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ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं भुवनेश्वर्यै नमः ।।

          गुरुजी एक कहावत कहा करते थे कि अगर गीदड़ों की फौज हो और सेनापति सिंह हो तो फौज जीत जायेगी परन्तु अगर सिंहों की फौज हो एवं सेनापति गीदड़ हो तो फौज का हारना निश्चित है। राज राजेश्वरी विज्ञान अधिनायक वाद पर आधारित है अर्थात (One man show)। लोगों का समूह कभी भी नेतृत्व की नैसर्गिक क्षमता प्रदान नहीं कर पाया। सबसे बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह चाहे किसी भी विभाग से सम्बन्धित संस्था क्यों न हो, देश क्यों न हो, विश्व क्यों न हो इत्यादि उन सबके सामने एक व्यक्ति आधारित नेतृत्व की क्षमता ही सबसे बड़ा प्रश्नवाचक चिन्ह है। इसी को लेकर समस्त विश्व एवं समस्त ब्रह्माण्ड में समय-समय पर अनुसंधान होते रहते हैं।

         वंशवाद की परम्परा बिखर गई, राजवंश टूट गये या शिथिल पड़ गये क्योंकि उनमें नै: सर्गिक नेतृत्व की क्षमता का अभाव हो गया। आप इसे यूं समझिए कि जीवन सूत्र या अनुवांशिकी संरचना के अंदर अति सूक्ष्मतम् नेतृत्व सम्बन्धित ऊर्जा के गोपनीय प्रवाह की कई पीढ़ियों तक स्थिर बनाये रखने के लिए परम गोपनीय संसाधनों की जरूरत पड़ेगी क्योंकि वंशवाद भी मिश्रण से ही उत्पन्न होता है अतः वह गोपनीय प्रयास क्या है? जिसके द्वारा एक विशेष वंश में नेतृत्व की क्षमता कई पीढ़ियों तक सुस्थिर रखी जा सकती है। यहाँ पर आकर आपको माँ भुवनेश्वरी के चरण पकड़ने पड़ेंगे। साथ ही साथ अगर वंश परम्परा में नेतृत्व प्रदान करने का गुण विद्यमान है तो उसे उभारने के लिए पुनः क्रियाशील करने के लिए भी माँ भुवनेश्वरी का सहारा लेना पड़ेगा एवं भुवनेश्वरी रहस्यम् को समझना पड़ेगा। 

       इसके अभाव में आज तक जितने भी प्रयत्न किए गये सब विफल हो गये। समस्त विश्व ने प्रजा- तंत्र अपनाया उन्हें उम्मीद थी कि शायद प्रजातंत्र उन्हें नैसर्गिक नेतृत्व की क्षमता करने वालों को प्रदान कर देगा। तंत्र की बुराई होती है तो फिर प्रजातंत्र की भी बुराई करो क्योंकि उसमें भी तंत्र शब्द जुड़ा हुआ है। विश्व के किसी भी कोने में प्रजातंत्र नैसर्गिक नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता में घोर असफल सिद्ध हुआ है। स्वयं के देश को देख लीजिए पिछले पचास वर्षों में आपके तथाकथित प्रजातंत्र ने कितना नैसर्गिक नेतृत्व प्रदान किया है फिर कम्युनिष्ट आये, बेसिर पैर की बात करते हैं। ये तो भुवनेश्वरी के बिल्कुल खिलाफ चलते हैं। सब बराबर, सब एक जैसे जैसी बेवकूफी पूर्ण नारे देते हैं। हड़ताल, सत्याग्रह आतंक, रक्तरंजित क्रांति, हिंसा और इन सबसे बढ़कर नैसर्गिक नेतृत्व की प्रणाली का ही दमन यही इन्होंने सौ वर्षों में किया। आज इनके हाल क्या हैं? जहाँ से शुरु हुए थे जहाँ इन्होंने नये-नये भगवान बनाये थे उसी रूस एवं मध्य एशिया के सभी देशों में लोगों ने इन्हें उखाड़कर नाली में फेंक दिया, इनका अनुसंधान विफल हो गया, लोग इनसे ऊब गये। 

       तानाशाही का मार्ग तो अ मार्ग है। असुर एवं मलेच्छ इसी मार्ग से शासन करते हैं और अंत में सिंहासन से घसीटकर मारे जाते हैं, जितने भी तानाशाह हुए उनका हर्ष यही हुआ। कुछ लोगों ने धर्म का मार्ग चुना शासन करने हेतु पर हुआ उल्टा। शासन तो नहीं कर पाये अपितु उनका धर्म ही समाप्त हो गया। अब आप कहोगे कि आप कहना क्या चाहते हो ? हम कुछ नहीं कहना चाहते हम कोई नया सिद्धांत नहीं बनाना चाहते, हम तो बस माँ भुवनेश्वरी की लीला का बखान आपके सामने करना चाहते हैं। ऋषि नहुष इन्द्रासन पर विराजमान हो गये इन्द्रासन पर बैठते ही, इन्द्र मुकुट धारण करते ही वे पगला गये आज के राजाओं के समान ऊटपटांग निर्णय लेने लगे, भोग वादी हो गये, बेसिर पैर के कानून बनाने लगे और तो और कामुक हो गया ऋषित्व छूटते ही कामत्व उछाल मारने लगा एवं इन्द्राणी के प्रेम पाश में बंध गये। इन्द्राणी को अपनी जीवन संगिनी बनाने हेतु बल प्रयोग पर उतर आये। यह महानाट्य माँ भुवनेश्वरी अपने ब्रह्माण्डीय नाट्य गृह में देख रही थीं, हे माँ भुवनेश्वरी तेरा नाट्य गृह तो ब्रह्माण्ड का परम गोपनीय, परम विकसित अनुसंधान शाला है जहाँ बैठकर आप असंख्य जीवों पर नित नवीन अनुसंधान करती हैं। आपके अनुसंधान का पात्र बने नहुष से जान बचाकर इन्द्राणी देवताओं के गुरु बृहस्पति की शरण में चली गईं और वहीं पर उन्होंने पुनः ह्रींकार साधना प्रारम्भ की। 

     माँ भगवती की कृपा हुई, माँ भुवनेश्वरी बोलीं हे ऋषियों आपसे किसने कहा था सिंहासना-नुसंधान करने के लिए, किसने आपको आज्ञा दी थी नहुष को इन्द्रासन पर बिठाने की, हे बृहस्पति आप तो गुरुओं के भी गुरु हैं, यह सब आपका ही किया हुआ है। खैर जाइये मेरा आशीर्वाद है नहुष का पतन होगा। बृहस्पति पहुँचे नहुष के पास और बोले हे वर्तमान के इन्द्र शचि आपसे विवाह करना चाहती हैं परन्तु एक शर्त है कि आप ऐसे सिंहासन पर विराजमान होकर उनके पास जायें जिस पर कि आज तक कोई न बैठा हो।

भुवनेश्वरी तो पंच प्रेतासन पर विराजमान हैं, शिव तो मुण्डासन पर विराजमान हैं, भैरव तो प्रेतासन पर विराजमान हैं, गणेश तो सभी पर विराजमान हैं, ऐरावत, सिंह, गरुड़, गर्धभ, मत्स्य, भूमि इत्यादि सभी सबका आसन बने हुए हैं अतः आप ऋषि आसन पर विराजमान होइये उस पर आज तक कोई नहीं बैठा है शचि आपके गले में वरमाला डाल देंगी। 

         नहुष की बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी उसने अगस्त, दुर्वासा समेत अनेक मुनियों को बुलवा लिया और वे सब नहुष को पालकी में बिठाकर चलने लगे। ऋषि आसन पर विराजमान नहुष ने एक लात अगस्त मुनि को मारी और बोला सर्प-सर्प अर्थात जल्दी-जल्दी चलो फिर उसने चाबुक से दुर्वासा पर प्रहार किया और बोला सर्प- सर्प अर्थात जल्दी-जल्दी चल आखिरकार ऋषियों का सब्र टूट गया वे उसे शाप देते हुए बोले जा अजगर बन जा, सर्प बन जा और देखते ही देखते इन्द्रलोक से नहुष का पात होने लगा वह सर्प बनकर पृथ्वी पर गिर पड़ा कालान्तर इन्द्र पुनः इन्द्रासन पर विराजमान हुए। यह कथा क्यों सुनाई ? सीधी बात है नै: सर्गिक नेतृत्व स्व विकसित होता है, उसका विकास कोई नहीं कर सकता। सिंहासन की महिमा ऐसी है कि वह स्वयं अपना उत्तराधिकारी खोज लेता है। सिंहासन एवं सिंहासना - रूढ़ का चोली दामन का साथ है। इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि सिंहासन भी श्राप देते हैं।

          ह्रींकार मंत्र का जप कर समस्त देवता, देवियाँ, गुरु, सिद्ध इत्यादि शक्तिकृत हो जाते हैं उनमें वर देने की क्षमता का विकास हो जाता है परन्तु उनकी वर देने की क्षमता अल्प कालीन होती है इसी अल्पकाल में वे अपनी वर देने की क्षमता का दुरुपयोग कर अनेकों बार अयोग्य नेतृत्व को सिंहासना - रूढ़ कर देते हैं। वर देने की क्षमता तो प्रजातंत्र में आम मनुष्य को भी हैं आप सब भी अपने वरदान से कुछ वर्षों के लिए किसी न किसी को सिंहासना रूढ़ करते हो और कालान्तर ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं अन्य देवी देवताओं की तरह पाँच वर्षों तक छाती पीट-पीट कर रोते रहते हो । पाँच वर्ष बाद पुनः वर देते हो यह सब अप्राकृतिक है। प्राकृतिक शब्द प्रकृति से बना है और मूल प्रकृति हैं माँ भुवनेश्वरी वे ही जिस पर मुकुट लगा दे वही नैसर्गिक क्षमता से युक्त आपका कल्याणकारी विष्णु ।

      घोर जल प्रलय के पश्चात वट वृक्ष के पत्ते के ऊपर एक हाथ से पाँव पकड़कर उस पाँव का अंगूठा मुँह में चूसते हुए श्री विष्णु जल के ऊपर स्थित थे। चारों तरफ जल ही जल और कुछ नहीं मुख से ह्रीं ह्रीं निकल रहा था। मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ? अरे मुझे बालक किसने बना दिया ? इस वट वृक्ष के पत्ते पर किसने लिटाकर मुझे अथाह जल में छोड़ दिया ? न कोई किनारा, न कोई पतवार, न कोई वृक्ष, न कोई मित्र इत्यादि बस चारों तरफ जल ही जल। किसने मेरी यह दशा की? इसी सोच में श्री विष्णु लगे हुए थे तभी भुवनेश्वरी अपनी सखियों के साथ पधार गईं हाथ में नन्हा सा मुकुट लिए। विष्णु के मस्तक पर मुकुट लगा दिया, उन्हें पालने में झुलाने लगीं। बोली हे विष्णु मैं ही महालक्ष्मी हूँ, मैं ही महामाया हूँ, मैं ही तुम्हारी सखि हूँ, मैं ही तुम्हारी रक्षिका हूँ, मैं ही तुम्हारी माता हूँ, मैं ही तुम्हारी शासिका हूँ, जो कुछ हूँ मैं ही हूँ। 
सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम् ।
ऊपर वर्णित भावार्थ नीचे लिखे आधे श्लोक का है जो कि माँ भगवती ने प्रलयकाल समाप्त होने के पश्चात् श्री विष्णु को दिया। श्री विष्णु की नाभि में स्थित ब्रह्मा ने इसी आधे श्लोक को एक करोड़ श्लोकों में विभाजित कर दिया और इस प्रकार सनातन श्रीमद भुवनेश्वरी की रचना हो गई।

         कालान्तर मार्कण्डेय, व्यास, मुनि दत्तात्रेय, परशुराम इत्यादि ने इन एक करोड़ श्लोकों को लगभग 18000 श्लोकों में संकलित कर दिया और इस प्रकार भुवनेश्वरी रहस्यम्, मुकुट रहस्यम्, सिंहासन रहस्यम् का आविष्कार हुआ। तत्वमसि एक शब्द है जो भुवनेश्वरी ने श्री विष्णु से कहा अर्थात मैं ही एकमात्र तत्व हूँ। चाहे तु इसे परम तत्व कहे, परा तत्व कहे या तेरी जो मर्जी आये वह कहे। इसी तत्व से समय-समय पर अनित्य तत्वों का सृजन होता है जो पुनः समय उपरांत मुझ एकमात्र तत्व में विलीन हो जाते हैं। हे विष्णु आप तो नायक हो माँ भुवनेश्वरी के नाट्यगृह के, एक ऐसे नायक जो कि अपनी निर्देशिका के आदेशों का अक्षरशः पालन करता है यहाँ तक कि आप अपनी निर्देशिका के निर्देशानुसार पशु बन जाते हो,आपका कोई स्वरूप नहीं आप तो सिर्फ निर्देशिका के आज्ञा पालक हो, दास हो इसलिए उन्हें प्रिय हो ।

           वे जो चाहती हैं तुम हूबहु वही करते हो, यही तुम्हारे मायावी होने का रहस्य है। तुमसे बड़ा नट कौन ? तुमसे बड़ा अभिनेता कौन ? पुरुष से स्त्री बन जाते हो अर्थात मोहिनी बन जाते हो, ढाई फिट के बन जाते हो अर्थात वामन बन जाते हो, नग्न हो जाते हो निर्देशिका के आदेशानुसार अर्थात ऋषभ देव बन जाते हो, वो तो तुम्हें भरी युवावस्था मे नग्न भी घुमाती हैं, ऋषभ देव के रूप में। एक बार तुम अपनी निर्देशिका का मुख देकर हँस दिए थे, तुमने हिम्मत कर ली माँ भुवनेश्वरी का मुख देखकर हँसने मुस्कुराने की मर्यादा तोड़ी, वे कुपित हो बोल उठीं जा तेरा सिर कट जाये और जब तुम थककर धनुष के ऊपर टिककर विश्राम कर रहे थे तब ब्रह्मा द्वारा भेजे गये वर्मी ने धनुष की प्रत्यंचा काट दी और तुम्हारा मुकुट युक्त शीश कट कर क्षीर सागर में लहराने लगा, तुम शीश विहीन हो गये । निर्देशिका, ब्रह्माण्ड की निर्देशिका ने तुम्हारे धड़ पर अश्व का शीश जोड़ दिया और तुम ह्यग्रीव बन गये। 

        तुम तो मत्स्य भी बने, तुम तो कूर्म भी यहाँ तक कि निर्देशिका ने तुम्हें शूकर भी बना दिया, क्या नहीं बने तुम, कभी तुम्हें ब्रह्मचारी बना देती हैं तो कभी 16000 स्त्रियों के बीच कृष्ण के रूप में रसिक बना देती हैं। तुम कुछ नहीं हो जो कुछ है निर्देशिका है, तुम तो उनके नाट्य गृह के पात्र हो। वो तो तुम्हें रुला भी देती हैं सीता के विरह में तुम फूट-फूट कर रो रहे थे, वे तो तुम्हारा मुकुट भी छीन लेती हैं, महावीर के रूप में तुम्हारा मुकुट, राजपाट सब छीन लिया, वे कहती हैं मुकुट लगाओ, सिंहासन पर बैठो तो तुम सिंहासन पर बैठते हो अन्यथा सिंहासन पर बैठते-बैठते राम के रूप में वन की खाक छानते हो । सिंहासन तो क्या पैदल युद्ध करते हो, रथ भी नहीं मिलता तुम्हें । कभी तुम्हें हंस बना देती हैं और अपने आनंद वन में तुम्हारे साथ अठखेलियाँ करती हैं, तुम हंसावतार बन उनके चरणें में पड़े प्रसाद को चुगते हो, कहानी अभी खत्म नहीं हुई है हे महानायक आगे-आगे देखो होता है क्या ? क्या-क्या बनोगे तुम, ये तुम जानो और तुम्हारी निर्देशिका ।

            गीता क्या सुनाते हो, सुनी सुनाई बातों को दोहराते हो। गीता की पटकथा को हे माँ भुवनेश्वरी तू बहुत पहले ही सुना चुकी है, तत्वमसि का उपदेश तो तू बहुत पहले ही दे चुकी है। हाँ तेरा नायक तुझसे कला लेने में माहिर हो गये है वह भी विराट रूप दिखला लेते है। बाल मुकुन्दम् बने श्री विष्णु भगवती भुवनेश्वरी के गले में पड़ी वन माला को देख रहे थे वनमाला में लगे कमल के समान वैजन्ती पुष्पों को देख बोले हे माँ ये पुष्प तो बहुत सुन्दर हैं कहाँ से लायी हैं आप। मातेश्वरी बोलीं हे विष्णु, हे बाल मुकुन्दम् मेरी माला में लगा प्रत्येक कमल रूपी पुष्प तेरे प्रत्येक अवतार का प्रतीक है। हर अवतार के पश्चात् मैं तुम्हें अपनी वनमाला में गूंथकर सजा लेती हूँ तत्पश्चात् माँ भुवनेश्वरी ने बाल मुकुन्दम् को गोद में उठा स्तन पान कराया और श्री विष्णु पुनः युद्ध के लिए तनकर खड़े हो गये ।
                            शिव शासनत: शिव शासनत:

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