भगवान वेदव्यास ने 18 पुराणों का पुनरुद्धार किया उन्हें वर्गीकृत किया। चारों वेदों को श्रृंखलाबद्ध किया उपनिषदों की रचना की अनेकों दिव्य मंत्र रचे यहां तक की महाभारत की रचना भी उनके श्री कर कमलों के द्वारा हुई। सृष्टि का समस्त ज्ञान उन्होंने अपने एक जीवन में रच कर रख दिया। लोग तो एक शब्द भी नहीं लिख पाते पर उन्होंने दिव्य शिव ज्ञान को मानव समाज के लिए एक जीवन में ही सूचीबद्ध संकलित संरक्षित एवं लिपिबद्ध करके रख दिया।
जब भगवती त्रिपुर सुंदरी की आज्ञा होती है तभी जातक को शिव के षष्टम अर्थात छठेवें ऊर्ध्व मुख का साक्षात्कार होता है। शिव के 5 मुख के बीच उनका अति गोपनीय ऊर्ध्व की तरफ उठा हुआ षष्ठम मुख्य स्थापित है यही षष्ठम मुख्य समस्त आगम ज्ञान का ग्रहणर्कता है। दिव्य महा कैलाश में शिवजी अर्ध चंद्रासन रूपी आसन पर विराजमान हो दिव्य व्यास गुफा में ज्ञान का संग्रहण करते हैं इस गुफा के बाहर शिवजी अपनी पादुकाई छोड़ जाते हैं और शिव लोक में रहने वाले समस्त जीव जब तक कि शिवजी गुफा से बाहर नहीं आते जाते इन पादुका को ही गुरु मानकर उसी का ही पूजन भजन करते हैं।
किसको कितना गुरुत्व को देना है किस के अंदर कितने गुणों का विकास करना है कब तक एक जातक विशेष में गुरुत्व की स्थापना करनी है किस युग में किसे जगत गुरु के रूप में स्थापित करना है कब किसके द्वारा ज्ञान विज्ञान की विशेष श्रृंखला उद्धारित करवानी है किसके हाथों से किस विशेष ग्रंथ काव्य या मंत्र इत्यादि की संरचना करवानी है इन सब का निर्माण दिव्य महा कैलाश में स्थित व्यास पीठ पर बैठकर भगवान शिव निश्चित करते हैं। इस ब्रह्मांड में ज्ञान का कितना गुरुत्व प्रवाहित करना है इन सब निर्णयों का एकाधिकार भगवान शिव के व्यास अवतार को है। दिव्य व्यास गुफा के बाहर जब भगवान शिव व्यास आसन पर परम गुरु के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं तब उनके बाएं और भगवती उमा साक्षात सरस्वती रूप में विराजमान होती है एवं गणेश जी दाएं और विराजते हैं और सामने गुरु मंडल के दिव्य गुरु सिद्ध इत्यादि पूर्ण शिष्य भाव में भगवान शिव को निहारते हैं। शिव उवाच ऐसे ही प्रारंभ नहीं हो जाता जब उमा भगवान शिव से प्रश्न करती है तब शिव अपने श्री मुख से ज्ञान की दिव्य धारा प्रवाहित करते हैं और उमा इस समय स्वयं शिव की तरफ मुख करके बैठती है एवं गुरु मंडल और सिद्ध मंडल के साधकों की तरफ से प्रश्न करने का अधिकार केवल उमा को होता है उमा शालीनता के साथ शिव से प्रश्न करती है और शिव प्रसन्नता के साथ उमा की एक-एक शंकाओं का सास्वत निवारण करते हैं।
कालांतर शिव के मुख से उच्चारित दिव्य ज्ञान को गुरु मंडल एवं सिद्ध मंडल संकलित करता है सूचीबद्ध करता है और जब जब जरूरत पड़ती है तब तब शिव की आज्ञा से ज्ञान विशेष की आवृत्ति या सृष्टि में योग्यता अनुसार प्रवाहित की जाती है और इस प्रकार ज्ञान गंगा का सृजन होता है।
ज्ञान गंगा भी आदिशक्ति गंगा के समान उन्मत्त होती है। किसी भी जीव में इतनी शक्ति नहीं कि वह ज्ञान गंगा को आत्मसात कर सके तब भगवान शिव महर्षि व्यास के रूप में किसी ना किसी को उदित करते हैं जो ज्ञान गंगा को अपनी जटाओं में समेट कर उसे सुगमता के साथ पृथ्वी पर प्रवाहित कर सकें पृथ्वी के योग्य उसे अनुकूल कर सके। धर्म का लोप क्यों होता है? दिव्य शिव ज्ञान आज की गंगा के समान प्रदूषित क्यों हो जाता है क्योंकि कुछ असुर प्रवृत्ति के जातक राज्य की कुत्सित भावनाओं से पृथ्वी से चिपके हुए होते हैं जब ब्रह्मा को शिव ने सृष्टि रचना का अधिकार दिया तब उन्होंने स्पष्ट कहा कि रचना कल्याणकारी होनी चाहिए शिवानुरूप होनी चाहिए परंतु दुर्भाग्य से कुछ रचनाएं शिव विरुद्ध हो गई और वे शिव शासन को त्याग कर स्वशासन के मार्ग पर चल बैठी। ऐसी रचनाएं असुर स्थापनाये कहलाई और इस प्रकार असुर धर्म का उदय हुआ।
पूजा करने का अधिकार उपासना करने का अधिकार अनुष्ठान करने का अधिकार इत्यादि का निर्णय भी व्यासपीठ से ही तय होता है। व्यासपीठ भगवान शिव की सर्वोच्च पीठ है। मैं किसी भौतिकी या सांसारिक पीठ एवं ट्रस्ट की बात नहीं कर रहा हूं हो सकता है भगवान व्यास के नाम से कोई सांसारिक या भौतिक पीठ रजिस्टर्ड हो अतः उससे हमें कोई लेना देना नहीं है हम तो शिवलोक के दिव्य गुरु मंडल में स्थापित व्यासपीठ की बात कर रहे हैं। लोग कहते हैं हमारा मंत्र जप में मन नहीं लगता अनुष्ठान के समय वे ऊंघते है तीन घंटे की फिल्म देख सकते हैं परंतु एक घंटे भी अनुष्ठान में नहीं बैठ सकते। बहुत से लोगों को पूजा पर विश्वास नहीं होता अनुष्ठान उन्हें अवैज्ञानिक लगते हैं ऐसा क्यों? किसने दिया इन्हें अधिकार। पूजन उपासना मंत्र जप अनुष्ठान गुरु सानिध्य इत्यादि के क्षण दिव्य एवं विहंगम होते हैं और जातक की अति सूक्ष्मातीत कुंडलिनी को जागृत करने का निर्मित होते हैं जब तक शिवकृपा नहीं होगी भगवती त्रिपुर सुंदरी का आशीर्वाद नहीं होगा जातक इन सब में निमग्न नहीं हो सकता और जो निमग्न हो गया फिर वह कहीं और मगन नहीं होगा।
भाग्य क्या है? सौभाग्य क्या है? मैं मानता हूं कि वास्तविक भाग्योदय तभी होता है जब जातक आध्यात्म के विशुद्ध पथ पर भगवती त्रिपुर सुंदरी की कृपा से आ जाता है। यह राजपथ है जिस प्रकार मुख्य सड़क पर वाहन चलाना अत्यधिक अनुकूल होता है ठीक उसी प्रकार राजपथ रूपी विशुद्ध अध्यात्म के पथ पर चलना श्रेष्ठतम अनुकूलन है। कब तक चलोगे पगडंडियों पर कच्चे रास्तों पर टेढ़ी-मेढ़ी डगरो पर। बड़ी फिसलन है बड़े खतरे हैं फिसलना मत फिसले तो कीचड़ में सराबोर हो जाओगे।
जब गुरुत्व शक्तिपात के माध्यम से प्राप्त होता है तभी पांव में इतनी शक्ति आती है कि अंधकार में भी फिसलन से भी ऊबड खाबड़ रास्तों पर भी कदम नहीं डगमगाते। जहां कदम रखते हैं वही कदमों के निशान बन जाते हैं इसलिए गुरु की चरण पादुका पूजी जाती है। व्यास आए इस पृथ्वी पर आज भी हैं इस पृथ्वी पर कुंडलिनी शक्ति धारण किए तेजोमय प्रकाश शरीर में। आज भी उनकी खड़ाऊ रखी हुई है खड़ाऊं पहन कर वे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में डग भरते रहे पग भरते रहे पर कहीं पांव फिसले नहीं पांव भटके नहीं कहीं पांँव उलझे नहीं कहीं किसी घररौंदो मैं पहुंच सुस्त होकर टिके नहीं चलते रहे निरंतर गतिमान रहे। शंकराचार्य जी को ब्रह्म सूत्रम पर भाष्य लिखना था उन्होंने बद्रीनाथ की व्यास गुफा में 4 वर्ष तक बैठकर अनेकों दिव्य भाष्यों की संरचना की। 1 दिन काले वर्ण के ब्राह्मण के रूप में भगवान व्यास आ पधारे 4 दिन तक शंकराचार्य जी से शास्त्रार्थ करते रहे उनके लिखे भाष्यो को देखते रहे अंत में प्रसन्न हो बोले हे शंकर तुम शिव के अंशावतार हो शिव के आदेशानुसार ही कार्य कर रहे हो मेरे भाष्य पर इस कलयुग में तुम ही हो जो टीका लिख सकते हो। मैं तुम पर प्रसन्न हु आ जाओ जगत गुरु के रूप में स्थापित होओ यह व्यासपीठ का आदेश है। तुम मेरे प्रशिष्य हो इसलिए विशेष आशीर्वाद गुरु गोविंदपाद मेरे ही शिष्य रहे हैं और उनके शिष्य हुए गुणाचार्य एवं गुरु गौंणाचार्य से तुम दीक्षित हो।
आचार्य शंकर की आयु भगवान शिव ने 16 वर्ष निश्चित की थी आयु के अंतिम चरण में थे आचार्य शंकर तत्काल समाधिस्थत हो प्राण त्यागने की तैयारी में लग गए तभी भगवान वेद व्यास ने कहा नहीं शंकर ऐसी चेष्टा मत करो अभी बहुत से कार्य बाकी है अतः मैं तुम्हें 16 वर्ष की आयु और प्रदान करता हूं। 16 वर्ष और रहो पृथ्वी पर एवं अपने कार्य को पूर्ण करो इस प्रकार 16 वर्ष का अतिरिक्त कार्यकाल आचार्य शंकर को वेदव्यास जी ने प्रदान कर दिया। मैं कहना यह चाह रहा हूं कि जब आदि गुरु शंकराचार्य जी को ग्रंथ लेखन की अनुमति जगतगुरु की उपाधि कार्यकाल का बढ़ना इत्यादि भगवान वेदव्यास ने दिया तब एक आम आध्यात्मिक साधक की क्यामजाल? कि बिना व्यासपीठ की आज्ञा के वह कुछ कर सके। अधिकांशत: आध्यात्मिक साधक इसलिए फिसल जाते हैं उलझ जाते हैं भ्रष्ट हो जाते हैं मार्ग भटक जाते हैं क्योंकि सद्गुरु का आदेश उनके साथ नहीं होता इच्छा स्वरूपिणी भगवती त्रिपुर सुंदरी की इच्छा नहीं होती कि वह अध्यात्म के पद पर कुछ कर सके।
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