Follow us for Latest Update

सर्वज्ञ - सर्वत्रम्

       कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने कहा कि वेदांत का भिक्षां देही सिद्धांत मनुष्यों को शिथिल बना देगा कर्महीन बना देगा इस बात को लेकर उन्होंने आदि शंकर के मत का भी खंडन किया परंतु भिक्षां देही के अर्थ में निष्काम छिपा हुआ है परम बौद्धिकता छिपी हुई है आदि शंकर का जीवन वृतांत आप उठा कर देखिए मात्र 32 वर्ष की उम्र में उन्होंने कर्म की एक ऐसी धारा बहाई की कोई सात जन्मों में भी नहीं बहा सकता। संपूर्ण जीवन में देशाटन करते रहे भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक घूमते रहे स्वयं की संपत्ति रिश्तेदारों मे बांट दी एक तरफ ब्रह्मसूत्र पर महाभाष्य लिखा गीता पर भाष्य लिखा सैकड़ों स्तुतिया बनाई सौंदर्य लहरी लिखी सैकड़ों ग्रंथों का उद्धार किया तो वही निर्वाण षटकम् भी लिखा।
                 ना जाने कितने तीर्थों का उद्धार किया मंदिरों का निर्माण करवाया असंख्य मनुष्य को वरदान दिए उनकी समस्याओं का निवारण किया चारों तीर्थों को पुनः प्रतिष्ठित किया एवं पृथ्वी पर फैले नाना प्रकार के संप्रदाय एवं धर्मों में आई विकृतियों का निदान किया उन्हें एक सूत्र में बांधा। अप्राकृत धर्मों का भारत भूमि से पलायन करवाया शिष्यों की लंबी फौज खड़ी की गहन तांत्रिक अनुसंधान किए। एक तरफ हुए निष्ठुर सन्यासी हैं तो दूसरी तरफ अत्यंत भावुक हृदय के कवि भी हैं। एक तरफ वे बाल ब्रह्मचारी हैं तो दूसरी तरफ अमरूक शतक जैसे परम गोपनीय काम शास्त्र के रचयिता भी हैं।
                 हाँ जब मंडन मिश्र और आदि शंकराचार्य में वाद विवाद की प्रतियोगिता हुई तब उभय भारती ने दोनों के गले में पुष्प माला डाल दी और कहा जो उत्तेजित होगा जो खीजेगा जो क्रोधित होगा जो दुखी होगा जो भयभीत होगा उसके गले की माला सर्वप्रथम खुलेगी। आदि शंकराचार्य के पास जैसे ही कोई वाद-विवाद के लिए आता सर्वप्रथम उसे कहते हैं कहो क्या कहना है? कौन सा सिद्धांत रचना है तुमने? क्या सुनाने आए हो करो व्याख्या अपने सिद्धांत की। वे धीर-गंभीर शांत निश्चल अधिर बनकर सर्वज्ञाता के साथ आगंतुक का प्रलाप सुनते और फिर पूर्ण सज्जनता पूर्ण विद्वता पूर्ण पूर्ण सत्यता पूर्ण निर्भयता पूर्ण भद्रथा के साथ एक-एक करके उसके तथाकथित महिमामंडन का खंडन कर देते। वह सर्वज्ञ इसलिए हैं क्योंकि उन्हें प्रत्येक विषय में गहनता के साथ गंभीरता के साथ गुढ़ता के साथ प्राप्त है। वे सभी धर्मों का गहन एवं सार पूर्वक अध्ययन कर चुके थे। उभय भारती समझ गई कि शंकराचार्य से मंडन मिश्र कभी नहीं जीत सकते एवं उनका कर्मवाद अवश्य पुराहित होगा क्योंकि आदि शंकराचार्य ने मंडन मिश्र के दरवाजे पर कहा था भिक्षां देही परंतु उन्होंने उसमें एक वाक्य और जोड़ दिया कि हे मंडल में मैं तेरे दरवाजे पर आन्न की भिक्षा मांगने नहीं आया हूं। अन्न की भिक्षा तो सर्वत्र उपलब्ध है मुझे तो वाद-विवाद की भिक्षा चाहिए और उसी समय उभय भारतीय समझ गई थी कि साक्षात शिव आ गए। हां शंकराचार्य ने वाद विवाद भी भिक्षा में मांगा विजय भी भिक्षा में मांगी।
                   क्या मांगते हो शिव-गुरु एक सर्वज्ञ पुत्र या फिर 100 वर्ष तक जीने वाला सामान्य पुरुष भगवान शिव ने शंकराचार्य के पिता से पूछा शिव-गुरु ने कहा हे शिव भले ही अल्पायु हो पर मुझे भिक्षा में सर्वज्ञ पुत्र चाहिए। शिव ने कहा तथास्तु। दिव्य ऋषि मुनियों ने केवल 8 वर्ष की आयु वाले शंकराचार्य को 8 वर्ष की आयु अऔर प्रदान कर दी 8 वर्ष की आयु में जैसे ही नदी में नहाते समय मगर ने शंकराचार्य का पैर पकड़ा वे बोल उठे माँ भिक्षा में सन्यास दें अन्यथा मेरी मृत्यु निश्चित है। मां ने भिक्षा में सन्यास की आज्ञा दे दी। जो सर्वज्ञ होते हैं सर्व समर्थ होते हैं वह सिर्फ भिक्षा मांगता है। वह चाहे तो झपटकर कपट के द्वारा योजना के द्वारा कुछ भी प्राप्त कर सकता है परंतु वह भिक्षा में लेता है। भिक्षा में एक आंवला मिला और सर्वज्ञ ने उस गरीब ब्राह्मणी के घर को सोने के आंवलो से पाट दिया। शंकर ने स्पष्ट कहा कि हे महालक्ष्मी इस दरिद्र ब्राह्मणी के सभी कर्म कट गए क्योंकि इसने मुझे भिक्षा दी। महालक्ष्मी को मानना पड़ा उन्हें कर्म का सिद्धांत एक कोने में रखना पड़ा। आचार्य शंकर ने सन्यास भिक्षा में अपनी मां से मांगा ब्राह्मणी से आंवले की भिक्षा ली गुरु से ज्ञान भिक्षा में मांगा मंडन मिश्र से लेकर समस्त विद्वानों, धर्माचार्य, आचार्य इत्यादि से भिक्षा में वाद-विवाद मांगा।

           जैसे ही आचार्य 16 वर्ष के हुए उन्होंने बद्रीनाथ में ब्रह्म सूत्र के साथ-साथ अन्य भाष्यों पर अपना कार्य संपूर्ण कर लिया वेदव्यास प्रकट हो गये उन्होंने शंकराचार्य के कार्यों की भूरी भूरी सराहना की। आदि गुरु शंकराचार्य वेदव्यास जी से बोले भगवन दो मिनट और ठहर जाइए मैं आपके सामने ही प्राण त्याग ना चाहता हूं मेरी आयु पूर्ण हुई। वेदव्यास बोले ऐसा मत करो शंकराचार्य लो मैं तुम्हें16 वर्ष की और आयु प्रदान करता हूं फैलाओ अपना हाथ मैं तुम्हें भिक्षा में 16 वर्ष देता हूं मेरी भिक्षा को अस्वीकार मत करो अभी तुम्हें बहुत कार्य करने हैं और इस प्रकार आदि गुरु शंकराचार्य जी को भिक्षा में 16 और वर्ष प्राप्त हो गए।
                       सर्वज्ञ थे परकाया प्रवेश करना जानते थे परंतु भिक्षा में आयु प्राप्त कर रहे थे। मंडन मिश्र एवं शंकराचार्य के बीच 7 दिनों तक शास्त्रार्थ चला प्रतिदिन उभय भारतीय कहती शंकराचार्य से आइए दीक्षा ग्रहण करिए और अपने पति से कहती आइए भोजन ग्रहण कीजिए परंतु जैसे ही मंडन मिश्र पराजित हुए उभय भारती कह उठीं आप दोनों भिक्षा ग्रहण कीजिए। मेरे पति का गुरु सर्वज्ञ हो पूर्ण हो बस यही एक महत्वकांक्षा उभय भारती जो कि साक्षात सरस्वती का अंश थी के मन में थी। अतः उन्होंने शंकराचार्य जी से शास्त्रार्थ किया और जानबूझकर काम शास्त्र से संबंधित प्रश्न पूछे। शंकराचार्य जी निरुत्तर हो गए गर्दन झुका कर बैठ गए क्योंकि वह बाल ब्रह्मचारी थे एवं कामशास्त्र से सर्वथा अनभिज्ञ थे। उभय भारती के पति का गुरु एक दिन सर्वज्ञ पीठ का आरोहण करेगा श्री यंत्र के बिंदु तक पहुंचेगा और अगर वह पूर्ण नहीं हुआ तो उसका पतन निश्चित है। कामशास्त्र भी शास्त्रों की गिनती में आता है इसके अभाव में सर्वज्ञता कदापि नहीं आ सकती। शंकर ने उभय भारतीय से कहा कि माता एक माह का समय भिक्षा में दे दो मैं आपके काम संबंधित प्रश्नों का उत्तर दूंगा। उभय भारती जी बोली एक क्या 2 महीने ले लो परंतु सर्वज्ञ बनो।
        कैसा दोष कैसा पाप और पुण्य कैसी परंपरा कैसा सिद्धांत कैसी लोक लज्जा कैसा भाय। हे पदमपाद यह सब बकवास बंद कर मुझे मत सिखा। मैं कामशास्त्र में पारंगत होउगा सन्यासी हूं तो क्या हुआ मेरा सन्यास धर्म भी बचा रहेगा मेरी शुद्धता भी बची रहेगी और मैं कामशास्त्र में पारंगत होकर तुझे दिखाऊंगा। जो सर्वज्ञ हो जाते हैं वह समस्त बंधनों से मुक्त हो जाते हैं एवं उसके कर्म उसका विधान पाप और पुण्य की परिधि से बाहर चले जाते हैं। वह दूसरों को दिखाने के लिए नहीं जीता उसके जीवन के क्षण लोक मर्यादा के हिसाब से नहीं चलते वह किसी परंपराओं में नहीं बंधता उस पर किसी धर्म विशेष का नियम लागू नहीं होता। वह पूर्णता स्वतंत्र होता है एवं समस्त शारीरिक व सामाजिक धार्मिक मानसिक आध्यात्मिक नियम उस पर लागू नहीं होते। आदि शंकराचार्य ने राजा अमरूक के शरीर में परकाया प्रवेश किया और अमरूक शतक नामक कामशास्त्र का निर्माण किया। एक तरफ कामशास्त्र पर ग्रंथ एक तरफ निर्वाण षटकम् एक तरफ सौंदर्य लहरी यह शंकराचार्य की विविधता।
            उपासना बड़ी विचित्र है उपासना के माध्यम से ही भगवती त्रिपुरसुंदरी जीव का विकास करती है यही श्री यंत्रम रहस्य है। मस्तिष्क एवं हृदय यह दो भाग हैं जहां पर ईश्वर के विभिन्न रूपों में से किसी भी रूप को स्थापित करके उपासना करने से उस देवता विशेष के गुण शरीर में उपस्थित होते हैं। कुछ लोग मस्तिष्क से उपासना करते हैं, कुछ लोग हृदय से उपासना करते हैं, कुछ लोग कंठ से उपासना करते हैं, कुछ लोग मूलाधार से उपासना करते हैं, कुछ लोग मणि चक्र से उपासना करते हैं, कुछ लोग स्वाधिष्ठान से उपासना करते हैं, कुछ लोग आज्ञा चक्र से उपासना करते हैं। जिस चक्र से उपासना करो जिस चक्र में देवता विशेष को स्थापित करो वैसा ही परिणाम सामने आता है परंतु पूर्ण पुरुष अपने सभी चक्रों में निर्गुण निर्विकार ब्रह्म को स्थापित कर उपासना करते हैं वही वास्तविक सन्यासी होते हैं।
                          
 शिव शासनत: शिव शासनत:

0 comments:

Post a Comment