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‘ नित्य-उपासना’ का ‘गायत्री मंत्र ’ ।।

ईश उपासना के इस ‘गायत्री मंत्र’ का प्रणव और त्रि भुवन भाव पश्चात द्वितीय चरण- ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ रूपमें कुल तीन शब्द- भर्गः, देवस्य और धीमहि पद के उच्चारण को अपनाता है । ये तीनों ही पद निम्न भाव-बोध को प्रकट करते हैं-
भर्गो देवस्य = यह ‘भर्गो’ शब्द ‘भर्गः’ शब्द का क्रियात्मकरूप है । देववाणी संस्कृत भाषा के शब्दकोश अनुसार ‘भर्गः’ शिव का नाम है तथा ब्रह्मा का नाम है । इसके अतिरिक्त यह ‘भर्ग’ शब्द ईश्वरीय तेज के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है । 

भगवान शिव को सृष्टि का संहार करने वाला प्रलय का देवता जाना गया है । उन्हें ‘रुद्र’ कहा गया है तथा रौद्ररूप को धारणकर ‘ताण्डव नृत्य’ करने अर्थात् समूची सृष्टि का संहार करने वाला वर्णन किया गया है । भगवान शिव द्वारा ‘ताण्डव नृत्य’ करते समय ‘बजाये गये डमरु’ के नाद से भगवान पाणिनि द्वारा भाषा के ‘चौदह माहेश्व्वर सूत्र’ प्राप्त करना सर्वत्र जानने को मिलता है । अतः आदिदेव भगवान शिव को इस जीवात्मा का कल्याण करने वाला देवता कहा गया है । यही कारण है कि भगवान शिव देवगण तथा असुरगण दोनों के आराध्यदेव बने हुए हैं । वे देव और असुर दोनों के द्वारा पूजे और स्तवन किये जाते हैं ।


‘भर्ग’ सृष्टि-यज्ञकर्ता ब्रह्मा का नाम है । ब्रह्मा को चतुर्मुख और अहर्निश सृष्टियज्ञ-कर्म करने वाला देवता जाना गया है । ब्रह्मा को प्रजापति कहा गया है । इस प्रकार यह ‘भर्ग’ शब्द ‘संहार’ और ‘सृजन’ दोनों ही अर्थ से सम्बन्ध रखनेवाला है; यह ‘किसी सिक्के के दो पहलू’ की भाँति इन दोनों ही शक्तियों को धारण करने वाले ‘तेजोमय पुरुष’ को प्रकट करता है । अतः उस परमेश्वर का सूर्यरूप में जो संहारक तथा उत्पादक तेज है, यह ‘भर्ग’ कहा गया है तथा इस एकदेशीय अर्थ को हमारे द्वारा काल-चक्र के झंझावातों के बीच अभी तक स्मृति में धारण किया गया है । श्रुतिसाहित्य में ब्रह्मा को ही ‘ब्रह्म’ तथा शिव को ‘रुद्र’ कहा जाना प्रकट होता है । यहाँ ‘ईश उपासना’ के इस ‘गायत्री मंत्र’ में यह ‘भर्ग’ शब्द इन दोनों ही प्रथम- संहारकर्ता तेज और द्वितीय- सृजनकर्ता तेज अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। तथा ‘देवस्य’ शब्द सम्बन्ध सूचक होकर यह ‘भर्ग’ देवता के इस संहारक और सृजनकर्ता तेज को अपने इस मनुष्य जीवन में अपनाने या धारण करने से सम्बन्ध रखता है ।

धीमहि – यह ‘धीमहि’ शब्द ‘ध्यान करते हैं’ अर्थ को सूचित करने वाला जाना गया है । किन्तु जब हम पूर्व पद ‘भर्ग’ द्वारा संसूचित भगवान शिव के सृष्टिसंहारकर्ता - कल्याणकारी तेज और सृष्टिसृजनकर्ता देव ब्रह्मा के प्राणीमात्र के उद्भवकर्ता और पालनकर्ता प्रजापति रूपमें धारण किये गये तेज से सम्बद्धता को अपनाकर इस ‘धीमहि’ पद पर विचार करते हैं, तो यह ‘धीमहि’ शब्द ‘मुखसुख’ को अपनाकर दो भिन्न ‘संज्ञा’ शब्द ‘धी:’ और ‘महि’ के संयोग से बना एवं समास रूप शब्द जानने में आता है । ‘धी’ शब्द बुद्धि, प्रज्ञा, मन आदि अर्थ सूचित करता है । 

यह जीवन को धारण करने वाली अर्थात् जीवन-यात्रा में सहायक बुद्धि को प्रकट करता है तथा ‘महि’ (मही) शब्द पृथिवी का सूचक है । इस प्रकार पूर्व पद के साथ सम्बद्धता को धारण करता हुआ ‘गायत्री मंत्र’ का यह द्वितीय चरण इस पृथिवी पर प्राणीमात्र के संहारक देव शिव और सृजनकर्ता या उत्पन्नकर्ता देव ब्रह्मा के कार्य से सम्बन्धित बुद्धि या प्रज्ञा का जीवनदायी रूपमें ध्यान करने अर्थात् आदिदेव भगवान शिव के संहारकर्ता कार्य और सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के उत्पत्तिकर्ता जीवनदायी कार्य से सम्बन्धित तेजोमय बुद्धि या प्रज्ञा का ध्यान करने अर्थात् उसे अपने नित्य-जीवन में अपनाने के अर्थ को सूचित करता है ।


यहाँ यह उल्लेख समीचीन है कि यह ‘भर्ग’ शब्द अपने ‘तेजोमय’ अर्थ रूपमें ‘भर्जन’ शब्द की स्मृति प्रदान करता है । यह ‘भर्जन’ शब्द भड़भूँजे को अर्थात् ‘बीज’ रूप अन्न का भंजन करने वाले पुरुष को सूचित करता है तथा भूँजने की क्रिया को ‘भर्जनम्’ अर्थात् जन्मप्रक्रिया का निरोध करना जाना गया है । उस परमात्मा का तेज समस्त पापों का भर्जन करने वाला है । यह समस्त दुष्ट भावों को जलाकर नष्ट करता है । इसके अतिरिक्त यह ‘भर्ग’ शब्द चमक, दीप्ति, ज्योति, तेज, प्रतिभा, आभा, उज्ज्वलता, विकाररहित अनामय अवस्था आदि को भी प्रकट करता है । अतः जन्म-प्रक्रिया के निरोध की भावभूमि पर गायत्री मंत्र के इस द्वितीय चरण का अर्थ होता है- “मैं अपने ब्रह्मरूप में संहारकर्ता देव शिव और सृजनकर्ता देव ब्रह्मा की कर्मकर्ता तेजोमय जीवनदायी बुद्धि को सविता के तेज रूपमें यथावसर अपनाने का संकल्प धारण करता हूँ ।” .

ईश उपासना के इस ‘गायत्री मंत्र’ के तृतीय चरण में कुल चार पद(शब्द) आये हैं- ‘धियो यो नः प्रचोदयात् ।’ ये चारों ही पद (शब्द) ‘चतुष्पाद्’ रूपमें यह जीवन-सन्देश प्रदान करते हैं कि-
धियो = यह ‘धीयः’ शब्द प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि की धैर्यमय, विवेकयुक्त बहुवचन अवस्था को सूचित करता है; जिसे धारण करके यह पुरुष ‘व्यवहार कुशल’ कहा जाता या ‘परिपक्व बुद्धि’ जाना जाता है । यह मनुष्यशरीर पंचमहाभूतों से बना है तथा इस देहधारी पुरुषरूप को श्रुति द्वारा अन्नरसमय होना कथन किया गया है- ‘स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः ।’ (तैत्ति.उप. २.१.१) इस नश्वर शरीर और देहस्थ आत्मा (जीवत्मा) को अपने उभयरूप में – ‘यह या वह’ एवं ‘यह और वह’ आधारपर अन्न को ग्रहण (भक्षण या सेवन) करके जीवित रहने वाला प्रकट किया गया है । इस कारण यह मनुष्य इस पुरुषदेह और दशेन्द्रियों की सहायता से अपनी जीवनयात्रा को पूर्ण करने और भोगरत या भोगासक्त अवस्था को धारण करने वाला बना हुआ है और इस भोगरत या भोगासक्त अवस्था में कामनाओं की पूर्ति हेतु यह बुद्धि के नाना रूपको धारण करने और अपनाने वाला हो गया है, जिसे श्रीमद्भगवद्गीता में जनार्दन श्रीकृष्ण द्वारा-

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ॥ (गीता २.४१)
अर्थात्- हे कुरुनन्दन ! इस लोक में व्यवसायात्मिका अर्थात् निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है और व्यवसायात्मिका अर्थात् अनिश्चय वाली बुद्धि बहुत भेदों वाली और अनन्त होती है ।”

कहा जाकर उपदेश किया गया है । अतः यहाँ प्रयुक्त हुआ यह ‘धियोः’ शब्द बहुत भेदों वाली अनन्त बुद्धि को व्यवसायात्मिका (एकात्मिका) बुद्धि रूपमें प्राप्त करने या धारण करने से सम्बन्ध रखने वाला होना जानने में आता वा प्रकट होता है ।

यो = यह ‘यः’ शब्द ‘जो’ अर्थ सूचित करता है तथा यह सवितादेव से सम्बन्ध रखने वाला जानने में आता है ।
नः = यह ‘नः’ शब्द बहुवचन अवस्था में यहाँ ‘हमारी’ या ‘हम सबकी’ अर्थ सूचित करता है । यह ‘न’ अव्यय पद है । इस पुरुषदेह में क्षरपुरुष और अक्षरपुरुष तथा अन्य सब देवगण निवास करते हैं । ऐतरेय उपनिषद् में श्रुतिकथन आया है कि इस मनुष्यशरीर को ‘सुकृत’ जानकर सब देवता इसमें प्रवेश करके स्थित हो गये हैं तथा वह सृजनकर्ता देव भी इस मानवदेह को विदीर्ण करके (जिस प्रकार कोई ठोस वस्तु जल की सतह को विदीर्ण करती हुई जल में प्रवेश करके स्थित हो जाती है; उसी प्रकार इस मानवदेह में प्रवेश करके वह परमात्मा) स्थित हो गया है । अतः यह ‘नः’ पद यहाँ इस ‘मंत्र साधना’ के क्रम में प्रयुक्त होना पाया जाता वा प्रकट होता है । यह मन, बुद्धि और अहंकार तथा देहस्थ इन्द्रियों की भोक्तावृत्ति की परस्पर सामञ्जस्यपूर्ण, द्वन्द्वरहित अवस्था को प्राप्त करने या धारण करने से सम्बन्ध रखता है ।

प्रचोदयात् = यह ‘प्रचोदयात्’ शब्द क्रिया पद है । इस प्रचोदयात् शब्द का अर्थ ‘प्रेरित करे’ या ‘प्रेरणा प्रदान करे’ लिया जाता है । किन्तु यह इस क्रियापद का युक्तियुक्त (संगति को प्राप्त) अर्थ होता नहीं । कारण कि यह तो सर्वरूप, अविनाशी, अभोक्ता ब्रह्म से स्वयं की पृथकता का भाव-बोध अपनाना प्रकट करता है । बृहदारण्यक उपनिषद् में श्रुति कथन आया है कि- “उस इस ब्रह्म को इस समय भी जो इस प्रकार जानता है कि ‘मैं ब्रह्म हूँ, वह यह सर्व हो जाता है । उसके पराभव में देवता भी समर्थ नहीं होते; क्योंकि वह उनका आत्मा ही हो जाता है । और जो अन्य देवता की ‘वह अन्य है और मैं अन्य हूँ’ इस प्रकार उपासना करता है, वह नहीं जानता । जैसे पशु होता है वैसे ही वह देवताओं का पशु है”- ‘अन्योऽसावन्योऽहमस्मिति न स वेद यथा पशुरेवँ्स देवानाम् ।’ (बृह.उप. १.४.१०) अतः इस पृथकता के भाव का निरोध करते हुए ही यहाँ ‘नः’ पद अपनाया गया है तथा छान्दोग्य उपनिषद् में श्रुति द्वारा इस देहधारी पुरुष को वह जो अविनाशी-अभोक्ता ब्रह्मस्वरूप आत्मा है उसका प्रकट श्वेतपताका रूप (मुखौटा) होना कथन किया गया है- ‘स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो ।‘ (छा.उप. ६.८-१६) अविनाशी ब्रह्म का प्रत्यक्ष प्रकटरूप होना कथन किया है- ‘त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ।’ (तैत्ति.उप. १.१.१) “यह सब कुछ ब्रह्म का प्रकटरूप होना, ब्रह्म में उत्पन्न होना, ब्रह्म में चेष्टा करना और ब्रह्म में लय अवस्था प्राप्त करना कथन किया गया है तथा चित्त (अन्तःकरण) की शान्त अवस्था को अपनाकर ब्रह्म की उपासना करने का निर्देश किया गया है”- ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत ।’ (छा.उप. ३.१४.१) अतः यह ‘प्रचोदयात्’ पद उस सर्वरूप ब्रह्म को अंगीकार करने या स्वयं की नियोजित अवस्था को अपनाने का अर्थ धारण करता है जिसका वरण प्रथम चरण में आयी शब्दावली अनुसार किया गया है ।

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