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लेखक जब कोई कृति रचता है तो उसमे विभिन्न अच्छे-बुरे चरित्र होते है। इन चरित्रों की मनोदशा में अंतर से ही कथा में टकराव और रोचकता आती है। यदि टकराव नहीं होगा तो कथा नहीं कही जा सकती। और लेखक अपनी कृति के माध्यम से जब कोई सन्देश देना चाहता है तो या तो अमुक उद्भोदन नायक के माध्यम से होगा, या फिर लेखक इसे सूत्रधार के रूप में स्वयं कहेगा।
उदाहरण के लिए मदर इण्डिया में नायक सुनील दत्त नहीं है बल्कि नरगिस है। अत: जब बिरजू गाँव की बेटी को जबरन उठाकर ले जाने का प्रयास करता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि लेखक यह संदेश देना चाहता है कि किसी की बहन-बेटी को जबरन उठाकर ले जाना चाहिए !!
इसी तरह से जब रावण कहता है कि -- "यदि आपको कोई स्त्री भा जाए तो उसे छल-बल या कैसे भी अपने अधिकार में ले लेना चाहिए। यही वीर पुरुष की नीति है" तो यह सन्देश रामचरित मानस के लेखक की तरफ से नहीं है। यह रावण की मानसिकता है। और रावण कथा का नायक नहीं है।
बिधिहूँ न नारी ह्रदय गति जानी ।
सकल कपट अघ अवगुण खानी ।। ( भरत उवाच, अयोध्या काण्ड )
अर्थात - स्त्री के ह्रदय की गति ब्रह्मा जी भी नहीं जान सके। स्त्री सब छल-पाप और दोषों की खान है।
नारी सुभाऊ सत्य कब कहही ।
अवगुण आठ सदा उर रहहि ।। ( रावण उवाच, लंका काण्ड )
अर्थात - नारी का स्वभाव ही ऐसा है कि वह सत्य भासण नहीं करती। उसके ह्रदय में आठों अवगुण का वास होता है।
जो लोग भरत और रावण को नायक मानते हैं वे ही ऊपर दिए गए कथन पर विश्वास करेंगे। स्पष्ट है कि भरत और रावण द्वारा किया गया यह बकवाद अनुकरणीय नहीं है। क्योंकि भरत और रावण तुलसीदास जी की रामचरित मानस के नायक नहीं हैं। न ही ये मर्यादित है, और न ही तुलसी दास जी ने इन चरित्रों के माध्यम से कोई सन्देश देने के लिए रामचरित मानस की रचना की है।
इसी तरह ढोल गवांर …. के अधिकारी , कथन भी कथानायक श्री राम या सूत्रधार के रूप में लेखक तुलसीदास जी द्वारा नहीं कहा गया है। यह कथन समुद्र नामक चरित्र ने कहा है। और समुद्र खुद ही कहता है कि मुझे बुद्धि नहीं है, भले बुरे का ज्ञान नहीं है, इसीलिए मुझसे यह त्रुटी हुयी। तो किसी कथा में एक बेवकूफ या कमजोर चरित्र जो भी कहे न तो वह विचारणीय होता है न ही लेखक का हेतु होता है। यदि लेखक इस वक्तव्य को सही मानता था, और स्थापित करना चाहता था तो वह यह सन्देश कथा के नायक के माध्यम से देगा।
मेरा बिंदु यह है कि, रामचरित मानस में श्री राम क्या कहते हैं वह अनुकरणीय हो सकता है, या तुलसीदास जी क्या कहते हैं इसकी भी टीका की जा सकती है। किन्तु एक दोयम दर्जे का चरित्र समुद्र क्या कहता है, इस पर विचार करना खुराफात है। और सबसे बड़ी बेवकूफी यह है कि समुद्र के कथन को रामचरित मानस या तुलसीदास जी का प्रतिनिधि मान लिया जाए।
दरअसल इस चौपाई को विवादास्पद बनाने के पीछे लक्ष्य राजनैतिक थे। अलगाव बढ़ाने के लिए इसे इस तरह से प्रस्तुत किया गया और पाठको के एक वर्ग ने इसे जस का तस लपक लिया। और फिर उन्होंने इसे जस्टिफाई करने के लिए तरह तरह की व्याख्याएँ देनी शुरू की, जिसकी कोई जरूरत न थी। जहाँ तक मेरी बात है, मुझे इस चौपाई की सही व्याख्या करने में इंटरेस्ट नहीं है। क्योंकि समुद्र कथा का नायक नहीं। शोषक बाण से वो डिस्टर्ब हो गया था। और डिस्टर्ब आदमी जिस भी तरह से पेश आये अवहेलना करने योग्य है। शेष, जिसे जो अर्थ सूट करता है, वह वैसा अर्थ ले सकता है।
( मैं धर्म ग्रंथो आदि के ऐसे मामलों पर टिप्पणी नहीं करता हूँ। किन्तु इसमें पॉलिटिकल टच होने के कारण मैंने इस प्रकरण पर अपनी प्रतिक्रिया दी है। वस्तुत: यह टिप्पणी तुलसीदास के डिफेन्स में नहीं है। सिर्फ इस चौपाई के राजनैतिक कोण पर मेरा प्रतिभाव है। )
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