Follow us for Latest Update

ऐं नमः ।।

            ।। ॐ ह्रीं विद्याऽधिष्ठातृदेव्यै स्वाहा ।।

        शक्ति त्रिगुणात्मक है, महाकाली के रूप में व तमोगुण प्रकट करती हैं तो वहीं महालक्ष्मी के रूप में रजोरूप प्रदर्शित होता है और महासरस्वती विशुद्धात्मक तत्वमयी हैं। ये तीनों गुण एक साथ क्रियाशील होते हैं एवं सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति,लय और संहार हेतु इन तीनों का समान महत्व है। समस्त ब्रह्माण्ड त्रिगुणमयी शक्ति से व्याप्त है। ब्रह्माण्ड के प्रत्येक तत्व को इन तीनों स्वरूपों को समझना होगा, अनुसंधानित करना होगा एवं आत्मसात करना होगा तभी वह चेतनामय कहलायेगा। ज्ञान प्रत्येक जीव को परमप्रिय है अतः ज्ञान को गोपनीय बनाये रखने की प्रथा सभी जगह व्याप्त है। 

     एक गुरु अपने शिष्य को सम्पूर्ण ज्ञान बहुत सोच समझकर देता है। गुरु के पास शिष्य आते हैं, अनुनय करते हैं, विनय करते हैं कि हमें विशेष ज्ञान आप दे दीजिए। शिष्य ज्ञान क्यों चाहता है? शिष्य सिद्धि क्यों मांग रहा है? सीधी सी बात है क्या वह इसके योग्य है? कहीं वह गुरु की सहृदयता का लाभ उठाकर रावण तो नहीं बनने जा रहा है। एक बार अगर वह कुछ गूढ़ एवं गोपनीय पराविद्या में दक्ष हो गया तो वह समाज के लिए या अन्यों के लिए आतंक का पर्याय तो नहीं बन जायेगा। इस विषय पर गुरु अत्यंत ही सजग और कठोर होते हैं। शक्ति के मद में, ज्ञान के मद में कहीं शिष्य हाहाकारी न बन जाये अतः साधनाओं में उतनी ही सफलता दी जाती है जितनी कि आवश्यक हो, उतना ही ज्ञान दिया जाता है जिससे कि नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न न हो। 

      एक शिष्य ने गुरु से बड़ा अच्छा प्रश्न किया कि गुरुजी आपके तो असंख्य शिष्य हैं और ये सब आपसे तरह-तरह की साधनायें, दीक्षायें और महाविद्यायें सीखते रहते हैं। इन लोगों ने लाखों करोड़ो मंत्र जप कर लिये हैं, तंत्र-मंत्र, ज्योतिष और अन्य विद्याओं में पारंगतता हासिल कर ली है अगर इनमें से कुछ भ्रष्ट हो गये तो आपके नाम पर बट्टा लगायेंगे । निश्चित ही एक सद्गुरु ज्ञान देने से पहले सारी कुंजी अपने हाथ में रखता है और गुरु ज्ञान देने से पूर्व नष्ट करने या ज्ञान का दुरुपयोग न हो की व्यवस्था कर लेता है। कभी भी प्रथम श्रेणी का ज्ञान या तकनीक किसी को नहीं दी जाती अगर वह छदम तरीके से प्राप्त करने की कोशिश भी करता है तो शिष्य को सम्पूर्णतः कीलित कर दिया जाता है इसके बाद वह ढोंग ही करता है, परिणाम कुछ नहीं आते। 

       सारा का सारा प्राच्य ज्ञान गुरुओं के द्वारा कीलित है, वह केवल योग्य शिष्यों को ही प्राप्त होता है। ज्ञान गोपनीय करके रखा जाता है। ज्ञान की देवी सरस्वती हैं, सरस्वती आराधना के माध्यम से जब ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो वह सिर्फ सृजनात्मक कार्यों के लिए ही उपयोग किया जाता है। सृजनात्मक शिष्यों की उत्पत्ति, उनका पालन, उनमें सृजन क्षमता का विकास ही गुरुओं का एकमात्र कार्य है। ज्ञान समयानुकूल होना चाहिए। जब गीता कही गई रामायण लिखी गई या किसी अन्य महामानव ने परम शब्द उच्चारित किये उनका घोर विरोध हुआ क्योंकि उस युग और काल के मनुष्यों में उनके ज्ञान को ग्रहण करने की क्षमता ही नहीं थी। अधिकांशतः ऐसा होता है, यह इस बात को इंगित करता है कि ब्रह्माण्ड में परम संवेदनशील, परम चेतनामयी और परम बुद्धिमान जीवन स्पंदित है।

     कभी-कभी भूले भटके जब कोई विलक्षण महापुरुष उनके ज्ञान को आत्मसात कर लेता है तो वह जो कुछ कहता है उसे इस पृथ्वी का पिछड़ा हुआ मानव बकवास या कपोल कल्पित समझ बैठता है। हमारे देश में पंचदेव पूजन है, ज्ञान आँख, नाक, कान, मुँह के द्वारा ही ग्रहण किया जाता है। पंचदेव पूजन का तात्पर्य है मन, बुद्धि, तर्क, सोच, चिंतन इत्यादि को सदैव स्वस्थ, सजग और क्रियाशील रखना जिससे कि ज्ञान की आवृत्तियाँ सदैव मस्तिष्क को उचित मात्रा में संस्पर्शित करती रहें। ज्ञान ने ही हमें पशुत्व से ऊपर उठाया है आज मानव जितना भी अहिंसक बन पाया है उसके पीछे ज्ञान ही छिपा हुआ है। ज्ञान हमें एक क्षण के लिए सोचने-समझने पर मजबूर कर देता है। ज्ञान चिंतन की तरफ क्रियाशील करता है, पशु अपने कर्म के बारे में चिंतन नहीं करता। उसके कर्म चिंतनविहीन होते हैं अतः चिंतनविहीन, बिना सोचे समझे किये गये कर्म पशुता की निशानी हैं।

     चिंतन ही इन्द्रिय निग्रह कराता है, चिंतन इन्द्रियों पर निग्रह है। शिष्यों का निर्माण चिंतन विहीन निर्माण नहीं है। मनुष्य के पास मुख है, वाणी है, तर्क है, मन और हृदय है अतः ज्ञान इन सबसे संस्पर्शित होते-होते कभी-कभी प्रदूषित भी हो सकता है, कभी-कभी वह तोड़-मरोड़कर भी प्रस्तुत किया जा सकता है। मानवीय ज्ञान की यही विडम्बना है, कलुषित ज्ञान जहर के बराबर है। हिटलर ने कारागृह में एक पुस्तक लिखी थी, वह पुस्तक अत्यंत ही प्रबल, तर्क संगत और मानस पर तीव्र छा जाने वाली थी। उसी पुस्तक को पढ़कर करोड़ों जर्मनवासी विश्व युद्ध कर बैठे। उलट ज्ञान वालों की बुद्धि अत्यंत ही सक्रिय होती है। दुष्ट अत्यंत ही क्रियाशील होते हैं, इन्हीं पर नियंत्रण सरस्वती आराधना के माध्यम से लगाया जाता है। ज्ञान मस्तिष्क की खुराक है, जैसी खुराक होगी वैसा मस्तिष्क निर्मित हो जायेगा। खुराक अगर विषाक्त होगी, कामुक होगी, उत्तेजनात्मक होगी तो उसी प्रकार का मस्तिष्क निर्मित हो जायेगा परन्तु अगर खुराक पुष्टिवर्धक, सात्विक और कल्याणकारी होगी तो उच्चतम मस्तिष्कों का निर्माण होगा।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

0 comments:

Post a Comment