्वाद व अनुग्रह से पुत्र प्राप्त कर सकता है। अल्पायु तप आदि से दीर्घायु में परिवर्तित हो सकती है। अर्थात मनुष्य अपने भाग्य (अर्थात प्रारब्ध) को परिवर्तित, संशोधित एवं संवर्धित कर सकता है।

इस तरह भाग्य या प्रारब्ध कोई ऐसी शक्ति नहीं कि जिनके आगे मनुष्य घुटने टेक दे, उसके हाथों की कठपुतली बनकर दीन-हीन दरिद्र व निकृष्ट स्तर का जीवन जिए। बल्कि यह तो उसी के कर्मों की रचना है, जिसे मनुष्य अपने प्रयास-पुरुषार्थ अर्थात नवीन कर्मों द्वारा परिमार्जित कर सकता है श्रेष्ठ कर्म करता हुआ वह अपने लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को सफल और सार्थक बना सकता है, आखिर मनुष्य अपना भाग्य विधाता आप ही तो है।

संदर्भ ग्रंथ:-
१.) अखण्ड ज्योति पत्रिका
२.) गहना कर्मणोगति:
३.) मरने के बाद हमारा क्या होता है?

ब्रह्म नहीं माया नहीं, नहीं जीव नहिं काल। अपनी हू सुधि ना रही रह्यौ एक नंदलाल ॥ - ब्रज के सवैया


न मैं ब्रह्म के विषय में जानना चाहता हूं, न ही माया के विषय में, न मैं जीव के विषय में जानना चाहता हूं न ही मैं काल के विषय में जानना चाहता हूं । मैं अपनी सुधि ही खो जाऊं और मुझे केवल एक श्री राधा कृष्ण का ही ध्यान रहे।

       💫🪷🌸🏵️🌺🌼✨

खगोलशास्त्री सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर // पुण्यतिथि ।।

जन्म : 19 अक्टूबर 1910
मृत्यु : 21 अगस्त 1995

विज्ञान के क्षेत्र में विश्व का सर्वाधिक प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार पाने वाले सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर तीसरे भारतीय वैज्ञानिक थे। उनसे पहले विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार चंद्रशेखर वेंकटरमन (भौतिकी विज्ञान) 1930 में तथा दूसरे डॉक्टर हरगोविंद खुराना (शरीर एवं औषधि विज्ञान) 1968 में यह उपलब्धि प्राप्त कर चुके है। हालांकि नोबेल पुरस्कार पाने वाले वह पांचवें भारतीय थे। विज्ञान के क्षेत्र से अलग यह उपलब्धि पाने वाले गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर जिन्हें साहित्य के लिए 1913 में तथा दूसरा मदर टेरेसा जिन्हें शांति और सद्भावना के लिए 1979 मे नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने अपने कार्यों और उपलब्धियों द्वारा नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर भारत का झंडा विश्व में ऊंचा किया था। खगोल भौतिकी के क्षेत्र में सुब्रमण्यम की प्रसिद्धि और उनको नोबेल पुरस्कार दिए जाने का कारण है। तारों के ऊपर किए गए उनके गहन अनुसंधान कार्य और एक महत्वपूर्ण सिद्धांत जिसे चंद्रशेखर लिमिट के नाम से आज भी खगोल विज्ञान के क्षेत्र में मील का पत्थर माना जाता है।

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर की इस महान खोज ने जहां पूर्व में की गई आधी अधूरी खोजो के सिद्धांतो को सुधार कर उन्हें पुनर्स्थापित किया, वहीं भविष्य में खगोल विज्ञान के क्षेत्र में किए जाने वाले अनेक अनुसंधानों का मार्ग भी प्रशस्त किया। उनकी इसी सफलतापूर्वक खोज ने उन्हें नोबेल पुरस्कार का अधिकारी बनाया।

>> सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर का जन्म <<

सुब्रमण्यम चंद्रशेखर का जन्म 19 अक्टूबर 1910 को लाहौर (अब पाकिस्तान) में हुआ था। दक्षिण भारतीय ब्राह्मण परिवार में जन्मे सुब्रमण्यम अपने 7 भाई बहनों के परिवार में सबसे बड़े पुत्र थे। उनके पिता श्री सी.एस. अय्यर ब्रिटिश सरकार के रेल विभाग में अधिकारी पद पर कार्यरत थे। अत्यंत जिज्ञासु प्रवृत्ति और कुशाग्र बुद्धि के स्वामी सुब्रमण्यम की प्रतिभा के लक्षण उनकी बाल्यावस्था में ही प्रकट होने लगे थे।

सुब्रमण्यम की बचपन से ही खेलों से कहीं अधिक रूचि किताबों में थी। यदि यह कहा जाए कि भविष्य में महान वैज्ञानिक बनने के गुण उनके खून में ही थे, तो गलत नहीं होगा। शिक्षित माता पिता की संतान के रूप में जन्मे सुब्रमण्यम चंद्रशेखर महान भौतिक विज्ञानी श्री चंद्रशेखर वेंकट रमन के भांजे थे। जिस समय सुब्रमण्यम का जन्म हुआ, उस समय वेंकटरमन भारत में भौतिक विज्ञान की आधारशिला रख रहे थे।

>> सुब्रमण्यम चंद्रशेखर की शिक्षा <<

सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की प्रारंभिक शिक्षा लाहौर में ही हुई थी। सन् 1925 में जब उन्होंने प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की तो उसी साल के अंत में उनके पिता लाहौर छोड़कर मद्रास चले आएं। आगे की शिक्षा के लिए उन्होंने मद्रास के प्रेसिडेंसी कॉलेज की प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की और छात्रवृत्ति सहित कॉलेज में अध्ययन आरम्भ किया। जैसे जैसे वे शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ते चले जा रहे थे, वैसे वैसे पढ़ने के प्रति उनकी रूचि भी तेजी से बढ़ती जा रही थी।

उनके सहपाठी अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों के अतिरिक्त और कुछ नहीं पढ़ते थे, किंतु सुब्रमण्यम नियमित रूप से पुस्तकालय जाते और भौतिक विज्ञान की जो भी नई पुस्तक मिलती, यहां तक की शोध पत्र भी पढ़ डालते थे। उन्होंने बी.एस.सी की भौतिकी विज्ञान ऑनर्स की परीक्षा में प्रथम श्रेणी प्राप्त की।

बी.एस.सी. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने अपने मामा वेंकटरमन से भौतिक विज्ञान की अनेक बारिकियों को जाना। और सन् 1930 में सुब्रमण्यम इंग्लैंड पहुंचे, और कैंम्बिज विश्विविद्यालय में भौतिक विज्ञान के छात्र के रूप में अपना शोध कार्य आरंभ कर दिया। यहां उन्होंने रॉल्फ हॉवर्ड फाउलर द्वारा प्रतिपादित उन सिद्धांतों का अध्ययन किया जो सुदूर आकाश गंगा में स्थित श्वेत बौने तारों की प्रकृति पर आधारित थे।

निश्चित समय पर अपना शोध कार्य पूर्ण करके सन् 1933 में उन्होंने विश्वविद्यालय से पी.एच.डी.(P.H.D) की उपाधि प्राप्त की। इसी साल उन्हें कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज का फैलो चुन लिया गया। ट्रिनिटी कॉलेज (Trinity College Of London) की फैलोशिप पाना अपने आप में एक महत्वपूर्ण सफलता थी। वे सन् 1937 तक यहां फैलो के रूप मे अपने शोध और अनुसंधान कार्यों में तन्मयता से जुटे रहे।

सन् 1933 से 1937 तक 4 वर्षों का समय सुब्रमण्यम और विश्व खगोल विज्ञान के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था। इसी समयावधि में सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर ने अपनी महत्वपूर्ण खोज “चंद्रशेखर लिमिट” को विश्व विज्ञान जगत के सामने रखा। यह अलग बात है कि पश्चिमी वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित किए गए पारंपरिक सिद्धांतों को ही सर्वोपरि

मानने वाले वैज्ञानिक समुदाय ने उनकी इस खोज को स्वीकारने में अपेक्षाकृत अधिक समय ले लिया। किंतु अपनी इसी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर उन्होंने सिद्ध कर ही दिया कि वे अपनी जगह कितने सही थे।

>> नोबेल पुरस्कार <<
 
सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर के उपलब्धियों भरे वैज्ञानिक जीवन में इसे विडम्बना ही कहा जाएगा, कि जो खोज “चंद्रशेखर लिमिट” उन्होंने सन् 1935-1936 में ही कर ली थी, उसके लिए लगभग 47-48 सालो के बाद सन् 1983 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया, जबकि उन्हीं के दो शिष्य सन् 1957 में ही यह सम्मान प्राप्त कर चुके थे। यह अलग बात है कि बाद के सालो में किए गए उनके अन्य अनुसंधान कार्यों जैसे कि ब्लैक होल (Black hole) की उत्पत्ति और संरचना व आकाश गंगा के अन्य रहस्यों को उजागर करने के परिणामस्वरूप और अधिक समय तक इस सम्मान से वंचित रख पाना संभव नहीं रह गया था। सन् 1983 मे उन्हें नोबेल पुरस्कार दिए जाने पर विश्व के समस्त वैज्ञानिक समुदाय ने प्रसन्नता प्रकट की।

>> परिवारिक और व्यक्तिगत जीवन <<
 
हालांकि सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर 20 साल की आयु में ही अपनी मातृभूमि छोड़कर विदेश आ गए थे। जहां लगभग 7 साल इंग्लैंड और बाकी का जीवन अमेरिका की पश्चिमी सभ्यता संस्कृति के संपर्क में रहकर बिताया, किंतु वे कभी भी अपने देश भारत और उसकी संस्कृति को नहीं भूले। वे भारतीय रंग ढ़ंग के अनुरूप ही रहते थे। अपने घर में दक्षिण भारतीय पहनावा धोती कुर्ता पहने उन्हें अक्सर देखा जाता था। एक खगोलीय विज्ञानी होते हुए भी उन्हें संगीत में विशेष रूची थी। सन् 1936 मे चंद्रशेखर भारत आए थे। हालांकि वे बहुत थोडे समय के लिए यहां रूके। किंतु इसी समय उन्होंने अपनी जीवन संगिनी का वरण किया और उन्हें भी अपने साथ अमेरिका ले गए। सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की पत्नी श्रीमती ललिता दुरई स्वामी भी एक वैज्ञानिक थी। और भारत में महान वैज्ञानिक वेंकटरमन की विज्ञान अनुसंधान शाला में काम करती थी। विदेश में रहते हुए भी वे अपने पति की अच्छी सहयोगिनी सिद्ध हुई।

>> सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर की मृत्यु <<

अपना महत्वपूर्ण जीवन विज्ञान को सीखने और सीखाने में अर्पित कर देने वाले महान वैज्ञानिक सुब्रमण्यम चंद्रशेखर ने 85 वर्ष की आयु में 21 अगस्त 1995 को इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आज सुब्रमण्यम चंद्रशेखर हमारे बीच नहीं है। किंतु वे अपने जाने से पूर्व अपने शिष्यों के रूप में भविष्य के वैज्ञानिकों की एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर गए है, जिसके सुपरिणाम हमें निकट भविष्य में देखने को मिल सकते हैं

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

हनुमान जी की भयंकर गर्जना ।।

ऐसा पढ़ने में आता है की अर्जुन के रथ पर बैठे हनुमान जी कभी कबार खड़े हो कर कौरवो की सेना की और घूर कर देखते तो उस समय कौरवो की सेना तूफान की गति से युद्ध भूमि को छोड़ कर भाग निकलती..

.
हनुमान जी की दृष्टि का सामना करने
का साहस किसी में नही था..
.
उस दिन भी ऐसा ही हुआ था जब कर्ण और अर्जुन के बीच युद्ध चल रहा था..
.
कर्ण अर्जुन पर अत्यंत भयंकर बाणो की वर्षा किये जा रहा था उनके बाणो की वर्षा से श्रीकृष्ण को भी बाण लगते गए..
.
अतः उनके बाण से श्रीकृष्ण का कवच कटकर गिर पड़ा और उनके सुकुमार अंगो पर लगने लगे..
.
रथ की छत पर बैठे पवनपुत्र हनुमान जी  एक टक नीचे अपने इन आराध्य की और ही देख रहे थे।
.
श्रीकृष्ण कवच हीन हो गए थे, उनके श्री अंगपर कर्ण निरंतर बाण मारता ही जा रहा था..
.
हनुमान जी से यह सहन नही हुआ..
.
अकस्मात् वे उग्रतर गर्जना करके दोनों हाथ उठाकर कर्ण को मार देने के लिए उठ खड़े हुए।
.
हनुमान जी की भयंकर गर्जना से ऐसा लगा मानो ब्रह्माण्ड फट गया हो..
.
कौरव-सेना तो पहले ही भाग चुकी थी 
.
अब पांडव पक्ष की सेना भी उनकी गर्जना के भय से भागने लगी..
.
हनुमान जी का क्रोध देख कर कर्ण के हाथ से धनुष छूट कर गिर गया।
.
भगवान श्रीकृष्ण तत्काल उठकर अपना दक्षिण हस्त उठाया और हनुमान जी को स्पर्श करके सावधान किया..
.
रुको ! तुम्हारे क्रोध करने का समय नही है।
.
श्रीकृष्ण के स्पर्श से हनुमान जी रुक तो गए किन्तु उनकी पूछ खड़ी हो कर आकाश में हिल रही थी..
.
उनके दोनों हाथों की मुठियां बंध थीं, वे दाँत कट- कटा रहे थे और आग्नेय नेत्रों से कर्ण को घूर रहे थे..
.
हनुमान जी का क्रोध देख कर कर्ण और उनके सारथि काँपने लगे और स्वेद धरा चल रही थी दोनों ने दृष्टि निचे कर रखी थी।
.
हनुमान जी का क्रोध शांत न होते देख कर श्रीकृष्ण ने कड़े स्वर में कहा 
.
हनुमान ! मेरी और देखो, अगर तुम इस प्रकार कर्ण की और कुछ क्षण देखोगे तो कर्ण तुम्हारी दृष्टि से ही मर जाएगा।
.
यह त्रेतायुग नही है। तुम्हारे पराक्रम को तो दूर तुम्हारे तेज को भी कोई यहाँ सह नही सकता।
.
तुमको मैंने इस युद्ध मे शांत रहकर बैठने को कहा है।
.
फिर हनुमान जी ने अपने आराध्यदेव की और नीचे देखा और शांत हो कर बैठ गए..
~~~~
((((जय जय श्री राधे)))))
~~~~
धर्म की जय हो अधर्मी का नाश हो,
प्राणियों में सद्भावना हो विश्व का कल्याण हो 🙏🚩

चांद्रायण साधना आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना ।।

कल्प साधना में ऐसे तीन योगाभ्यासों का निर्धारण किया गया है जो सभी साधकों को समान रूप से करने पड़ते हैं । इन्हें अनिवार्य साधनाओं में गिना गया है। इनमें एक बिंदुयोग दूसरा नादयोग और तीसरा लययोग है। बिंदुयोग को त्राटक साधना भी कहा जाता है। नादयोग को ‘अनाहत ध्वनि' भी कहते हैं । लययोग को आत्मदेव की साधना कहते हैं। छाया पुरुष जैसे अभ्यास इसी के अंतर्गत आते हैं। स्थूल शरीर के साथ लययोग सूक्ष्म के साथ बिंदुयोग और कारण शरीर के साथ नादयोग का सीधा संबंध है। इन साधनाओं के आधार पर इन तीनों चेतना क्षेत्रों को अधिक परिष्कृत अधिक प्रखर एवं अधिक समर्थ बनाया जा सकता है। अन्न, जल, वायु की तरह इन तीन साधनाओं को भी समान उत्कर्ष की दृष्टि से सर्व सुगम किंतु साथ ही असाधारण रूप से प्रभावी भी माना गया है। 

बिंदुयोग-त्राटक साधना को आज्ञाचक्र का जागरण एवं तृतीय नेत्र का उन्मीलन कहा जाता है। दोनों भवों के बीच मस्तक के भृकुटि भाग में सूक्ष्म स्तर का तृतीय नेत्र है। भगवान शंकर की, देवी दुर्गा की तीन आँखें चित्रित की जाती हैं। दो आँखें सामान्य एक भूकुटि स्थान पर दिव्य। इसे ज्ञान चक्षु भी कहते हैं। अर्जुन को भगवान ने इसी के माध्यम से विराट के दर्शन कराए थे। भगवान शिव ने इसी को खोलकर ऐसी अग्नि निकाली थी, जिसमें उपद्रवी कामदेव जलकर भस्म हो गया। दमयंती ने भी कुदृष्टि डालते व्याध को इसी नेत्र ज्वाला के सहारे भस्म कर दिया था। संजय इसी केंद्र से अद्भुत दिव्य दृष्टि का टेलीविजन की तरह, दूरबीन की तरह उपयोग करते रहे और धृतराष्ट्र को घर बैठे महाभारत का सारा आंखों देखा हाल सुनाते रहे। आज्ञाचक्र को शरीर विज्ञान के अनुसार और पिट्यूटरी ग्रंथियों का मध्यवर्ती सर्किल माना जाता है और उसे एक प्रकार का त्रिदलीय चक्र-दिव्य दृष्टि केंद्र, कहा जाता है। टेलीविजन राडार, टेलीस्कोप के समन्वय युक्त क्षमता से इसकी तुलना की जाती है। जो चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है वह इसमें सन्निहित अतीन्द्रिय क्षमता के सहारे परिलक्षित हो सकता है, ऐसी मान्यता है। दूरदर्शन सूक्ष्म दर्शनविचार संचालन जैसी विभूतियों का उद्गम इसे माना जाता है। साधारणतया यह प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है और उसके अस्तित्व का कोई प्रत्यक्ष परिचय नहीं मिलताकिंतु यदि इसे प्रयत्नपूर्वक जगाया जा सके तो यह तीसरा नेत्र विचार संस्थान की क्षमता को अनेक गुनी बढ़ा देता है। चूंकि यह केंद्र दीपक की लौ के समान आकृति वाला बिंदु माना जाता है इसलिए उसे जागृत करने की साधना को बिंदुयोग कहते हैं। इसी का एक नाम त्राटक साधना भी है।

अब तक.... , कल्प साधना में ऐसे तीन योगाभ्यासों का निर्धारण किया गया है जो सभी साधकों को समान रूप से करने पड़ते हैं। इनमें एक बिंदुयोग दूसरा नादयोग और तीसरा लययोग है। बिंदुयोग को त्राटक साधना भी कहा जाता है। 

अभी हम सभी प्रथम योग बिंदुयोग को समझेंगे..... 

बिंदुयोग का एक नाम त्राटक साधना भी है।

यह साधना सरल है। आमतौर से पालथी मारकर, कमर सीधी कर एकांत स्थान में साधना के लिए बैठते हैं। तीन फुट दूरी पर कंधे की सीध में ऊँचाई पर एक घृत दीप जलाकर रखते हैं। दस सैकिन्ड तक उसकी लौ को खुली आँख से देखना, फिर एक मिनट बंद रखना। फिर दस सैकिंड देखने, पचास सैकिंड बंद रखने का अभ्यास अनुमान से ही करना पड़ता है। घड़ी का उपयोग इस बीच बन पड़ना सुविधाजनक नहीं रहेगा। दूसरा कोई चुपके से धागे आदि का संकेत कर दे तो दूसरी बात है।

दीपक के प्रकाश की लौ आँखें बंद करके आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रज्वलित देखने का अभ्यास करना होता है, साथ ही यह भी धारणा करनी होती है कि वह प्रकाश समूचे मस्तिष्क में फैलकर उसके प्रसुप्त शक्ति केंद्रों को जागृत कर रहा है। आरंभ में यह ध्यान दस मिनट से आरंभ करना चाहिए और बढ़ाते-बढ़ाते दूनी-तिगुनी अवधि तक पहुँचा देना चाहिए। खोलने बंद करने का समय एक सा ही रहेगा। दीपक का सहारा आरंभ में ही कुछ समय लेना पड़ता है। इसके बाद आज्ञाचक्र के स्थान पर प्रकाश लौ जलने और उनकी आभा से समूचा मनःसंस्थान आलोकमय हो जाने की धारणा बिना किसी अवलंबन के मात्र कल्पना-भावना के आधार पर चलती रहती है।

दीपक की ही तरह प्रभातकालीन सूर्य का प्रकाश पुंज लक्ष्य इष्ट माना जा सकता है। गायत्री का प्राण ‘सविता' वही है। पालथी मारना हाथ गोदी में और कमर सीधी रखने को ध्यान मुद्रा कहते हैं। दीपक धारणा की तरह प्रभात कालीन अरुणाभ सूर्य को पाँच सैकिंड खुली आँख से देखकर बाद में पचपन सैकिंड के लिए आँखें बंद कर लेते हैं और आज्ञाचक्र के स्थान पर उस उदीयमान सूर्य का ध्यान करते हैं। साथ ही यह धारणा करते हैं कि सविता देवता की ज्योति किरणें स्थूल शरीर में प्रवेश करके पवित्रता, प्रखरता, सूक्ष्म शरीर में दूरदर्शी विवेकशीलता, कारण शरीर में श्रद्धा संवेदना का संचार करती और समग्र काय कलेवर को ज्योतिपुंज बनाती हैं। सूर्य त्राटक की ध्यान धारणा आरंभ में दस मिनट करनी चाहिए और धीरे-धीरे बीस मिनट तक बढ़ा देनी चाहिए। दीपक या सूर्य दोनों में से किसी को भी माध्यम बनाकर आज्ञाचक्र का जागरण, तृतीय नेत्र का उन्मीलन हो सकता है। कुछ समय तो लगता ही है। बीज बोने से लेकर वृक्ष फलने तक की प्रक्रिया पूरी होने में कुछ समय तो चाहिए ही। हथेली पर सरसों तो बाजीगर ही जमा सकते हैं।

संदर्भ : 
📕वांग्मय ७ प्रसुप्ति से जगृति की ओर 
✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।

कल्प साधना का क्रिया पक्ष ।।

चिंतन, आदत और विश्वास अंतराल के यह तीन क्षेत्र हैं। इन्हें क्रमशः मन, बुद्धि, चित्त कहते हैं। मनः क्षेत्र की यह तीन परतें हैं। इन्हीं को तीन शरीर, स्थूल, सूक्ष्म, कारण भी कहते हैं*। पंच भौतिक काया तो इन तीनों की आज्ञा एवं इच्छा का परिवहन मात्र करती रहती है। आत्म सत्ता इनसे ऊपर है।

उपरोक्त शरीरों की परोक्ष स्थिति को परिष्कृत करने के लिए योगाभ्यास में तीन साधनाएँ हैं। स्थूल को मुद्राओं से, सूक्ष्म को प्राणयाम से और कारण को योगत्रयी से परिमार्जित किया जाता है। मुद्राओं में तीनों प्रधान हैं- (१) शक्तिचालिनी मुद्रा, (२) शिथिलीकरण मुद्रा, (३) खेचरी मुद्रा । प्राणायामों में तीन को प्रमुखता दी गई है- (१) नाड़ी शोधन प्राणायाम, (२) प्राणाकर्षण प्राणायाम, (३) सूर्यवेधन प्राणायाम। योगाभ्यासों में तीन प्रमुख हैं- (१) नादयोग, (२) बिंदुयोग, (३) लययोग कल्प ।साधना में इन नौ का अभ्यास कराया जाता है। दिव्य अनुदान की ध्यान धारणा इन नौ के अतिरिक्त है। क्रियायोग के यह तीन प्रयोग साधक के त्रिविध शरीरों को परिष्कृत करने की उपयोगी भूमिका संपन्न करते हैं। शरीरों के हिसाब से इनका वर्गीकरण करना हो तो स्थूल शरीर के निमित्त शक्तिचालनी मुद्रा, नाड़ी शोधन प्राणायाम और नादयोग की गणना की जाएगी। सूक्ष्म शरीर के निमित्त प्राणाकर्षण प्राणायाम, शिथिलीकरण मुद्रा और बिंदुयोग को महत्त्व दिया जाता है। कारण शरीर में खेचरी मुद्रा, सूर्यवेधन प्राणायाम और लययोग का अभ्यास किया जाता है।

हर साधक को उन नौ को एक साथ करना आवश्यक नहीं। त्रिविध योग साधनाएँ तो सभी को सामान्य परिमार्जन करने की दृष्टि से आवश्यक मानी गई हैं। इनको हर स्थिति के साधक को साथ- साथ चलाने का प्रावधान है। नादयोग, बिंदुयोग और लययोग का अभ्यास सभी कल्प साधकों की दिनचर्या में सम्मिलित है।

मुद्राएँ तथा प्राणायाम तीन-तीन हैं। इनमें से साधक के अंतराल का सूक्ष्म निरीक्षण करके एक-एक का निर्धारण करना पड़ता है। दोनों मुद्राएँ, दोनों प्राणायाम भी तीन योगों की तरह प्रतिदिन साधने पड़ें ऐसी बात नहीं हैं। मुद्राओं में से एक, प्राणायामों में से एक का ही चयन करना होता है। इस प्रकार तीन योग, एक मुद्रा, एक प्राणायाम का पंचविध कार्यक्रम हर एक की दिनचर्या में सम्मिलित रहता है।

संदर्भ : चांद्रायण कल्प साधना 
 ✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।

आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना का तत्व दर्शन ।।

चिंतन और मनन की प्रक्रिया चांद्रायण कल्प का मेरुदंड है। इसलिए इन दिनों गंभीरतापूर्वक  विचार प्रवाह को भौतिक क्षेत्र से हटाकर अंतर्मुखी रहने के लिए विवश करना  चाहिए।

आज के स्वाध्याय में हम सभी जानेंगे चिंतन का विषय क्या हैं और मनन का उद्देश्य क्या है।

चिंतन का विषय है-आत्मशोधन मनन का उद्देश्य है- आत्म-परिष्कार। दोनों को एक-दूसरे का पूरक कहना चाहिए। मल-त्याग के उपरांत पेट खाली होता है तभी भूख लगती है और भोजन गले उतरता है। धुलाई के उपरांत रंगाई होती है।  आत्म-परिष्कार प्रथम और आत्म-विकास द्वितीय है। 

आध्यात्मिक कल्प-साधना के दिनों में मात्र भोजन में कटौती और जप पूरा करने की बेगार भुगती जाती रहे और आत्म- चिंतन की उपेक्षा होती रहे तो समझना चाहिए कि शरीर श्रम का - जितना लाभ हो सकता है उतना ही मिलेगा। मनोयोग के अभाव में उस उच्चस्तरीय प्रतिफल की आशा न की जा सकेगी, जो शास्त्रकारों, अनुभवी सिद्धपुरुषों द्वारा बताई गई है।


समझा जाना चाहिए कि चिंतन का विषय अनुशासन है इसी को संयम कहा जाता है। इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय-संयम और विचार-संयम ये चार प्रकार के संयम है। अपने वर्तमान स्वभाव- अभ्यास में इन प्रसंगों में कहाँ-क्या त्रुटि रहती है, इसकी निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जाँच-पड़ताल की जानी चाहिए। आत्म-पक्षपात मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण है। दूसरों के दोष ढूंढ़ना- अपने छिपाना आम लोगों की आदत होती है। कड़ाई से आत्म- समीक्षा कर सकने की क्षमता आध्यात्मिक प्रगति का प्रथम चिन्ह है। पाप कर्मों का प्रकटीकरण और प्रायश्चित का साहस इस बात का चिन्ह है कि इस क्षेत्र में प्रगति की आवश्यक शर्त को समझा और अपनाया जा रहा है। इसी श्रृंखला का अगला कदम स्वाध्याय- सत्संग के द्वारा बाहरी प्रकाश-परामर्श प्राप्त करना है उसी प्रक्रिया का सूक्ष्म रूप चिंतन-मनन है। चिंतन में गुण, कर्म, स्वभाव में घुसी हुई अवांछनीयताओं को बारीकी से ढूंढ़ निकालने का पर्यवेक्षण करना होता है। साथ ही उन्हें किस प्रकार निरस्त किया जाए यह न केवल सोचना होता है वरन उसके लिए दिनचर्या का ऐसा ढांचा बनाना होता है जिसे अपनाकर उपरोक्त चारों संयमों का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे। आदतों को बदलने के लिए उनकी प्रतिद्वंदी आदतों को दैनिक व्यवहार में सम्मिलित करना होता है, असंयम की गुंजाइश जिन कारणों से जिन कार्यक्रमों से बनती है उनको भी बदलवना होता है। व्यवहार बदलने पर ही आदतें बदलने की बात बनती है इसीलिए होना यह चाहिए कि असंयमों का अभ्यास तोड़ने वाला चारों क्षेत्रों का एक निश्चित कार्यक्रम बनाया जाए और उसका परिपालन कठोरतापूर्वक आरंभ कर दिया जाए। कल्पावधि इस अभ्यास के लिए प्रभात काल की तरह सौभाग्य बेला समझी जानी चाहिए। इन दिनों अंतःकरण के आधार पर स्वेच्छा से उपरोक्त चार संयमों के कठोर परिपालन की व्यवस्था बनाई जाए।  इन दिनों अंतःकरण के आधार पर स्वेच्छा से उपरोक्त चार संयमों के कठोर परिपालन की व्यवस्था बनाई जाए। साथ ही यह भी निश्चित किया जाए कि इन निर्धारणों को  भविष्य में नियमित रूप से जारी रख जाएगा। इस निश्चय पर उसी प्रकार आरूढ़ व्रतशील रहना चाहिए जिस प्रकार विवाह होने पर पति-पत्नी एक-दूसरे का आजीवन निर्वाह करते हैं।


निष्कर्ष: 

कल्प साधना में जितना महत्व आहार संयम और जप, ध्यान का है  उतना ही महत्व  आत्म चिंतन का भी समझना चाहिए। आत्म चिंतन का विषय अनुशासन है जिसमें अपने वर्तमान स्वभाव अभ्यास में चार प्रकार के संयम से संबंधित कहां-कहां त्रुटियां है इसकी निष्पक्ष निरीक्षक एवं कठोर परीक्षक की तरह जांच पड़ताल की जानी चाहे चाहिए,  साथ ही उन गलत आदतो को किस प्रकार दूर भगाया जाए इसके  लिए दिनचर्या का ऐसा ढांचा बनाना होता है जिसे अपनाकर चारों संयम का क्रमबद्ध अभ्यास चलता रहे। 

आध्यात्मिक कायाकल्प की साधना का तत्व दर्शन 

मनुष्य के पास कई प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष संपदाएँ हैं। श्रम, समय, चिंतन एवं साधन के रूप में ये चारों हर किसी के पास समान रूप से विद्यमान हैं। इन्हीं के बदले विभिन्न प्रकार की संपदाएँ, विभूतियों, सफलताएँ अर्जित की जाती हैं । विशेष चातुर्य कौशल न सही, इन चारों की सामान्य मात्रा हर किसी को उपलब्ध है। होना यह चाहिए कि इनका विभाजन उपयोग शरीर के लिए ही नहीं, आत्मा के  लिए भी होने लगे। यह तभी संभव है जब उपरोक्त क्षमताएँ मात्र शरीचर्या में ही नियोजित न रहें-इनका लाभ शरीर संबंधी ही न उठाते रहें वरन होना यह भी चाहिए कि आत्म-कल्याण के लिए भी इनका उपयोग होता रहे। मनन का उद्देश्य यही है कि वह निष्पक्ष न्यायाधीश को तरह फैसला करे कि जब जीवन-व्यवसाय में दोनों (शरीर और आत्मा) की पूँजी लगी हुई है,  दोनों ही श्रम करते हैं तो लाभ एक पक्ष ही क्यों उठाता रहे। दूसरे को उसका उचित भाग क्यों न मिलने लगे। जो बीत गया उसकी बात छोड़ी भी जा सकती है, पर भविष्य के लिए तो यह विभाजन रेखा बन ही जानी चाहिए कि किसे कितनी मात्रा में लाभांश उपलब्ध होता रहेगा।

पूजा - उपचार, आत्म- जागरण भर की आवश्यकता पूरी करते हैं, उनसे आत्मिक प्रगति की समग्र आवश्यकता पूरी नहीं होती। जिस प्रकार शरीर की स्नान, दाँतों को मंजन, कपड़े को धोना, कमरे को बुहारना आवश्यक है उसी प्रकार मनः क्षेत्र की स्वच्छता का दैनिक प्रयोजन पूरा होता है। जीवन-लक्ष्य की पूर्ति भजन से नहीं हो सकती। उसके लिए आत्मा को श्रद्धा, प्रज्ञा एवं निष्ठा जैसी उच्चस्तरीय आस्थाओं से अभ्यस्त कराना होता है। अभ्यास में उद्देश्य और श्रम का समन्वय होना चाहिए। शरीर को सत्प्रवृत्तियों में नियोजित करने के लिए लोकमंगल की साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। मनुष्य जन्म की धरोहर इसीलिए मिली है कि ईश्वर के विश्व को सुविकसित बनाने में कुशल माली की भूमिका निभाई जाए। लोक मानस के भावनात्मक परिष्कार का कार्यक्रम बनाने और उनमें साधनों का महत्त्वपूर्ण भाग लगाते रहने से ही ईश्वर की इच्छा पूरी होती है, साथ-साथ आत्म कल्याण का आत्मोत्सर्ग का प्रयोजन पूरा होता है।

परमार्थ प्रयोजन के दो लाभ हैं। पहले दूसरे की सेवा, साधना, विश्व- व्यवस्था में योगदान ,दूसरे उस आधार पर अपने स्वभाव-अभ्यास में उत्कृष्टता का अभिवर्धन। मात्र सोचते रहने से ही स्वभाव नहीं बनता। संस्कारों में ही शक्ति होती है और वे भावना तथा क्रियाशीलता के समन्वय से ही बनते ढलते हैं। संस्कार ही आत्मा के साथ लिपटते-घुलते हैं और उसकी प्रगति-अवगति के निमित्त कारण बनते हैं। सुसंस्कारिता अर्जित करने के लिए सेवा साधना में निरत होने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं । साधु, ब्राह्मण, वानप्रस्थ, परिव्राजकों को आत्म लाभ इसीलिए मिलता है कि वे परमार्थ के माध्यम से सच्चे अर्थों में आत्म निर्माण का, आत्म विकास का क्रमबद्ध उद्देश्य पूरा करते रहते हैं और उस राजमार्ग पर चलते हुए चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं । प्रत्येक भगवद्भक्त को अपनी भक्ति भावना का प्रमाण परिचय लोकमंगल की भावना में निरत रहकर देना पड़ता है। व्यस्त व्यक्ति भी यदि भावना संपन्न है तो उस दिशा से मुँह मोड़कर नहीं रह सकता।

संदर्भ : चांद्रायण  कल्प साधना 
✍️ पं श्री राम शर्मा आचार्य।