कुबेर आदि दिव्य पुरुष हैं, इन्हें शिव एवं माता जगदम्बा की असीम कृपा और सानिध्य प्राप्त है। सभी ऋषियों संत गणों महात्माओं ने इन्हें आदर दिया है एवं महाभारत, वाल्मीकी रामायण, पदमपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, शिवपुराण, रुद्रयामल तंत्र में सविस्तार के साथ इनका अनेकों कल्पों में अवतरण का वर्णन किया गया है। कुबेर को सभी ने एक स्वर में संत महात्मा, यज्ञ परायण, धर्मात्मा एवं इन सबसे ऊपर उठकर प्रचण्ड, समर्पित शिव भक्त के रूप में वर्णित किया है अतः इतनी उच्च कोटि की शक्ति क्या इस प्रकार का स्वरूप ग्रहण कर सकती है जो कि आजकल मूर्ति और चित्रों में कुबेर का दिखाया जाता है। इस देश में छवि विकृत करने वालों की कमी नहीं है। शिव का मित्र, देवताओं का सहायक, यज्ञ कर्मों को सम्पन्न करने वाला योगीराज, परम तपस्वी कुबेर स्थूल, भोगी, वृद्ध कभी नहीं हो सकता। भारत भूमि तो 33 कोटि देवी देवताओं की भूमि है एवं रोज नये-नये देवी देवता पैदा होते रहते हैं। शिव और वैभव दो अलग धारायें हैं। वैभव बुरी बात नहीं है एवं भारत वर्ष ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ पर कि राजाओं ने अकल्पनीय वैभव का सानिध्य होते हुए भी भी धर्म अर्थात शिव को नहीं भूले हैं। राम, कृष्ण, युधिष्ठिर, महावीर, बुद्ध, ययाति, हरिशचन्द्र, अशोक इत्यादि से लेकर अनेक राजाओं ने वैभव, ऐश्वर्य, विलासिता, धन होते हुए धर्म का मार्ग पकड़ा, धर्म को समर्पित हो गये। महाराजा रणजीत सिंह, वीर शिवाजी महाराणा प्रताप इत्यादि राजाओं ने अपना सर्वस्व धर्म को समर्पित किया। धर्म भूमि की यही विशेषता है एवं इस प्रकार के विहंगम दृश्य केवल भारत वर्ष में ही देखने को मिलते हैं। यही धन का, वैभव का सदुपयोग है, यही मुक्ति का मार्ग है, यही कुबेर तंत्र का मर्म है। कुबेर तंत्र से ही इस प्रकार के धर्म प्रेमी शासक निकलते हैं और कुबेर तंत्र के अभाव में रावण, कुम्भकरण, मेघनाथ जैसे असुर उत्पन्न होते हैं जिनका पतन निश्चित होता है।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त विभिन्न भौतिक भण्डारों, निधियों एवं पदार्थों का प्रबंधन, दोहन, उपयोग मनुष्य का मूलभूत अधिकार है। जीवन को सुलभ, सरल, मनोरंजक, आनंदमयी बनाने का हर व्यक्ति को सम्पूर्ण अधिकार है। कुबेर साधना के माध्यम से, कुबेर तंत्र के द्वारा शिव के महात्मय् को समझकर जीवन को शिवमयी बनाने से व्यक्ति एक अच्छा भोगकर्ता बन सकता है। पंचभूतीय शरीर भोग का एक श्रेष्ठतम मार्ग है। धनवान होना अपराध नहीं है, ज्ञान वान होना अपराध नहीं है, सिद्धि प्राप्त करना अपराध नहीं है, खोज, करना भी अपराध नहीं है अपितु यह सब तो जीवन की श्रेष्ठता का प्रतीक हैं। आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, सौन्दर्य उपासना, सौन्दर्य को आत्मसात करने की कला तो मनुष्य को श्रेष्ठतम मार्ग पर ले जाती है एवं इन्हीं सब कारणों से क्लेश, युद्ध, आक्रोश, हिंसा इत्यादि का जीवन में क्षय होता है। विस्तृत होने की प्रक्रिया ही मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ बनाती है।
धन का विस्तारीकरण ही किसी देश की सम्रद्धता का प्रतीक है। वही राष्ट्र या समुदाय ज्यादा हितकर मनुष्यों के लिए होता है जहाँ पर धन की प्रचुरता होती है, सौन्दर्य होता है, ज्ञान विज्ञान होता है। अनुपयोगी को उपयोगी में बदलने की कला ही कुबेर विज्ञान है एवं यही समृद्धि का सूचक है। धन प्रचण्ड शक्ति है, धन के माध्यम से रेगिस्तान को भी नखलिस्तान में परिवर्तित किया जा सकता है, मरु भूमि में भी नहर बनाई जा सकती है। धन के माध्यम से मनुष्य में मौजूद असीमित ऊर्जा भण्डार को किसी भी विहंगम क्रांतिकारी रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। धन के अभाव में मानव समुदाय में एकता असम्भव में है। मनुष्यों को एक जुट करके कर्म का सम्पादन धन के अभाव में कदापि नहीं किया जा सकता। साधना के माध्यम से मनुष्य को विशेष पराइन्द्रिय शक्तियां प्राप्त होती हैं। लोग भूमि के नीचे जल का पता लगा लेते हैं, भूमि के नीचे छिपे हुए धन का पता भी कुबेर साधना के माध्यम से लगाया जा सकता है। धन की चोरों से रक्षा, उसका अनावश्यक क्षय भी कुबेर साधना के माध्यम से रोका जा सकता है। औषधियों के गुण, भूगर्भ सिद्धि में कुबेर साधना अत्यंत ही हितकर है। भविष्यवाणी विशेषकर मौसम सम्बन्धी कुबेर यंत्र के माध्यम से ही की जाती है। आकस्मिक धन प्राप्ति, अनायास भाग्योदय, अचानक सहायता प्राप्तार्थ कुंबेर साधना महत्वपूर्ण है।
कुबेर रहस्यम्
प्राचीन काल में धर्म दत्त नाम के एक ब्राह्मण थे वे विष्णु के द्वादक्षर मंत्र का पूर्ण निष्ठा के साथ अनुष्ठान एवं जप किया करते थे। एक दिन वे प्रातः काल पूजन सामग्री लेकर मंदिर की तरफ जा रहे थे तभी रास्ते में एक राक्षसी दिखाई पड़ी जो कि पूर्व जन्म के पाप कर्मों के कारण यह दशा भोग रही थी। विष्णु दत्त कांप उठे एवं उन्होंने तुरंत ही जल अभिमंत्रित कर उस राक्षसी पर फेंक दिया। दूसरे ही क्षण उस राक्षसी के अंदर से एक दिव्य दैवीय स्वरूप निकल पड़ा और विष्णु लोक से आये यान पर सवार हो वह प्रस्थान कर गईं। यह है संसर्ग की महिमा संकर्षण के अंदर संसर्ग छिपा हुआ है।
एक और अद्भुत कथा है संसर्ग की प्राचीन काल में एक चोल राजा अनन्य विष्णु भक्त थे। विष्णु की कृपा से उनके राज्य में दुख, दरिद्रता निर्धनता का नामों निशान नहीं था। राजा के राज्य में विष्णुदास नामक एक अनन्य विष्णु भक्त ब्राह्मण था जो कि प्रतिदिन विष्णु की पूजा तुलसी दलों से करते थे। एक दिन मंदिर में राजा ने भगवान विष्णु की पूजा बहुमूल्य सामग्रियों एवं रत्न इत्यादि से की। तभी विष्णु दास ने आकर तुलसी दलों से पूजा प्रारम्भ कर दी एवं राजा की दिव्य सामग्रियाँ तुलसी दलों से ढंक गई। इस पर राजा कुपित हो गये और दोनों में बहस होने लगी। राजा ने कहा हे ब्राह्मण तुमने कितने यज्ञ, दान और विष्णु मंदिर बनवाये हैं जो तुम्हारी भक्ति को मुझसे श्रेष्ठ करती हो, मैं ही पहले भगवान विष्णु के साक्षात् दर्शन पाऊंगा। ब्राह्मण को भी बात लग गई उसने भी राजा की चुनौती स्वीकार कर ली। चोल राजा ने मुदगल ऋषि को आचार्य बनाकर दिव्य विष्णु अनुष्ठान का कर्म काण्ड प्रारम्भ कर दिया जिससे कि भगवान विष्णु के उन्हें साक्षात दर्शन हो सकें मुदगल ऋषि के अनुष्ठान चमत्कारिक होते थे, दूसरी तरफ विष्णु दास ने एक प्राचीन विष्णु मंदिर में अपनी यथाशक्तिनुसार भक्ति विधान से पूजन प्रारम्भ किया।
पूजन से पूर्व ही विष्णु दास भोजन बनाकर रख लिया करते थे परन्तु प्रतिदिन उनका भोजन चोरी होने लगा। विष्णुदास भूखे पेट विष्णु भक्ति में लगे रहे, एक दिन उन्होंने देखा कि एक दुबला पतला कंगाल भोजन चुराने आ रहा है परन्तु विष्णुदास को देखकर वह भागने लगा। विष्णुदास द्रवित हो गये और स्वयं भोजन लेकर उस दुर्बल चोर के पीछे भागने लगे कहने लगे कि रुक जाओ-रुक जाओ भोजन छोड़कर क्यों जा रहे हो। बड़ा ही विचित्र दृश्य था, वह चाण्डाल थककर गिर पड़ा। विष्णु दास उसके पास पहुँचे एवं उस मूर्च्छित, अत्यंत ही दुर्बल चोर के ऊपर करुणावश अपने वस्त्रों से हवा करने लगे। दूसरे ही क्षण चाण्डाल का वेश छोड़ भगवान नारायण साक्षात् प्रकट हो गये। चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा एवं कमल धारण किये हुए, कटि में पीताम्बर, हृदय में श्री वस्त का चिन्ह, मस्तक पर क्रीट शोभा पा रहा था। वक्ष स्थल पर कौतुक मणि जगमगा रही थी। विष्णुदास को दिव्य विमान में बिठाकर वे विष्णुधाम की तरफ जाने लगे चोल राजा ने देखा कि यह क्या ? मैं तो अनुष्ठान कर रहा हूँ परन्तु विष्णुदास तो बिना अनुष्ठान के ही भगवान नारायण को प्राप्त हो गया। चोल राजा ने ग्लानिवश यज्ञ कुण्ड में कूदकर प्राण त्याग दिए। मुदगल ऋषि ने क्रोध में आकर अपनी शिखा उखाड़ी और यज्ञं कुण्ड में डाल दी तब से लेकर आज तक मुद्गल गोत्र में उत्पन्न हुए ब्राह्मण शिखा नहीं रखते। चोल राजा को भी विष्णुलोक प्राप्त हुआं। विष्णु दास पुण्यशील एवं चोल राजा सुशील नाम से लक्ष्मी जी के दो प्रमुख द्वार पाल बने अर्थात विष्णु लोक में भी कुबेरत्व की संस्थापना हुई।
श्री का मूल विग्रह तो भगवान विष्णु के पास ही है, वहाँ पर भी तो द्वारपाल चाहिए, वहाँ पर भी तो लक्ष्मी को रक्षक चाहिए कुबेर का पद चाहे इन्द्र लोक में हो, विष्णु लोक में हो या पृथ्वी लोक में हो उस पर बैठने वाले का धर्म से संसर्ग अत्यधिक आवश्यक है।संसर्ग ही प्राप्ति का विधान है। सतयुग, त्रेता और द्वापर में देश, ग्राम और कुल भी मनुष्य के किये हुए पुण्य और पाप के भागी होते हैं, परन्तु कलियुग में केवल कर्ता को ही पुण्य और पाप का फल भोगना पड़ता है।
संसर्ग इतना महत्वपूर्ण क्यों है? क्योंकि जीव का निर्माण एकांत के लिए नहीं किया गया है। ब्रह्मा ने सब तत्व अलग-अलग निर्मित किये, उनमें जन्मजात एकांतता है, जन्मजात युद्ध है अतः इन सबको समायोजित करने के लिए ब्रह्मा को जीव तत्व का निर्माण करना पड़ा। सृष्टि को मैथुनी बनाना पड़ा। मैथुन तो संसर्ग का महाअनुष्ठान है, योनिज जीवन केवल मैथुन की प्रक्रिया पर ही आश्रित है अतः संसर्ग को सम्पूर्णता के साथ शक्तिवान बनाना शिव और ब्रह्मा के लिए आवश्यक हो गया इसलिए संसर्ग के माध्यम से भी अध्यात्म की प्राप्ति का विधान रचा गया। संसर्ग के माध्यम से भी शिव सानिध्य प्राप्त करने की प्रक्रिया रची गई। संसर्ग के अंदर आता है स्थानांतरण, तो समाज ने ऐसी व्यवस्था बनाई कि पिता का धन पुत्र को नैसर्गिक रूप से प्राप्त होगा, पिता का ऋण भी पुत्र के ऊपर स्थानांतरित होगा । जो घर पिता ने बनाया है, जो सम्पत्ति पिता ने अर्जित की है वह पुत्र को नैसर्गिक रूप में प्राप्त होती है। देश की प्रत्येक सम्पत्ति पर देश वासियों का नैसर्गिक अधिकार है।
प्रथम उपयोग, प्रथम भोग की प्राथमिकता उन्हीं को मिलती है जिनसे कि संसर्ग तीव्रतम है। पत्नी पुरुष की सम्पत्ति की अधिकारी है क्योंकि उसका संसर्ग पुरुष से तीव्रतम है यह तो सभी मानते हैं। संसर्ग नजदीकियां पैदा करता है, संसर्ग दूरियों को मिटाता है। यह अधिकार क्षेत्र है, जाने अनजाने में भी संसर्ग के फायदे मिल जाते हैं। वृद्धावस्था में माता पिता की देखभाल करना पुत्र का नैसर्गिक एवं प्राकृतिक कर्तव्य है क्योंकि पुत्र ने तीव्रतम संसर्ग भोगा है और वह तो साक्षात माता पिता के संसर्ग का प्रतिफल है। यह व्यवस्था हर तल पर है। पुत्र को रूप, रंग, रोग, आरोग्य, गुण, अवगुण, शरीर, रक्त, नैसर्गिक रूप से माता पिता से मिलता है अतः आध्यात्मिक तल पर भी उसके कुलदेवता, उसका गोत्र, उसकी वंशावली, उसका पूजा विधान भी माता-पिता से कहीं न कहीं संसर्गात्मक होगा ही।
एक साधक को साधना पथ में उसके देश के गुरु, विश्व के गुरु, तंत्र क्षेत्र के गुरु, ब्रह्माण्ड के गुरु, शरीरी गुरु, अशरीरी गुरु, सिद्ध गुरु निश्चित ही कुबेर के रूप में उसे दिव्य आवृत्तियां एवं कोश प्रदान करते ही रहते हैं। सिक्ख धर्म सनातन धर्म का मुकुट है, क्योंकि उन्होंने गुरु द्वार की परम्परा चलाई। एक तरफ समाज बीच में गुरु का द्वार अर्थात गुरु द्वारा और उसके आगे अध्यात्म की विलक्षण दुनिया अध्यात्म गुरु के द्वार से ही प्राप्त होता है। राम गुरु के द्वार पर गये, कृष्ण सान्दीपनी के द्वार पर पहुँचे, शंकराचार्य केरल से ओंकारेश्वर चलकर पहुँचे अपने गुरु गौणपाद के द्वार पर परशुराम दत्तात्रेय के द्वार पर पहुँचे, समस्त असुर एवं दैत्य शुक्राचार्य के दरवाजे पर पहुँचे । देवता बृहस्पति के दरवाजे पर जाते हैं कहीं भी गुरु आज तक चलकर शिष्य के दरवाजे पर नहीं जाते। जब शिष्य गुरु के दरवाजे पर पहुँचता है और कहता है भिक्षांदेहि-दीक्षांदेहि, शिक्षांदेहि गुरुवर तभी वह कुछ प्राप्त कर पाता है, तभी वह कुबेर बन पाता है, तभी वह धनाध्यक्ष बन पाता है, तभी वह सिद्ध बन पाता है। तभी वास्तविक संसर्ग होता है गुरु और शिष्य के बीच।
पूर्वकाल की बात है धनेश्वर नामक एक ब्राह्मण था परन्तु वेश्यागमन, खोटी बुद्धि, मदिरा पान, जुआ खेलना ही उसकी आदत में शामिल था। एक बार वह चमड़े के व्यापार के लिए महिषमतिपुरी जा पहुँचा महिषमतिपुरी नर्मदा तट पर ओंकारेश्वर के पास स्थित हैं, यहीं पर प्रख्यात मंडन मिश्र उत्पन्न हुए थे जो कि कालान्तर आदि गुरु शंकराचार्य जी के अनन्य शिष्य बने, आस्तिक जगत के कुछ लोग वहाँ पर भगवान विष्णु की पूजा आराधना कर रहे थे। एक माह तक उस ब्राह्मण ने अनमने मन से वहाँ पर निवास किया एवं अनजाने में ही उसका संसर्ग पुण्यात्माओं से हो गया। अचानक रात्रि में उसे सर्प ने काट लिया और उसकी मृत्यु हो गई। यमराज के दूत उसे मुद्गर से पीटते हुए यमलोक ले गये एवं उस अधम आत्मा को तेल के खौलते कड़ाहे में डाल दिया परन्तु दूसरे ही क्षण नर्क की अग्नि शांत हो गई। जाने अनजाने में उसकी आत्मा धर्म के संसर्ग में जो आ चुकी थी। यमराज ने कहा यह तो नर्क का भी नाश कर देगा अतः इसे शीघ्र अतिशीघ्र यक्ष योनि में डाल दो और उस धनेश्वर ब्राह्मण की आत्मा को यक्ष योनि में स्थानांतरित करं दिया।
संसर्ग में कौतुक का विशेष महत्व है, संसर्ग कौतुहल के कारण भी हो जाता है। यक्ष योनि कौतुहल वश ही अधिकांशतः को मिलती है उस योनि में संसर्ग तो होता है परन्तु भोग अल्पतम होता है। यक्षों के राजा कुबेर के पास किन्नर योनि, गंधर्व योनि के जीव भी होते हैं। इन योनियों में तृप्तता भौतिक कारणों से नहीं होती अपितु संसर्ग की सूक्ष्मतम आवृत्तियों के कारण होती है। अप्सरायें भी इसी श्रेणी में आती हैं। प्रत्येक दिव्य सरोवर, दिव्य तीर्थ क्षेत्र, दिव्य पर्वत श्रृंखलाओं के आसपास यक्ष एवं यक्षिणियां निवास करती हैं। भूमि में गड़े धन, धातुओं की खदान, मणियों एवं रत्नों के भूमिगत भण्डार, भूमि के नीचे दबे खजानों की रक्षा यक्ष एवं यक्षिणियाँ ही करते हैं। सौन्दर्य के उपासक हैं यक्ष एवं यक्षिणी धन के रक्षक हैं यक्ष एवं यक्षिणी । मनुष्य को दुर्लभ वनस्पतियों, तांत्रोक्त वस्तुओं, गोपनीय आध्यात्मिक स्थलों की जानकारी प्रदान करते हैं यक्ष एवं यक्षिणियाँ, अप्सरा दर्शन के लिए यक्षराज कुबेर की ही तांत्रोक्त उपासना की जाती है। अप्सरा स्थापत्य यक्ष राज कुबेर की उपासना के माध्यम से ही होती है। एक स्त्री शरीर के साथ अप्सरा शक्ति 15 से 17 वर्ष तक ही चलती है जब तक उसे अप्सरा का सानिध्य प्राप्त होता है उसमें सौन्दर्य, आकर्षण, सम्मोहन, आरोग्यता की विशेष चमक दिखाई देती है।
यक्षराज कुबेर को सूर्य के द्वारा पारद को स्वर्ण में परिवर्तित कर लेने की गोपनीय कल्प सिद्ध है। यक्ष एवं यक्षिणियां सूर्य सिद्धांत के माध्यम से क्रियाशील होते हैं। यह किसी भी अनुपयोगी वस्तु को मनचाहे स्वरूप में परिवर्तित कर सकते हैं। विश्वामित्र ने गोपनीय यक्ष कल्प नामक ग्रंथ रचा है जिसमें कि सूर्य शक्ति के द्वारा पदार्थ परिवर्तन की सम्पूर्ण व्याख्या है। पृथ्वी पर एक से एक गोपनीय धन के भण्डार हैं जो कि मानव दृष्टि से सदैव दूर बने रहते हैं। अनेकों ऐसे स्थल हैं जहाँ मानव आज तक पांव भी नहीं रख पाया इसी पृथ्वी पर, केवल सिद्धों को ही यहां से प्राप्ति की अनुमति है। यक्षराज कुबेर नागों का पहरा बिठा देते हैं गोपनीय एवं दिव्य वनस्पति एवं दिव्य भण्डारों पर । तेलिया कंद अत्यंत ही दुर्लभ वनस्पति है एवं इसके नीचे सर्प निवास करते हैं इस के रस से तो कैंसर भी ठीक हो जाता है, पारद को स्वर्ण में बदलने के लिए तेलिया कंद का रस ही काम में आता है। सामान्य निधियों से संसर्ग आम जनता का हो जाता है, आम जनता के लिए धन का तात्पर्य है कपड़े, गहने, कागज के टुकड़े, मोटर, मकान, इत्यादि इत्यादि इन सब के लिए कुबेर उपासना की कोई जरूरत नहीं है । कुबेर उपासना अर्थात यक्षराज से संसर्ग करने पर तो दिव्यतम भोग एवं निधियां प्राप्त होती हैं जिसके बारे में सामान्य मनुष्य जानते भी नहीं हैं।
यक्ष राज कुबेर का जो चित्र, मूर्ति, विग्रह आप आजकल देख रहे हैं वह बिल्कुल बकवास है, अध्यात्म की आलोचना एवं विवेचन पिछले सौ वर्षों से वे लोग कर रहे हैं जिन्हें संस्कृत का एक श्लोक भी लिखना नहीं आता है। आजकल एक मोटा, स्थूल, गंजा स्वरूप कुबेर का दिखलाया जा रहा है। यह उनकी छवि को विकृत करने का कुप्रयास है यह तो भोगी चरित्र का चिंतन है। वास्तव में कुबेर एवं यक्षों और यक्षिणिओं के शरीर योगमय, अत्यंत ही गौरवर्ण एवं सुगठित हैं। यह मैं ग्रंथों के आधार पर कह रहा किसी स्थूल व्यापारी या सुनार को कुबेर का स्वरूप नहीं माना गया है धर्म शास्त्रों में धर्म शास्त्रों का अध्ययन किये बिना कुछ भी ऊल-जलूल चित्रण कर देना धर्म को हानि पहुँचाने के समान है।
प्राचीन रोम में भी कुबेर की उपासना की गई है, वहाँ पर उन्हें अत्यंत ही सुन्दर एवं सुगठित शारीरिक सौष्ठव वाले युवक के रूप में दर्शाया गया है। मिश्र एवं माया सभ्यता में भी धनाढ्य कुबेर की प्रतिकृतियाँ मिलती हैं वहाँ पर भी उन्हें सौन्दर्य का प्रतीक माना गया है। कुबेर की जो आकृति आजकल प्रचारित की जा रही है वह तो चीन का एक महात्मा कन्फ्यूसियस की आकृति है जो कि वहाँ के राजाओं का धर्म गुरु था, वह कब से कुबेर हो गया। जाने अनजाने में आप कुबेर की उस आकृति से संसर्ग मत कर बैठना। मैं सप्रमाण कह रहा हूँ, ग्रंथों को साक्षी मानकर कह रहा हूँ, कुबेर का सौन्दर्य दिव्य है।
कुबेर तंत्रम
सृष्टि के आरम्भ काल से ही इस पृथ्वी पर आस्तिक जगत की आत्माएं एवं नास्तिक जगत की पाप आत्माएं कोषमय जीवन ग्रहण करती रही हैं। यह चैनल आस्तिक जगत की पुण्य आत्माओं के लिए एक तृप्ति का स्रोत है। नास्तिक जगत की पाप आत्माएं सदैव आध्यात्मिक ग्रंथों, पुराणों एवं लेख इत्यादि से दूर भागती हैं एवं इन पाप आत्माओं के लिए आध्यात्मिक ज्ञान एक तरह से विष है इसीलिए वे सदैव नाना प्रकार का रूप धर, नाना प्रकार के मिथ्या प्रचार के द्वारा, तर्क कुतर्क के द्वारा आस्तिक जगत की अमृतमयी शब्द आवृत्तियों का विरोध करती रहती हैं।
नास्तिक जगत की पाप आत्माएं मंत्र, तंत्र, पूजन, यज्ञानुष्ठान, कर्म काण्ड, योग, ईश्वर, सतसंग इत्यादि की सृष्टि के आरम्भ से घोर विरोधी रही हैं। इन पाप आत्माओं का वश चलता तो अध्यात्म के विभिन्न स्रोत कब के नष्ट हो गये होते, देव पूजन प्रणाली लुप्त हो गई होती, धर्म और सत्य का विनाश हो गया होता परन्तु समुद्र मंथन के समय उल्टा हो गया अमृत देवताओं को मिला, निधियाँ देवताओं को मिल, धनवन्तरी का आशीर्वाद देव शक्तियों को प्राप्त हुआ। कामधेनु, कल्प वृक्ष उच्चैः श्रवा अश्व, ऐरावत इत्यादि सब कुछ देवताओं को मिला एवं असुरों को कुछ नहीं मिला। सृष्टि का आरम्भ ही कुछ इस प्रकार का है कि सिर्फ युद्ध ही युद्ध, मृत्यु ही मृत्यु, पतन ही पतन अनुभूत करने को मिलता है। युद्ध से क्लिष्टता उत्पन होती है, युद्ध से हार भी उत्पन्न होती है।
ब्रह्मा ने शिव के आदेशानुसार सृष्टि की रचना कर दी परन्तु प्रारम्भ में सृष्टि बड़ी भीषण थी एवं सृष्टि का प्रारम्भ ही युद्ध से हुआ है। सृष्टि का निर्माण करते समय ब्रह्मा ने कोशमय जीवन को प्रादुर्भावित किया, नाना प्रकार का कोषमय जीवन उदगमित् हुआ पर कौन श्रेष्ठ है? कौन उत्तम है? कौन योग्य है ? इसका निर्धारण ब्रह्मा ने नहीं किया। यह तो उन्होंने समय पर छोड़ दिया, कोश आधारित जीवन की योग्यता पर छोड़ दिया। जो योग्य होगा, जो अपनी सर्वश्रेष्ठता प्रदर्शित करने में सक्षम होगा, जो विकास के पथ पर चर्मोत्कर्ष के साथ गतिशील होगा वही श्रेष्ठतम होगा अन्यथा समय के साथ कोशमय जीवन नष्ट हो जायेगा। कालान्तर विभिन्न प्रवृत्तियों से युक्त कोषमय जीवों ने विशेष योग्यताएं हासिल करना शुरु कर दीं, सबने चर्मोत्कर्ष में अनुसंधान शुरु कर दिया, घनघोर संघर्ष मच गया। देवता और असुर आपस में भिड़ गये, पशु और मनुष्य आपस में भिड़ गये, ग्रह नक्षत्र आपस में युद्ध कर रहे थे। पंचभूत जिन्हें हम अग्नि, वायु, भूमि, जल, आकाश कहते हैं आपस में युद्धरत थे।
पंचभूतों का अस्तित्व बिल्कुल अलग- अलग है एवं इनमें आपस में कभी भी सामन्जस्य नहीं बैठता। यह सतत् एक दूसरे पर श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए युद्धरत रहते हैं। कभी जल, पृथ्वी पर भारी पड़ता है तो पृथ्वी जल मग्न हो जाती है। वायु अपना प्रचण्ड स्वरूप दिखा जल को भी उड़नशील बना देती है। दहकती हुई अग्नि जल के कोष को सुखा देने में कोई कसर नहीं छोड़ती तो वहीं अथाह जल राशि अग्नि के न्यूनतम बीज को भी शांत करके रख देती है एवं हजारों वर्षों तक अग्नि जल के अंदर विलीन होकर रह जाती है। प्रकाश को भी खा जाती है वायु कभी-कभी विचित्र समायोजन भी जो जाता है, वायु और जल मिलकर एक अद्भुत संरचना तैयार कर लेते हैं एवं हजारों वर्षों तक भूमि पर प्रकाश की एक किरण भी नहीं आ पाती है। प्रकाश को न्यूनतम स्थितियों में पहुँचा देता है मेघमय आकाश। जल को हिम में परिवर्तित करके रख देती है सूर्याग्नि की विशेष अवस्था कितना युद्ध है पंचभूतों में, बेमतलब का युद्ध।
इन सबसे ऊपर है चेतना। चेतना के परम कोष से ही चिंतन, तर्क, बुद्धि, सोच, ज्ञान, संवेदना, विलक्षणता, विद्या इत्यादि का प्रादुर्भाव होता है। कालान्तर ऊपर वर्णित प्रत्येक स्थिति एक विशेष कोश एवं ग्रंथि का स्वरूप ग्रहण करती है। ब्रह्मा ने सर्वप्रथम तत्व निर्मित किये, पंचभूत निर्मित किये। पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, अग्नि इत्यादि निर्मित किये, असुरत्व निर्मित किया, देवत्व निर्मित किया पर तत्वों से काम नहीं चलता। सूर्यत्व से काम नहीं चलेगा, बुद्धत्व से काम नहीं चलेगा क्योंकि इनमें एकात्मकता नहीं है बल्कि सम्पूर्णता के साथ विभिन्नता है एवं इस प्रकार की सृष्टि तो अलयात्मक हो जाती है। ब्रह्मा पुनः शिव के पास गये क्या करें? किस प्रकार लयात्मकता लायें, शिव ने कहा जीवत्व का निर्माण करो, जीवत्व के रूप में एक ऐसे परम तत्व का निर्माण करो जो कि मेरा ही अंश हो, जो कि समस्त तत्वों को एकत्रित कर सके, एक सूत्र में पिरो सके, एक लय में बांध सके, एक दूसरे पर निर्भर कर सके एवं जीवन का उदय हो सके।
ब्रह्मा ने बस यही ब्रह्म विद्या शिव से प्राप्त की और ब्रह्म विद्या के कारण ही ब्रह्मा कहलाये। ब्रह्मा वह जिसने सर्वप्रथम शिव के परम ज्ञान कुबेरत्व को समझा। कुबेरत्व का तात्पर्य ही है बैर विहीन, शत्रुता विहीन, एकत्रीकरण, समायोजन सृष्टि का निर्माण तभी ब्रह्मा के लिए सार्थक हुआ जब उन्होंने जीवत्व के रूप में जीव का निर्माण किया। जीव रूपी महाकोष में से ही आत्मा का उदय हुआ, इसी कोष में से परमात्मा का उदय हुआ, इसी कोष में से पाप आत्माओं और पुण्य आत्माओं का भी उदय हुआ। अतः मुमुक्षजनों को आत्म की खोज करनी पड़ती है, आत्मा का अनुसंधान करना पड़ता है। कालान्तर इसी जीवात्मा ने शरीर का निर्माण किया चार आयामी शरीर, पाँच आयामी शरीर, दो आयामी शरीर, तीन आयामी शरीर और इस प्रकार कोषमय जीवन का प्रारम्भ हुआ।
कोष के अधिष्ठाता हैं कुबेर कोष के रक्षक हैं कुबेर, कोष के प्रतिष्ठित देव हैं कुबेर कुबेर लोकपाल हैं, वह इन्द्र के समान लोकेश्वर हैं, कुबेरत्व रक्षात्मक शैली का परिचायक है। देखो एक छोटा सा कीड़ा शंख जैसा मजबूत हड्डी का खोल बना लेता है, स्वयं की रक्षा के लिए वह शंख को इस प्रकार से बनाता है कि उसका जीवन दीर्घ हो सके, वह पूर्णता के साथ भोग कर सके। वह सुगमता के साथ चैन की नींद सो सके। उसका अस्तित्व काल के द्वारा प्रभावित न हो, वह जन्म जन्मांतर तक अपनी आने वाली पीढ़ियों को आगे बढ़ाता रहे इसलिए उसने भीषण तप किया, स्वयं के अंदर से अस्थियों का एक अद्भुत बाहरी खोल रच दिया। खुद अस्थिविहीन होता है, हाँ शंख का जीव आंतरिक रूप से तो अस्थिविहीन है पर बाह्य अस्थि की रचना ब्रह्माण्ड में सर्वश्रेष्ठ है। चाहे एक आयामी जीव हो या पांच आयामी जीव इन्होंने अपने रहने के लिए जो कोश तैयार किया उसमें ब्रह्मा द्वारा सर्वप्रथम निर्मित विभिन्न तत्वों का ही संग्रहण है।
वनस्पति में चंद्रत्व भी है, सूर्यत्व भी है, अग्नितत्व भी है अर्थात सभी तत्वों का संग्रहण है, सभी तत्वों का. संगठन है। एकत्रीकरण का यही खेल जीवन के विभिन्न रंग उत्पन्न करता है। कुछ ऐसा हो ही नहीं सकता कि कुछ छूट गया हो, कुछ नहीं छूटता। कुछ न छूटना, समस्त तत्वों का हां ब्रह्माण्ड के समस्त तत्वों का एकत्रीकरण ही कुबेर सिद्धि है। क्योंकि जीव है इसलिए कुबेर सिद्धि तो होगी ही, जीव को किसी से बैर नहीं है वह तो प्रवृत्ति से ही संग्राहक है। संग्रह ही जीव का प्रारम्भिक लक्षण है। जीवात्मा प्रकृति से ही संग्रह करती है अगर संग्राहक न होती, संग्रह करने की शक्ति न होती तो वह अद्वैत रहती एवं द्वैत स्वरूप का निर्माण ही नहीं होता। अद्वैत तो शिव हैं, द्वैत तो जीव है। अद्वैत के पास ही द्वैत होता है। अद्वैत तो मोक्ष है और भोग द्वैत है। कुबेर के सानिध्य में ही शिव निवास करते हैं। भोग के बगल में ही मोक्ष होता है। हो सकता है जीव ने जिस कोश का निर्माण किया है उसमें ब्रह्म निर्मित कुछ तत्व न्यूनतम हों, सूक्ष्मतम हों, अल्पतम हों पर होंगे सब, यह एक वैज्ञानिक सत्य है।
यह विभिन्नता का खेल है, यह जीव की शक्ति और प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। वायु सभी ग्रहण करेंगे, सभी प्रकार के जीवन में अग्नि तत्व विराजमान होगा। कम होगा या ज्यादा ये जीव की अवस्था पर निर्भर करता है। समुद्र में भी स्वर्ण तत्वं है, वायु में भी स्वर्ण तत्व है, प्रत्येक मनुष्य के शरीर में भी स्वर्ण होता है, प्रत्येक व्यक्ति में स्वर्णत्व मौजूद है। इस पृथ्वी पर निवास करने वाली प्रत्येक जैविक कोशिका में स्वर्णत्व है, सूर्यत्व है एवं सूर्य रूपी जीवित जागृत ग्रह व्यवस्था में भी स्वर्णत्व है, जलत्व भी है, गुरुंत्व भी है। हाँ यह बात और है कि किस रूप में है, कितनी मात्रा में है पर है जरूर इसे कहते हैं कुबेर रहस्यम् इससे सिद्ध होता है कि जीवन ब्रह्माण्ड के प्रत्येक ग्रह पर है। ब्रह्माण्ड का प्रत्येक ग्रह एवं पिण्ड पूर्ण जागृत, चैतन्य, जीवित और स्पंदित है। सभी जगह भोग है। भोग की विभिन्न आवृत्तियाँ हैं, भोग की विभिन्न दशायें हैं सनातन धर्म इसी गूढ़ चिंतन पर आधारित है।
सनातन का मतलब सत्य, परम सत्य जो कि अकाट्य है। मैं उस सत्य की बात नहीं कर रहा हूँ जो पंचेन्द्रियों पर आधारित है, सनातन धर्म पंचेन्द्रियों से अलग है। सनातन धर्म की व्याख्या पंचेन्द्रियों से सम्भव नहीं है। पंचेन्द्रियों से तो मनुष्य द्वारा निर्मित अदालतों में तथाकथित सत्य की व्याख्या होती है और इस प्रकार का सत्य, सत्यत्व के परम कोश से नहीं आता। यह तो नकली सत्य है एवं इस सत्य के आधार पर दुनिया नहीं चलती इस प्रकार का सत्य आस्तिक जगत में नहीं चलता, सत्य की यह परिभाषा नास्तिकों द्वारा निर्मित कृत्रिम सत्य है जो कि घातक और झूठ को सत्य से ढँकने की मिथ्या कोशिश है इसलिए निरापराध अपराधी ठहराये जाते हैं, अपराधी निरपराध बनकर घूमते हैं।
हिन्दुत्व क्या है ? हिन्दुत्व पूर्ण रूप से पुनर्जन्म के आधार स्तम्भ पर टिका हुआ है। सनातन धर्म में जीव व्यवस्था का वैज्ञानिक एवं सूक्ष्मातीत ब्रह्म सिद्धांत लागू होता है। कृष्ण, राम, दत्तात्रेय से लेकर सभी ऋषि-मुनियों ने कहा है कि जिस प्रकार की वृत्ति होगी उसी प्रकार जीव विभिन्न सूक्ष्मातीत लोकों में जाकर शरीर ग्रहण करेगा बस इसी सिद्धांत पर सारा हिन्दू धर्म टिका हुआ है। भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों को एक साथ रखकर हिन्दू धर्म सोचता है। भूतकाल में हमारे पास क्या शरीर था ? वर्तमान में हमारे पास किस प्रकार का शरीर है एवं आने वाले भविष्य में हम किस-किस प्रकार के शरीर ग्रहण कर सकते हैं? किस-किस प्रकार के लोकों के निवासी बन सकते हैं? हमारी जीवात्मा किस प्रकार के दिव्य एवं पतित कोशों की अधिष्ठात्री बन सकती है यह सब कुछ निर्भर करता है हमारे कर्मों पर कर्मों का क्या तात्पर्य है ? कर्मेन्द्रियां क्या हैं? हमें ब्रह्मां ने कर्मेन्द्रियां क्यों प्रदान की हैं ? इसका विलक्षण चिंतन है सनातन धर्म में कर्मेन्द्रियों का तात्पर्य है संग्रहण करने वाले तंत्र, वह विशेष तांत्रकीय प्रणालियां जिसके माध्यम से जीव संग्रहण करता है। इन प्रणालियों में सूक्ष्म, परा एवं स्थूल तंत्र आते हैं। हाथ, आँख, नाक, कर्ण इत्यादि स्थूल कर्मेन्द्रियां हैं परन्तु कर्म तो मन के द्वारा भी सम्पन्न होते हैं, बुद्धि के द्वारा भी कर्म सम्पन्न होते हैं, स्वप्न में भी कर्म सम्पन्न होते हैं, गुप्त रूप से भी कर्म सम्पन्न होते हैं, गुप्त पाप भी होते हैं, गुप्त दान भी होता है, मन के द्वारा व्याभिचार भी होता है, सब कुछ होता है और कर्म की अनेकों अवस्थायें चेतन, अवचेतन, मूच्छित, निद्रित इत्यादि अवस्थाओं में सम्पन्न होती रहती है।
उन्हीं के आधार पर जीव के शरीर रूपी कोश में प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है एवं उसे प्रतिक्षण विभिन्न प्रकार की प्राप्ति शरीर के ऊपर स्पष्ट दिखाई देती है। कर्म ही जीव का तप है और तप के अंदर प्राप्ति की लालसा छिपी हुई रहती है। कर्म से एक निश्चित फल की प्राप्ति होती है, यह सत्य है। आप चलेंगे तो एक निश्चित स्थान पर पहुँच ही जायेंगे चाहे आप मन से चलें या बेमन से, पूर्ण एकाग्रता के साथ चलें या अर्ध एकाग्रता के साथ परन्तु लक्ष्य प्राप्त हो ही जाता है क्योंकि कर्मेन्द्रियां गतिशील हैं अतः सनातन धर्म के दिव्य कोष में अगर आपको मनुष्य के रूप में जन्म मिला है तो निश्चित ही आपको सनातन धर्म के उद्धारक, प्रवर्तक, प्रचारक प्रसारक दिव्य आत्माओं द्वारा निर्मित ब्रह्म ज्ञान को आत्म सात कर लोक परलोक, पाप पुण्य, पुनर्जन्म पर आस्था के साथ जीवन निर्वाह करना होगा अन्यथा आप हिन्दू कहलाने योग्य नहीं हैं।
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