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गुरु क्या है ?

गुरूर्चिन्त्यं रूपं अहेतुं प्रमेयं ध्यानं विचिन्त्यं परमेव पाद्यं । 
ग्राहां सतां पूर्ण मदैव तुल्यं निर्वेद रूप मपरं गुरूवै सहेतुम्।।

         हमारा जीवन क्या है ? यह एक महत्वपूर्ण ऋषि चिंतन है, एक महत्वपूर्ण कथन है। यदि जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, जीवन का कोई चिंतन नहीं है तो फिर जीवन किसलिए? किसे हम जीवन कहें? क्या सांस लेने की क्रिया को हम जीवन कह सकते हैं ? क्या जिंदा रहने की कल्पना को हम जीवन कह सकते हैं? क्या संतान उत्पन्न करने की भावना को हम जीवन कह सकते हैं? क्या दो चार मकान, गाड़ी, बंगला और धन दौलत जमा करने का नाम ही जीवन है ? यह सब तो जीवन के एकमात्र लक्ष्य नहीं हैं, इन लक्ष्यों के माध्यम से तो जीवन का निर्माण नहीं हो सकता और जब जीवन का मूल्य और महत्व ही ज्ञात नहीं है, जीवन का अर्थ और जीवन का मकसद ही हमें पता नहीं है तो फिर हम वैसे ही पशु हैं जो डोलते रहते हैं एक अज्ञात नकेल डाले हुए, उनको स्वयं ज्ञात नहीं होता कि वे किस तरफ जा रहे हैं, उनकी मंजिल क्या है? उनकी मंजिल कहाँ समाप्त होगी ? 

      जिस रास्ते के प्रारम्भ का पता नहीं है, जिस रास्ते के अंत पता नहीं है, उस रास्ते पर चलना तो अंधे की तरह से चलना होता है। जिसका सूत्र हमारे हाथ में नहीं है, जिसका चिंतन और ज्ञात हमारे हाथ में नहीं है तो हम किन शब्दों से उसे जीवन कह सकते हैं। क्या हमने अपने जीवन के मकसद को समझा है ? क्या हमने कभी निर्णय लिया है कि जीवन के किस भाग पर हम खड़े हैं? हमने तो कभी सोचा ही नहीं, हमने तो बस भोग-विलास को ही जीवन मान लिया, हमने तो श्वास लेने की क्रिया को ही जीवन मान लिया, हमने तो जिंदा रहने की कल्पना को ही जीवन मान लिया है, कपड़े पहनना और कपड़े छोड़ देना, भोजन करना, पानी पीना, टी.वी सिनेमा देखना, घूमना-फिरना, मौज मस्ती करना इत्यादि तो जीवन के न्यूनतम आयाम है।

     जीवन तो किसी और ताने बाने से बुना होता है, जीवन तो वह है कि जिसका सूत्र हमारे हाथ में होता हो, जीवन तो वह है जिसका कि मर्म हमें ज्ञात हो । हम जिंदा तो हैं, सामाजिक और वैज्ञानिक परिभाषा में हम जीवित हैं मगर शास्त्रीय पद्धति में हम मृत हैं क्योंकि विज्ञान तो कहता है कि जिसमें चेतना नहीं है, जिसमें इस बात का होश नहीं है कि मैं क्या हूँ ? कहाँ जा रहा हूँ? कहाँ पहुँचना है? वह मृत है। मैं सबसे पहले आप को यह समझाना चाहूँगा कि अगर तुम जीवन को नहीं समझ पाये तो रोज सैकड़ों समस्याएं आयेंगी क्योंकि आप के जीवन का सूत्र आप के हाथों में ही नहीं है, हमने चाँदी के चंद टुकड़ों को जमा करना ही जीवन मान लिया है, दो चार मकान बनाने को ही जीवन मान लिया है।
 
        चाहे आप निर्धनता में जियें या वैभवता में जियें जब तक जीवन के मूल चिंतन को नहीं समझेंगे तब तक भटकते रहेंगे। कौन तुम्हें बताएगा कि तुम्हारे जीवन का मकसद क्या है? कौन बताएगा कि कैसे जीवन जियें ? क्या आपाधापी में भागते रहने को जीवन कहते हैं? क्या हड़बड़ाहट में चलते रहने को जीवन कहते हैं? क्या हर समय तनाव में रहने को जीवन कहते हैं ? यह तो मजबूरी का जीवन है, यह जीवन तो कफन ओढ़कर श्मशान में सोने की क्रिया है, इस तरह के जीवन में कुछ पाना सम्भव ही नहीं। सिर्फ खोना ही खोना है और जो तुम प्राप्त कर रहे हो गाड़ी, बंगला, धन-दौलत, पुत्र-पुत्रियाँ, चाँदी के टुकड़े इत्यादि यह सब मृत्यु के बाद पीछे छूट जायेंगे एवं इनमें से कोई भी तुम्हारे साथ नहीं जायेगा। किसी की भी यात्रा तुम्हारे साथ नहीं है और जो तुम्हारे साथ नहीं है वह तुम्हारा सहयोगी भी नहीं है। मैं यह नहीं कहना चाह रहा हूँ कि तुम्हारे पास गाड़ी बंगला, रूपया पैसा न हो यह सब जरूरी हैं जीवन में लक्ष्मी प्राप्त करना जरूरी है, परिवार में पत्नी, पुत्र, पुत्रियाँ, यश, प्रसिद्धि होना जरूरी है पर जब तक जीवन का सूत्र तुम्हारे हाथों में नहीं रहेगा तुम्हें पूर्णता के साथ कुछ भी प्राप्त नहीं होगा क्योंकि तुम जो जीवन जी रहे हो वह टुकड़ों-टुकड़ों में जी रहे हो इसलिए किसी भी चीज की प्राप्ती तुम्हें टुकड़ों-टुकड़ों में होती , पूर्णता के साथ नहीं होती है।. 

         आज आपसे बड़ी बड़ी बातें नहीं कर रहा हूँ क्योंकि अगर भवन की नींव कमजोर होगी तो उस पर आलीशान भवन नहीं बन सकता है। जीवन में जब जीवन जीने की कला आ जाती है तब असम्भव शब्द हमारे शब्द कोश में नहीं रहता चाहे वह जीवन भौतिकता का हो चाहे आध्यात्मिकता का हो। एक सद्गुरु ही तुम्हें यह अध्याय पढ़ा सकता है। जब तक मनुष्यता नहीं आयेगी तब तक देवत्व नहीं आ सकता है, देवी कृपा प्राप्त नहीं हो सकती। जिन्होंने अपने जीवन में झूठ, छल-कपट और असत्य का आचरण किया उनका बुढ़ापा अत्यंत दुःखदायी अवस्था में व्यतीत हुआ, रोगों से जर्जर, अभावों से पीड़ित, अतृप्त रहते हैं। ऐसे लोगों को समाज भी दुत्कारता है,जिसने जीवन भर छल कपट किया हो,लोगों को धोखा दिया हो ऐसा जीवन भी क्याजीवन है ? जो तुम्हारे मरने के बाद किसी के मन में रुलाई न फूटे, ऐसा जीवन किस काम आयेगा? क्या प्रयोजन है ऐसे जीवन का? यह तो पत्थरों के ढेर को उठाने कि एक क्रिया है। कपट के पत्थर,झूठ के पत्थर,व्याभिचार, दुःख,तकलीफ, जर्जरता रूपी इन पत्थरों के ढेर को उठाने से, भगवा कपड़े पहनने से, दाढ़ी मूंछ बढ़ा लेने से कोई सद्गुरु नहीं बन जाता, सद्गुरु तो वह होता है जिसके पास ज्ञान हो चाहे वह गुरु के रूप में स्त्री हो या पुरुष कोई भी हो सकता है क्योंकि बिना ज्ञान के गुरुत्व नहीं आ सकता और जब तक प्रेम न हो तब तक शांति नहीं आ सकती, नर से नारायण बनने की क्रिया नहीं आ सकती।

      जिस तरह से आप जीवन जी रहे हैं, समाज में जिस तरह से आप आगे बढ़ रहे हैं, जिस प्रकार हजारों लाखों लोग जीवन जी रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं, निरंतर मृत्यु के पास जा रहे हैं इस जीवन और मृत्यु के बीच एक क्षण रुककर आपको सोचना होगा। क्या मैं जो जीवन जी रहा हूँ यह मेरी नियति है ? क्या मैं अपने जीवन से खुश हूँ? क्या यह जीवन जीने की सही पद्धति है? यह तो एक बाध्य होने वाला व्यर्थ का जीवन हैं, इस प्रकार के जीवन में प्राणस्थ चेतना नहीं, कोई रस नहीं, जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है, कहाँ पहुँचना है पता नहीं है, किस तरह से हुंचना है, ऐसा कोई चिंतन नहीं है। अभी तुम्हारा जीवन तुम्हारे हाथों में नहीं है, जीवन के सूत्र तुम्हारे हाथों में नहीं है। यह जीवन समय, काल और मृत्यु के हाथ में है एवं यह जैसा हमें गतिशील करते हैं हम वैसे ही गतिशील बने रहते हैं। सुख दुःख, लाभ-हानि से अपने जीवन को बुनते रहते हैं, हमारे जीवन पर हमारा कोई अधिकार नहीं है, हमारा उस पर कोई नियंत्रण नहीं है, न ही हमारे जीवन का सूत्र हमारे हाथ में है और न ही हमें इसका ज्ञान है। 

        अपने जीवन के रहस्यों को किस प्रकार बुना जाय? कौन सा चिंतन किया जाये ? जिसके द्वारा जीवन को अद्वितीय, सम्पूर्ण एवं युगप्रधान बनाया जा सके। जो पगडंडी पूर्णता की ओर जाती है उस कार्य को करने के लिए दो बातों की आवश्यकता हैं। पहली बात तो यह है कि जीवन को पूर्णता प्रदान की जा सकती है। तो केवल साधनात्मक शैली के माध्यम से, यह बात मैं पूरे भरोसे के साथ कह रहा.हूँ और मैं वही कहता, बोलता और लिखता हूँ जिसका प्रत्यक्ष अनुभव मैंने अपने जीवन में किया है। धर्म के क्षेत्र में हैं तो हमें सर्वोच्च सिद्धियाँ प्राप्त करनी पड़ेंगी। फिर हम अपने क्षेत्र में नंबर एक बने रहें, यदि हम व्यापारी हैं तो अपने क्षेत्र के अद्वितीय धनपति बनें, यदि हम विद्वान, विशेषज्ञ हैं तो उसमें भी हम अद्वितीय हों, यदि हम साधनात्मक जीवन जी रहे हैं तो उसमें असीम शांति को प्राप्त करें, ब्रह्म को प्राप्त करें, आनंद को प्राप्त करें और अध्यात्म की पूर्णता को प्राप्त करें पर किसी भी क्षेत्र में सर्वोच्चता कैसे प्राप्त की जा सकती है?

            मात्र प्रयत्न करने से कुछ नहीं होता है, प्रत्येक व्यापारी प्रयत्न करता ही है पर धनपति नहीं होता, मेहनत तो वह बहुत करता है पर वह कुबेर पति नहीं बन पाता है यद्यपि उसके प्रयासों में कोई कमी नहीं रहती। मात्र परिश्रम करने से सम्पूर्णता, सर्वोच्चता और अद्वितीयता प्राप्त नहीं हो सकती, मात्र दो चार ग्रंथ लिखने से या दस-बीस मालाएं धारण करने से कोई सर्वश्रेष्ठ गुरु नहीं हो सकता, वह परमहंस नहीं हो सकता है, वह पूर्ण आध्यात्मिक व्यक्तित्व नहीं हो सकता, इस सर्वोच्चता को अपने हाथ में लेने के लिए एक और तथ्य है जिसे बहुत कम लोग ही जानते हैं और वह है साधना, साधना, साधना और सिर्फ साधना।

               साधना का तात्पर्य जीवन को सम्पूर्णता के साथ एक लक्ष्य की और अग्रसर करना अपने मन को अपने प्राणों को अपनी देह को, अपने व्यक्तित्व को इन सबको मिलाकर जिसका निर्माण होता है वह व्यक्ति स्त्री-पुरुष चाहे कोई भी हो उसे साधक कहा जाता है। क्योंकि साधनाओं के माध्यम से ही सिद्धियों को प्राप्त किया जाता है और जब तक आप अपनी प्राण चेतना के साथ ऊपर नहीं उठते साधक नहीं बन सकते और साधक बनने के लिए पहली शर्त यह है आपका मानस आपका व्यक्तित्व और आपके विचार टुकड़ों टुकड़ों में न हों, सब कुछ समग्र हो ओर आप तेजी के साथ अपने लक्ष्य की और बढ़ने के लिए आतुर हो। जब आप अपने जीवन की प्राणस्थ चेतना आपके जीवन का आधार एक ही लक्ष्य की ओर आगे बढ़ने के लिए लग जाता है तब मंजिल स्वयं आपके सामने आकर खड़ी हो जाती है। सफलता, सिद्धियाँ ऐसे व्यक्ति को जय मालाएं पहनाने को आतुर हो जाती है पर आपको छोटी-छोटी बाधाओं से विचलित नहीं होना है फिर मार्ग में अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कितनी भी बाधाएं आ जाए वह व्यक्ति विचलित नहीं होता है, उसका एक मात्र लक्ष्य सफलता हासिल करना और पूर्णता हासिल करना होना चाहिए। जब आपमें ऐसी स्थिति आ जायेगी तब आप स्थितप्रज्ञ जायेंगे। ऐसे व्यक्ति ही जीवन में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं जिसे प्राप्त करने के लिए लाखों करोड़ों लोग प्रयत्नशील रहते हैं।

         मनुष्य को पूर्णता प्राप्त करने के लिए देवी कृपा की आवश्यकता रहती है पर यह कृपा रोने, गिड़गिड़ाने, हाथ जोड़ने, पैर पड़ने से प्राप्त नहीं हो सकती, ऐसा तो कायर लोग करते हैं। जो सिर्फ लाचारी भरा जीवन जीते हैं वह सिर्फ गिड़गिड़ाना जानते हैं, हाथ जोड़कर भीख मांगने से देवी कृपा प्राप्त नहीं हो सकती इसके लिए जरूरी है कि हम पुरुष बने फिर पुरुषोत्तम बनें आपके अंदर एक तूफान हो, संकल्प शक्ति हो, इच्छा शक्ति हो और फौलाद की तरह विचार होना चाहिए, जीवन में एक चेलेंज होना चाहिए या तो मैं देवी कृपा प्राप्त करके रहूंगा या अपने शरीर को समाप्त कर दूंगा। मन में ऐसा भाव हो, ऐसा ही साधक सिद्धियाँ प्राप्त करता है, साधना में सफलता प्राप्त करता है, वह देवताओं को भी मजबूर कर देता है कि वह सिद्धियाँ प्रदान करें और सब कुछ प्रदान करें।

         जीवन की सर्वोच्चता तक पहुँचने के लिए ऐसा ही साधक जीवन में सम्पूर्णता को प्राप्त करने का अधिकारी होता है। इस ब्रह्माण्ड में शिष्य शब्द अपने आप में सम्पूर्णता लिए हुए शब्द है जिसका हृदय जागृत हो, जो प्रेममय हो और जिसे गुरु के साथ प्राणों से प्राण जोड़ने की क्रिया आती हो । वह गुरु के शरीर का ही अंग होता है गुरु से अलग.नहीं होता है।

        चौबीस घण्टे शरीर के पास रहने वाला अंगर वह प्राणों से नहीं जुड़ा तो वह शिष्य नहीं बन सकता। शिष्य तो राजहंस बनने की एक क्रिया है। शिष्य के बारे में विस्तार से फिर कभी लिखूंगा। अगर परम गुरु कृपा होती है तो गुरु के पूर्ण जीवन में अच्छे दो चार शिष्य आते हैं, जिन्हें अंगुलियों पर गिना जा सकता है बाकी सभी साधक होते हैं, फोलोअर्स होते हैं, उनमें से कुछ जिज्ञासु होते हैं कुछ आलोचक भी होते हैं खैर इस विषय में बाद में लिखूंगा।

         "सिद्धियाँ कैसे प्राप्त की जायें ? देवी कृपा कैसे प्राप्त की जायें ? किन प्रयत्नों से किन सूत्रों से। इसके लिए आवश्यक है कि आपके जीवन में कोई पथ प्रदर्शक हो, कोई मार्गदर्शक हो, जो इस रास्ते पर चल चुका हो या चल चुकी हो, जिसने जीवन में पूर्ण गुरु कृपा प्राप्त की हो एवं देवी कृपा प्राप्त की हो, देवी देवताओं से साक्षात्कार किया हो निरंतर गुरु से मार्गदर्शन मिला हो और साक्षात्कार हुआ हो। वह मार्ग है श्रृद्धा, प्रेम और पूर्ण समर्पण का। इसमें सबसे पहली बात तो यह है कि समर्पण और प्रेम तो सभी करते हैं, न्यौछावर तो बहुत कम करते हैं। वह बहुत किस्मत वाले होते हैं। उनके भाग्य से सम्पूर्ण ब्रह्माण्डीय शक्ति ईष्यां करने लगती है, जिन्हें पूर्ण गुरु कृपा प्राप्त हुई हो। यह सब कुछ प्राप्त हो सकता है साधनाओं में सफलता, सिद्धियाँ सम्पूर्णता का मार्ग गुरु कृपा और देवी कृपा के माध्यम से पर आज कल सही गुरु कौन है ? इसकी पहचान कैसे करें ? गुरु को पहचानने की सरल एक ही क्रिया है। केवल जिनके पास बैठने मात्र से अपूर्व शांति का अनुभव हो, मन में असीम आनंद का अनुभव हो,जिनके पास बैठने से ऐसा लगे कि इनके बिना यह जीवन व्यर्थ है, जीवन का कोई मतलब नहीं है। जब ऐसे भाव आये तभी दीक्षा लेनी चाहिए।

         आप सब देवी कृपा या साधना प्राप्त करना चाहते हो, आप सब जो प्रयत्न करते हो वह सब तो ऊपरी सतह के हैं। सिद्धि तो गहराई में डुबकी लगाने से प्राप्त होती हैं जो लोग गहराई में डुबकी लगाने को तैयार रहते हैं, जो चैलेंज का भाव लेकर जीते हैं, जीवन को एक चैलेंज मान लेते हैं वही लोग गहराई में जाकर हीरे-मोती ले आते हैं।

          तांत्रिक ग्रंथों, वेदों में दो टुक शब्दों में स्पष्ट लिखा-
नारी त्रैलोक्य जननी, नारी त्रैलोक्य रूपिणी ।
नारी त्रिभुवन धारा, नारी देह स्वरूपिणी ॥
शंकरोपनिषद में भगवान शंकर ने स्वयं कहा है नारी के समान न सुख है, न गति है, न भाग्य हैं, न राज है, न तीर्थ है और न भोग है, न जय है, न मंत्र है, न धन है। वही संसार में पूजनीय देवता है क्योंकि वह पार्वती का रूप है, नारी शक्ति हैं, नारी ही एकमात्र पूर्णत्व है परन्तु जहाँ नारी कोमल है वही दूसरी और प्रचण्ड भी है, वह उग्र स्वरूपा महाकाली भी है, छिन्नमस्ता और बगलामुखी भी है, वही नारीत्व त्रिपुरसुन्दरी भी हैं जिनकी आज्ञा के बिना इस ब्रह्माण्ड का और तीनों लोकों का एक भी पत्ता नहीं हिल सकता है। तीनों लोकों में उन्हीं की सत्ता चलती हैं, उनके सामने ब्रह्मा विष्णु को भी नारी बनकर जाना पड़ता है दूसरी और नारी एक माँ भी है, नारी के अंदर एक सम्पूर्ण सिमट कर उनके शरीर में पल सकता है। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम, निखिलेश्वरानंद, रामकृष्ण परमहंस उत्पन्न कर संसार में भेज सकती हैं। जीवन की इस चेतना को प्राप्त करने के लिए पुरुष को भी अपने अंदर इन गुणों का विकास करना पड़ेगा। जो लोग इस छोर तक पहुँचना चाहते हैं, जो महात्रिपुर सुन्दरी की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं, जीवन में पूर्णता प्राप्त करना चाहते हैं, जिसको गुरुत्व कहा गया है, ईश्वरत्व कहा गया है जिसे ब्रह्मत्व कहा गया है, 
        जिसे अपने आप में सम्पूर्ण कहा गया है। उस सम्पूर्णता को प्राप्त करने के लिए अपने अंदर इस भाव को पैदा करना होगा, जो स्त्रीत्व का भाव है। मेरे कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि नारी के माध्यम से ही गुरु या ईश्वर तक पहुँचा जा सकता है अपितु मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि ईश्वर या गुरु तक पहुँचने के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है उसे नारी से सीखा जा सकता है। गुरु को या ईश्वर को अपने हृदय में समाहित करने के लिए जो भाव और चिंतन चाहिए वह भाव है श्रृद्धा, प्रेम, समर्पण और त्याग का। जो लोग स्त्रीत्व को नहीं समझ पायेंगे उस भाव को, उस चेतना को, उस सृजन को अपने अंदर समाहित भी नहीं कर पायेंगे। यदि सृजन की क्रिया नहीं है तो जीवन समाप्त, जीवन का अर्थ है निरंतर गतिशील होने की क्रिया है। नारीत्व ही पूर्णत्व है। जो रूखे हैं, संन्यासी हैं, जंगलों में भटकते रहते हैं, वह अपने आप में अक्खड़ हो जाते हैं। जिनमें लोच नहीं है, जिनके अंदर श्रृद्धा, प्रेम, विश्वास और स्नेह इत्यादि का विकास नहीं हुआ है तो जीवन में भटकाव होता है और.भटकाव गुरुत्व नहीं दे सकता, ईश्वर प्राप्ती का संदेश नहीं दे सकता क्योंकि कठोर बनकर कभी भी ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता है, आँख मूंदकर, पालथी मारकर प्रभु का दर्शन नहीं किया जा सकता। उस दिव्य दर्शन को करने के लिए मन में एक कोमल बिन्दु की भावना होना चाहिए क्योंकि हृदय का विस्फोटन नारी बनकर ही किया जा सकता है।

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