निकल पड़ा गोलोक से एक नील आभा लिए हुए दिव्य पुंज, चल पड़ीं श्रीराधा पृथ्वी मण्डल में अवतरित होने हेतु इस नील आभा युक्त दिव्य पुंज को चारों तरफ से आवृत्त की हुई छोटी-छोटी नीली रश्मियाँ भी उतर पड़ीं वज्र मण्डल के गोप ग्रामों में यह कैसा आश्चर्य? यह कैसी आभा ? समस्त ऋषि मुनि कह उठे। कौन अवतरित हो रहा है पृथ्वी पर इस हेतु सब उत्सुक हो उठे, देखते ही देखते गोप भण्डल के अनेकों घरों में कुछ-कुछ क्षणों के अंतराल के पश्चात दिव्य बालिकाएं उत्पन्न होने लगीं। लगातार एक वर्ष तक वज्र मण्डल के सभी गोपों के यहाँ केवल दिव्य बालिकाएं ही उत्पन्न होती रहीं, एक भी बालक उत्पन्न नहीं हुआ।
प्रसूति गृह अचानक दिव्य आभा से भर उठता, सब मूर्च्छित हो जाते और जैसे ही होश आता नन्हीं सी बालिका माता के बगल में खेलती हुई मिलती एक वर्ष तक लगातार इसी प्रकार अयोनिज शिशुओं के रूप में बालिकाएं उत्पन्न होती रहीं गोप मण्डल में सबकी सब नीली आभा लिए हुए अति सुन्दर, जैसे ही बालिकाओं का जन्म होता झुण्ड के झुण्ड मयूर प्रसूति गृह पर आ बैठते और मयूर पिच्छ गिराने लगते, सभी बालिकाएं मयूर पिच्छ के ऊपर ही शयन करतीं, उन्हीं से खेलती, उन्हें ही हाथ में पकड़तीं। वृषभानु गोप के यहाँ श्रीराधिका का अवतार होते ही करभाजन, श्रृंगी, शाण्डिल्य, गर्ग एवं दुर्वासा मुनि आ पहुँचे । वृषभानु गोप बेचारा क्या जाने ? अतः वे कह उठे हे ऋषियों आप के तो दर्शन भी दुर्लभ हैं, आपके दर्शन हेतु तो जातक पता नहीं कहाँ-कहाँ भटकता है पर आप पाँचों स्वयं चलकर मेरे घर आये, क्या मुझसे कोई अपराध हो गया है ?
परम क्रोधित दुर्वासा फूट-फूट कर रोने लगे, दूसरों को श्राप देने वाले, आँखों से सदा क्रोध की ज्वाला बरसाने वाले दुर्वासा को फूट-फूट कर रोता देख वृषभानु गोप घबरा गये करभाजन ऋषि प्रसिद्ध हस्तरेखा विशेषज्ञ थे एवं बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट भी अपनी हस्तरेखा उन्हें दिखाने हेतु कतारबद्ध थे आज वही करभाजन ऋषि भूमि पर बैठे हुए श्रीराधिका के कर कमलों को देखने हेतु इतने उत्सुक और आतुर हुए जा रहे थे कि प्रसूति गृह की अपवित्रता को भी भूल बैठे थे। हे वृषभानु दया करके एक बार मुझे इस बालिका का हाथ दिखा दो वे विनती कर रहे थे। वृषभानु दया करके बालिका के प्रकट होने का समय बताओ श्रृंगी ऋषि बोल उठे, मुझे अतिशीघ्र इसकी जन्मकुण्डली बनानी है मुझ पर दया करो, उपभानु, जन्मकुण्डली विशेषज्ञ श्रृंगी ऋषि बोल उठे। लक्षणविज्ञान में निपुण शाण्डिल्य ऋषि बालिका के सम्पूर्ण अंगों का निरीक्षण करने हेतु लालायित हो रहे थे, दास पर दया करो वृषभानु शाण्डिल्य बोल उठे।
जिन गर्ग मुनि को बालक के जात कर्म संस्कार हेतु बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट आदरपूर्वक बुलाते थे वे आज स्वयं नवजात श्रीराधिका के जन्म संस्कार हेतु वृषभानु गोप के दरवाजे पर सेवकों की भांति खड़े थे। वे सब समझ रहे थे पंचम् पुरुषार्थ स्वरूपा का सामर्थ्य एवं एक साथ आल्हाद कर उठे देखो गर्ग इस बालिका के गुरु पर्वत पर तो चक्र बना हुआ है अर्थात यह साक्षात् चक्रकणायिका है पृथ्वी के समस्त शूलों को हर लेगी, शिव को भी निर्विध कर देगी। देखो शाण्डिल्य देखो करभाजन कह उठे इस बालिका के गुरु पर्वत के अंत से लेकर शनि पर्वत तक कितनी सुन्दर चन्द्राकार रेखा बन रही है इसे कहते हैं कृष्ण रेखा. विशुद्ध प्रेम की रेखा। मैंने आज तक किसी शिशु के हाथ में ऐसी रेखा नहीं देखी। यही कृष्ण की शक्ति है, यही उनकी अर्धांगिनी है, यही श्रीकृष्ण मनोहारिणी है। देखो दुर्वासा देखो शनि पर्वत के नीचे कैसी विचित्र रेखा, इसे कहते हैं महाकाल रेखा यह कालों से भी परे है, काल भी इनके आगे नतमस्तक होगा। इनकी मस्तिष्क रेखा तो चन्द्र पर्वत को भी पार कर गई है अतः यह समस्त पृथ्वी मण्डल में प्रेम का संचार करेंगी जिधर से निकल जायेंगी सब इनके वशीभूत हो पीछे चल पड़ेंगे, जिधर दृष्टि उठायेगीं वहाँ हिंसा भाग खड़ी होगी, इनकी दृष्टि में हिंसक पशु भी आ गया तो वह भी हिंसा से परे हो जायेगा।
इतनी गहरी हृदय रेखा और वह भी सम्पूर्ण हथेली पर बनी हुई अतः यह पूर्ण हृदया हैं। गुरु पर्वत से प्रारम्भ होकर हथेली के अंत तक जाने वाली सीधी हृदय रेखा तो सिर्फ रासेश्वरी के हाथ में ही हो सकती है वर्ना इस पृथ्वी पर तो आधी-अधूरी, घिसी-पिटी, कटी फटी, पतली पतली हृदय रेखा वाले जातक ही देखने को मिलते हैं करभाजन कह उठे “यही हैं राधा-यही हैं राधा" श्रृंगी ऋषि बोले हे गर्ग क्या बांचू मैं इनकी जन्मकुण्डली यह तो स्वयं ही ब्रह्माण्ड की कुण्डलिनी शक्ति है। समस्त ग्रह हाथ जोड़े खड़े हुए हैं, सब इनके पुजारी हैं।
इनकी जन्मकुण्डली में शनि स्पष्ट कर रहा है कि मैं तो प्रभु श्रीकृष्ण का दास हूँ, वे मेरे इष्ट हैं। प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति मैंने नहीं छोड़ी भले ही मेरी पत्नी ने मुझे श्राप दिया मुझे श्राप मंजूर हैं पर प्रभु श्रीकृष्ण से विमुखता मंजूर नहीं। मैं तो रासेश्वरी का परम भक्त हूँ जो कोई राधा के मार्ग पर चलता है उसकी तो मैं पग-पग पर सहायता करता हूँ तभी तो रासेश्वरी मुझे रास मण्डल में स्थान देती हैं और मैं शिला बनकर अपने प्रभु श्रीकृष्ण के स्पर्श हेतु रास मण्डल में खड़ा रहता हूँ।
राहु बोल उठा मुझे तो देवत्व का दर्जा ही प्रभु श्रीकृष्ण ने दिया है, राक्षस से देवता बनाया है, सुदर्शन चक्र से संस्पर्शित किया है अतः मैं भला क्यों नीच स्थान पर बैठूं? मुझे क्या पड़ी है ? मैं तो गुरु के साथ बैठूंगा। गुरु राहु की युति जातक को परम अध्यात्मवादी एवं दार्शनिक बनाती हैं। राधा तो मेरी इष्ट हैं, इनके हाथ में तो त्रिशूल बना हुआ है ये गुरु स्वरूपिणी हैं, इन्हें भला मैं क्या शूल दूंगा? जब क्रूर ग्रह ही अनुकूल हो गये, भक्ति करने लगे तब भला क्या बांचू इनकी जन्मकुण्डली? श्रृंगी कह उठे ये तो स्वयं परब्रह्म परमेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण रूपी विधाता का भाग्य हैं, सौभाग्य हैं।
यही कारण है कि पंचम पुरुषार्थ की उपासना करने वाले अर्थात प्रेम के मार्ग पर चलने वाले, राधा के मार्ग पर चलने वाले जातकों पर हिंसक, क्रूर ग्रह भी क्रियाशील नहीं होते, वे सदैव अनुकूलता ही बरसाते हैं। बड़ी मजे की बात है चल पड़ी मीरा प्रेम पथ पर, राणा क्रोधित हो उठा और उन्हें भूत महल में रहने की आज्ञा दी। भूत महल अभिशत था एवं अतृप्त आत्माओं, प्रेतों, पिशाचों का वह भुवन था। राणा ने सोचा चलो बला टली, भूत महल के वासी मीरा का काम तमाम कर देंगे परन्तु हुआ उल्टा, मीरा ने भूत महल में प्रारम्भ कर दी श्रीराधिकोपासना बस देखते ही देखते भूत महल आबाद हो उठा एवं भूत-प्रेत खुशी से नाचने लगे और कह उठे लो आ गईं राधा। अब हमें मुक्ति मिलेगी, अब हम समस्त अभिशप्तताओं से, पाप कर्मों इत्यादि से सदा के लिए मुक्त हो जायेंगे, हमारे बंधन कट जायेंगे, हम भी उच्च लोकों को प्राप्त होंगे और ऐसा ही हुआ। मीरा ने जैसे ही तानपुरे पर कृष्ण राग का अलाप किया भूत महल देव महल में परिवर्तित हो गया एवं भूत प्रेत देवत्व को प्राप्त हो गये।
जिस भूत महल से अट्ठाहास, चीखने चिल्लाने, रोने की आवाजें आती थीं, दुर्गन्ध आती थी, भयावहता झलकती थी वहीं अब अष्टगंध की खुशबू, जूही चंपक के पुष्पों की खुशबू आने लगी, दिव्य प्रकाश फैल उठा, देव शक्तियाँ दर्शन देने लगीं भूत महल को आबाद देख राणा चकरा गया और कह उठा यह क्या? हाँ पृथ्वी या ब्रह्माण्ड जब-जब भूत महल में परिवर्तित होता जाता है, मनुष्य का मस्तिष्क जब-जब भूत ग्रस्त होता जाता है, उसमें से सड़ान्ध आने लगती हैं। तब तब श्री राधिका अवतरित, हो पुनः भूत महल बने भूत ग्रह बने इस लोक को पवित्र करती हैं, प्रेम सुधा की धारा बिखराती हैं।
श्रीराधिका गोलोक मण्डल की अधिष्ठात्री हैं एवं वहाँ सिर्फ एक ही ग्रह क्रियाशील है और वह है कृष्ण ग्रह पंचम पुरुषार्थ के मार्ग में चलने वाले जातक पर एकमात्र ग्रह क्रियाशील होता है जिसका नाम है कृष्ण ग्रह कृष्ण की ही अंतर्दशा, कृष्ण की ही महादशा, कृष्ण का ही मार्केश, कृष्ण ग्रह का ही राज योग जब अंगूठे के निचले पोर पर यव बन जाये तो समझ लेना चाहिए कि जातक पंचम् पुरुषार्थ सिद्ध होगा, प्रेम के मार्ग पर चलेगा, श्रीराधिका का गोप बनेगा, सदैव चौदह वर्ष का रहेगा एवं उसे कृष्ण ज्वर लगेगा। वह जब कभी पीड़ित होगा तो कृष्ण ज्वर से ही पीड़ित होगा, उसे कृष्ण की ही नजर लगेगी, उसे कृष्ण का ही ताबीज पहनना होगा, उसे कृष्ण से ही कष्ट होगा, कृष्ण से ही सुख होगा, जीवन में जो कुछ योग भोग-सम्भोग होगा वह कृष्ण ग्रह के माध्यम से होगा कृष्ण के नाम से बदनाम, कृष्ण के नाम से ख्याति, कृष्ण के नाम से ही लांछन उसे लगेगा, जानेंगे उसे तो सिर्फ कृष्ण के नाम से ही यह है श्री राधिका का जन्म कुण्डली विवेचन कृष्ण के रंग में रंगा हुआ, कृष्ण के नाम से ही बदनाम, कृष्ण के नाम से ही विख्यात और कुछ नहीं, जो कुछ होगा सब कृष्णमय होगा।
चलो हम सब मिलकर अब प्रभु श्रीकृष्ण को ढूंढे वे भी यही कहीं उदित हुए होंगे जब श्री राधिका आ गईं तो कृष्ण भी आये होंगे दुर्वासा, गर्ग, शाण्डिल्य, श्रृंगी, करभाजन ऋषि कह उठे। अब समय नहीं है वेद बांचने का, आँख मूंदकर तपस्या करने का माला जपने का पत्थर पूजने का, योग करने का, धूनि रमाने का अब तो साक्षात् दर्शन का समय आ गया है. अब क्या जरुरत फालतू प्रपंचों की और चल पड़े पाँचों ऋषि कृष्ण को ढूंढने गोप मण्डल में जहाँ राधा वहीं श्रीकृष्ण घोर संघर्ष हुआ महाभारत के युद्ध के पश्चात्, कृष्ण की दस हजार चौंसठ रानियाँ थीं एवं उनसे दस हजार से भी ज्यादा पुत्र उत्पन्न हुए पर क्या हुआ? कृष्ण ने अपने सामने ही सबको नष्ट करवा दिया, कृष्ण कुल में कोई नहीं बचा न पुत्र न पौत्र न प्रपौत्र अन्यथा इस पृथ्वी पर पंचम पुरुषार्थ सदा के लिए स्थापित हो जाता, यह पृथ्वी प्रेममयी हो जाती, दूसरा गोलोक मण्डल बन जाता और तो और श्रीकृष्ण ने श्रीराधिका से भी कोई संतान उत्पत्ति नहीं की, सात्विकता बनाये रखी अन्यथा कृष्णत्व पृथ्वी पर भी पल्लवित हो जाता।
गोलोक धाम गमन से पहले लीलाधारी अपने साथ सबको ले गये एवं पृथ्वी मण्डल पर किसी को नहीं छोड़ा, । बस एक झाँकी दिखाई, एक दृश्य दिखाया, वास्तविकता का एहसास कराया और पुनः हे कुल विद्ये, हे राधिके तेरी ही प्रसन्नता हेतु, तेरे ही निर्देशन में कृष्ण सबकुछ समेटकर पुन: तेरे कुलधाम को वापस चले गये । तूने उन्हें कुल से निकलने नहीं दिया, निकलने की कोशिश तो कृष्ण बहुत करते हैं परन्तु तू निकलने नहीं देती। उनकी निकलने की कोशिश, उनकी भागने की कोशिश और पुनः तेरे द्वारा उन्हें. अपने कुल में विद्यमान कर लेने के मध्य में ही भगवत लीला का अविष्कार होता है। कृष्ण का क्या? वह तो जिसे देखो उसका होने लगता है, भक्त के पीछे भागना कृष्ण की आदत है गजब की विद्या है कुल विद्या उसने तुझे डिगाने के लिए दस हजार चौंसठ रानियों से विवाह किया पर फिर भी नहीं निकल सके तू जो निकलने दे उन्हें भक्तों के बर्तन मांजने लगते हैं, दास बन जाते हैं, किसी के पति बन जाते हैं, किसी के पुत्र बन जाते हैं, किसी के भाई बन जाते हैं, किसी के सखा बन जाते हैं, कभी तलवार हाथ में लेकर युद्ध करने लगते हैं, कभी - सुदर्शन चक्र उठा मारने दौड़ते हैं, कभी गौए चराने लगते हैं, कभी कुछ तो कभी कुछ पर तू उन्हें कहीं नहीं उलझने देती।
हे रासेश्वरी कहीं उन्हें टिकने नहीं देती तू और समेट ही लेती है अपने आलिंगन में । कृष्ण का क्या ? वे तो जिसे देखो उसके गले में बांहें डालने लगते हैं पर अंत में होता कुछ नहीं है, घूम फिरकर तेरे पास लौट आते हैं। गीता सुनाते हैं, मथुरा बसाते हैं, द्वारका बसाते हैं परन्तु किसी भी जगह तू उसे स्थिर नहीं रहने देती है बस क्षण दो क्षण के लिए घूमने फिरने देती है और पुनः उनका अतिक्रमण कर लेती है अपने श्रीराधिका भुवन में और अंत में ले देकर यही होता है श्री राधा के कृष्ण सम्हालती तो कृष्ण को तू ही है। न देवकी सम्हाल पायीं, न यशोदा सम्हाल पायीं, न रुक्मिणी सम्हाल पायीं, न अर्जुन सम्हाल पाये सम्हाला सिर्फ राधा ने यही है कुल विद्या श्रीराधा के कुल में ही कृष्ण पल्लवित हैं, वहीं फल-फूल रहे हैं अन्य कहीं नहीं। वहीं कृष्ण रूपी फल लगा हुआ है, वहीं पंचम पुरुषार्थ है।
दुशाःसन द्रोपदी का चीर हरण कर रहा था द्रोपदी कह उठी हे द्वारकाधीश हे मथुरेश, हे रुक्मिणी पति मेरी रक्षा करो पर कृष्ण नहीं आये। द्रोपदी पुनः कातर स्वरों में विलाप कर बोली हे जगत गुरु मेरी रक्षा करो फिर भी कृष्ण प्रकट नहीं हुए परन्तु जैसे ही कृष्णा के मुख से निकला हे राधेश्वर कुछ करो, कृष्ण प्रकट हो गये और अम्बर का अम्बार लग गया। कृष्ण ने झुंझलाकर कहा हे कृष्णा किन नामों से पुकार रही थीं मुझे। मैं तो तेरे हृदय में रहता हूँ, हृदय पुकारतीं, मेरी आल्हादिनी शक्ति के नाम से पुकारा तो मैं आ गया अन्यथा नहीं आता। श्रीराधिका को गोलोक मण्डल में मालूम चला कि कृष्ण अपनी द्वितीय पत्नी विरजा के साथ निकुंज लीला कर रहे हैं तो वे क्रोधित हो उठीं। गोलोक में कृष्ण की तीन अधिष्ठात्री शक्तियाँ हैं प्रथम राधिका, द्वितीय विरजा एवं तृतीय भूदेवी। परब्रह्म कृष्ण की लीला । क्रोधित श्रीराधिका जी अपनी असंख्य गोप सखियों के साथ चल पड़ीं विरजा निकुंज की ओर एवं देखा कि दरवाजे पर श्रीदाम पहरा दे रहा है बस क्रोध वश श्री राधिका की गोपियों ने श्रीदाम की बेंतों से पिटाई शुरु कर दी। कोलाहल सुन परब्रह्म परमेश्वर अंतर्ध्यान हो गये और विरजा नदी के रूप में परिवर्तित हो गईं।
श्री राधिका वापस आ गईं एवं कृष्ण को अपने समीप पा बोलीं आपकी प्रेयसी तो नदी बन गई अब आप नद बन जाइये, वहीं जाईये यहाँ क्या रखा है ! श्री राधिका मान ही नहीं रही थीं एवं कृष्ण अपने कुल से बाहर कर रही थीं आखिरकार श्रीदाम बोल उठा हे माता प्रभु परब्रह्म परमेश्वर हैं आप उनसे क्यों रूठती हो? वे आप जैसी अनंत शक्तियाँ बना सकते हैं बस फिर क्या था ? श्री राधिका कुपित हो उठीं और बोली रे मूढ़, राक्षसों के समान बात करता है जा राक्षस कुल में उत्पन्न हो जा और श्रीदाम को कुल से बाहर कर दिया। महाविष्णु क्या हैं? वे तो श्रीराधिका एवं श्रीकृष्ण के प्रथम मिलन के तेज से उत्पन्न प्रथम पिण्ड हैं जिन्हें कि श्री राधिका ने त्याग दिया है और बाद में श्रीकृष्ण ने अपने वरदान से उन्हें विराट महाविष्णु में परिवर्तित किया। पुत्रोत्पत्ति, संतानोत्पत्ति श्री राधिका ने स्वीकार नहीं की जो कुछ हैं सिर्फ कृष्ण हैं। विरजा ने कृष्ण से पुत्र उत्पन्न कर लिए कृष्ण और विरजा के सात पुत्र उत्पन्न हुए एवं एक दिन बड़े पुत्रों ने छोटे पुत्रों को मारना शुरु कर दिया। रोते हुए छोटे पुत्र श्री विरजा के पास आये, विरजा उलझ गईं पुत्रों में और कृष्ण अंतध्यान हो गये कुपित विरजा ने कहा है पुत्रों जाओ तुम सातों समुद्र में परिवर्तित हो जाओ, तुमने मेरा कृष्ण वियोग कराया है, तुम लोगों का भी सदा आपस में वियोग रहेगा और सातों पुत्र सात समुद्र में परिवर्तित हो गये एवं अलग-अलग दिशा में बहने लगे, केवल प्रलयकाल में ही एक हो पाते हैं। विरजा के कुल में श्रीकृष्ण स्थापित नहीं हो पाये, ले देकर श्रीकृष्ण श्री राधा का ही विषय हैं। साधक एक बात अच्छी तरह समझ ले कि परब्रह्म परमेश्वर हैं किस कुल में ? तभी वह उन्हें प्राप्त कर सकता है।
तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा
शिव शासनत: शिव शासनत:
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