सनातन धर्म के चार प्रमुख आधार हैं जिन्हें हम गंगा, गीता, गौ और गायत्री के नाम से उच्चारित करते हैं। इन चार स्तम्भों पर ही समस्त आर्य संस्कृति टिकी हुई है। शक्तिशाली शरीर अन्य सभ्यताओं में बहुतायत पाये जाते हैं। विश्व की सभी सभ्यताएँ शक्तिशाली शरीरों से सुसज्जित हैं। इस पृथ्वी पर अनेकों वंश एवं अनेकों वर्ण के मनुष्य विराजमान हैं परन्तु उन सबमें आर्य ही सर्वश्रेष्ठ माने गये हैं। आर्य सर्वश्रेष्ठ क्यों हैं? किसी भी सभ्यता या मनुष्यों के वर्ग समूह की श्रेष्ठता उसमें प्रारम्भ से लेकर वर्तमान तक उत्पन्न हुए श्रेष्ठ महापुरुषों के कारण ही निर्मित होती है। आर्य सभ्यता में अनंतकाल से लेकर अब तक एक से एक श्रेष्ठ महामानव, महाअवतार, युगान्तकारी, युग प्रवर्तक, सम्पूर्ण विद्रोही, देवतुल्य एवं देवत्व से युक्त महापुरुषों, ऋषियों, राजाओं, मुनियों, त्यागियों, तत्वज्ञानियों, दर्शन 'शास्त्रियों इत्यादि का प्रादुर्भाव हो चुका है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट रूप से कहा है कि मैं वहीं पर विराजमान होता हूँ जहाँ पर सर्वश्रेष्ठता होती है इसीलिए विष्णु के सम्पूर्ण अवतार आर्य सभ्यता में ही अवतरित हुए हैं। अगर शरीर स्वस्थ है और मस्तिष्क अविकसित तो फिर मनुष्य एक सामान्य पशुता के गुणों से भरपूर जैविक संरचना है जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण जीवन बस कुछ प्रारम्भिक क्रियाएँ जैसे कि खाना- पीना, प्रजनन और युद्ध इत्यादि तक सीमित रहती है। सीमितता पशुता का द्योतक है। सिंह एक वन में ही रहता है, वहीं पैदा होता है, वहीं मर जाता है। श्वान एक गली में जन्म लेता है और सम्पूर्ण जीवन गली के चौराहे पर बिताता हुआ वहीं मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यह सब भयभीत, सीमित एवं आधे अधूरे मस्तिष्क की देन है। आजकल यही तथाकथित विचार मनुष्यों के समाज को भी दूषित कर रहा है। एक छोटा सा घर, एक छोटा सा फ्लैट तीन कमरे का दंड़वा, एक पति पत्नी और दो बच्चे बस सारी दुनिया, सारा जीवन, सारी ऊर्जा १० x१० के कमरे में सिमट कर रह गयी है। स्वार्थी जीवन मनुष्य का पर्याय बन गया है।
संयुक्त परिवार, देश, समाज और विश्व को भूलकर बस सबकुछ एक फ्लैट में सिमट गया है। यह जिन्दगी चूहे. के समान है। मूषक ब्रह्माण्ड का सबसे कायर प्राणी है। सबसे अनुत्पादक एवं विध्वंसक प्राणी है। इस तरह की कुप्रवृत्ति पाश्चात्य देशों की कलुषित, कुत्सित एवं पशुतापूर्ण सोच का नतीजा है। मनुष्य को छोटा बनाने की, बौना बनाने की प्रक्रिया है। यह हास का प्रतीक है। आर्य सभ्यता के विपरीत की यह विचारधारा है। आर्यों ने कहा समस्त पृथ्वी हमारी माता है, समस्त पृथ्वी के हम अधिकारी हैं, समस्त ब्रह्माण्ड हमारा है। यह है फैलने की कला नवीनता लिए हुए जीवन जीने की कला। ऊर्जा से लबरेज एक अति स्वस्थ एवं जिज्ञासु व्यक्तियों के समूह का उद्घोष यही कारण है कि कालान्तर आर्य मध्य एशिया, भारत, जर्मनी, लेटिन अमेरिका, भूटान, तिब्बत से लेकर सुदूर अमेरिकी महाद्वीप एवं अफ्रीका के अन्य हिस्सों में पल्लवित हुए, फले-फूले सोच में विस्तृतता, पावों में इतनी ताकत कैसे आर्यों में उत्पन्न हुई? कैसे आर्यों में प्रभु श्रीराम जैसे अवतारी उत्पन्न हुए? जिन्होंने अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी को एक सूत्र में पिरो दिया।
आर्यों में ही भगवान विष्णु का वामन अवतार भी हुआ जिन्होंने ढाई में पृथ्वी तो क्या समस्त ब्रह्माण्ड को लांघ दिया। आर्यों में ही त्रिकाल दृष्टा ऋषि, स्वप्र साधक, ज्योतिषी, अंक शास्त्री इत्यादि सभी तो उत्पन्न हुए आर्यों की इस सफलता के पीछे शरीर के साथ-साथ परमात्मा की परम देन मस्तिष्क की भी सबलता थी। आर्यों ने मस्तिष्क का विकास किया। मस्तिष्क की एक-एक क्रिया को भली-भांति समझा, मस्तिष्क की एक-एक कमजोरी को दूर करने के लिए ध्यान, प्राणायाम, तंत्र इत्यादि अनेकों प्राच्य विद्याओं का अविष्कार किया मस्तिष्क और शरीर की लयात्मकता बनाए रखने के लिए योग के गूढ़ सिद्धांतों को खोजा। आर्यों ने खोजा ही नहीं बल्कि इन विद्याओं में चरमता और असीमितता के साथ पारंगतता हासिल की। मस्तिष्क को उन्होंने केवल अंग मात्र नहीं समझा। उन्होंने मस्तिष्क से काम लेना भी सीखा। एक-एक कोशिका के विज्ञान को समझा। ध्यान रहे ज्ञान और विज्ञान अध्यात्म की ही शाखा हैं। ज्ञान और विज्ञान का तात्पर्य अध्यात्म के उस स्तर से है जिसका कि मनुष्य ने पता लगा लिया है परन्तु आर्य नकारात्मक एवं सीमितता की भावना से कभी ग्रसित नहीं हुए। वे समझ गये कि जो कुछ प्राप्त किया है वह तो मात्र अंशात्मक है। ब्रह्माण्ड असीमित है, शक्तियाँ असीमित है, ज्ञान असीमित है अतः खोजें भी असीमित होनी चाहिए।
आप भी असीमित बनिए। निरंतर आगे बढ़िये आगे बढ़ना ही नवीनता है, स्थान परिवर्तन भी करना पड़ेगा। मनुष्य चूहा नहीं है कि बस बिल में दुबका रहे। समस्त पृथ्वी को निहारिए। सर उठाकर ब्रह्माण्ड में देखिए, यात्राऐं कीजिए, कुछ कर गुजरिए । यही आपके वंशज, आपके पूर्वज महान आर्यों की जीवन शैली है। एक मकान, एक दुकान एवं अंगुलियों पर गिने जाने वाले रक्त सम्बन्धियों के लिए जिओगे तो फिर मृत्यु के समय मुश्किल से 10 लोग भी आपकी शव यात्रा में नहीं होंगे। कुछ ही वर्षों में भुला दिए जाओगे। इसे कहते हैं आधा-अधूरा जीवन, अपरिपक्व मस्तिष्क से युक्त मनुष्य, अतृप्त मृत्यु । अब सवाल उठता है कि आर्यों में इतनी शक्ति आयी कहाँ से, ऐसा कौन सा सूत्र उनके हाथ लग गया जिससे कि वे जीवन के सभी क्षेत्रों में तेजस्वी हो गये। ऐसी भी शक्ति ब्रह्माण्ड में है। युगान्तकारी, परिवर्तनकारी मंत्र भी उपलब्ध हैं। आपको तो बस इसका अनुसंधान करना है एवं इसे अपने अंदर प्रतिष्ठित करना है। इसे अपने अंदर क्रियाशील करना हैं और इस महामंत्र का नाम है चौबीस अक्षरों का गायत्री मंत्र। यह मंत्र उस महाशक्ति से सम्पुटित है जिसके द्वारा भस्तिष्क उध्वगामी होता है, संस्कारित होता है, शक्तिशाली एवं क्रियाशील होता है।
यह मंत्र ब्रह्माण्ड की प्रत्येक शक्ति को प्रत्येक रहस्य को मस्तिष्क से संस्पर्शित करा देता है। यही कारण है कि योगी योगेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण ने गीता में इशारा किया है कि मंत्रों में मैं गायत्री मंत्र हूँ अर्थात आध्यात्मिक जगत की सर्वश्रेष्ठ स्तुति है गायत्री स्तुति आप सनातन धर्म के किसी भी ग्रंथ को उठाकर देख लीजिए प्रत्येक पूजन में सर्वप्रथम गायत्री मंत्र का जाप अवश्यम्भावी है। प्रत्येक गुरु दीक्षा के समय गुरु मंत्र के साथ गायत्री मंत्र अवश्य देता है। ऐसा इसलिए किया जाता है कि मस्तिष्क के अंदर उस आधारभूत शक्ति का स्थापन किया जा सके जिससे कि मस्तिष्क की उर्वरता पुनः बढ़ सके अनेका क्रिया से खंड खंड भ्रमित एवं सुप्त हो गई चेतना शक्ति, विचार शक्ति एवं तर्क शक्ति पुनः एकीकृत हो सके। नकारात्मकता की प्रवृत्ति से ग्रसित बुद्धि की ग्रंथि पुनः श्राप मुक्त हो सके। नकारात्मकता की शक्ति अनुत्पादक है अर्थात यह स्वयं का भक्षण करने की विनाशक प्रवृत्ति है।
पशु स्वयं के बच्चों को खा जाता है। पशुरूपी गुणों से युद्ध मनुष्य अपनी नकारात्मक सोच से स्वयं के मस्तिष्क का गुड़ गोबर कर लेता है। नकारात्मक कारनामों से रावण के समान स्वयं के साथ-साथ सारे कुल, वंश का सर्वनाश कर बैठता है। कहावत है कि - सत्तर पुत्र बहत्तर नाती। उस रावण घर दिया ना बाती॥ अर्थात मस्तिष्क इतना समृद्धशाली, वैभवशाली राक्षस जाति का अंत रावण के कारनामों से हो गया। सीधी सी बात है रावण का मस्तिष्क सात्विक नहीं था। सात्विक कैसे होता वह गायत्री मंत्र का उल्टा मंत्र जपता था। उसका मस्तिष्क तो स्त्री में लिप्त था, उसके मस्तिष्क की खुराक वासना थी। यही सब तो पतन के कारण हैं। सारी समस्याओं के पीछे बीमार सीमित, कुण्ठित एवं सड़े-गले मस्तिष्क दिखाई पड़ते हैं। आज के युग में तो मस्तिष्क इतने सड़ गल गये हैं कि मनुष्य के मस्तिष्क की शक्ति मेंढक जैसे प्राणी के मस्तिष्क से भी कम हो गई है।
जब मस्तिष्क विचार ही नहीं पकड़ पा रहे हैं तो फिर अध्यात्म कहाँ से स्थापित होगा। जिस समस्या का समाधानं कुछ सेकेण्ड में स्वयं मस्तिष्क दे सकता है उसी को समझते-समझते मनुष्य को वर्षों लग जाते हैं। कारण सीधा सा है मस्तिष्क के सोचने, कार्य करने, समझने, विचार करने एवं पुनः स्फूर्तिवान होने की रफ्तार घट गई है। रफ्तार क्यों घट गई है? मस्तिष्क क्यों धीमा पड़ गया है? संवेग क्यों आसानी से मस्तिष्क ग्रहण नहीं कर पाता है? सीधा सा कारण है सब कुछ मस्तिष्क के अंदर अवरोधित हो गया है ठीक उसी प्रकार से जिस प्रकार ऊबड़-खाबड़ सड़क पर हिचकोले खाते हुए वाहन चलता है। वैसे ही मस्तिष्क की प्रत्येक क्रिया चल रही है। गायत्री रूपी महाशक्ति को जिस दिन आपने आत्मसात कर लिया उस दिन आप आधी लड़ाई जीत गये। मस्तिष्क को समझना होगा। स्वयं की क्रियाओं का सूक्ष्मताओं के साथ निरीक्षण करना होगा। सीमितता के तथाकथित सामाजिक एवं पारिवारिक सिद्धांत को लात मारनी होगी तब कहीं जाकर ऋषि युक्त मस्तिष्क के आप स्वामी होंगे। स्वामी शब्द को गम्भीरता से लीजिए। आपको स्वामी बनना होगा स्वयं के मस्तिष्क का स्वामी आदेश देता है। स्वामी नियंत्रण करता है। स्वामी दण्ड देता है। स्वामी का मतलब है श्रेष्ठता इसके विपरीत गुलामी और दासता है। कोई किसी का गुलाम नहीं होना चाहता। सर्वप्रथम स्वयं की गुलामी दूर कर लो। स्वयं की दासता को मार भगाओ। ऐसा मस्तिष्क किस काम का जो शाम होते ही शराब मांगे। यह तो निम्न श्रेणी की दासता है। इसे कहते हैं आदी हो जाना।
आज के युग में ऐसे ही मनुष्यों की भरमार है। खुद की गुलामी से तो मुक्त हुए नहीं स्वतंत्रता की बात, विद्रोह की बात करके थोड़ी बहुत अपने आपको सांत्वना दे देते हैं। ऊपर जो कुछ भी कहा गया है यह सब गायत्री मंत्र का मर्म है। हर युग में इसी मर्म को विभिन्न तरीके से व्यक्त किया गया है। प्रत्येक ऋषि मुनि साधक एवं गुरु ने गायत्री मंत्र को धारण किया है। शारीरिक क्रियाओं एवं भौतिक कर्मों के आधार पर कोई मनुष्य पूजनीय नहीं बन सकता उसके लिए अद्वैत आध्यात्मिक क्रियाओं की जरूरत है। शून्य से उत्पत्तिकरण, अदृश्य से सदृश्य करने की क्षमता मस्तिष्क में तभी विकसित होगी जब वह गायत्री शक्ति से संचालित होगा। संचालन अनेकों शक्तियों से हो सकता है परन्तु ध्यान रहे कोयले या तेल से चलने वाला इंजन पृथ्वी के गुरुत्व को नहीं भेद सकता। पृथ्वी को लांघने के लिए अति परिष्कृत अणु रूपी ईंधन की जरूरत होती है । जब पृथ्वी को लांघने के लिए अणु रूपी ईंधन की जरूरत है तो फिर मानसिक एवं अधि भौतिक शरीर की क्रियाशीलता के लिए तो परम सात्विक गायत्री शक्ति ही आत्मसात करनी होगी।
आज के युग का एक उदाहरण देता हूँ। गायत्री शक्ति पीठ के संस्थापक गुरुदेव श्रीराम शर्मा जी आचार्य गायत्री के परम उपासक रहे हैं। मथुरा के एक छोटे से कमरे से इस कलियुग में गायत्री की उपासना प्रारम्भ की। गायत्री की अनन्य कृपा से सभी सूक्ष्मआद्य ऋषि शक्तियों ने इतनी कृपा, सहयोग एवं सिद्धियाँ प्रदान की कि देखते ही देखते कुछ वर्षों में ही उन्होंने हजारों की संख्या में अमूल्य ग्रंथ लिख डाले। करोड़ों भटकते हुए लोगों को दीक्षित कर दिया। देखते ही देखते लाखों परिवार संस्कारित एवं शुद्ध हो गये। कितनी ज्यादा सात्विकता मात्र एक ऋषि तुल्य शरीर ने उत्पन्न कर दी, कितना बड़ा कार्य कर दिया। जिस कार्य को पिछले 60-70 वर्षों में इस देश की तथाकथित राजनैतिक, सामाजिक एवं प्रशासनिक संस्थाऐं नहीं कर पायीं वह कार्य मात्र एक ऋषि मस्तिष्क ने सम्पन्न कर दिया। इसे कहते हैं। चमत्कार। इसे कहते हैं सनातन एवं वेदान्ती मस्तिष्क की शक्ति। वेदान्ती एवं सनातन मस्तिष्क अगर वास्तव में जागृत एवं क्रियाशील हो उठे तो फिर युग परिवर्तन निश्चित है। इसे कहते हैं शंकराचार्य का अवतरण मेरे गुरु ( श्री निखिलेश्वरानंद जी महाराज) भी इसी श्रेणी में आते हैं।
इस ब्रह्माण्ड का इतिहास अरबों-खरबों वर्ष पुराना है। इन अरबों खरबों वर्ष में न जाने कितने अद्भुत संयोजन ब्रह्माण्ड में उत्पन्न हुए और विलीन हुए। एक से एक विलक्षण एवं विहंगम और विचित्र चित्र ब्रह्माण्ड के पटल पर आकृति लेते रहे हैं परन्तु जैविक मस्तिष्क के रूप में एक अति दुर्लभ संरचना अपने आप में अनोखी है। ब्रह्माण्ड को इस पर विराज है मस्तिष्क का निर्माण अनेकों ब्रह्माण्डीय क्रियाओं का फल है। मस्तिष्क के रूप में जैविक कोशिकाओं का यंत्रमय गठन इतना उन्नत है कि इसकी शक्ति किसी भी ग्रह के धरातल को बदल सकती है। मस्तिष्क से ही तमाम यंत्र प्रादुर्भाव में आये हैं। रेलगाड़ी, राकेट, औषधि शास्त्र इत्यादि अनेकों या सभी प्रकार का ज्ञान मस्तिष्क से ही संस्पर्शित हो आकार ले सका। मस्तिष्क की क्षमता अनंत है। जैविक मस्तिष्क चाहे तो चन्द्रमा की सतह पर जी सकता है, मंगल के धरातल को बदल सकता है। सूर्य की परिक्रमा कर सकता है। यह सब मस्तिष्क भौतिक रूप से भी सम्पन्न कर सकता है तो वहीं मानसिक, आत्मिक एवं परादैहिक प्रक्रिया के द्वारा भी सम्पन्न कर सकता है।
ध्यान रहे जैविक मस्तिष्क केवल भौतिक क्रियाओं के लिए ही नहीं है। ऐसा सोचना मूर्खता की निशानी है। कुछ हद तक मस्तिष्क नियंत्रण का केन्द्र हैं इस ब्रह्माण्ड में जो मस्तिष्क आवश्यकता पड़ने पर हाथों को पंखों में ढाल सकता है, जरूरत पड़ने पर फेंफड़ों को पानी में श्वास लेना सिखा सकता है वही मस्तिष्क आने वाले समय में जीवन को अन्य नक्षत्र मण्डलों में भी स्थापित करने में भी सक्षम है। मस्तिष्क की क्षमता एवं प्रतिभा के मूल में है गायत्री छंद की शक्ति एवं गायत्री छंद की शक्ति के मूल में ब्रह्मा के एकोऽहं बहुस्याम होने की स्फूरणा अर्थात एक ब्रह्म शक्ति से अनेकों स्वरूप में ब्रह्म के स्थापित होने की इच्छा। यही तो मूलभूत चिन्तन है मस्तिष्क का मस्तिष्क कभी भी मरना नहीं चाहता है उसके अंदर सबसे प्रबलतम इच्छा अमृत्यु की है, बस इसी प्रबलतम इच्छा के चलते ही मस्तिष्क हमेशा जीवित रहता है, नवीन रूप धरता है, कपड़े के समान एक खोपड़ी से निकलकर दूसरी खोपड़ी में स्थापित होता रहता है।
जरूरत पड़ने पर नवीन खोपड़ी का भी निर्माण कर लेता है। एक से अनेक होने की प्रारम्भिक एवं मूलभूत आवश्यकता ही मस्तिष्क को सम्प्रेषण शक्ति प्रदान करती है। सम्प्रेषण मस्तिष्क की मूलभूत जरूरत है। मस्तिष्क सम्प्रेषण के लिए भी बाह्येन्द्रियों एवं नाना प्रकार की अंतेन्द्रियों की चुपचाप रहता है।
मस्तिष्क को सम्प्रेषण चाहिए मस्तिष्क से, मस्तिष्क विहीन वनस्पतियों से एवं अनेकों अदृश्य पराचेतन एवं सूक्ष्म शक्तियों से मस्तिष्क संगठन है यह संगठित करता है सभी शक्तियों को एक साथ अत्यधिक परिष्कृत रूप में संगठन के अंदर संगठन और फिर संगठन यही अनंत संरचना है मस्तिष्क की। न जाने कितने संगठनों का महासंगठन है हमारा मस्तिष्क। अनंतकाल से हम मस्तिष्क को समझने की कोशिश कर रहे हैं जितना समझते हैं कम ही लगता है। न जाने कब कौन सा मस्तिष्क कौन सी विचित्र क्रिया सम्पन्न कर दे। द्वितीय विश्व युद्ध के मूल में एकमात्र हिटलर में का विचित्र मस्तिष्क ही केन्द्र के रूप में उभरा है। विचित्र इसलिए क्योंकि वह मस्तिष्क विशेष है। एक तरफ उसका मस्तिष्क यहूदी स्त्री से प्रेम का सम्प्रेषण कर रहा है तो दूसरी तरफ यही मस्तिष्क समूचे यहूदी समुदाय के विनाश को भी निर्देशित कर रहा है। हिटलर तंत्र विद्या में दक्ष था उसके साथ उस जमाने का मशहूर तांत्रिक हिमलर 24 घण्टे रहता था। ज्योतिषियों का पूरा एक समूह उसे मंत्रणा प्रदान करता था। अनेकों वैज्ञानिक उसके निर्देशानुसार क्रियाशील थे। हिटलर भी आर्य था। द्वितीय विश्व युद्ध तो आर्यों और अनार्यों की लड़ाई थी। हिटलर भी आर्य नस्ल में ही उत्पन्न हुआ है। प्रत्येक हमले से पहले जर्मनी की सेना पूर्ण रूप से तंत्र शास्त्र का सहारा लेती थी। एक एक पल की ब्रह्माण्डीय गणना ज्योतिषी तय करते थे। एक से एक यज्ञ एवं अनुष्ठान सम्पन्न किए जाते थे।
कहने का तात्पर्य है कि तंत्र ज्योतिष, अध्यात्म, साधना के अभाव में किसी भी विराट परिवर्तन की अपेक्षा रखना बेकार है क्योंकि महापरिवर्तन में अनिश्चितता होती है। अनिश्चितता अद्वैत का द्योतक है। एक सफल और एक निष्फल मस्तिष्क में यही फर्क है कि सफल मस्तिष्क स्वेच्छा और सबलता से अद्वैत की चुनौती को स्वीकार करता है। यही है वीरता की प्रतीक आर्य मस्तिष्क की निशानी बुद्ध अनिश्चित थे फिर भी वन की तरफ गमन किया बुद्धत्व प्राप्ति हेतु, सत्य को समझने हेतु विवेकानंद की जेब में फूटी कौड़ी नहीं थी फिर भी अमेरिका में होने वाली धर्म सभा के लिए प्रस्थान किया। लक्ष्य ने इनके कदम चूमे। दूसरी तरफ टमाटर के समान सड़े और पिलपिले मस्तिष्क हैं जो पशु के समान बस हरे-हरे चारागाह को पहचानते हैं। अद्वैत से भागते हैं। ऐसे मस्तिष्क बस लोथड़े बनकर रह जाते हैं। घोड़े की आँख पर हरा चश्मा बाँध दो वह भूसे को भी हरी घास समझकर खाने लगेगा। इन लोगों के लिए गायत्री छंद नहीं है। जो मस्तिष्क सम्प्रेषण नहीं कर सकता वह अर्जुन के समान सर्वश्रेष्ठ शिष्य नहीं बन सकता। अर्जुन ने आँख में आँख डालकर प्रश्न किए, अपने मस्तिष्क के अंदर कहीं गहरे में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं को पूरी तन्मयता के साथ महामानव स्वरूप में उपस्थित परम ब्रह्म रूपी मस्तिष्क के कारक प्रभु श्री कृष्ण के सामने एक-एक करके प्रस्तुत किया।
आप भी अपने मस्तिष्क के प्रत्येक तल पर उठने वाले प्रश्नों और जिज्ञासाओं को अपने गुरु के सामने रखो। यही विधान है, मस्तिष्क को पाप मुक्त करने का भय मुक्त करने का, उसे उर्ध्वगामी बनाने का सम्प्रेषण जरूरी है, दीक्षा जरूरी है, दिव्य चक्षुओं की प्राप्ति भी जरूरी है। त्रिनेत्र साधना के साथ साथ अनंत नेत्र साधना भी करनी चाहिए। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। सभी के मस्तिष्क में असंख्य नेत्र लगे हुए हैं। आप अदृश्य आँखों से भी देख सकते हैं। मस्तिष्क के पास अदृश्य हाथ भी हैं। मस्तिष्क के पास अदृश्य मुँह भी हैं, मस्तिष्क एक साथ कई प्राणों को अपने अंदर स्थापित कर सकता है। मस्तिष्क अपने वजन को दस गुना .बढ़ा और घटा भी सकता है। यह सब गायत्री क्रिया के अंतर्गत आता है। मस्तिष्क के गायत्री मय होने पर एक से एक परालौकिक कार्य सम्पन्न होने लगते हैं।
विश्वामित्र ब्रह्मऋषि तभी बने जब उन्होंने गायत्री को अनुभूत कर लिया उससे पहले तो वे राजऋषि ही थे। ऋषियों में भी विभिन्न श्रेणियाँ हैं। राजऋषि की सक्रियता सिर्फ भूमि पर है परन्तु जैसे ही राजऋषि से ऊपर उठकर ब्रह्मऋषि की श्रेणी आती है मस्तिष्क एक झटके से पूर्ण परिवर्तित हो जाता है। उसकी शक्ति ब्रह्माण्डीय शक्ति हो जाती है। वह एक ऐसा स्वरूप ग्रहण कर लेता है जो कि इस समस्त ब्रह्माण्ड के प्रत्येक कण को स्वीकार्य होता है। इस प्रकार का मस्तिष्क कामरहित, लोभरहित, मोहरहित एवं श्वास और भोजन रहित होता है। ऐसा मस्तिष्क ब्रह्माण्डीय शरीर धारण करता है। साधारण जैविक शरीर की सीमाऐं हैं विशेषकर वह पृथ्वी का दास होता है एक क्षण के लिए भी पृथ्वी से अलग होने पर उसका नाश हो जाता है परन्तु ब्रह्माण्डीय स्वरूप ग्रहण करने पर इस ब्रह्माण्ड के प्रत्येक ग्रह पर वह विचर सकता है। इसे कहते हैं सूक्ष्मीकरण । ब्रह्मऋषि ब्रह्मलोक के वासी होते हैं चेतनापुंज होते हैं। राजऋषि एवं अनेकों योगीजन इन्हीं के द्वारा नियंत्रित होते हैं। विश्वामित्र को ब्रह्मऋषि बनने में आधी सदी लग गई। ब्रह्मत्व ही गायत्री शक्ति का कल्प फल है।
ब्रह्म को धारण करना ही तो ब्राह्मणत्व है। ब्राह्मणत्व के प्रादुर्भाव से शरीर ब्राह्मण कहलाता है। ब्रह्म पाप रहित है, काम रहित है। निर्लिप्त एवं निर्मल माता गायत्री परम निर्मला हैं। उन्हीं की कोख से निर्मल, निश्चल, नियमित एवं नवीन ब्राह्मणत्व लिए हुए ऋषि पुत्रों का जन्म होता है। इन्हीं पर ब्रह्मऋषियों की असीम कृपा बरसती है। इन्हीं के चरणों में लक्ष्मी नृत्य करती है। इन्हीं से सम्प्रेषित हो जनसमुदाय सात्विकता ग्रहण करता है। ऐसे ही ऋषिपुत्र लीलाधारी होते हैं। इनकी क्रियाओं से सात्विकता ही बरसती है। इतिहास में केवल गायत्री पुत्र ही मंगल मूर्ति के रूप में स्थापित हुए हैं। जो स्वयं पाप विहीन हैं एवं दूसरों को ताप, शाप और पाप विहीन करने की क्षमता रखता हो वही वास्तविक साधक हैं माँ गायत्री के । वही गुरु कहलाता है। गायत्री एवं उसके पुत्रों का एकमात्र लक्ष्य है पाप का नाश। सत्य से सावित्री और सावित्री से गायत्री तक की लम्बी यात्रा ही ब्रह्मऋषि का पथ है। सत्य ही परम ब्रह्म है। इसी पथ का सभी अनुशरण करते हैं चाहे वे आदि गुरु शंकराचार्य जी हों, विश्वामित्र हो या फिर निखिलेश्वरानंद जी महाराज हों।
शिव शासनत: शिव शासनत:
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