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श्री गणेश ।।

 

        लोग कहते हैं भारत विस्तारवादी नहीं है यह अर्ध सत्य है । स्थूल रूप से निश्चित ही भारत विस्तारवादी नहीं है परन्तु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से, युग युगान्तरों से भारत सम्पूर्ण रूप से विस्तारवादी है और इसका विस्तार, नायकत्व निर्विघ्न है | युग बीत गये, काल बीत गये, नई-नई शाखाएं प्रशाखाएं उगती गिरती रहती हैं अध्यात्म के क्षेत्र में परन्तु भारत आध्यात्मिक गुरु के पद पर पहले भी विद्यमान था, आज भी विद्यमान है और कल भी विद्यमान रहेगा। विश्व की समस्त शक्तियाँ भारत के अध्यात्म को सदा से नमन करती आयी है, सीखती आयी है एवं इस आध्यात्मिक विस्तारवाद का एकमात्र कारण हैं श्रीगणेश ।

      आद्य एवं आद्या के दो पुत्र हैं प्रथम श्रीगणेश जो कि उनके मानस पुत्र हैं, सत्य का प्रतीक हैं, अलख निरंजन में से प्रकट हुए हैं अतः सनातन ज्योति के जीते जागते श्रीविग्रह हैं। द्वितीय स्कन्द हैं, श्री कार्तिकेय हैं जिन्हें श्री सुब्रम्णयम् के नाम से भी जाना जाता है। वे शिव तेज से उत्पन्न हुए हैं। गणेश और कार्तिकेय सृष्टि के दो बराबर के प्रतीक हैं। गणेश स्वानंद अर्थात आत्मा का प्रतीक हैं, प्राण तत्व हैं तो वहीं स्कन्द शरीर का प्रतीक हैं, स्थूलता का प्रतीक हैं एवं इन दोनों के समायोजन से ही शरीर क्रियाशील होता है। प्राण के बिना शरीर निर्जीव है और शरीर के बिना आत्मा की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह । शरीर कई प्रकार के हें सूक्ष्म शरीर, आध्यात्मिक शरीर, परा शरीर, बिम्बात्मक शरीर, स्थूल शरीर, पंचेन्द्रियों से युक्त शरीर या फिर देव शरीर, दिव्य शरीर, लोकानुसार शरीर इत्यादि इत्यादि । 

          कहने का तात्पर्य यह है कि शरीर और आत्मा कभी जुदा नहीं होते, जैसे ही एक शरीर छोड़ा दूसरा शरीर धारण करना पड़ेगा। शिवलोक में गमन करना है, विष्णु लोक या ब्रह्मलोक में गमन करना है, देव लोक या स्वर्ग लोक में गमन करना है, पितृलोक में गमन करना है या फिर पशु योनि में गमन करना है तो उस लोकानुसार आपको तुरंत ही शरीर प्राप्त हो जायेगा । हे गणेश, हे कार्तिकेय तुम दोनों में से जो पहले परिक्रमा करके लौटेगा उसी का प्रथम विवाह होगा। दोनों गलत नहीं थे, कार्तिकेय अपनी प्रवृत्तिनुसार पृथ्वी की परिक्रमा पर निकल पड़े। यह स्थूल चिंतन है कि पर्वत, वन, नदी-नाले इत्यादि ही पृथ्वी का प्रतीक हैं परन्तु सूक्ष्मातीत मूलाधार निवासी, मूल पीठ निवासी, मूल पीठ सानिध्य वासी गणेश ने सृष्टि के मूल शिव और पार्वती की परिक्रमा की एवं विजयी हुए। जो जीता वही सिकन्दर । हे पुत्रों मेरे कण्ठ में उपस्थित यह दिव्य मणियों की माला, यह दिव्य मोदक, यह दिव्य पाश, यह दिव्य अंकुश, यह दिव्य रत्न सिंहासन, गणाध्यक्ष का पद इत्यादि उसी को मिलेगा, उसी को ऐश्वर्य मिलेगा, उसी को सब कुछ मिलेगा जो कि प्रमथ नाथ बनेगा, प्रथम परिक्रमा करके लौटेगा और हर बार श्रीगणेश विजयी हुए। हर बार कार्तिकेय हारे । 

        शिव और शक्ति का यह स्पष्ट उदघोष है, स्पष्ट उवाच है, स्पष्ट सिद्धांत है कि जो कोई बुद्धि से चलेगा, प्रज्ञावान बनेगा, ज्ञान-विज्ञान आत्मसात करेगा, सत्य की दृष्टि से देखेगा वही जगत का नायक कहलायेगा और जो बाहरी दुनिया, स्थूल जगत, स्थूल प्रपंचों की तरफ भागेगा वह सदा हारेगा एवं उसके हाथ कभी कुछ नहीं लगेगा। कार्तिकेय के हाथ कभी कुछ नहीं लगा यह आपको समझना होगा। सिद्धि, बुद्धि श्रीगणेश की पत्नियाँ हैं एवं उनकी तीसरी पत्नी है पुष्टि | क्षेम और लाभ उनके पुत्र बने, सिद्धि से क्षेम का जन्म हुआ और बुद्धि से लाभ का। ऐसा व्यापार किस काम का, ऐसी नौकरी किस काम की, ऐसी स्पर्धा, ऐसा युद्ध, ऐसा प्रेम, ऐसे सम्बन्ध, ऐसा जीवन इत्यादि किस काम का कि जिससे क्षेम की जगह अशुभ उत्पन्न हो रहा हो, लाभ की जगह हानि उत्पन्न हो रही हो। आनंद-मंगल, आमोद-प्रमोद भगवान गणेश के पौत्र हैं। हसी खुशी उनकी बहुएं हैं, गणपति का परिवार बहुत विशाल है एवं उसमें सौन्दर्या, ऐश्वर्या, आनंदा, शांति, ज्ञाना, विज्ञाना इत्यादि अनेकों पुत्रियाँ हैं।

      पुष्टि से सम्पत्ति नामक पुत्री उत्पन्न हुई, सबको सम्पत्ति चाहिए अर्थात गणेश पुत्री चाहिए। इस ब्रह्माण्ड में सत्यता यही है कि आप गणेश के परिवार से सम्बन्ध गांठ लो, गठबंधन कर लो । स्त्री पुरुष की शादी के समय जब गठबंधन होता है तब गणेश मंत्र ही पढ़े जाते हैं ताकि उनके विशाल परिवार जिसका कि ऊपर वर्णन किया गया है से जातक का संबंध स्थापित हो सके। गणेश के परिवार के अलावा किसी और से संबंध जोड़ना घाटे का सौदा है। गणेश का परिवार शिव परिवार के अंतर्गत ही आता है। गणपति उपासना कीजिए इसी में सबका कल्याण है।

गणपति तंत्रम
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        सनातन धर्म को पुनः प्राण प्रतिष्ठित क्रियावान एवं सक्रिय करने के लिए आदि गुरु शंकराचार्य की दिग्विजयी यात्रा निर्वाध निर्विघ्न और अखण्ड रूप से भारत भूमि पर सक्रिय क्यों थी? क्यों आदि गुरु शंकराचार्य जी हर विघ्न पर विजय प्राप्त करते जा रहे थे। टुकड़ों टुकड़ों में, छोटी-छोटी उपासना पद्धतियों एवं विभिन्न प्रकार के मतों, विश्वासों और मान्यताओं से ग्रसित हिन्दू समाज के इन विघ्नों पर विजय प्राप्त करना आसान नहीं था। इन सब विघ्नों, विरोधों इत्यादि पर आदि शंकर इसलिए विजय कर सके क्योंकि वे गणेश तंत्र को आत्मसात कर चुके थे जो गणेश तंत्र को आत्मसात कर ले वही शंकर जो विघ्नों, बाधाओं और समस्याओं को पार करने का तंत्र हासिल कर ले वही तंत्रज्ञ। शंकर की पहचान है विघ्न हरण | शिव का आविष्कार है गणेश तंत्र, शिव के सबसे करीब है गणेश ज्ञान यही शिव बनने की कला है। 

       आदि शंकर प्रथम शंकराचार्य हैं, प्रथमेश हैं। प्रथमेश नही हो सकता है जिसकी गणेश तंत्र में पारंगतता हो क्योंकि प्रथमेश ही शुरुआत करता है। जो प्रथमेश होगा उसे ही सबसे ज्यादा बाधाओं का सामना करना पड़ेगा उसके सामने सबसे ज्यादा चुनौतियाँ होंगी, उसे सबसे ज्यादा खतरों से खेलना होगा क्योंकि प्रथमेश की परिभाषा भी यही है कि सर्वप्रथम विघ्न से सामना करने वाला, सर्वप्रथम विघ्न से लड़ने वाला एवं उसे जीतने के तंत्र एवं ज्ञान का निर्माण करने वाला। कालान्तर जो प्रथमेश के पीछे चलेंगे उन्हें विरासत में विघ्नों से लड़ने की शक्ति, विघ्न को पराजित करने का ज्ञान एवं विघ्न को निर्विघ्न में बदलने वाले तंत्र का आविष्कार स्वतः ही प्राप्त होगा। यही गणेशोत्पत्ति है। 

     आदि शंकर अद्वैत मत को लेकर अपनी दिग्विजयी धर्म यात्रा पर निकले थे परन्तु वे जानते थे कि अद्वैत की इस यात्रा में विघ्न के रूप में द्वैत तत्व ही उपलब्ध होंगे। विघ्न क्या है ? विघ्न न हो तो अद्वैत को सिद्ध करने की क्या जरूरत है? अद्वैत तो शिव है और शिव ही विश्वास है शिव की परिभाषा ही विश्वास है। विश्वास को क्या सिद्ध करना ? विश्वास कभी सिद्ध नहीं किया जा सकता। विश्वास प्रमाणित और अप्रमाणित नहीं होता, यही शिव का महात्न है। शिव अगर विश्वास है तो भगवति श्रद्धा श्रद्धा और विश्वास अध्यात्म के दो आदि स्तम्भ हैं। भगवति की प्राप्ति का एकमात्र हेतु है श्रद्धा के मार्ग पर चलना होगा, श्रृद्धा को मन मस्तिष्क में धारण करना होगा तभी श्रद्धेय तक पहुँच पाओगे। विश्वास के मार्ग से श्रद्धेय को प्राप्त नहीं कर सकते और न ही श्रद्धा के मार्ग पर चलकर विश्वास को प्राप्त कर सकते हो अर्थात शिव को। दोनों मार्ग अलग-अलग है, दोनों भाव अलग हैं। श्रृद्धा भी प्रचण्ड है और विश्वास भी उग्र है। ये दोनों सौम्य नहीं है, ये दोनों शालीन भी नहीं हैं बस यहीं पर बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों का परीक्षण असफल हो जाता है, उनका ज्ञान कुण्ठित हो जाता है, वे मार्ग से विचलित भी हो जाते हैं। मछली को देखना है तो जल मार्ग अपनाना होगा, सड़क पर मछली के दर्शन नहीं होंगे, शेर को देखना है तो वन में जाना होगा समुद्र में शेर दिखाई नहीं देगा। ऐसी ही स्थिति श्रद्धा और विश्वास की है। विश्वास तो कहता है, हैं। हैं तो हैं बात खत्म, यही सबसे आदि शिव लक्षण है। 

         शिव हैं तो हैं। कहाँ हैं? किस किस रूप में हैं? क्या चरित्र है? क्या गुण है? और क्या हैं यह आज तक कोई नहीं जान पाया बस जान पाया तो विश्वास। केवल विश्वास के माध्यम से ही मुमुक्ष गण शिव का एहसास करते हैं। यही बात श्रद्धा में है, हृदय में श्रद्धा है तो भगवति समीप खड़ी है इतनी समीप कि कल्पना से भी परे अन्यथा ढूंढ-ढूंढकर थक जाओ, चाहे ज्ञान मार्ग अपना लो, तंत्र-मंत्र, भक्ति योग और भी कोई मार्ग हो तो अपना लो। पराम्बरा का लोक कहाँ है? पराम्बरा का वास्तविक स्वरूप क्या है? पराम्बरा की उम्र क्या है ? पराम्बरा की पसंद या नपसंद क्या है ? ब्रह्माण्ड में आज तक कोई नहीं जान पाया। शिव और भगवति ने अपने अर्धनारीश्वर महाविज्ञान के द्वारा सब कुछ कीलित कर दिया है, अपने आपको सबसे परे कर लिया है एवं इस ब्रह्माण्ड के सभी मार्गों को आबद्ध कर दिया है। यहाँ पर थोड़ा सा सुधार करना चाहूँगा। मुख्य रूप से इन दोनों ने एक मार्गीय व्यवस्था बना दी है अर्थात शिव तक पहुँचने के लिए विश्वास और भगवति तक पहुँचने के लिए श्रद्धा दो ही मार्ग पूर्णतः खुले हुए हैं बाकी सब मार्ग एकांगी हैं। 
क्रमशः

      इन मार्गों से शिव और शक्ति का आवागमन तो हो सकता है परन्तु अन्य किसी का आवागमन बाधित है और बार-बार अनंत योनियों में रहने वाले चेतनावान, प्रज्ञावान, ज्ञानवान प्राणी इन मार्गों के अवरोधों में से रास्ता ढूंढने की कोशिश करते हैं परन्तु आज तक सफल नहीं हो पाये और न हो पायेंगे। यही गणेश महात्न है। गणेश महात्न इसलिए कि एकमात्र गजमुखी ही वह द्वार हैं जिसके माध्यम से शिव और शक्ति दोनों के दर्शन किये जा सकते हैं, दोनों को एक साथ प्राप्त किया जा सकता है। इस सृष्टि में गणेश तत्व की खोज, गणेश का आविष्कार, गणेश का अनुसंधान ही शिव और शक्ति का प्रमुख कार्य रहा है। आदि शंकराचार्य यह समझे बैठे थे अतः जब उनकी दिग्विजयी यात्रा दक्षिण भारत के जम्बूकेश्वर नामक पवित्र क्षेत्र में पहुँची तो वे थोड़े विचलित हो गये। यहाँ पर भगवति का एक अति प्राचीन दिव्य स्थल रहा है एवं जम्बूकेश्वर में भगवान शिव जल तत्व पर आरूढ़ दिखाई पड़ते हैं। यहाँ पर उनका विग्रह अपोलिंग के नाम से जाना जाता है जिसमें कि जल तत्व की प्रधानता है। 

       जल सबसे बलिष्ठ, सबसे उग्र और सबसे कठिनाई के साथ नियंत्रण में आने वाला तत्व है। जम्बूकेश्वर का अपोलिंग भारतवर्ष में जल तत्व को नियंत्रित करता है। यही लिंग जल तत्व को सौम्य बनाता है। भगवान साम्ब सदाशिव के इस अपोलिंग की पूजा अर्चना से समस्त भारत वर्ष में जल संबंधित व्याधियों, अकाल, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, बाढ़, तूफान इत्यादि का नियंत्रण होता है। आदि गुरु शंकराचार्य जी को उनके शिष्यों ने पकड़ लिया और बोले भगवन मंदिर में प्रविष्ट मत होइये क्योंकि इस गर्भ गृह में पराम्बरा, ललिता खण्डेश्वरी के रूप में अत्यंत ही तेजोमय हैं। आज तक जो भी व्यक्ति गर्भ गृह में जाता है उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है, वह अम्बा के तेज को सहन नहीं कर पाता। आदि शंकर एक पल के लिए ठिठके फिर दूसरे ही क्षण गणपति का विग्रह हाथ में लिया और घुस गये गर्भ गृह में एवं अम्बा की मूर्ति के सामने गणेश को स्थापित कर दिया और दूसरे ही क्षण ललिता खण्डेश्वरी के दोनों कानों में हीरे से जड़ित दो अद्भुत श्रीयंत्र पहना दिए। अम्बा की दृष्टि अब गणेश पर थी और कानों में श्रीयंत्र। देखते ही देखते ललिता खण्डेश्वरी का तेज एवं उग्रता सौम्यता और वात्सल्य में परिवर्तित हो गई। 

       मूर्ति में से सौम्यता झलकने लगी, मूर्ति में से वात्सल्य उमड़ने लगा। लोगों की भीड़ लग गई, जो भी मंदिर में प्रविष्ट होता एक दिव्य ऊर्जा को आत्मसात कर धन्य हो उठता। यही है गणेश रहस्यम् । आज भी लोग आदि शंकर द्वारा प्रतिष्ठित इस मंदिर में अम्बा के दर्शन के लिए नित्य जाते हैं। कौन उग्र है? कौन प्रचण्ड है ? कौन क्रोधी हैं? कौन भीषण है? किसने सर्वप्रथम उग्रता को धारण किया ? किसने सर्वप्रथम तेजोमय रूप ग्रहण किया? निश्चित ही वे शिव और शक्ति हैं। ब्रह्माण्ड में किस ग्रह की इतनी ताकत है कि जो इनके तेज को झेल सके, इनके सानिध्य में निवास कर सके, इन दोनों के एकांश से ही तो सूर्य तप रहा है। जब एकांश अनंत सूर्यों को तपा सकता है तो पूर्णांश को भला कौन झेल सकता है? अतः कौन सा मार्ग है जिसके द्वारा इन दोनों को जन मानस देख सकता है ग्रहण कर सकता है। वह है गणेश मार्ग जो शिव को सौम्य कर दे, रुद्र को साम्ब कर दे, जो ललिता खण्डेश्वरी को वात्सल्यमय बना दे, जो अम्बा में शालीनता फूंक दे, उन्हें प्रेममयी बना दे, ममतामयी बना दे उसका नाम है गणेश अन्यथा गणेश के अलावा जितने भी हुवे उम्र को और उग्र बनाते हैं, रुद्र को और रौद्र बनाते हैं, प्रचण्ड को और ज्वालामुखी बनाते हैं। 

       गणेश के अलावा जो भी हैं वे ठीक उसी प्रकार का कार्य करते हैं जैसे कि प्रचण्ड अग्नि के सम्पर्क में अगर वन आते हैं, घरौंदे आते हैं, जीव आते हैं तो वह और प्रचण्ड होती है, उसकी ज्वाला की लपटें और ऊंची उठती हैं। गणेश ही अनियंत्रित को परम नियंत्रित में परिवर्तित करते हैं बस यहीं पर गणेश प्रथम पूजनीय हैं, यही पर समस्त जीव जगत हार जाता है। अगर एक चिकित्सक का हाथ चाकू लेकर मरीज के घाव पर उठता है तो गणेश तत्व के अभाव में घाव और गहरा होगा, उसका निदान नहीं होगा। वह घाव को और प्रचण्डता देगा परन्तु अगर गणेशत्व होगा तो उसके द्वारा उठा हाथ घाव रूपी विघ्न का समूलोच्छेदन कर देगा, परिवर्तन का यही महाबिन्दु ओंकार है। 

          ओंकार ही गणेश है जो कि भावनाओं को सद्भावनाओं में परिवर्तित कर देंगे। मंत्रों में ॐ लगा दिया जाता है, जितने भी वैदिक मंत्र हैं उनकी शुरूआत ॐ से होती है। ॐ क्यों लगा दिया गया? प्रथम में ही क्यों लगाया गया अंत में भी लगा सकते थे। वैज्ञानिक भली भांति मंत्र रहस्यों को समझ रहे हैं, उन्हें मालूम है कि हमने मंत्रों की रचना कल्याणार्थ की है, मंत्र कल्याण की ब्रह्माण्डीय सोच के अनुरूप रचे गये हैं अतः कहीं ऐसा न हो कि मंत्र जप करने वाला साधक किसी भी कारणवश जाने अनजाने अकल्याणकारी भावनाओं से ग्रसित हो या फिर किसी परिस्थिति या घटनावश अपने दूषित मानस से मंत्र जप कर बैठे और उसकी भावनायें मंत्र मार्ग के माध्यम से अकल्याणकारी परिस्थितियाँ पैदा कर दे। अतः मंत्र की शुरूआत में ॐ लगा देने से चाहे साधक की मानसिकता कैसी भी हो प्रदूषण नहीं फैल पाता। 

       भावनाएं ॐ के संस्पर्श से निष्क्रिय हो जाती है, वे परिवर्तित हो जाती हैं। यह स्पंदन का खेल है। ॐ का महत्व इसीलिए सर्वाधिक है। शिव ने अध्यात्म का आविष्कार करते समय स्पष्ट रूप से घोषणा कर दी कि किसी भी अनुष्ठान, जप, यज्ञ, मंत्र विधान इत्यादि के साथ-साथ जो भी कार्य जीव सम्पन्न करेंगे अगर उससे पूर्व ओंकारनाद नहीं किया गया अर्थात गणपति पूजन नहीं किया गया तो अनुष्ठान से उत्पन्न समस्त कर्म एवं फल मुझ तक नहीं पहुँच पायेंगे और गणेश विहीन कर्मों का फल अधर्म खायेगा, असुर प्राप्त करेंगे, पाप आत्माएं प्रेत आत्माएं इन्हीं कर्मों के फलों पर पुष्टिवर्धक होंगे। आप घर बनाइये, विवाह कीजिए, संतानोत्पत्ति कीजिए, नया व्यापार शुरू कीजिए किसने रोका है ? कर्म की पूरी छूट है परन्तु अगर इन सब क्रिया कलापों से पहले अगर आपने गणपति पूजन नहीं किया, प्रथमेश का आह्वान नहीं किया तो फिर उग्र, घोर, प्रचण्ड एवं भीषण शक्तियाँ स्वतः ही निमंत्रित हो जायेंगी।

         प्रथमेश का आह्वान, प्रथमेश की उपासना इन सब शक्तियों के आह्वान को निरुद्ध करती है। लोग मकान बनाते हैं, उल्टी क्रिया शुरू जाती है, मुसीबतें टूट पड़ती हैं। गणेश विहीन विवाह भी होते हैं एवं उनसे हाहाकार ही हाहाकार उत्पन्न होता है। अध्यात्म की किसी भी शाखा में, किसी भी पंथ में, किसी भी पद्धति में अगर गणेश का आह्वान नहीं है, गणेश क्रिया का अभाव है तो फिर विध्वंस ही विध्वंस एवं अनाचार ही अनाचार होगा। वास्तव में अध्यात्म तो एक तरह से पराब्रह्माण्डीय महा आवृत्ति अनुसंधान है एवं इससे उत्पन्न होने वाली ऊर्जा अत्यंत ही तीक्ष्ण होती है अतः कैसे नियंत्रित होगी यह कैसे जीवन दायिनी बनेगी यह ? इसके लिए तो गणेश की ही जरूरत पड़ेगी ।

पञ्चश्लोकी गणेशपुराणम्
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श्री विघ्नेश पुराणसार मुदितं व्यासाय धात्रा पुरा, तत्खण्डप्रथमं महागणपतेश्‍चोपासनाख्यं यथा ।
संहरतु त्रिपुरं शिवेन गणपस्यादौ कृतं पूजनं, कर्तुं सृष्टिमिमां स्तुतः स विधिना व्यासेन बुद्धयाप्तये ॥ 

संकष्ट्याश्च विनायकस्य च मनोः स्थानस्य तीर्थस्य वै, दूर्वाणां महिमेति भक्ति चरितं तत्पार्थिवस्यार्चनम् ।
 तेभ्यो चर्चदभीप्सितं गणपतिस्तत्तत्प्रतुष्टो ददौ, ता सर्वा न समर्थ एव कथितुं ब्रह्मा कुतो मानवः ॥

 क्रीडाकाण्डमथो वेदे कृतयुगे श्वेतच्छवि: काश्यपः, सिंहांकः च विनायको दशभुजो भूत्वाय काशी ययौ ।
 हत्वा तत्र नरान्तकं तदनुजं देवान्तकं दानवं, त्रेतायां शिवनन्दनो रसभुजो जातो मयूरध्वजः ॥ 

हत्वा तं कमलासुरं च सगणं सिन्धुं महादैत्ययं, पश्चात् सिद्धिमति सुते कमजलस्तस्मै च ज्ञानं ददौ ।
द्वापारे तु गजाननो युगभुजो गौरीसुतः सिन्दूरं, सम्म स्वकरेण तं निजमुखे चाखुध्वजो लिप्तवान् ॥ 

गीताया उपदेश एव हि कृतो राज्ञै वरेण्याय वै, तुष्टायाथ च धूम्रकेतुरभिधो विप्रः सधर्माधिकः । 
अश्वांको द्विभुजो सितो गणपतिम्लैच्छान्तकः स्वर्णदः, क्रीडाकाण्डमिदं गणस्य हरिणा प्रोक्तं विधात्रे पुरा ॥

 एतच्छ्लोक सुपञ्चकं प्रतिदिनं भक्त्या पठेद्यः पुमान् । निर्वाणं परमं व्रजेत् स सकलान् भुक्त्वा सुभोगानपि ॥ 

इस पञ्चश्लोकी पुराण का भक्तियुक्त होकर तीनों सन्ध्याओं में जो साधक पाठ करता है, वह इस जगत् में सब सुखों को भोग कर मोक्ष को प्राप्त होता है । उपर्युक्त पञ्चश्लोकी पुराण का उपदेश स्वयं भगवान् विष्णु ने श्री ब्रह्मा जी को दिया था।
         
    ।।इति श्री पञ्चश्लोकी गणेशपुराणम् ॥

लक्ष्मी प्राप्ति के लिए गणपति स्तोत्र
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ॐ नमो विघ्नराजाय सर्वसौख्य प्रदायिने ।
 दुष्टारिष्ट विनाशाय पराय परमात्मने ॥ 

लम्बोदरं महावीर्यं नागयज्ञोपशोभितम् । 
अर्धचन्द्रधरं देवं विघ्न व्यूह विनाशनम् ॥ 

ॐ ह्रां ह्रीं ह्र हैं ह्रौं ह्रः हेरम्बाय नमो नमः । सर्वसिद्धिप्रदोऽसि त्वं सिद्धिबुद्धिप्रदो भव ॥

 चिन्तितार्थप्रदस्त्वं हि सततं मोदकप्रियः । सिन्दूरारुणवस्त्रश्च पूजितो वरदायकः ॥ 

इदं गणपति स्तोत्रं यः पठेत् भक्तिमान् नरः । 
तस्य देहं च गेहं च स्वयं लक्ष्मी न मुञ्चति ॥

सम्पूर्ण सौख्य देने वाले विघ्नराज गणेश को नमस्कार है । जो दृष्ट अरिष्ट ग्रहों का नाश करने वाले परात्पर परमात्मा हैं, उन गणपति जी को नमस्कार है। 
जो महापराक्रमी, लम्बोदर, सर्पमय यज्ञोपवीत से सुशोभित, अर्धचन्द्रधारी और विघ्नसमूह का विनाश करने वाले हैं, उन गणपति देव की मैं वन्दना करता हूँ । 
ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं हैं ह्रौं ह्रः हेरम्ब को नमस्कार है। भगवान् ! आप सब सिद्धियों के दाता हो, आप हमारे लिए सिद्धिबुद्धिदायक हो । 
आप मन के द्वारा चिन्तित अर्थ को देने वाले हैं तथा आपको सदा ही लड्डू प्रिय हैं, सिन्दूर और लाल वस्त्र से पूजित होकर आप सदा ही वर प्रदान करते हैं । 
जो मनुष्य भक्ति -भाव- युक्त होकर इस गणपति स्तोत्र का पाठ करता है, स्वयं लक्ष्मी उसके देह गेह को नहीं छोड़ती। इस स्तोत्र के नित्य 108 जप किये जायें, मोदकों का प्रसाद चढ़ाया जाये तो छः मास में लक्ष्मी की प्राप्ति होती है। नित्य 11 पाठ करते रहने से धनलाभ के अवसर आते रहते हैं।

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