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श्रीराजराजेश्वरी प्रातः स्मरणम् ॥

        रुद्र का पिता कौन ? ब्रह्मा का पिता कौन ? ब्रह्मा की माता कौन ? रुद्र की माता कौन ? विष्णु की माता कौन ? विष्णु का पिता कौन ? कामदेव की माता कौन ? कामदेव का पिता कौन ? इन्द्र का पिता कौन ? इन्द्र की माता कौन ? किसी को नहीं मालूम, किसी भी वेद पुराण या तंत्र ग्रंथ इत्यादि में इनके माता पिता के बारे में कुछ नहीं लिखा गया ईश्वर की माता कौन ? ईश्वर का पिता कौन ? सदाशिव की माता कौन ? सदाशिव का पिता कौन ? इस के बारे में भी कुछ नहीं लिखा गया। ये अद्भुत संरचनाएं हैं, इनकी संरचना भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने स्वतः की है, यह गर्भ से पैदा नहीं हुए हैं, गर्भातीत नहीं हैं, गर्भ इनका विषय नहीं है। नारायण की माता कौन ? नारायण का पिता कौन ? यह मुख्य चिंतन का विशेष कर अध्यात्म चिंतन का विषय है किसी भी वेद ग्रंथ में इनके माता पिता का उल्लेख नहीं है। 

              रुद्र का तात्पर्य है जो संहार करता है, ब्रह्मा का तात्पर्य जो सृष्टि करता है, विष्णु का तात्पर्य जो जीवन रचना करता है, ब्रह्मा विष्णु और रुद्र ये तीनों दस-दस कला युक्त हैं अर्थात इनमें से प्रत्येक के पास अपनी-अपनी दस विशेष कलाएं हैं, दस कलाओं का तात्पर्य एक जैसे दस अणुओं का समायोजन चौथा ईश्वर है जिसके पास चार कलाएं हैं अर्थात चार एक जैसे अणुओं का समायोजन, ईश्वर का तात्पर्य यह है कि जो सबको तिरस्कृत कर दें, सब स्थितियों से निवृत्त हो जाये, कहीं लिप्त न हो सिर्फ देता रहे एक जीवन युक्त अवस्था जैसे आप आप गुरु नानक जी को कह सकते हैं, शंकराचार्य जी को कह सकते हैं, आप स्वामी समर्थनाथ जी को कह सकते हैं । इस श्रेणी में बहुत सारे जीव आ सकते हैं जो कि ईश्वर तत्व तक पहुँच गये, आज बुद्ध एवं महावीर ये भी ईश्वर तत्व तक पहुँच गये हैं, इनमें भी चार कलाओं का विकास हो गया, चार सजातीय अणुओं में एक साथ रहने की कला आ गयी।

           नवनाथ का भी अवसान होता है, ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं ईश्वर का भी अवसान होता है यह भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं परन्तु 16 कलायुक्त सदाशिव जो कि इन पायों के ऊपर फलक बनकर लेटे हुए हैं और जिनकी नाभि से कमल निकल रहा है जिस पर भगवती विराजमान है ये कभी प्रलयातीत नहीं होते। सदाशिव का तात्पर्य है सदा के लिये बने रहने वाले शिव इसलिए कहा गया है कि है भगवती तू ही एकमात्र सुहागन है, तेरा पति कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होता, वह प्रलय काल में भी जस का तस रहता है क्योंकि उसके अंदर त्रिपुरा की षोडशी कला प्रवाहित हो रही है यही श्रीविद्या रहस्यम् है, यही शुद्ध विद्या रहस्यम् है। नाम से ही स्पष्ट है कि ये श्लोक प्रातःकाल उठकर पाठ करने के हैं। इनमें तीनों लोकों की जननी और राज्ञी, लोगों की आश्रयभूता भण्ड और महिषासुर को मारने वाली भगवती का स्मरण किया गया है। इसका प्रतिदिन " पाठ करने वाले की रक्षा भगवती स्वत: करती हैं।

          सदगुरुदेव के महाप्रयाण दिवस से एक नया समूह का निर्माण किया गया है जिसमें अष्टक वर्ग वैदिक ज्योतिष निशुल्क रूप से सिखाया जा रहा है और इस परंपरा को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है ।जो कि सच्चे अर्थों में यही उनके प्रति हमारी श्रद्धांजलि हो सकेगी । जो भी ज्योतिष सीखने में रुचि रखते हो वो इस समूह को ज्वाइन कर सकते हैं। वही लोग समूह जॉइन करें जो ज्योतिष सीखना चाहते हैं समूह का लिंक नीचे दे रहा हूं ।।

॥ श्रीराजराजेश्वरी प्रातः स्मरणम् ॥

प्रातः स्मरामि सु सुधाम्बुधि मध्यभागे।
कल्पाटवी परिवृते मणि निर्मितेऽस्मिन् ।।
चिन्तामणीय सुमहा सदने निविष्टां ।
राजेश्वरी त्रिजगतां जननीं च राज्ञीम् ॥

प्रातर्नमामि सकलागम नित्यवेद्यं ।
संक्रन्दनादि सुरवृन्द निषेव्यमाणम् ॥
लाक्षारूणं कमल शङ्ख सुरेखिकं च।
राजेश्वरी पदयुगं जगतां शरण्यम् ॥

प्रातर्वदामि सकलेष्ट सुदान दक्षं ।
दक्षज्ञ भक्त भय रोग समूलनाशे ॥
भाग्यप्रदञ्च भवरोग निवारकञ्च ।
राजेश्वरी महितनाम सहस्त्रमेव ॥

प्रातः पठामि दुरितौघ विनाश हेतुं ।
वन्दारु वाञ्छित फलप्रद माशु नित्यं ॥
मोक्षप्रदं मुनिनुतं सुमहत्त्व पूर्णं ।
माहात्म्यमेव महितं वर षोडशेश्याः ॥

प्रातः शृणोमि शठ माहिष भण्डमुख्य ।
सर्वासुर क्षपण दीक्षित माहवषु ॥
वीरायितं च वरदान विचक्षणं च।
विस्मापनीय चरितं जगदम्बिकायाः ॥

यः श्लोक पञ्चकमिदं पठति प्रभाते ।
सिंहासन स्थित मनोहर चक्रराज्याः।।
राजेश्वरी च रजनीकर चारुचूडा।
रक्षां करोति सततं तदिदं हि सत्यम् ॥

।। इति श्रीमहाराज्ञी श्रीराजराजेश्वरी प्रातः स्मरणम् ॥

                         शिव शासनत: शिव शासनत:

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