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साधना रहस्य् ।।

         पद, पादप, प्राप्ति, पुष्प, पदम, पंकज इत्यादि के मूल में ही तो साधना है। पद क्या है? जिस पर आप विराजमान हैं या जिस स्थिति में आप जी रहे हैं वही पद है। अगर आप साधनाओं में लीन हैं तो आप साधक के पद पर हैं। सबसे श्रेष्ठ पद है यह कभी भी न खत्म होने वाला महान पद। ईश्वर के द्वारा रचा हुआ पद। जीवन में अनेकों पद आते जाते रहेंगे पर साधक का पद हर क्षण, हर योनि में, हर उम्र में गतिमान रहता है और गतिमान रहना चाहिए। कुछ अच्छे कर्म होंगे, कुछ सत्य होगा, सही दृष्टिकोण होगा, गुरुओं का आशीर्वाद होगा, जुझारूपन होगा और आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति होगी तो फिर पद चलकर आयेगा। यही विधान उचित है कि पद चलकर आये। पद प्राप्ति के लिए पद के पीछे दौड़ना उचित नहीं है। पद आपके लिए बने यही साधक के लिए उचित है अन्यथा पद जी का जंजाल बन जायेगा। समस्या ही समस्या खड़ी कर देगा पद की खींचतान से जीवन की साधनात्मक लय खण्डित हो जायेगी, प्रदूषित हो जायेगी। एक पद जाता है तो दूसरा पद प्राप्त होता है। एक ही पद से कब तक चिपके रहोगे। गुरु दीक्षा देने का यही तात्पर्य है कि आपको साधक का पद प्रदान कर दिया गया है। एक ऐसा मार्ग जिस पर अनेकों घाट आयेंगे।

         साधक ही गुरु पद पर विराजमान होता है। पद पर विराजमान होना आसान है परन्तु पद की मर्यादा निभाना दूसरी प्रकार की साधना है। यह साधना पद प्राप्ति से पहले वाली स्थिति से भी ज्यादा कठिन है। पद की अपनी मर्यादा है, अपनी सीमाऐं हैं। पद कभी-कभी साधक के लिए बंधन भी बन जाता है इसलिए साधक को पद के मोह में नहीं उलझना चाहिए। आज गुरु हो तो कल सद्गुरु का पद भी प्राप्त हो सकता है। कुलगुरु भी बन सकते हो। जगद्गुरु एवं परमेष्ठि गुरु के पद पर भी आप विराजमान हो सकते हैं। साधना प्रारम्भ की है तो फिर निरन्तरता होनी चाहिए। एक दिन गुरु पदों से ऊपर उठकर गुरु तत्व के रूप में भी क्रियाशील हो सकते हैं और अंत में शिवत्व को प्राप्त करते हुए शिव में भी विलीन हो सकते हैं। आध्यात्मिक साधक की यात्रा में इन सब पदों का आना निश्चित है परन्तु प्रत्येक पद पर साधना तो करनी ही पड़ेगी। सभी योनियों के पास मात्र एक ही कार्य है और वह है साधना का कार्य हँसकर करो, रोकर करो, अवचेतन में करो साधना करनी पड़ेगी। साधना की समग्रता में भौतिक, अगोचर, दैहिक, दैविक एवं सूक्ष्म तत्व सम्बन्धित सभी प्रकार की साधनात्मक स्थितियाँ आती हैं। पद स्थाई है, पद पर विराजमान होने वाले सदैव बदलते रहते हैं। कैसे बदल जाते हैं? यह सृष्टि का नियम है। चाहकर भी आप पद में लिप्त नहीं हो सकते। 

        आज शरीर मिला है, युवावस्था मिली है हम लाख जतन कर लें एक दिन सब स्वतः ही प्रस्थान कर लेंगें। एक मनवन्तर में तो ब्रह्मा का पद भी बदल जाता है। इन्द्र का पद भी बदलता रहता है। शक्ति केवल पद में होती है। व्यक्ति केवल पद पर ही प्रतिष्ठित होता है। द्रोण सर्वप्रथम एक गरीब ब्राह्मण थे परन्तु जैसे ही गुरु पद पर विराजमान हुए वे पाण्डु कुल के राजगुरु बन गये। राजगुरु के के कारण वे मर्यादाओं की सीमा में बँध गये और न चाहते हुए भी एकलव्य से अंगूठा माँग बैठे उसकी साधना खण्डित कर दी। राजगुरु के रूप में उन्हें अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में देखना था। राजगुरु की मर्यादा अनुसार वे राज परिवार के अलावा किसी अन्य को शिक्षा-दीक्षा नहीं प्रदान कर सकते थे। राजगुरु के पद की मर्यादा ने ही उन्हें कुरुक्षेत्र में कौरवों की तरफ से लड़ने को मजबूर किया। जिस पद पर बैठकर उन्होंने प्राप्ति सम्भव की थी उसकी मर्यादा तो निभानी ही पड़ती है। वे सिर्फ राजगुरु बनकर ही रह गये भीष्म भी पद से चिपके हुए थे। आँखों के सामने अपनी कुलवधू का चीर हरण देखना पड़ा। इससे बड़ा विष क्या हो सकता है? गलती तो उनसे भी हुई। अपने अंत समय में उन्हें तीरों की शैय्या पर लेटना पड़ा इसीलिए पद में लिप्तता साधक के लिए उचित नहीं है। पद आते जाते रहेंगे साधक को तो केवल साधनाऐं परिष्कृत करते रहना चाहिए। 

        कृष्ण महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथी हैं उनकी भी अपनी साधना है। साधना तो नारायण स्वरूप में उन्होंने भी की है। बिना साधना के प्राप्ति सम्भव ही नहीं है। सुदर्शन चक्र प्राप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने साम्बसदाशिव की घोर उपासना शुरू कर दी वे प्रतिदिन 108 दिव्य ब्रह्म कमलों से भगवान शिव की उपासना करते थे। एक दिन शिव जी ने उनकी परीक्षा लेने के लिए एक कमल कम कर दिया। साधना काल में अचानक कमल के कम हो जाने पर विष्णु जी विचलित हो गये। अंत में उन्होंने अपनी एक आँख निकालकर कमल के रूप में शिव जी को अर्पित कर दी। वे कमलनयन भी कहलाते हैं। शिव जी अति प्रसन्न हुए और दूसरे ही क्षण भगवान विष्णु पुण्डरीकाक्ष के नाम से पहचाने जाने लगे। .

मंगलम् भगवान विष्णुः मंगलम् गरुड़ ध्वजः । 
मंगलम् पुण्डरी काक्षः मंगलाय तन्नोहरिः ॥

अर्थात मंगल तभी है, कुशलता तभी है जब आप साधना में सफल होंगे अन्यथा अमंगल ही अमंगल है। मंगलमय जीवन का प्रतीक ही श्री हरि हैं। उनसे श्रेष्ठ इस ब्रह्माण्ड में और कौन साधक है। यही श्री हरि महाभारत के युद्ध में सब कुछ साध रहे हैं तभी तो सारथी हैं अर्जुन के महाभारत का युद्ध कृष्ण अवतार की साधना है। साधना अधर्म के नाश की और धर्म की स्थापना की। स्थापित वही होगा जो कि सफल साधक होगा और जिसकी साधना में पारंगतता होगी। सबसे पहले कर्म के सिद्धांत को समझते हैं। कर्म ही साधना है। प्रत्येक योनि अपनी विशेषतानुसार कर्म सम्पादित करती है। साधक सबसे पहले यह समझ ले कि अकर्मण्यता नाम की कोई वस्तु होती ही नहीं है। यह मिथ्या शब्द है। शब्द कोष के अधिकांशतः शब्द मनुष्यों के द्वारा निर्मित हैं। अर्थ का अनर्थ निकालते हैं। अगर कोई व्यक्ति बिना हाथ पाँव हिलाये मात्र दूरदर्शन देख रहा है तो यह भी एक कर्म है। एक प्रकार की मानसिक साधना। इसका फल भी निश्चित मिलेगा। किसी भी कर्म का फल तो मिलता ही है। जैसा कर्म होगा वैसा ही फल होगा। जिस क्षण कर्म प्रारम्भ होता है या फिर जिस क्षण कर्म का विचार मात्र ही उदित होता है उसी क्षण फल का निर्माण भी प्रारम्भ हो जाता है। 

           जैसे-जैसे कर्म गतिमान होता है वैसे-वैसे फल भी मूर्त रूप लेता जाता है और जिस क्षण कर्म चर्मोत्कर्ष पर पहुँचता है साधक को फल प्राप्ति हो जाती है। कर्म निरंतरता लिए हुए है। पहले माऊँट एवरेस्ट पर चढ़ना पड़ेगा उसी क्षण सफलता की विशेष अनुभूति प्राप्त होगी इसके पश्चात वहाँ से नीचे उतरने का कर्म भी प्रारम्भ हो जायेगा। यह कर्म भी साधना के अंतर्गत ही आता है। इसकी पूर्णता के बाद फूलों के हार की भी प्राप्ति हो जायेगी। पुष्प प्राप्ति सफलता का द्योतक है। स्थापित होने के लक्षण हैं। स्थापित होने के पश्चात साधनात्मक स्थिति पुनः प्रारम्भ हो जायेगी किसी और स्वरूप में। आज से 20 वर्ष पूर्व महाजन एक गद्दी पीछे लगाकर 12-12 घण्टे अपने स्थान पर बैठे-बैठे व्यवसाय करते थे यह स्थापित होने की प्रक्रिया है एक विशेष आसन में । बारह-बारह घण्टे बैठना अपने आपमें जटिल साधना है। इसका फल भी इन्हें प्राप्त हुआ है। धन लक्ष्मी व्यापार रूप में उन्हें सिद्ध हुई परन्तु पेट भी गद्दी के बाराबर आगे की तरफ निकल आया। जैसी साधना, जैसा स्थापत्य वैसा ही फल। यही सृष्टि का विधान है। 

         मात्र मंत्र जाप करना ही आध्यात्मिक साधना के अंतर्गत नहीं आता। कृष्ण ने अपने जीवन में अनेकों साधनाऐं सम्पन्न कीं, अपने जीवन का काफी लम्बा हिस्सा युद्ध के मैदान में व्यतीत किया। मथुरा से द्वारका तक अपना राज्य स्थापित किया। विवाह भी रचाये, गोपियों संग रास लीला भी की, प्रजा की समस्याऐं भी सुलझाई इत्यादि इत्यादि और अंत में युद्ध के मैदान में गीता का प्रादुर्भाव भी किया। आध्यात्मिक साधक होने का तात्पर्य यह नहीं है कि जीवन की अन्य जिम्मेदारियों और भौतिक साधनाओं का परित्याग कर दिया जाय। यह सब साथ-साथ ही चलता है इसीलिए तो वे सारथी बने। एक तरफ युद्ध का संचालन, दूसरी तरफ अध्यात्म, तीसरी तरफ अर्जुन की रक्षा, चौथी तरफ धर्म की स्थापना और पाँचवी तरफ अदृश्य रूप से सभी अधर्मियों का अपनी शक्ति के द्वारा विनाश पाण्डव तो मात्र माध्यम हैं महाभारत रूपी साधना के आयोजक कोई भी हो, आयोजन कैसा भी हो, भाग लेने वाले कौन हैं? यह सब तो कृष्ण की माया है। जगद् गुरु की माया है। संचालक कौन है? यही साधक की दृष्टि को पहचानना चाहिये। एक दिन साधक को भी संचालक बनना पड़ेगा।

           साधना के पथ में साधन अति आवश्यक है। मनुष्य माध्यम है देवताओं की साधना में एवं देवता माध्यम है आदि शक्तियों की साधना में ठीक इसी प्रकार पशु माध्यम है मनुष्यों की साधना में आर्य इसलिए सफल हुए कि उन्होंने सर्वप्रथम गाय को साधा, वनस्पतियों को साधा, अश्व को साधा, तत्वों को साधा इत्यादि। उनके पास सर्वप्रथम लोहे के हथियार थे जो कि अन्य सभ्यताओं के पास नहीं थे। जो सभ्यता या मानव वर्ग या साधक साधने की कला में निपुण हो जाता है वही श्रेष्ठ साधक कहलाता है। कृष्ण ने अर्जुन को साधा। अर्जुन ने तो हथियार ही रख दिये थे युद्ध भूमि में कृष्ण को अपना लक्ष्य खण्डित होता हुआ दिखाई दिया। अब तक जो कृष्ण अपने अवतारी स्वरूप को पर्दानशीन रखे हुए थे आखिरकार उसे भी अर्जुन को दिखाना पड़ा। साधक को अपना लक्ष्य और साधना गुप्त ही रखनी चाहिए। कृष्ण ने अर्जुन के अलावा किसी और को अपना स्वरूप नहीं दिखाया। औरों के लिए अपने विराट स्वरूप को पर्दानशीन ही रखा। प्रदर्शन साधक के लिए सर्वथा निषिद्ध है। .

प्रदर्शन अपवाद स्वरूप ही करना चाहिये। प्रदर्शन प्रतिबंधित है शिव द्वारा इसीलिए इस ब्रह्माण्ड में फल की व्यवस्था सर्वत्र विद्यमान है। एक साधक को दूसरे साधक की साधना का ऋण अवश्य ही चुकाना चाहिये । ऋण चुकाने का श्रेष्ठ तरीका उसके स्थापत्य की स्वीकारोक्ति एवं प्रेममय व्यवहार है। आध्यात्मिक साधनायें सम्पन्न करने के लिए साधक को हृदय प्रधान होना पड़ेगा। मुख्य रूप से सभी साधनाऐं हृदय प्रधान ही होती हैं। भौतिक उपलब्धियाँ भी हृदय प्रधान व्यक्तियों ने ही सम्पन्न की हैं। हृदय प्रधान व्यक्ति ही एकाग्रचित्त हो सकता है। बंधनमुक्त होकर सोच सकता है एवं अपनी शक्ति को उचित तरीके से संचालित कर सकता है। श्री यंत्र क्या है? मात्र महालक्ष्मी रूपी आदि शक्ति के दिव्य संचालन की व्यवस्था का प्रतिनिधि इस यंत्र में कहीं पर भी शक्ति का अपव्यय नहीं है। शक्ति कहीं पर भी व्यर्थ में व्यय नहीं हो रही है। जीवन की दीर्घजीविता शक्ति के संचालन पर निर्भर करती है। इस यंत्र में सभी तरफ संधि स्थल है। अवरोध कहीं भी दिखाई नहीं पड़ रहा है। 

       साधक के साथ दिक्कत क्या है? सभी साधक साधनाओं में अवरोधित क्यों हो जाते हैं? इसका उत्तर श्री यंत्र देता है। प्राप्ति महालक्ष्मी का विषय है। साधक तो बस प्राप्ति ही चाहता है। चाहे वह मोक्ष हो या फिर अप्सरा आप सारा दिन या महीना भर मेहनत करके कुछ धन प्राप्त करते हैं जो धन कम से कम एक महीना चलना चाहिये वह तीन दिन में खत्म हो जाता है। तीस दिन की मेहनत के बाद प्राप्त तनख्वाह या फल क्यों तीन दिन में खत्म हो गया? क्यों यह तीस दिन तक नहीं चला? क्या ऐसा कोई विधान है जिसके द्वारा यह तीन महीने या तीन वर्ष तक अक्षय बना रह सके। प्रतिफल को अक्षय कैसे बनायें? यही तो सभी लोगों की समस्या है। प्राप्ति हो रही है और न चाहते हुए भी आँखों के सामने से धन जा रहा है। तीस लाख रुपये एक व्यक्ति सारा जीवन मेहनत करने के बाद जोड़ पाता है और कुछ ही क्षणों में उसे वह न चाहते हुए भी हृदय के चिकित्सक को भेंट कर देने पड़ते हैं। एक भी ऐसा व्यक्ति बता दें जो हृदय की शल्य चिकित्सा चाहता हो परन्तु अब तो करवानी ही पड़ रही है। फल को अक्षय बनाने की कला साधक को सीखनी ही पड़ेगी। सारे छिद्रों को जो उसने स्वयं बनाये हैं बंद करने ही पड़ेंगे। समग्रता के साथ व्यवस्था समझनी ही पड़ेगी। स्वयं को मर्यादित करना ही पड़ेगा अन्यथा अंत में कुछ भी हाथ नहीं लगेगा। भौतिक साधकों की यही समस्या है।

           मनुष्य के साथ एक विलक्षण प्रतिभा है शक्ति संग्रहित करने की विभिन्न साधनाओं के द्वारा वह नाना प्रकार की वस्तुओं को भोज्य के रूप में इस्तेमाल कर सकता है। उसमें असीम क्षमता है भोग करने की। ध्यान रहे भोग के कारण जो प्रतिफल उत्पन्न होता है उसमें काफी कुछ स्वयं के शरीर से विस्थापित हो जाता है। भोग की क्रिया बल को निष्कासित करती जाती है। इसीलिए भोग मार्ग पर चले साधक अतिशीघ्र ही बलहीन हो जाते हैं। इस जग में सभी कृषक हैं। खेती करना सभी का कार्य है परन्तु बीज कहीं और से आते हैं। आप अपने मस्तिष्क में दुख के बीज, विषाद के बीज और दरिद्रता के बीज बोओगे तो इन्हीं की फसल उगेगी, यही काटना पड़ेगा। जाने अनजाने में लोग रोते रहते हैं, अपने भाग्य को कोसते रहते हैं परन्तु बीजों को नहीं बदलते हैं। इतने कमजोर हो गये हैं कि उन्हें खुद ही नहीं मालूम होता कि उनका मस्तिष्क किन-किन नकारात्मक बीजों के लिए उपजाऊ भूमि बन गया है। दुर्गन्ध रोपोगे तो सुगन्ध कहाँ से आयेगी। क्रोध रोपोगे तो शांति नहीं उत्पन्न होगी। ऐसा ही होता है अधिकांशतः मनुष्यों के वंश वृक्षों में अनेकों प्रकार की समस्याऐं, रोग और नकारात्मक शक्तियों को वे रोप लेते हैं अपने अंदर और पीढ़ी दर पीढ़ी अभिशप्त जीवन व्यतीत करते हैं। उन्हें केवल फल ही दिखाई देता है परन्तु जड़ बीज और मूल तक तो उनकी दृष्टि ही नहीं पहुँचती है। .

         इस ब्रह्माण्ड में सारा खेल अदृश्य शक्तियाँ रचती हैं। अदृश्य शक्तियों के अंतर्गत देवता, गंधर्व, किनर, प्रेत, ब्रह्मराक्षस, अप्सरायें, योगनियाँ इत्यादि-इत्यादि जैसे अनेकों वर्ग हैं। ये सबके सब मनुष्य के इर्द-गिर्द विद्यमान रहते हैं। इन्हीं के कारण जीवन सुखी और दुखी होता रहता है। मनुष्य के प्रत्येक कर्म में इनका अंश निश्चित है। इनके स्थापन और विस्थापन की प्रक्रिया एक चेतनाशील व्यक्ति को अवश्य समझनी चाहिए। एक स्त्री का विवाह अत्यंत ही धूमधाम और रजामंदी से एक पुरुष के साथ होता है। कुछ महीने पश्चात स्त्री मायके में जाकर रहने लगती है बिना किसी कारणवश उसका मन ही पति के पास लौटने का नहीं होता। ऐसा क्यों हो रहा है? जब कुछ भी समझ में नहीं आता है तो लोग कह देते हैं उसका दिमाग खराब है। किसी स्त्री विशेष या पुरुष विशेष के मस्तिष्क में उच्चाटन की क्रिया कैसे हुई? बस यहीं पर आप अदृश्य योनियों की गति को पकड़ सकते हैं। कौन सी वह ताकत है जो कि मनुष्य को माध्यम बनाकर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रही है और उसे किस प्रकार से निष्कासित किया जाय? यही कार्य गुरु सम्पन्न करते हैं।

        एक व्यक्ति जो कि आपके प्रति अत्यंत ही अनुराग रखता हो कुछ दिनों बाद आपका सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है। अकारण ही ऐसा क्यों हुआ? इसके पीछे क्या वास्तविकता है? साधक को यह निश्चित समझना चाहिए। यही अद्वैत है। अगर समस्या का केन्द्र द्वैत हो तो फिर इस संसार में कोई दुखी ही न हो। द्वैत केन्द्र से तो मनुष्य अच्छी तरह निपटना जानता है परन्तु अद्वैत स्थिति एक आम व्यक्ति के वश की बात नहीं है। राजा से रंक और रंक से राजा, विफलता से सफलता पदहीनता से पद प्राप्ति, दरिद्रता से वैभव इत्यादि इत्यादि सभी परिस्थितियों के केन्द्र अद्वैत ही है अर्थात अगोचर और पंचेन्द्रियों के द्वारा न पकड़ में आने वाली स्थिति। आध्यात्मिक साधनायें इसीलिए आवश्यक हैं। आध्यात्मिक साधना शून्य से उत्पन्न करने की कला है। अद्वैत में तो सब कुछ विद्यमान है। दिक्कत बस उसे गोचर बनाने की है। इसी प्रक्रिया के लिए सम्पन्न किया गया कर्म साधना है। यही क्रिया योग है। जीवन को पवित्र, ऊर्ध्वगामी एवं सत्मार्ग पर चलाने की क्रिया । इसे ही कहते हैं साधना। वह साधना जिससे कि प्राप्त होने वाला अक्षय फल एक जन्म तो क्या कई जन्मों तक शक्ति प्रदान करता रहेगा। इसके मूल में जागृत हृदयपक्ष है, जागृत हृदय पक्ष में ही प्रेम की खेती होती है। यहीं पर गुलाब के फूल पल्लवित होते हैं, यहीं पर न खत्म होने वाली पद प्रतिष्ठा एवं प्राप्ति होती है। यहीं पर पद्म पर विराजमान महालक्ष्मी के दर्शन होते हैं। जिसने इसे समझ लिया, जी लिया, कर्मों को सम्पादित कर लिया वही निपुर्ण साधक कहलायेगा। उसी के आगे श्री शब्द शोभायमान हो गये। अंत में मैं कहता हूँ कि समझ-समझ के समझना भी एक समझ है और समझ समझ के भी जो न समझे मेरी समझ में वो नासमझ है। .

                        शिव शासनत: शिव शासनत:

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