कंठ के अंदर मटर को फली के बराबर लगभग एक इंच का एक ऐसा दिव्य यंत्र लगा हुआ है जिससे कि मनुष्य के अंदर ध्वनि का प्रादुर्भाव होता है। सिर्फ मनुष्यों के ध्वनि यंत्र में ही एक मटर के दाने के बराबर की एक ऐसी ग्रंथि है जिससे कि ध्वनि शब्दों में परिवर्तित होती है। इस ध्वनि केन्द्र का नियंत्रण कक्ष मस्तिष्क में स्थित है। जरा आप सोचिए एक मटर के दाने के बराबर का जैविक यंत्र इस ब्रह्माण्ड में कितनी ध्वनियाँ उत्पन्न कर रहा है। इसी ध्वनि के कारण अखबार, प्रवचन, पुस्तक, दूरदर्शन, वाक युद्ध, गायन, नृत्य इत्यादि इत्यादि सभी प्रादुर्भाव में आये हैं। ध्वनि परम आदि ब्रह्माण्डीय शक्ति है। इस ब्रह्माण्ड का प्रत्येक कण और हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका ध्वनि की शक्ति से सम्पुट है।
प्रत्येक कोशिका ध्वनि अनुसार ही क्रियान्वित होती है। जिस प्रकार शरीर को पुष्ट रखने के लिए शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध अग्नि, शुद्ध प्राण शक्ति और शुद्ध भूमि की आवश्यकता होती है उसी प्रकार शरीर के प्रत्येक अंग को पूर्ण आयु प्रदान करने के लिए दिव्य एवं पवित्र ध्वनि तरंगों की भी आवश्यकता होती है। ध्वनि की तरंग एक माध्यम है जिनके ऊपर सुर-असुर एवं अन्य शक्तियाँ आरूढ़ होती है। ध्वनि केवल मनुष्यों के बीच सम्प्रेषण का ही माध्यम नहीं है, बल्कि इस ब्रह्माण्ड की दिव्य से दिव्य योनियों और दैव शक्तियों से इसके माध्यम से सम्प्रेषण किया जाता है। सम्प्रेषण ही निकटता है। निकटता से ही प्रेम सम्बन्ध और आदान-प्रदान सम्भव है।
जब तक दैव शक्तियों से सम्प्रेषण नहीं होगा उन्हें समझना, उनका आह्वान करना और उन्हें स्थापित करना नामुमकिन है। ध्वनि की तरंगें पूर्ण रूप से चेतनामयी है। हमारे शरीर में अगर अमृत्व की प्राप्ति किसी आवृत्ति विशेष को है तो वह ध्वनि की आवृत्ति ही है। शरीर मिट सकता है परन्तु नाम नहीं मिटता। नाम अमर हो जाता है। अमृत्व की कला मात्र ध्वनि में है। एक बार जो शब्द उच्चारित हो गये वे निरंतर ब्रह्माण्ड में घूमते रहते हैं और कभी भी नष्ट नहीं होते हैं। ध्वनि हो वह माध्यम है जिसके द्वारा मस्तिष्क में मौजूद सभी कोशिकाऐं विसर्जन की क्रिया सम्पन्न कर सकतीं हैं। क्रोध, प्रेम, भक्ति, दया, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, वेदना, सुख दुख, सम्बन्ध इत्यादि सभी कुछ ध्वनि के माध्यम से पूर्णता के साथ व्यक्त किये जा सकते हैं।
अस्तित्व ही ध्वनि है। हमारे मस्तिष्क में चाही-अनचाही नाना प्रकार की ध्वनि तरंगें जिनके ऊपर पता नहीं क्या-क्या आरूढ़ होता है हम प्रतिक्षण ग्रहण करते रहते हैं। क्रोध तो दिखाई नहीं देता, अपमान तो दिखाई नहीं देता, गलत भावनाओं का तो कोई शरीर नहीं होता इत्यादि इत्यादि फिर भी यह सब अद्वैत हमारे मस्तिष्क में ध्वनि के माध्यम से प्रविष्ट हो दुर्गन्ध फैला देते हैं। ध्वनि को ध्वनि के माध्यम से ही निकाला जा सकता है। हम ध्यान करने बैठते हैं, अनुष्ठान में बैठ हैं तो हमारे मस्तिष्क में बाल्यावस्था में हुआ अपमान चेतना पटल पर आ जाता है और हम विचलित हो उठते हैं। मस्तिष्क में एकत्रित इन अनुपयोगी ध्वनि रूपी कचरे को दिव्य मंत्र जाप के द्वारा ही निकाला जा सकता है। वेद मंत्र कुंजी हैं मस्तिष्क में स्थापित विभिन्न देव कोषों के दरवाजों की शरीर एवं मस्तिष्क में उपस्थित प्रत्येक कोशिका खुलती और बंद होती है। ठीक वैसे ही जैसे कि कमल का पुष्प कली से खिलकर सम्पूर्ण रूप धारण करता है। यहीं पद्म कला है। से लेकर गुदा भाग तक प्रत्येक अंग और कोशिका पद्म के समान ही खुलती और बंद होती है। इसीलिए महालक्ष्मी कमल पर आरूढ़ हैं भगवान विष्णु के साथ मंत्र शक्ति के द्वारा सभी देव कोष खुल जाते हैं एवं उनके मध्य दिव्य शक्तियाँ साक्षात विराजमान दिखाई पड़ने लगती हैं इसके अलावा कोई और दूसरा माध्यम नहीं है।
मस्तिष्क की अनंत क्रियाओं को संचालित करने का प्राचीन काल से ऋषियों ने मंत्र शक्ति के महत्व को समझकर इसे अपनी दिनचर्या में शामिल किया है। साधक का तात्पर्य है पारंगतता पारंगतता एक दिन का विषय नहीं है। इसे प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन नियमित रूप से मंत्रोच्चार का अभ्यास करना पड़ेगा मंत्रोच्चार को हौआ न बनाकर शालीनता के साथ प्रतिदिन बाल्यावस्था से ही इसे धारण करना चाहिए। एक दिन में कोई साधक नहीं बन जाता। यही विधान सनातनियों में अनंत वर्षों से चला आ रहा है। 40 वर्ष की उम्र में दीक्षा सम्पन्न होगी और फिर मंत्रोच्चार प्रारम्भ होगा तो फिर असहजता तो दिखाई पड़ेगी ही। खैर शुरू तो करना ही पड़ेगा।
मंत्र शब्द बड़ा ही व्यापक है इसके अंतर्गत अनंत वर्षों में अनगिनत अनुसंधान हुए हैं प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक मंत्र सिद्ध हो जाये ऐसा भी जरूरी नहीं है। वैदिक मंत्र मूल स्तोत्र है। कालान्तर इन्हीं से तांत्रोक्त, साबर, औघड़ और अन्य प्रकार के मंत्रों का जन्म हुआ। वेद मंत्रों में ब्रह्माण्डीय समग्रता है। संस्कृत सामान्य भाषा न होकर दैव भाषा है। अतः मैं वेद मंत्रों को ही प्रमुखता देता हूँ। साबर मंत्र व्यक्ति विशेष के लिए कारगर हो सकते हैं परन्तु इनका हस्तांतरण मूल रूप में सम्भव नहीं है। यह व्यक्ति विशेष की शक्ति पर निर्भर करते हैं। मुख्य रूप से मंत्र गुप्त परामर्श हैं आपके और दिव्य शक्ति के बीच जिन्हें मंत्र सिद्ध हो जायें उनके लिए मंत्रोच्चार अत्यंत ही सहज और सरल हैं। मंत्रोच्चार यांत्रिक क्रिया नहीं हैं। मंत्रोच्चार के समय श्रद्धा, भक्ति, भाव और समर्पण का होना नितांत आवश्यक है।
मंत्र गुरु मुख से प्राप्त करना चाहिए। गुरु के द्वारा लिखकर दिया गया मंत्र भी कारगर होता है इसके अलावा ब्रह्माण्ड से भी मंत्र प्राप्त होते हैं। गुरु अगर सशरीर है तो फिर उनके मुख से प्राप्त कीजिए अन्यथा परमेष्ठि गुरु आकाश मार्ग के द्वारा भी प्रदान कर देते हैं। मंत्रानुष्ठान स्वयं ही करना चाहिये। यह सर्वोत्तम कल्प है। यदि श्री गुरुदेव ही कृपा करके कर दें तब तो पूछना ही क्या। यदि ये दोनों सम्भव न हों तो परोपकारी, प्रेमी, शास्त्रवेत्ता, सदाचारी ब्राह्मण के द्वारा भी कराया जा सकता है। अनुष्ठान का स्थान इन स्थानों में से कोई होना चाहिए। सिद्धपीठ, पुण्यक्षेत्र, नदीतट, गुहा, पर्वतशिखर, तीर्थ, संगम, पवित्र जंगल, एकान्त उद्यान, बिल्ववृक्ष, पर्वत की तराई, तुलसीकानन, गोशाला (जिसमें बैल न हो), देवालय, पीपल या आँवले के नीचे, पानी में अथवा अपने घर में मंत्र का अनुष्ठान शीघ्र फलप्रद होता है। सूर्य, अग्नि, गुरु, चन्द्रमा, दीपक, जल, ब्राह्मण और गौओं के सामने बैठकर जप करना उत्तम माना गया है।
यह नियम सार्वभौमिक नहीं है। मुख्य बात यह है कि जहाँ बैठकर जप करने से चित्त की ग्लानि मिटे और प्रसन्नता बढ़े, वही स्थान सर्वश्रेष्ठ है। घर से दस गुना गोशाला, सौगुना जंगल, हजारगुना तालाब, लाख गुना नदी तट, करोड़ गुना पर्वत, अरबों गुना शिवालय और अनन्त गुना गुरु का सन्निधान है। जिस स्थान पर स्थिरता से बैठने में किसी प्रकार की आशंका अथवा आतंक न हो, म्लेच्छ, दुष्ट, बाघ, साँप आदि किसी प्रकार का विघ्न न डाल सकते हों, जहाँ के लोग अनुष्ठान के विरोधी न हों, जिस देश में सदाचारी और भक्त निवास करते हों, किसी प्रकार का उपद्रव अथवा दुर्भिक्ष न हो, गुरुजनों का सानिध्य और चित्त की एकाग्रता सहजभाव से ही रहती हो, वही स्थान जप करने के लिये उत्तम माना गया है। यदि किसी साधारण गाँव अथवा घर में अनुष्ठान करना हो तो पहले कूर्म भगवान का चिन्तन करना चाहिये। जैसे कूर्म भगवान की पीठ पर स्थित मन्दराचल के द्वारा समुद्रमन्थन किया गया था, वैसे ही मैं कूर्मा कार भूमिप्रदेश में स्थित होकर उन्हीं के आश्रय से अमृतत्व की प्राप्ति के लिये प्रयत्न कर रहा हूँ। ऐसी भावना करनी चाहिये ।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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