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7 दिनों में कब और किस समय होता है राहु काल, यह जानकारी आपको जरूर होनी चाहिए..! 🐉

राहु काल : 
भारतीय ज्योतिष में नौ ग्रह गिने जाते हैं, सूर्य, चंद्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, राहु और केतु। जिसमें राहु, राक्षसी सांप का मुखिया है जो हिन्दू शास्त्रों के अनुसार सूर्य या चंद्रमा को निगलते हुए ग्रहण को उत्पन्न करता है। राहु तमस असुर है। राहु का कोई सिर नहीं है और जो आठ काले घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सवार हैं। 

ज्योतिष में राहु काल को अशुभ माना जाता है। अत: इस काल में शुभ कार्य नहीं कि जाते है। यहां आपके लिए प्रस्तुत है सप्ताह के दिनों पर आधारित राहुकाल का समय,जिसे देखकर आप अपना दैनिक कार्य कर सकते हैं। 
 
🐍यहां आपके लिए प्रस्त‍ुत हैं वार के अनुसार राहु काल का समय:-

👉रविवार:- सायं 4:30 से 6:00 बजे तक।
 
👉सोमवार:- प्रात:काल 7:30 से 9:00 बजे तक।
 
👉मंगलवार:- अपराह्न 3:00 से 4:30 बजे तक।
 
👉बुधवार:- दोपहर 12:00 से 1:30 बजे तक।
 
👉गुरुवार:- दोपहर 1:30 से 3:00 बजे तक।

 
👉शुक्रवार:- प्रात:10:30 से दोपहर 12:00 तक।
 
👉शनिवार:- प्रात: 9:00 से 10:30 बजे तक।


।। इति शुभं भवतु ।।

मंत्र पुरश्चरण विधि ।।


किसी मंत्र का प्रयोग करने से पहले उसका विधिवत सिद्ध होना आवश्यक है। उसके लिये मंत्र का पुरष्चरण किया जाता है।
पुरष्चरण का अर्थ है मंत्र की पांच क्रियाएं , जिसे करने से मंत्र जाग्रत होता है और सिद्ध होकर कार्य करता है।
जिनमें पहली है मंत्र का जाप।
दूसरा है हवन।
तीसरा है अर्पण।
चौथा है तर्पण।
पॉचवा है मार्जन।

अब इनके बारे मे विस्तार से जानते है

1. मंत्र जाप
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गुरू द्वारा प्राप्त मंत्र का मानसिक उपांशु या वाचिक मुंह द्वारा उच्चारण करना मंत्र जाप कहलाता है। अधिकांश मंत्रों का सवा लाख जाप करने पर वह सिद्ध हो जाते हैं। लेकिन पुरश्चरण करने के लिए उपरोक्त मंत्र में अक्षरों की संख्या को एक लाख से गुना कर जितनी संख्या आये उसके बराबर जप, जप का दशांश हवन, हवन का दशांश अर्पण, अर्पण का दशांश तर्पण, तर्पण का दशांश मार्जन करने पर पुरश्चरण की विधि शास्त्रोक्त रीति से पूर्ण मानी जाती है इस विधि से पुरश्चरण करने पर साधक के अंदर एक दिव्य तेज प्रस्फुरिट होता है तथा प्राप्त सिद्धि को दीर्घ काल तक स्थायी रख पाने का सामर्थ्य आता है।

2. हवन
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हवन कुंड में हवन सामग्री द्वारा अग्नि प्रज्वलित करके जो आहुति उस अग्नि में डाली जाती है, उसे हवन या यज्ञ कहते है। मंत्र जाप की संख्या का दशांश हवन करना होता है। मंत्र के अंत में स्वाहा लगाकर हवन करें। दशांश यानि 10% यानि सवा साख मंत्र का 12500 मंत्रों द्वारा हवन करना होगा।

3. अर्पण
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दोनो हाथो को मिलाकर अंजुलि बनाकर हाथो मे पानी लेकर उसे सामने अंगुलियो से गिराना अर्पण कहलाता है। अर्पण देवो के लिये किया जाता है । मंत्र के अंत मे अर्पणमस्तु लगाकर बोले। हवन की संख्या का दशांश अर्पण किया जाता है यानि 12500 का 1250 अर्पण होगा।

4. तर्पण
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अर्पण का दशांश तर्पण किया जाता है।यानि 1250 का 125 अर्पण करना है।मंत्र के अंत में तर्पयामि लगाकर तर्पण करें। तर्पण पितरों के लिये किया जाता है। दाएं हाथ को सिकोड़कर
पानी लेकर उसे बाईं साइड में गिराना तर्पण कहलाता है।

5. मार्जन
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मंत्र के अंत में मार्जयामि लगाकर डाब लेकर पानी में डुबा कर अपने पीछे की ओर छिड़कना मार्जन कहलाता है। तर्पण का दशांश मार्जन किया जाता है।
ये पुरष्चरण के पॉच अंग हैं, इऩके बाद किसी ब्राह्मण को भोजन कराना चाहें तो करा सकते हैं। मंत्र सिद्धि के बाद उसका प्रयोग करें। आपको अवश्य सफलता मिलेगी
आज साधकों को वो नियम की जानकारी देते हैं जिनके कारण उनकी साधना सफल /असफल होती है।
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कुछ साधको को तंत्र के प्राथमिक नियम नही पता है नतीजा ये रहता है कि साधना सफल नही होती।
1-- तंत्र का पहला नियम है कि ये एक गुप्त विद्या है इसलिये इसके बारे मे आप केवल अपने गुरू के अलावा किसी अन्य को अपनी साधना या साधना के दोरान होनी वाली अनुभूति को किसी अन्य को न बताये,चाहे वो कोई हो चाहे कुछ हो,सपने तक किसी को नही बताये।और मंत्र को गोपनोय रखें।
यदि ऐसा किया जाता है तो जो अनुभूति मिल रही है वो बन्द हो सकती है साधना असफल हो सकती है।
उग्र देव की साधना मे प्राण तक जाने का खतरा है। इसलिये किसी से कुछ शेयर न करे सिवाय गुरू के।
2-- दूसरा नियम गुरू द्वारा प्रदान किये गये मंत्रो को ही सिद्ध करने की कोशिश करे।
3-- साधना काल मे यानि जितने दिन साधना करनी है उतने दिन ब्रह्मचर्य रखे। शारीरिक सम्बंध न बनाये, मानसिक ब्रह्मचर्य के टूटने की चिंता नही करे।इस पर किसी का वश नही हैजैसे नाइट फॉल।
4-- साधना के दौरान कमरे मे पंखा कूलर न चलाये ये तीव्र आवाज करते है जिनसे ध्यान भंग होता है। एसी रूम मे बैठ सकते है, या पंखा बहुत स्लो करके बैठे सबसे अच्छा यही है कि पंखा न चलाये,क्योकि साधना के दौरान होने वाली आवाज को अाप पंखे की आवाज मे सुन नही पाते हो।
5-- कमरे मे आप बल्ब भी बन्द रखे क्योकि ये पराशक्तियॉ सूक्ष्म होती है इन्हें तीव्र प्रकाश से प्रत्यक्ष होने मे दिक्कत होती है।
6-- जप से पहले जिस की साधना कर रहे हो उसे संकल्प लेते समय जिस रूप यानि मॉ , बहन, पत्नी, दोस्त, दास, रक्षक , जिस रूप मे करे उसका स्पष्ट उल्लेख करे ताकि देवता को कोई दिक्कत न हो और वो पहले दिन से आपको खुलकर अनुभूति करा सके।
7-- जाप के समय ध्यान मंत्र पर ऱखे। कमरे मे होने वाली उठापटक या आवाज की तरफ ध्यान नही दे।
8-- कोई भी उग्र साधना करने पर सबसे पहले रक्षा मंत्रो द्वारा अपने चारो ओर एक घेरा खींच ले मे परी ,अप्सरा ,यक्ष ,गन्धर्व , जिन्न की साधना मे कवच का पाठ कर लें तो अति उत्तम होगा।वैसे आप भी इन्हें बिना कवच के कर सकते है ये सौम्य साधना है। घर से बाहर हमेशा कवच करके बैठे।

*रक्षा कवच के लिए ,चाकू , लोहे की कील , पानी , आदि से अपने चारो ओर मंत्र पढते हुये घेरा अवश्य खीचे।
9-- जाप के बाद जाने- अनजानेअपराधो के लिये क्षमा अवश्य मॉगे।
10-- जाप के बाद उठते समय एक चम्मच पानी आसन के कोने के नीचे गिराकर उस पानी को माथे से अवश्य लगाये,इससे जाप सफल रहता है।
11-- साधना के दौरान भय न करे ये शक्तियॉ डरावने रूपो मे नही आते। अप्सरा, यक्ष , यक्षिणी, परी गन्धर्व, विधाधर ,जिन्न आदि के रूप डरावने नही है ,मनुष्यो जैसे है ,आप इनकी साधना निर्भय होकर करे।
12-- अप्सरा हमेशा प्रेमिका रूप मे सिद्ध करे।
13-- यक्षिणी जिस रूप मे सिद्ध की जाती है उस रूप को थोडी दिक्कत रहती है लेकिन ये उन्हें मारती नही है, डरावने रूप भी नही दिखाती ,कुछ यक्षिणी कोई भी कष्ट नही देती।
अतएव आप निर्भय होकर इनकी साधना कर सकते है।
14-- सबसे जरूरी बात जो भी साधना सिद्ध होती है या सफल होती है तो पहले या दूसरे दिन प्रकृति मे कुछ हलचल हो जाती है यानि कुछ सुनायी देता है या कुछ दिखायी देता है या कुछ महसूस होता है।
यदि ऐसा न हो तो साधना बन्द कर दें वो सफल नही होगी। लम्बी साधना जैसे 40 या 60 दिनो वाली साधना मे सात दिन मे अनुभूति होनी चाहिये।
15-- साधना के लिये आप जिस कमरे का चुनाव करे उसमे साधना काल तक आपके सिवा कोई भी दूसरा प्रवेश नही करे।कमरे मे कोई आये जाये ना सिवाय आप को छोड़कर।
16-- साधना काल मे लगने वाली समस्त सामग्री का पूरा इंतजाम करके बैठे।
17-- फल फूल मिठाई हमेशा प्रतिदिन ताजे प्रयोग करे।
18-- पूरी श्रद्धा विश्वास एकाग्रता से साधना करे ये सफलता की कुंजी हैं।
19-- ये पराशक्तियॉ प्रेम की भाषा समझती हैं इसलिये आप जिस भाषा का ज्ञान रखते है इनकी उसी भाषा मे पूजन ध्यान प्रार्थना करे।
इन्हें सस्कृत या हिन्दी या अग्रेजी से कोई मतलब नही है। अगर आप गुजराती हो तो आप पूरा पूजन गुजराती मे कर सकते है ।अगर आप मराठी हो तो पूरा पूजन मराठी मे कर सकते हैं, कोई दिक्कत नही होगी।
20-- और ये महान शक्तियॉ है इसलिये हमेशा इनसे सम्मान सूचक शब्दो मे बात करे।
21-- साधना कोई वैज्ञानिक तकनीक नही है, जैसा आप लोगो को बताया जा रहा है अगर ऐसा होता तो अब तक भूत प्रेत का अस्तित्व वैज्ञानिक साबित कर चुके होते।
ये एक जीवित शक्तियो की साधना है जिसमे देवता का आना/ ना आना उस देव पर भी निर्भर करता है कि आपसे वो कितना खुश है।
22-- ऐसा कभी नही होगा कि कोई भी 11 दिन 21 माला का जाप बिना श्रद्धा विश्वास कर दे और अप्सरा आदि उसके समक्ष आकर खडी हो जाये।
23-- मंत्रो का शुद्ध स्वर/ध्वनि के साथ उच्चारण की जानकारी प्राप्त करके ही साधना में प्रवृत्त हों।

यंत्र साधना ।।


साधना विज्ञान में विशेषकर वाममार्गी ताँत्रिक साधनाओं में ‘यंत्र-साधना’ का बड़ा महत्व है। जिस तरह देवी देवताओं की प्रतीकोपासना की जाती है और उनमें सन्निहित दिव्यताओं, प्रेरणाओं की अवधारणा की जाती है, उसी तरह ‘यंत्र’ भी किसी देवी या देवता के प्रतीक होते हैं। इनकी रचना ज्यामितीय होती है। यह बिंदु, रेखाओं, वक्र-रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और पद्मदलों से मिलाकर बनाये जाते हैं और अलग-अलग प्रकार से बनाये जाते हैं। कई का तो बनाना भी कठिन होता है। इनका एक सुनिश्चित उद्देश्य होता है। इन रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और यहाँ तक कि कोण, अंश का भी विशेष अर्थ होता है। जिस तरह से देवी-देवताओं के रंग, रूप, आयुध, वाहन आदि विशेष गुणों का प्रेरणाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी गंभीर लक्ष्य धातु या अन्य वस्तुओं के तल पर होता है। रेखाओं और त्रिभुजों आदि के माध्यम से बने चित्रों को ‘मंडल’ कहा जाता है, जो किसी भी देवता के प्रतीक हो सकते हैं, किंतु ‘यंत्र’ किसी विशिष्ट देवी या देवता के प्रतीक होते हैं। 

 तंत्र विद्या विशारदों के अनुसार यंत्र अलौकिक एवं चमत्कारिक दिव्य शक्तियों के निवास स्थान हैं। ये सामान्यतया स्वर्ण, चाँदी एवं ताँबा जैसी उत्तम धातुओं पर बनाये जाते हैं। भोजपत्र पर बने यंत्र भी उत्तम माने जाते हैं। ये चारों ही पदार्थ कास्मिक तरंगें उत्पन्न करने और ग्रहण करने की सर्वाधिक क्षमता रखते हैं। उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रायः इन्हीं से बने यंत्र प्रयुक्त होते हैं। ये यंत्र केवल रेखाओं और त्रिकोणों आदि से बन ज्यामिति विज्ञान के प्रदर्शक चित्र ही नहीं होते, वरन् उनकी रचना विशेष आध्यात्मिक दृष्टिकोण से की जाती है। जिस प्रकार से विभिन्न देवी-देवताओं के रंग-रूप के रहस्य होते हैं, उसी तरह सभी यंत्र विशेष उद्देश्य से बनाये गये हैं। इन यंत्रों में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का दर्शन पिरोया हुआ है। भारतीय दर्शन का मत है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वह सारी देवशक्तियां पिण्ड अर्थात् मानवीकाया में भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान है। मानवी काया-पिण्ड उस विराट् विश्व-ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त संस्करण है, अतः उसमें सन्निहित शक्तियों को यदि जाग्रत एवं विकसित किया जा सके तो वे भी उतनी ही समर्थ एवं चमत्कारी हो सकती हैं। यंत्र साधना में साधक यंत्र का ध्यान करते हुए ब्रह्माण्ड का ध्यान करता है और क्रमशः आगे बढ़ते हुए अपनी पिण्ड चेतना को वह ब्रह्म जितना ही विस्तृत अनुभव करने लगता है। एक समय आता है जब दोनों में कोई अंतर नहीं रहता और वह अपनी ही पूजा करता है। उसके ध्यान में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का ऐक्य हो जाता है। वह भगवती महाशक्ति को अपना ही रूप समझता है, फिर उसे सारा जगत ही अपना रूप लगने लगता है। वह अपने को सब में समाया हुआ पाता है, अपने अतिरिक्त उसे और कुछ दृष्टिगोचर ही नहीं होता। वह अद्वैत सिद्धि के मार्ग पर प्रशस्त होता है और ऐसी अवस्था में आ जाता है कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक रूप ही लगने लगते हैं। साधक चेतना अब अनंत विश्व और अखण्ड ब्रह्म का रूप धारण कर लेती है। यंत्र पूजा में यही भाव निहित है। 

 ‘यंत्र’ का अर्थ ‘ग्रह’ होता है। यह ‘यम्’ धातु से बनता है जिससे ग्रह का ही बोध होता है, क्योंकि यहीं नियंत्रण की प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है यों तो सामान्य भौतिक अर्थ में यंत्र का तात्पर्य मशीन से लिया जाता है जो मानव से अधिक श्रम साध्य और चमत्कारी कार्य कर सकती है और हर कार्य में सहायक सिद्ध होती है। उदाहरण के लिए मोटर कार, रेलगाड़ी, वायुयान, सेटेलाइट आदि की उपयोगिता एवं द्रुतगामिता से सभी परिचित हैं। इसी तरह माइक्रोस्कोप, टेलीस्कोप जैसे सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तुओं एवं दूरस्थ वस्तुओं को देखा जा सकता है। इसी तरह विराट् ब्रह्म को देखना हो तो भी यंत्र की अपेक्षा रहती है, उसकी भावना करनी पड़ती है। ताँत्रिक यंत्र को निर्गुण ब्रह्म के शक्ति-विकास का प्रतीक माना जाता है।

अध्यात्मवेत्ताओं ने यंत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए कहा भी है-”जिससे पूजा की जाये, वह यंत्र है। तंत्र परंपरा में इसे देवता के द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा प्राप्त यंत्र शरीर के रूप में देखा जाता है। यंत्र उस देवता के रूप का प्रतीक है जिसकी उपस्थिति को वह मूर्तिमान करता है और जिसका कि मंत्र प्रतीक होता है।” इस तरह यंत्र को देवता का शरीर कहते हैं और मंत्र को देवता की आत्मा। इसके द्वारा मन को केन्द्रित और नियंत्रित किया जाता है। कुलार्णव तंत्र के अनुसार-”यम और समस्त प्राणियों से तथा सब प्रकार के भयों से त्राण करने के कारण ही इसे ‘यंत्र’ कहा जाता है। यह काम, क्रोधादि दोषों के समस्त दुखों का नियंत्रण करता है। इस पर पूजित देव तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं।” सुप्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी सर जॉन वुडरफ ने भी अपनी कृति “प्रिंसिपल्स ऑफ तंत्र” में लिखा है कि इसका नाम ‘यंत्र’ इसलिए पड़ा कि यह काम, क्रोध व दूसरे मनोविकारों एवं उनके दोषों को नियंत्रित करता है। 

 यंत्र-साधना का उद्देश्य ब्रह्म की एकता की सिद्धि प्राप्त करना है। यंत्र द्वारा इस अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न प्रकार की साधनायें करनी पड़ती हैं। इनका संकेत-सूत्र यंत्र के विभिन्न अंगों से परिलक्षित होता है। उनका चिंतन-मनन करना होता है। विचार परिष्कार एवं भाव-साधना से ही उत्कर्ष होता है। यंत्र के बीच में बिंदु होता है, जो गतिशीलता का, प्रतीक है। शरीर और ब्रह्माण्ड का प्रत्येक परमाणु अपनी धुरी पर तीव्रतम गति से सतत् चक्कर काट रहा हैं यह सर्वव्यापक है। अतः हमें भी उन्नति के मार्ग पर संतुष्ट नहीं रहना है, वरन् हर क्षण आगे बढ़ने के लिए तत्पर और गतिशील रहना है, तभी शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा गतिशील हो सकते हैं। बिंदु आकाशतत्त्व का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि इसमें अनुप्रवेश भाव रहता है जो आकाश का गुण है। बिंदु यंत्र का आदि और अंत भी होता है अतः यह उस परात्पर परम चेतना का प्रतीक है जो सबसे परे है, जहाँ शिव और शक्ति एक हो जाते हैं। 

 वस्तुतः प्रत्येक यंत्र शिव और शक्ति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति कराने वाला एक अमूर्त ज्यामितीय संरचना होता है। इसमें उलटा त्रिकोण ‘शक्ति’ का और सीधा त्रिकोण ‘शिव’ का प्रतीक माना जाता है। एक दूसरे को काटते हुए उलटे और सीधे त्रिकोणों से ही यंत्र विनिर्मित होता है। त्रिभुज का शीर्षकोण जब ऊपर की ओर बना होता है तो अग्निशिखा का प्रतीक माना जाता है जो उन्नति का ऊपर उठने का भाव प्रदर्शित करता है। जब यह शीर्षकोण नीचे की ओर होता है तो जल-तत्व का द्योतक माना जाता है,क्योंकि नीचे की ओर प्रवाहित होना ही जल का स्वभाव है। यंत्र में त्रिकोणों के चारों ओर गोलाकार वृत्त-सर्किल बनाये जाते हैं जिसे पूर्णता का और खगोल का प्रतीक कहा जा सकता है। इसे वायु का द्योतक भी माना जाता है, क्योंकि वृत्त में चक्राकार गति के लक्षण पाये जाते हैं। जब एक बिंदु दूसरे के चारों ओर चक्कर लगाता है तो वृत्त बनता है। वायु भी यही करती है और जिसके साथ संपर्क में आती है, उसे घुमाने लगती है। अग्नि और जल के साथ यही स्थिति रहती है। 

 यंत्र में इस गोलाकार वृत्त के सबसे बाहर जो चार ‘द्वार’ वाला चतुष्कोण या चतुर्भुज बना होता है, उसे ‘भूपुर’ कहते हैं। इसमें बहुमुखता का भाव है। यह पृथ्वी का भौतिकता का और विश्व-नगर का प्रतीक माना जाता है। किसी भी दशा में इसके चारों द्वारों को पार करके ही साधक मध्य में स्थित उस महाबिंदु तक पहुँच सकता है जहाँ परम सत्य स्थित है। यह बिंदु यंत्र के बीच में रहता है और यह अंतिम लक्ष्य माना जाता है। वहीं ईश्वर के दर्शन होते हैं और एकता सधती है। 

 आगम ग्रंथों के अनुसार यंत्रों में चौदह प्रकार की शक्तियाँ अन्तर्निहित होती हैं और प्रत्येक इन्हीं में से किसी न किसी शक्ति के अधीन रहते हैं। इन्हीं शक्तियों के आधार पर यंत्रों की रेखायें और कोष्ठकों का निर्माण होता है। इन यंत्रों में 36 तत्वों का समावेश होता है, जिनमें पंचमहाभूत, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ और पाँच इनके विषय-रूप, रस, गंध आदि तन्मात्रायें, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति पुरुष, कला, अविद्या, राग, काल, नियति, माया, विद्या, ईश्वर, शिव, शक्ति आदि आते हैं। जिस तरह मंत्रों में बीजाक्षर होते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी 1 से लेकर 36 तक की संख्या बीज संख्या मानी गयी है। ये बीज संख्यायें चौदह शक्तियों पर आधारित होकर 36 तत्वों के भावों को भिन्न-भिन्न प्रकट कर रेखाओं, कोष्ठकों के आकार-प्रकार और बीजाक्षरों के अधिष्ठाता देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करती हुई उन देवशक्तियों को स्थान विशेष पर प्रकट कर मानव संकल्प की सिद्धि प्रदान करती हैं। इन्हीं 36 तत्वों के अंतर्गत पृथ्वी जल, वायु, अग्नि आदि जो 25 तत्व हैं, वे वर्णमाला के 25 वर्ण बीजों से संबंध रखते हैं।

यंत्र विज्ञान में 1, 9 तथा (0) की संख्या अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं जिस प्रकार एकाक्षरी बीज मंत्रों के अनेक अर्थ होते हैं उसी तरह प्रत्येक संख्या बीज भी अनेक अर्थों वाले होते हैं। ये अंकबीज विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के ऊपर प्रभाव डालने की अपार शक्ति रखते हैं। मीमाँसाशास्त्र में कहा गया है कि देवताओं की कोई अलग मूर्ति नहीं होती। वे मंत्र मूर्ति होते हैं। वे यंत्रों में आबद्ध रहते हैं और उन पर अंकित अंकों एवं शब्दों का जब लयबद्ध ढंग से भावपूर्ण जप किया जाता है तो उनसे एक विशिष्ट प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं जिसका प्रभाव उच्चारणकर्ता पर ही नहीं पड़ता, समूचे आकाश मंडल एवं ग्रह-नक्षत्रों पर भी पड़ता है। यंत्र शरीर में स्थित शक्ति केन्द्र को मंत्र एवं अंकों के शक्ति के सहकार से उद्दीप्त उत्तेजित करता है। मानवी काया में अनेकों सूक्ष्म शक्ति केन्द्र हैं जिन्हें देवता की संज्ञा दी जा सकती है। यंत्र वस्तुतः इन्हीं विभिन्न शक्ति केन्द्रों के मानचित्र के समान हैं जिनकी साधना से साधक में तद्नुरूप ही शक्तियों का विकास होता है और वह उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए आत्मोत्कर्ष के चरमलक्ष्य तक जा पहुँचता है। 

 मंत्रों की तरह यंत्र भी बहुविधि एवं संख्या में अनेकों हैं और उनका रचना विधान भी प्रयोजन के अनुसार कई प्रकार का होता है। तंत्रशास्त्रों में इस तरह के 960 प्रकार के यंत्रों का वर्णन मिलता है जिनकी प्रतीकात्मकता की विषद व्याख्या भी की गयी है। इनमें से कुछ यंत्रों को ‘दिव्य यंत्र’ कहा जाता है। ये स्वतः सिद्ध माने जाते हैं और दैवी शक्ति संपन्न होते हैं। उदाहरण के लिए वीसोयंत्र, श्रीयंत्र, पंचदशी यंत्र आदि की गणना दिव्य यंत्रों में की जाती है। इनमें से ‘श्री यंत्र’ सबसे प्रसिद्ध है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में ‘योगिनी हृदय’ में कहा गया है कि “जब परात्पर शक्ति अपने संकल्प बल से ही विश्व-ब्रह्माँड का रूप धारण करती और अपने स्वरूप को निहारती है तभी ‘श्री यंत्र’ का आविर्भाव होता है।” 

 ‘श्री यंत्र’ आद्यशक्ति का बोधक है। इसका आकार ब्रह्मांडाकार है जिसमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति और विकास का प्रदर्शन किया गया है। यह कई चक्रों में बँटा होता है जिनमें से प्रत्येक की अपनी महिमा-महत्ता है। इस यंत्र के सबसे अंदर वाले वृत्त के केन्द्र में बिंदु स्थित होता है जिसके चारों ओर नौ त्रिकोण बने होते हैं। इनमें से पाँच की नोंक ऊपर की ओर और चार की नीचे की ओर होती है। ऊपर की ओर नोंक वाले त्रिभुजों को भगवती का प्रतिनिधि माना जाता है और शिव युवती की संज्ञा दी जाती है। नीचे की ओर नोंक वाले शिव का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्हें ‘श्री कंठ’ कहते हैं। ऊर्ध्वमुखी पाँच त्रिकोण पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच तन्मात्रायें और पाँच महाभूतों के प्रतीक हैं। शरीर में यह अस्थि, माँस, त्वचा आदि के रूप में विद्यमान हैं। अधोमुखी चार त्रिकोण शरीर में जीव, प्राण, शुक्र और मज्जा के प्रतीक हैं और ब्रह्माँड में मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं। ये सभी नौ त्रिकोण नौ मूल प्रकृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। त्रिकोण के बाहर या पश्चात् जो वृत्त होते हैं वे शक्ति के द्योतक हैं। इस यंत्र में पहले वाले वृत्त के बाहर एक आठ दल वाला कमल है तथा दूसरा सोलह दलों वाला कमल दूसरे वृत्त के बाहर है। सबसे बाहर चार द्वारों वाला ‘भूपुर’ है जो विश्व ब्रह्माँड की सीमा होने से शक्ति गति-क्षेत्र है। 
 इस यंत्र में ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण अग्नितत्व के, वृत्त वायु के, बिंदु आकाश का और भूपुर पृथ्वी तत्व का प्रतीक माना जाता है। यह तंत्र सृष्टिक्रम का है।

 “आनंद लहरी” में आद्य शंकराचार्य ने इसका विस्तृत वर्णन किया है। वे स्वयं इसके उपासक थे। उनके हर मठ में यह यंत्र रहता है। योगिनी तंत्र में भी इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि आध्यात्मिक उन्नति के विशेष स्तर पहुँचने पर ही साधक इसकी पूजा का अधिकारी होता है। सिद्धयोगी अंतर पूजा में प्रवेश करते हुए यंत्र की पूजा से प्रारंभ करता है जो ब्रह्म विज्ञान का संकेत है।

यंत्रों में बिंदु, रेखा, त्रिकोण, वृत्त आदि ज्यामितीय विज्ञान का असाधारण प्रयोग होता है। इसकी महत्ता प्रदर्शित करते हुए प्रख्यात यूनानी तत्त्वज्ञ प्लेटो ने अपनी पाठशाला (कुछ शब्द मिसप्रिंट हैं) यह घोषणा लिखवादी थी कि जो विद्यार्थी ज्यामिति से अपरिचित हों वह इस पाठशाला में प्रवेश के लिए प्रयत्न न करें। आधुनिक विज्ञानवेत्ता-भी यंत्र रचना पर गंभीरतापूर्वक अनुसंधानरत हैं और उसकी मेटाफिजीकल पॉवर-एवं अद्भुत स्थापत्य को देखकर आश्चर्यचकित हैं। मास्को विश्वविद्यालय रूस के मूर्धन्य भौतिकी विद् एवं गणितज्ञ डॉ. अलेक्साई कुलाई-चेव ने प्राचीन भारतीय कर्मकाण्डीय आकृतियों विशेषकर ‘श्री यंत्र’ के बारे में गहन खोज की है और पाया है कि यह एक जटिल आकृति है जो वृत्त में अंतर्निहित नौ त्रिभुजों से बनी है। उच्च बीज गणित, सांख्यिकी-विश्लेषण, ज्यामिति एवं कम्प्यूटर आदि की मदद से ही वे इस आकृति को बनाने में सफल हुए। उनका कहना है कि विश्व प्रपंच से संबंधित तंत्र की धारणायें बहुत कुछ विश्वोत्पत्ति की ‘बिग-बैंग’ वाली वैज्ञानिक मान्यताओं तथा ‘तप्त विश्व’ के सिद्धाँतों से मिलती जुलती हैं। यंत्र रचना का रहस्य वैज्ञानिकों एवं गणितज्ञों के लिए अभी भी एक चुनौती बना हुआ है। यंत्रों के अर्थ, उद्देश्य एवं उनमें अंतर्निहित प्रेरणाओं को यदि समझा और तदनुरूप साधना की जा सके तो सिद्धि अवश्य मिलती है, इसमें कोई संदेह नहीं।

अंतर्द्वंद ।।

      आध्यात्मिक लोगो और सामान्यजनों में अधिकांशतः सभी अपने जीवन के किसी न किसी काल में अध्यात्म के प्रति सशंकित रहते हैं। मानव मस्तिष्क ही कुछ ऐसा है आत्मा की आवाज कहती है कि अध्यात्म ही सत्य का मार्ग है परन्तु मस्तिष्क माया संसार की तरफ मनुष्य को खींचता है। बड़े-बड़े साधक डिग जाते हैं। अब तो कलयुग है प्रत्येक का मानस अंतद्वंद से ग्रसित है। हजारों महाभारत को एक तरफ रख लीजिए और अंतद्वंद को एक तरफ निश्चित ही अंतद्वंद भारी पड़ेगा। अंतर्द्वद के निराकरण के पश्चात ही महाभारत का अभ्युदय हुआ। सर्वप्रथम अर्जुन अंतद्वंद से ग्रसित हुआ उसके अंदर विचारों और तर्कों का तूफान उठा सब कुछ उलझ गया, संकल्प शक्ति क्षीण पड़ गई। पथ भ्रष्ट होने ही वाला था तभी श्रीकृष्ण ने गीता का प्रकाश आलोकित कर दिया। अंतद्वंद मिट गया। अर्जुन पुनः कर्मशील बन पाया। 

          नीचे एक कथा वर्णित कर रहा हूँ यह बताने के लिए कि आचार्य विद्यारण्यस्वामी जी भी अंतद्वंद से ग्रसित हो एक बार नास्तिक हो बैठे थे। यह कहानी फार्मूला पद्धति पर चल रहे साधकों के लिए एक प्रकाश पुंज का कार्य करेगी। आचार्य विद्यारण्यस्वामी जी ने अपने गुरु के निर्देशानुसार ग्यारह अनुष्ठान किये पर कोई परिणाम नहीं निकला। कुछ भी चमत्कार नहीं हुआ। तब उन्होंने स्थण्डिल पर अग्नि प्रज्वलित कर झोली, माला, आसन, पुस्तक आदि सबको अग्निसात् कर दिया। बस, केवल एक श्री यंत्रमय शिवलिङ्ग ही हाथ में बचा था। उसे भी वे अग्नि में डाल ही रहे थे कि एक स्त्री वहाँ आ गयी और बोली महाराज! आप यह क्या कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि पूजा-पाठ, उपासना सब पाखण्ड है, इसलिये मैं इन सबों को जलाकर लोगों को सचेत करूंगा कि वे उपासना छोड़कर अन्य पुरुषार्थ एवं परिश्रमों का आश्रय लें। इस पर वह स्त्री बोली कि यह सब तो ठीक है, पर जरा आप अपने पीछे देखिए कि वहाँ क्या हो रहा है, विद्यारण्य ने जब पीछे देखा तो वह स्थण्डिलाग्नि उनके पीछे ही दिखायी दी और उसमें ऊपर से बड़े-बड़े पत्थर गिरकर फूटने लगे। 

       वे घबराकर खड़े हो गये और धीरे-धीरे अग्नि से दूर हटने लगे। तब तक लगातार ग्यारह पत्थर आकाश से गिरकर भयंकर ध्वनि करते हुए अग्नि में नष्ट हो गये। उन्होंने सोचा कि यह स्त्री इस विषय में कुछ अवश्य जानती होगी, क्योंकि उसी ने ही पीछे देखने को कहा है पर जब वे स्त्री को खोजने लगे तो वह कहीं न दिखी। निकट के उपवन की झाड़ियों में भी उसे चिल्लाकर पुकारा पर वह नहीं आयी। अंत में आकाश से एक ध्वनि आयी कि तुम घोर नास्तिक हो। मैं तो ठीक समय पर आ गयी थी। पर तुम्हारी गुरु और शास्त्रों में श्रद्धा नहीं थी। अतः तुमने सबको जला दिया, गुरु का अपमान किया और नास्तिकता का प्रचार करने को उद्यत हो गये थे। अब भला बताओ तुम्हें किस देवता का दर्शन होगा और कौन सी सिद्धि प्राप्त होनी चाहिए। तुम्हारे ग्यारह जन्मों के पाप थे जो ग्यारह पहाड़ के रूप में गिरकर अग्नि में नष्ट हुए। अब पुनः गुरु के चरणों का आश्रय ग्रहण करो। विद्यारण्य अपने गुरु के चरणों में गिरकर यह सारी घटना सुनाई। उनके गुरु अत्यंत कृपालु थे उन्होंने उन्हें पुन: दूसरी माला, झोली और पुस्तकें आदि दे दीं और कहा कि तुम्हे एक ही अनुष्ठान से भगवती का सम्यक् दर्शन एवं ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। फिर सब कुछ वैसा ही हुआ। 

            शंकराचार्य के सम्प्रदाय में वे ही सबसे बड़े विद्वान् हुए। फिर उन्होंने श्रीविद्यार्णव, नृसिंहोत्तरतापिनी उपनिषद्-भाष्य आदि विशाल मंत्रोपासना ग्रंथ, जीवन्मुक्ति विवेक, उपनिषद् भाष्य, वेद, आरण्यक भाष्य और पंचदशी आदि प्रायः शताधिक छोटे- बड़े ग्रंथ लिखे तथा देवी से यह भी प्रार्थना की कि जो शुद्ध हृदय से गुरु न मिलने पर मुझे ही गुरु मानकर इस ग्रंथ की विधिपूर्वक उपासना करे तो उसे आप शीघ्र दर्शन दें, अन्यथा कलियुग में सभी नास्तिक हो जायेंगे। ये ही विद्यारण्य भगवान् शंकर की कृपा से शृंगेरी मठ के आचार्य हुए और प्रायः सौ वर्षों से अधिक दिनों तक जीवित रहे। इन्होंने काश्मीर तथा विजयनगर दो विशाल साम्राज्यों की स्थापना की थी, जिनकी राजधानियाँ श्री यंत्र पर स्थित होने के कारण श्री नगर तथा विद्यानगर (विजय नगर ) के नाम से प्रसिद्ध हुई।

         दोनों के शासक नरेश इनके अत्यन्त अनुगत शिष्य थे और साम्राज्यों का सीधा संचालन इनके ही हाथों में था। यों ही हाथों में था। यों देव्यपराधक्षमापनस्तोत्र में मया पञ्चशीतेरधिकमपनीते तु वयसि इसमें पचासी वर्ष से अधिक जीने की जो बात कही गयी है, वह इन्हीं की रचना सिद्ध होती है, क्योंकि शंकराचार्य जी 32 वर्ष तक ही जीवित थे। 

       देवता का ध्यान प्रायः हृदय में होता है, यदि हृदय शुद्ध नहीं है, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि से तनिक भी दूषित हैं तो वहाँ देवता कैसे आयेंगे। जिस गंदे तालाब में सुअर, गदहे, कुत्ते, गीध, कौए, बगुले आदि लोट लोटकर स्नान आदि कर दूषित करेंगे, वहाँ राजहंस कैसे आ सकते हैं? गोस्वामी जी ने भी कहा है 
जेहि सर काक कंक बक सूकर क्यों मराल तहँ आवत।।
 शैवागमों में शिव-ज्ञान की बहुत चर्चा है। तदनुसार अभ्यास, ज्ञान, वैराग्य ही शिव की प्रसन्नता के लिये मूल स्रोत बतलाये गये हैं। शिवगीता एवं भगवद्गीता में प्रायः यही बात कही गयी है। रामचरित मानस के प्रारम्भ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि शिवरूप परमात्मा तो सभी प्राणियों के हृदय में स्थित ही हैं। पर विनम्रता और श्रद्धारूपी भवानी तथा त्याग, वैराग्य, दैन्य और विश्वासरूपी शिव के अभाव में वह प्रत्यक्ष नहीं होता

 भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरू पिणौ । 
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम् ॥ 
देवो भूत्वा यजेद्देवम् शिवो भूत्वा शिवं यजेत् के अनुसार विष्णु बनकर विष्णु की आराधना होती है अतः शिव की प्राप्ति के लिये अपने को निरन्तर ऊपर उठाते हुए शिव के समान ही त्यागी, परोपकारी, सहिष्णु और काम, क्रोध, लोभ आदि से शून्य होकर केवल विज्ञानमय, साधनामय एवं उपासनामय ही बनना पड़ेगा। गीता के नासतो विद्यतो भावो नाभावो विद्यते सतः के आधार पर मानसिक योग्यता न होने तथा अर्थ, काम लिप्सा के कारण ही अन्तर-बाह्य व्याप्त शिव नहीं दिखते। शुद्ध उपासना का आश्रय लेने पर सभी दोष धीरे-धीरे दूर होकर एकमात्र शांत शिव ही सर्वत्र उद्भासित होते दिखेंगे।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

उत्पादन ।।

        गुरु उद्यमशीलता का पर्यायवाची है। गुरु का कर्तव्य है जनमानस को अध्यात्म के उद्यम हेतु प्रेरित करना संचालित करना एवं क्रियाशील करवाना। उद्यम से ही उत्पादन होता है। इस सृष्टि में आध्यात्मिक शक्ति का भी उत्पादन किया जाता है। मनुष्य एक परम उद्यमशील संरचना है सृष्टि के विकास क्रम में जीव सबसे परिष्कृत और शक्तिशाली इकाई है। यह ईश्वर का प्रतिरूप है। ब्रह्माण्ड की समस्त झलकियाँ मनुष्य के अंदर निहित कर दी गई हैं एवं एक अकेला मनुष्य आध्यात्मिक उद्यम, का स्तोत्र बन सकता है। एक अकेला मनुष्य अध्यात्म की धारा प्रवाहमान करने में सक्षम है और वह भी कई कल्पों तक एक अवतार या एक महापुरुष एक वृहद धर्म संस्थान की स्थापना कर सकता है। एक कृष्ण हुए हैं पर आज भी अनंत जनमानस, साधक एवं कृष्ण भक्त उनके द्वारा प्रवाहित गीता ज्ञान को आधार मानकर। आध्यात्मिक शक्ति का उत्पादन कर रहे हैं जो उत्पादन कर रहे हैं वही कृष्ण को प्रिय है। 

      प्रत्येक व्यक्ति का अपना मानस है, प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से भिन्न है, प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग आवश्यकता है। अतः सभी से कृष्णोपासना नहीं करवाई जा सकती और यह भी हो सकता है कि एक व्यक्ति जीवन में अनेकों प्रकार की साधनाएँ सम्पन्न करे। अतः ईश्वर विभिन्न ॐ स्वरूपों में प्रकट होता है। जिसे जो स्वरूप पसंद आता है वह उसी स्वरूप में ध्यानस्थ हो अध्यात्म का उत्पादन करता है। अध्यात्म ही श्री है। चाहे भैरव उपासना करो,शिव उपासना करो या विष्णु उपासना मूलभूत रूप से अध्यात्म का ही उत्पादन होता है। जब तक अध्यात्म का उत्पादन होता रहता है जीव ईश्वर को प्यारा होता है। अनुत्पादक मनुष्य से गुरु को क्या काम? जो धरती मरु भूमि बन जाती है वहाँ से मनुष्य भी पलायन कर जाता है। ठीक इसी प्रकार जब जीव धर्मोपासना नहीं करता तो परम शक्ति पलायन कर जाती है। अध्यात्म की शक्ति ईश्वर को नहीं चाहिए बल्कि ईश्वर के द्वारा रचित इस जगत को चाहिए होता है। 

       सूर्य, चंद्र, आकाश, नक्षत्र इन सबको गतिमान रखने । के लिए यथा स्थिति बनाये रखने के लिए अध्यात्म बल की ही जरूरत पड़ती है। केवल मनुष्य अकेला अध्यात्म का उत्पादन नहीं करता है अपितु सभी ग्रह- नक्षत्र, पिण्ड, सूर्य इत्यादि भी आध्यात्मिक बल के उत्पादन की एक इकाई हैं। मनुष्य तो बहुत बाद में आता है। जैसे ही कोई आध्यात्मिक बल के उत्पादन से विमुख होता है उसकी संरचना खण्डित होने लगती है। गुरु के लिए प्रत्येक शिष्य मात्र अध्यात्म के उत्पादन की एक इकाई है। उससे किस प्रकार की साधना करवानी है, उसे किस प्रकार फल देना है इत्यादि यह गुरु का विषय है। गुरु शिष्य की परम्परा के अंतर्गत फल का विधान अनंत गुना होता है। आध्यात्मिक उत्पादन की इकाई बनने की स्थिति में जो फल प्राप्त होता है वह कई पीढ़ियों तक संरक्षित रहता है एवं उसी का भोग आने वाली पीढ़ियाँ करती हैं। जिसमें जितनी ज्यादा । उत्पादन की क्षमता होती है उसे उसी के हिसाब से पद प्राप्ति होती है। चाहे ब्रह्मा का पद हो या फिर विष्णु पद या फिर रुद्र गणों के पद इत्यादि यह सब निरंतर बदलते रहते हैं। 

          साधक अपनी उत्कृष्ट उत्पादन क्षमता के हिसाब से कोई भी पद प्राप्त कर सकता है। जीवन इसी शर्त पर मिलता है कि उत्पादन करो अन्यथा जीवन की प्राप्ति नहीं होगी। उत्पादन की विभिन्नता के हिसाब से ही लोक निर्मित होते हैं। महालक्ष्मी सर्वलोकों में सुपूजित हैं। इनकी विशुद्धतम एवं पवित्रतम मूल शक्ति । बैकुण्ठ में महाविष्णु के साथ शोभायमान हैं। वह दिव्यता केवल बैकुण्ठ में जाकर ही अनुभव की जा सकती है। समुद्र मंथन के समय इन्होंने मात्र अपनी दृष्टि स्वर्गलोक की तरफ केन्द्रित की थी एवं उसी से स्वर्ग पूर्ण ऐश्वर्यशाली बन गया और वहाँ पर ये स्वर्ग लक्ष्मी के नाम से प्रतिष्ठित हुई परन्तु पराकाष्ठा तो बैकुण्ठधाम में ही हैं। महालक्ष्मी तो माया हैं। दृश्यों को जन्म देने वाली जगत प्रसूतिका हैं एवं एक क्षण में दृश्य को बदलकर रख देती हैं। 

गरीब के झोपड़े का दृश्य कुछ और है तो वहीं राजा के महल के दृश्य कुछ और हैं। दृश्य इन्द्रियों का विषय है एवं इन्द्रियों को दृश्य बहुत प्रिय हैं। दृश्य संस्पर्शित भी किये जाते हैं दृश्यों के आयाम ध्वनि, स्पर्श, गंध इत्यादि से युक्त हैं। दृश्य ही सुख और दुख का कारण बनते हैं। अत: व्यक्ति सुखद दृश्यों को निर्मित करने हेतु लक्ष्मी का अनुसंधान करता है। मनुष्य दृश्य जगत में जीता है इसलिए लक्ष्मी को दृश्यों के अधीन समझता है परन्तु यह अर्ध सत्य है। लक्ष्मी दृश्यों से भी परे हैं, सुख से भी ऊपर हैं। वह परम तृप्तिका हैं एवं इन्द्रियों के अलावा अन्य अंतेन्द्रिय चक्षुओं और तंतुओं को भी तृप्ति प्रदान करती हैं। लक्ष्मी पूर्णता हैं। पूर्णता इसलिए हैं क्योंकि वह विष्णु की अर्धांगिनी हैं, विष्णु की शक्ति हैं। विष्णु नारायण हैं, पुरुषोत्तम हैं, वे परम हैं वे शिव केद्वारा निर्मित प्रथम पुरुष हैं। अतः पुरुषोत्तम के साथ पुरुषोत्तमा ही होंगी, नारायण के साथ नारायणी ही सुशोभित होती हैं। एक खास बात यह है कि विष्णु और लक्ष्मी ने संतानोत्पत्ति व्यक्तिगत तौर पर नहीं की है। यही सबसे विशेष बात है इसलिए वे जगत पुरुष और जगतमाता हैं, व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है। व्यक्तिगतता मनुष्यों का विषय है। विष्णु और लक्ष्मी व्यक्तिगत कारणों से क्रियाशील नहीं होते हैं। उनके प्रत्येक कार्य में जगत कल्याण का लक्ष्य छिपा हुआ होता है। महाविद्या साधनाओं के अंतर्गत सबसे कल्याणकारी साधना कमला सांधना ही है।

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं श्री नवग्रह रथाय नमः ।।

         सूर्य तो सुबह उगेगा ही अब कोई हो सकता है ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाये, कोई 6 बजे उठे, कोई 9 बजे उठे पर उठना तो उसे पड़ेगा ही, उठने से वह नहीं बच सकता। यह प्रज्ञा का विषय है एवं दूसरा विषय छाया का है। सूर्य की दो पत्नियाँ हैं प्रथम का नाम प्रज्ञा है और प्रज्ञा से यमराज एवं अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ है, छाया से शनि एवं तप्ति का जन्म हुआ है। प्रज्ञा से ही प्रथम मनु भी उत्पन्न हुए हैं, भगवान मनु सूर्य पुत्र हैं एवं उन्होंने मनु स्मृति नामक ग्रंथ लिखा। मनु स्मृति ग्रंथ कुछ भी नहीं केवल सौर अभियांत्रिकी के अंतर्गत किस प्रकार जीव श्रेष्ठतम स्थिति को प्राप्त कर सकता है का वर्णन है। यह एक तरह से मनुष्य का संविधान है, जब जब मनुष्य मनु-स्मृति से भटकेगा वह सर्वप्रथम तो मनुष्य ही नहीं रह जायेगा और उसके ऊपर प्राकृतिक रूप से कालचक्र क्रियाशील हो जायेगा पुनः उसे मनुष्यता के रास्ते पर लाने हेतु साथ ही उसे एहसास एवं अनुभव रूपी दण्डों को भी भोगना पड़ेगा। 

         मैं नाम नहीं लिखना चाहता, अनेक लोग केवल मनु स्मृति मनुवाद को गाली एवं अपशब्द कहने में अपनी ऊर्जा व्यय करते हैं परन्तु यह सब आधा-अधूरा ज्ञान है, आधा-अधूरा व्यर्थ का चिंतन है एवं किसी शास्त्र की गहनता और वास्तविकता के गूढ़ार्थ में जाने की अपेक्षा उसे युग एवं समय के अनुसार तोड़-फोड़कर समझने की प्रक्रिया है। मनु स्मृति जैसे ग्रंथ किसी काल विशेष के लिए नहीं लिखे गये हैं, किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं लिखे गये हैं। मनु स्मृति की रचना तो युग युगान्तरों पूर्व हुई है। मैं यह भी नहीं कर रहा कि वर्तमान में जिसे हम वास्तविक मनु स्मृति ग्रंथ मान रहे हैं वह भी पूर्ण शुद्ध या अपने वास्तविक रूप में है वास्तविक गीता वास्तव में 120 श्लोक की थी कालान्तर उसमें अनेक विद्वानों ने युग एवं कालानुसार दुनियाभर के श्लोक ठूस दिए। आप जब गीता पढ़ेंगे तो अनेकों श्लोक ऐसे हैं जो पढ़ते से ही समझ में आ जाते हैं कि ये परम परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण के मुख से नहीं निकले हुए हैं अतः युग और काल के दोष तो आ ही जाते हैं।

         इसलिए प्राचीन काल में ऋषि-मुनि सीधे सूर्य मण्डल में ध्यान करके सूर्य रश्मियों के द्वारा अपने हृदय में वेदों को आर्भिभूत करते थे। महर्षि याज्ञवल्कक्य ने सामवेद, अथर्ववेद, ऋग्वेद सूर्य रश्मियों के माध्यम से प्राप्त किये थे। सौर उपासना का तात्पर्य है सीधे प्राप्त करना एवं माध्यम को बीच से हटा देना। कृतिका नक्षत्र में भगवान सूर्य अपनी दिव्य रश्मियों से वर्षा करते हैं तब न कोई बादल होते हैं, न ही वर्षा का मौसम फिर भी बरसात होती है और योगीजन इस दिव्य स्नान का इंतजार करते रहते हैं इसे ही वे अमृत स्नान कहते हैं। भगवान सूर्य के लिए सब कुछ सम्भव है। पूर्णिमा के दिन ही लोगों को ज्ञान प्राप्त क्यों होता है ? जिन्हें ज्ञान, मोक्ष, कैवल्य पद इत्यादि प्राप्त होता है वे पोथे नहीं बांचते अपितु सीधे ध्यानस्थ हो सोम मण्डल, सूर्य मण्डल एवं अग्नि मण्डल के माध्यम से परम शुद्ध एवं चैतन्य ज्ञान अपने अंदर समाहित करते हैं। 

           विश्वामित्र ने यही किया, उन्होंने गायत्री मंत्र के माध्यम से सीधे-सीधे सूर्य के तेज को अपने अंदर उतार लिया, स्वयं वेदमयी हो गये, स्वयं तेजमयी हो गये, ब्रह्मज्ञानी बन गये। सीधे प्राप्त करने की क्षमता जब आ जाती है तब सौर अभियांत्रिकी से जातक युक्त हो जाता है, वह साक्षात् मंत्र दृष्टा बन जाता है, साक्षात् सूर्य बन जाता है। स्वामी विशुद्धानंद जी सौर विद्या में दक्ष थे अतः वे सूर्य किरणों के माध्यम से गेंदे के फूल को गुलाब के फूल में परिवर्तित कर देते थे। लोग कहते हैं कि मृत्यु दण्ड या फाँसी की सजा खत्म कर देना चाहिए पर जरा सोच कर देखिए वर्ष में मात्र एकाध दो लोगों को सरकार फाँसी देती है, वह भी जब वे अत्यंत ही जघन्य अपराध करते हैं कितना धन खर्च होता है, एक अदालत से दूसरी अदालत यहाँ तक कि राष्ट्रपति तक क्षमा याचना की जाती है कितना हो हल्ला मचता है परन्तु प्रतिदिन प्रत्येक मानव बस्ती रूपी शहरों इत्यादि में अनेको लोग स्वयं अपने हाथ से बिना जल्लाद की सहायत से फाँसी का फंदा लगाते हैं और झूल जाते हैं कितने जहर खाते हैं, कितने स्वयं को दग्ध करते हैं,कितनी हत्याएं होती हैं इसे कहते हैं आत्मघात। 

           समस्त चिकित्सालय रोगियों से भरे पड़े हैं इसे कहते हैं आत्मघात। यह सब इसलिए हो रहा है मनुष्य यह नहीं समझ रहा कि वह एक सौर मण्डल विशेष के अधीन है एवं उसकी शारीरिक संरचना कालचक्र के अधीन है, वह सौर अभियांत्रिकी का एक अभिन्न हिस्सा है, वह वास्तविक मनु स्मृति को अपनी स्मृति में जगह नहीं दे रहा इसलिए जो सौर अभियांत्रिकी एक मनुष्य को सौ वर्ष तक देखने,समझने, जीवित रहने इत्यादि के लिए निर्मित कर रही है वही उसे बेकार समझ नष्ट कर रही है।

             स्वयं नष्ट करवा रही है। कालचक्र को सौर आधारित जीवन का अनुसरण करने वाले जीव की आवश्यकता है न कि सौर प्रणाली के अंतर्गत पनपने वाले विषाणुओं की जो कि सम्पूर्ण सौर प्रणाली को क्षतिग्रस्त या नष्ट करने की प्रवृत्ति से युक्त हैं। स्वामी विशुद्धानंद जी ने कहा प्रत्येक पंजीकृत भूत के अंतर्गत अपंजीकृत भूत छिपे हुए हैं अर्थात जल के अंदर आठवे अंश में वायु, अग्नि, भूमि एवं आकाश निहित हैं और सौर किरणें जब चाहें तब इन अपंजीकृत भूतों को उदित कर सकती हैं। उन्होंने यह विद्या तिब्बत में लामाओं से सीखी थी वे कालचक्र में पारंगत थे। रावण की लंका में विभीषण भी छिपे हुए थे एवं राम ने विभीषण को उदित कर दिया और वे लंकेश बन गये। 

       आप ऊपर से भूमि को देखिए गर्मी में वह सूखी दिखाई देगी परन्तु वर्षा ऋतु में वही भूमि हरितिमा से ढँक जायेगी, सूर्य देव अपनी किरणों के माध्यम से उसमें कुछ उदित कर देंगे। यमराज ने नचिकेता से कहा तू सिद्धि ले ले, राजपाट ले ले, अप्सरा ले ले, धन-दौलत ले ले, जो चाहे वो ले ले, सौ वर्ष की आयु ले ले परन्तु ब्रह्म विद्या के बारे में मत पूछ । मृत्यु के बाद क्या होता है? यह मत पूछ इस पर पर्दा पड़ा रहने दे। नचिकेता नहीं माने एवं उन्होंने सौर मण्डल के अंतर्गत तथाकथित प्राप्ति को अस्वीकार कर दिया और ब्रह्म को जानना चाहा आखिरकार थकहारकर यमराज ने उन्हें श्रीविद्योपासना बता दी। इस प्रकार नचिकेता मुक्त हो गये एवं उन्होंने यमराज के पास बैठकर समस्त मैट्रिक्स देख ली, वे गुलामी से मुक्त हुए और सूर्य मण्डल को भेदकर निकल गये। 

           वैसे तो भगवान सूर्य को अनंत रश्मियाँ हैं परन्तु उनकी सप्त रश्मियाँ प्रमुख मानी गई हैं। इन सप्त रश्मियों का पूजन कालचक्र के अंतर्गत होता है। ये सात रश्मियाँ हैं सुषुम्ना यह रश्मि कृष्ण पक्ष में क्षीण चंद्र कलाओं पर नियंत्रण करती हैं और शुक्ल पक्ष में उनमें कलाओं का आभिर्भाव करती हैं। चन्द्रमा सूर्य की सुषुम्ना रश्मि से पूर्ण कला प्राप्त करके अमृत का प्रसारण करते हैं। संसार के सभी जड़ चेतन प्राणी चंद्रमा की पूर्ण कला से क्षारित अमृत हैं। सूर्य की दूसरी प्रमुख रश्मि है सुरादना। चंद्रमा की उत्पत्ति इसी सूर्य रश्मि से होती है। 33333 देवता चंद्र मण्डल में निरंतर अमृत पान करते रहते हैं चंद्रमा में जो शीत किरणें हैं वे सूर्य की रश्मियाँ हैं एवं इसी से चंद्रमा अमृत की रक्षा करते हैं। उदन्वसु सूर्य रश्मि से मंगल ग्रह का आभिर्भाव हुआ है। मंगल प्राणियों के शरीर में रक्त संचालन करते हैं, इसी रश्मि से प्राणियों के शरीर में रक्त संचालन होता है। यह सूर्य रश्मि सभी प्रकार के रक्त दोषों से प्राणियों को मुक्त कराकर आरोग्य, ऐश्वर्य, तेज का अभ्युदय करती है। इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं उदन्वसु रश्मि मण्डलाय नमः । 

            विश्वकर्मा नाम की रश्मियाँ बुध ग्रह का निर्माण करती हैं। बुध ग्रह प्राणियों के शुभ चिंतक ग्रह हैं। इस रश्मि के उपयोग से मनुष्य की मानसिक अशांति शांत होती हैं एवं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विश्वकर्मा रश्मि मण्डलाय नमः । उदावसु नामक सौर रश्मियाँ बृहस्पति ग्रह का निर्माण करती हैं। बृहस्पति प्राणी मात्र के अभ्युदय निश्रेयष प्रदायक हैं। गुरु की अनुकूलता प्रतिकूलता में ही मनुष्य का उत्थान पतन होता है इस सूर्य रश्मि मण्डल के पूजन से प्रतिकूल वातावरण निरस्त होते हैं और अनुकूल वातावरण उपस्थित होते हैं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं उदावसु रश्मि मण्डलाय नमः

           विश्वव्या रश्मि मण्डल से शुक्र एवं शनि नामक ग्रह उत्पन्न होते हैं। शुक्र वीर्य के अधिष्ठाता हैं एवं मनुष्य का जीवन शुक्र से ही निर्मित होता है तो दूसरी | तरफ शनि देव मृत्यु के अधिष्ठाता हैं। जीवन एवं मृत्यु दोनों का नियंत्रण सूर्य के उक्त रश्मि मण्डल से होता है। शुक्र ग्रह एवं शनि ग्रह के अनुकूलन हेतु तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विश्व्च्या रश्मि मण्डलाय नमः । आकाश के सम्पूर्ण नक्षत्र हरिकेश नामक सूर्य रश्मि से उत्पन्न हुए हैं। नक्षत्रों का कार्य प्राणियों में तेज, बल वीर्य का क्षरण, द्रवण से रक्षण करना है। यह रश्मियाँ प्राणियों में तेज, बल-वीर्य के प्रभाव को बढ़ाती है एवं मरणोपरांत परलोक प्रदान करती हैं। इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हरिकेश रश्मि मण्डलाय नमः । ॐ ऐं ह्रीं श्रीं सुरादना रश्मि मण्डलाय नमः मंत्र के जाप से चंद्रग्रह जातक पर अत्यधिक प्रसन्न होते हैं।

            भगवान सूर्य देव के रथ पूजन का अपना विशेष तांत्रिक महत्व है। मकर संक्रांति के दिन भगवान सूर्य के रथ का पूजन किया जाता है एवं सूर्य के साथ-साथ उनके नौ ग्रहों के भी रथ पूजित किए जाते हैं। ये नौ ग्रह महारथी हैं, हमेशा रथ पर सवार रहते हैं और निरंतर परिक्रमा रत रहते हैं। स्वयं भगवान सूर्य रथ पर सवार हो ध्रुव भण्डल की परिक्रमा करते रहते हैं और ध्रुव मण्डल शिशुमार चक्र की शिशुमार चक्र में भगवान नारायण विराजित हैं। ध्वज भंग नहीं होना चाहिये, किसी भी राजा के रथ पर आरुढ़ ध्वज जब भंग हो जाता है तो उसका राजपाट जाता रहता है अतः जीवन के सभी क्षेत्रों में ध्वज भंग होने से बचने हेतु नीचे लिखित मंत्रों के जप का अत्यधिक महत्व है। 

         चन्द्रमा का रथ तीन पहियों वाला है एवं उसमें श्वेत वर्ण के दस घोड़े जुते हुए हैं इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं दस श्वेत अश्व युक्ताय चंद्र रथाय नमः । चन्द्रमा के पुत्र बुध का रथ वायु और अग्निमय द्रव्यों का बना हुआ है एवं उसमें आठ पिशंग वर्ण वाले घोड़े जुते हुए हैं, इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट पिशंग अश्व युक्ताय बुध रथाय नमः । शुक्र का रथ लौह निर्मित है एवं पृथ्वी से उत्पन्न हुए घोड़ों के द्वारा खींचा जाता है इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं लौह निर्मित शुक्र रथाय नमः । मंगल का रथ स्वर्ण निर्मित है एवं अग्नि से उत्पन्न पद्म राग मणि के समान अरुण वर्ण के आठ घोड़ों से युक्त है इसका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय मंगल रथाय नमः । बृहस्पति का रथ भी स्वर्ण से निर्मित है एवं इसे भी आठ पाडुंर वर्ण वाले घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय बृहस्पति रथाय नमः । शनि के रथ को आकाश से उत्पन्न हुए विचित्र वर्ण के घोड़े धीरे-धीरे खींच रहे हैं इनका मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं विचित्र वर्ण अश्व युक्ताय शनि रथाय नमः । राहु का रथ मटमैले वर्ण का है एवं उसे कृष्ण वर्ण के आठ घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय राहु रथाय नमः । केतु का रथ धुंए की आभा लिए हुए है एवं इसे भी आठ घोड़े खींच रहे हैं इनका तंत्रोक्त मंत्र है। ॐ ऐं ह्रीं श्रीं अष्ट अश्व युक्ताय केतु रथाय नमः । 

        इस प्रकार इन मंत्रों से जब हम इन ग्रहों के रथों का पूजन करते हैं तो ये समस्त ग्रह अतिशीघ्र कृपावान हो हमारे लिए अनुकूल परिस्थिति का निर्माण कर देते हैं भगवान सूर्य की दो पत्नियाँ हैं संज्ञा एवं छाया। हम सारा जीवन क्या करते हैं? सिर्फ छाया तलाशते हैं। वृक्ष की छाया मिल जाये, हमारे मकान क्या हैं? वे मात्र छाया में रहने के स्थान हैं। हमें छाया को विस्तृतता से समझना होगा। असुरक्षा की भावना छाया में रहने की प्रवृत्ति के कारण ही विकसित होती है। चाहे आर्थिक तल हो, सामाजिक तल हो, तल हो या कोई अन्य तल जब हम संग चाहते हैं, साथ चाहते हैं, सुरक्षा चाहते हैं तब हम सिर्फ छाया की शरण में जा रहे हैं। कहीं न कहीं हम में कुछ कमी है, कुछ भय है, कुछ कोमलता है, कहीं हम छिपना चाह रहे हैं, कहीं हम बचना चाह रहे हैं, कहीं कुछ असहनीय हो रहा है इसलिए हमें छाया चाहिए, ओंट चाहिए।

 ऐसा नहीं कि छाया दिन में ही चाहिए होती है रात्रि में भी छाया चाहिए होती है। क्या हम रात्रि में खुले आकाश के नीचे सो सकते हैं? कालचक्र में भी हमारे ऊपर ग्रह, नक्षत्रों इत्यादि की छाया पड़ जाती है। जब सूर्य स्वयं छाया से मुक्त नहीं हैं तब हमारा किसी अन्य ग्रह, नक्षत्र इत्यादि का छाया से मुक्त होना बेमानी है। छाया, सूर्य और जीव के बीच एक अलौकिक आवरण है जिसके कारण सूर्य सीधे जीव के सम्पर्क में नहीं आते। दूसरी तरफ संज्ञा या प्रज्ञा हैं जो छाया मुक्त हैं। जैसे-जैसे मनुष्य साधक बनता है वह छाया को त्यागता जाता है, निकल पड़ता है

निकल पड़ता है सब कुछ छोड़कर प्रत्यक्ष की तरफ ।काल अपना काम करता रहे तो उसे करने दो, आप आत्मज्ञानी बनो एवं भगवती त्रिपुर सुन्दरी की शरण में जाओ, आत्मानुसंधान करो यही श्रेष्ठतम देवयान का मार्ग है। जो इस मार्ग पर चलेगा उसे भगवान सूर्य आदर के साथ ऊर्ध्वगामी मार्ग प्रदान करते हैं। अंत में यही कहना चाहूंगा कि गुरु के पीछे-पीछे चलते रहे सूर्य मण्डल को भेद जाओगे। 


त्रिपुर भैरवी ।।


       भैरव शब्द भर व से बना है भ का मतलब भरण, र का मतलब रमण और व का मतलब वमन । अर्थात भरण, रमण, वमन । भैरव जी भरण करते हैं, रमण करते हैं और वमन भी करते हैं अर्थात प्रदान भी करते हैं। भर व+ई = भैरवी, भैरव की शक्ति भैरवी । जो भैरव को भी क्रियाशील बनाये वही भैरवी । शिव और भैरव के बीच भैरवी मौजूद है। शिव को भैरव में परिवर्तित भैरवी ही करती हैं। आद्य और आद्या को जोड़ने वाली शक्ति का नाम है भैरवी । माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी की रथ वाहिनी त्रिपुरभैरवी कहलाती हैं। 

          त्रिपुर भैरवी अर्थात श्री ललिताम्बा की प्रमुख सहायिका, सखी, परम विश्वसनीय सहयोगिनी के रूप में क्रियाशील होती हैं। यह एक तरह से सृष्टि में क्रियात्मकता का प्रतीक हैं। उन्मुक्तता, निर्द्वन्ता, नृत्यता, आनंदता, घोरता, रुदनता, विलापता इत्यादि इनके प्रमुख चारित्रिक लक्षण हैं। सृष्टि को बुदबुदाहट इन्हीं के माध्यम से सदैव प्राप्त होती रहती है, यह अग्नि का प्रतीक है। जल को अग्नि के ऊपर रख दो वह बुदबुदाने लगेगा क्योंकि उसमें क्रियाशीलता बढ़ गई अगर यह न हो तो सृष्टि मृत्यु को प्राप्त हो जायेगी। मृत्यु को प्राप्त हो रही सृष्टि को नित्य युवा, यौवनवान बनाये रखने की निरंतरता त्रिपुरभैरवी ही सम्पन्न करती हैं। सारथी जिस तरफ रथ मोड़ दे, सारथी जहाँ चाहे वहाँ रथ ले चले, सारथी चाहे तो रथ में बैठी महाराज्ञी को ऊबड़ खाबड़ रास्ते पर ले चले या फिर आरामदेह मार्ग पर सारथी की योग्यता । पारंगतता, चैतन्यता पर ही रथ में सवार महाराज्ञी का जीवन टिका हुआ होता है।

          कृष्ण, अर्जुन के सारथी बन गये एवं अर्जुन समस्त प्रकार के मृत्यु भय से, मृत्यु संकट से महाभारत के युद्ध में उबर गये । ठीक इसी प्रकार श्री ललिताम्बा एवं सदाशिव की सारथी त्रिपुरभैरवी उन्हें सुगमता के साथ तीनों लोकों में भ्रमण कराती रहती हैं, उनके मार्ग को निष्कंटक बनाती रहती हैं । त्रिपुर भैरवी की साधना से आध्यात्मिक जातक इस पृथ्वी पर समस्त प्रकार के उत्पीड़नों से मुक्त होकर परम आनंद को प्राप्त करता है। छीन कर, झपटकर मारकर छीन लेती हैं भैरवियाँ अगर ये चाहे तो समस्त प्रतिकूलताओं के चलते वह सब उपलब्ध करा देती हैं जिसकी जातक ने कल्पना भी नहीं की है। इन्हें अपरा डाकिनी भी कहा जाता है अत: यह किसी भी प्रकार के नियम में नहीं बंधी होती अपितु सबके सब इनकी मर्जी के अनुसार 'चलते हैं। अचानक मृत्यु हो जाना, अपघात, घोर दरिद्रता, सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल देना, राजा को रंक कर देना, पौरुषवान को नपुंसक बना देना इत्यादि ये कुछ भी कर सकती है। करती क्या करती ही हैं। सभी नियमों से परे हैं त्रिपुर भैरवी । साधक और शिव के बीच रास्ता रोके त्रिपुर भैरवी खड़ी हैं इन्हीं से रास्ता मांगो।
                           शिव शासनत: शिव शासनत:

साधना की आवश्यकता ।।

          आर्यावर्त, भारतीय उपमहाद्वीप या भारत खण्ड का आज के समय में क्या स्वरूप है? इसकी क्या विशेषता है? क्यों यह धर्मभूमि है? यह सोचने का विषय है। आज के युग में भारतीय उपमहाद्वीप अनेक देशों में विभक्त दिखाई देता है। इस उपमहाद्वीप में आज का भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान और पूर्व के सोवियत गणराज्य का कुछ हिस्सा आता है। इसी भूखण्ड में बर्मा, तिब्बत, श्री लंका इत्यादि देश एवं अन्य छोटे छोटे द्वीप भी मुख्य रूप से आते हैं। अनंत वर्षों से यहाँ का सर्वनियंता मनुष्यों के लिए ईश्वर ही रहा है। यहाँ के लोगों को ईश्वर में अटूट विश्वाश है। चाहे वह कुछ हजार वर्षों में विभिन्न धर्म समूहों में क्यों न बँट गये हों। सनातनी कहते हैं "भगवान की मर्जी, " । इसी प्रकार बौद्ध कहते हैं "बुद्धं शरणम गच्छामि" अर्थात हम तो केवल बुद्ध की शरण में हैं इत्यादि इत्यादि। इसी प्रकार सबके सब अपना जीवन ईश्वर को सौंपे हुए बैठे हैं। यह सब हमें विरासत में मिला है अपने पूर्वजों द्वारा ऊपर वर्णित जीवन शैली सबसे विशिष्ट जीवन शैली है। इससे इस महाद्वीप का प्रत्येक मनुष्य ईश्वर के अत्यधिक निकट है एवं तमाम विषमताओं के चलते हुए भी वह भला है, सरल है, निष्कपट है एवं काफी हद तक मर्यादित है।
 
               आप सोचें एक अरब लोग एक छोटे से भूखण्ड पर जहाँ कि व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है काफी हद तक मर्यादित हैं। यह बात पूर्ण सत्य है। इसके विपरीत पाश्चात्य देशों में कानून अत्यंत ही सख्त है, जनसंख्या अत्यधिक कम है। फिर भी मर्यादा, आत्मसंयम की नितांत कमी है। आत्म हत्या एवं हत्या अत्यधिक मात्रा में होती है। स्वार्थ प्रत्येक व्यक्ति के सिर चढ़कर बोलता है एवं मानवता शून्य है परन्तु पिछले सौ वर्षों में वैज्ञानिक क्रांति अपने चर्मोत्कर्ष तक पहुँच रही है, सारा विश्व सिमट गया है। आने वाली एक दो पीढ़ियों में वैश्वीकरण अत्यधिक तीव्र होगा। ऐसी स्थिति में स्थूल परिवर्तन अवश्यम्भावी है। आने वाले दस वर्षों में विश्व के सभी मस्तिष्क एक जैसा ही सोचने लगेंगे, संस्कृति की सीमा रेखायें मिट जायेंगी। विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप भौतिकता की तरफ अत्यधिक आकर्षित होगा। ऐसा ही होने वाला है। चक्र शुरू हो गया है। जो भारतीय मस्तिष्क अनंत काल से ईश्वर के प्रति समर्पित रहा है वह अब प्रदूषित हो जायेगा। असंतुलन की स्थिति बनेगी। असंतुलन इसलिए क्योंकि हमारे बीच अध्यात्म है एवं इसकी पूर्ति न होने पर शरीर और मस्तिष्क उचित तरीके से क्रियाशील नहीं हो पायेंगे हम कितना भी भौतिक रूप से हासिल कर लें फिर भी अपने आपको अपूर्ण महसूस करेंगे। यह अत्यंत ही भयानक स्थिति होगी। इसका क्रम शुरू हो गया है। ऐसी स्थिति में क्या किया जाय इसको समझने की कोशिश करनी होगी।

             आध्यात्मिक गुरुओं को पुन: चिंतन करना होगा। इस प्रकार की स्थितियाँ पूर्व में निर्मित हुई है परन्तु सांख्य योग की दृष्टि से वे ज्यादा गम्भीर नहीं थीं। अब जब जीवन अभी तक हमने ईश्वर की मर्जी से चलाया है, प्रत्येक गलत कर्म करने से पहले ईश्वर से डरे हैं तब ईश्वर ने भी हमें प्रचुरता से नवाजा है। अनंत प्रकार का पशुधन, उर्वरक भूमि, प्रचुर मात्रा में खनिज, अनेकों दिव्य नदियाँ, उत्तम जलवायु, उत्तम कृषि भूमि इत्यादि- इत्यादि हमें ईश्वर ने उपहार स्वरूप प्रदान किया है। ईश्वर भक्ति के दिव्य प्रसाद होते हैं परन्तु पिछले दो सौ वर्षों से हम अधकचरा हो गये हैं। धोबी का गधा न घर का न घाट का यही हमारी स्थिति है। 1947 में भारत खण्ड के विभाजन से पहले हम अफगानिस्तान से लेकर पाकिस्तान, वर्तमान का भारत, नेपाल इत्यादि मिलाकर मात्र पच्चीस करोड़ के आसपास थे। चलिए अब आदि गुरु शंकराचार्य जी के जमाने में चलें। उनका जन्म ई० से लगभग छठवीं शताब्दी पूर्व हुआ था अर्थात आज से छब्बीस सौ वर्ष पहले उस समय आर्यावर्त की जनसंख्या क्या रही होगी? मुश्किल से पचास लाख मात्र । मध्यभारत में उज्जयिनी, उत्तर भारत में काशी, दक्षिण में रामेश्वरम और पश्चिम में कामाख्या एवं पूर्व में श्री नगर जो उन्हीं के द्वारा बसाया गया है दिखाई पड़ता है। न दिल्ली थी, न बम्बई, न ढाका, न लाहौर इत्यादि इत्यादि। पचास लाख की जनसंख्या में मुश्किल से दो लाख लोग सनातनी होंगे और पचास हजार बौद्ध। बाकी सब वनवासी या अन्य पिछड़े वर्ग। एक अकेले शंकराचार्य जी ने इन सबको अद्वैत की महत्ता समझा दी। अपने ही काल में उन्होंने चार मठ बना दिये अर्थात चार शंकराचार्यों की गद्दी नियुक्त कर दी। वास्तव में पाँच गद्दियाँ थीं। एक मठ मध्यप्रदेश में पचमढ़ी नामक स्थान पर था जहाँ से चारों मठों का संचालन होता था। 

पंचमठ से ही पचमढ़ी बना है। अपने जीवन काल में ही उन्होंने एक से पाँच कर दिये अर्थात लगभग दस लाख व्यक्तियों पर एक शंकराचार्य। यह स्थिति है छब्बीस सौ वर्ष पूर्व परन्तु अब स्थितियाँ बदल गयीं हैं, काल बदल गया है, जनसंख्या बढ़ गई है, इतना विशाल जनसमूह और उस पर भी पाश्चात्य संस्कृति का आक्रमण कैसे चार शंकराचार्य सम्हालेंगे। आदि गुरुजी की बात छोड़िये वे तो सारा जीवन सब कुछ त्यागकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण ही करते रहे। भोजन मिला तो ठीक, सवारी मिली तो ठीक, वस्त्र मिले तो ठीक । वे तो सारी जिन्दगी भिक्षा मांगते रहे । जब शहर बनाने के लिए जंगल काटने पड़ते हैं, कृषि के लिए ज्यादा भूमि की जरूरत पड़ रही है, नदियों का पानी भी कम पड़ रहा है, अरबों हाथों के लिए कार्य भी कम पड़ रहे हैं तो फिर ऐसी स्थिति में क्या चार शंकराचार्य कम नहीं हैं अगर आज की स्थिति में आदि गुरु शंकराचार्य जी जैसे प्रकाण्ड और अद्भुत चार शंकर स्वरूप हो जायें तो भी कम पड़ेंगे।

            अध्यात्म मनुष्य की प्रारम्भिक आवश्यकता है। अतः ऐसी स्थिति में इस देश को बचाने के लिए हजारों की संख्या में प्रकाण्ड, विद्वान, सिद्ध, त्यागी, निर्लिप्त और विशुद्ध आध्यात्मिक व्यक्तित्वों को उठना ही होगा। यही सांख्य योग है। संख्या का मुकाबला संख्या से है अन्यथा भीड़ तंत्र अध्यात्म पर हावी हो जायेगा और हो भी रहा है। असली माल नहीं मिलेगा तो जनता नकली माल से काम चलायेगी। असली दूध के अकाल में शहर के लोग पाउडर से बना दूध हैं। क्या करें बेचारे? उनकी कोई गलती नहीं है गलती तो पदासीन महानुभावों की है। मैं अध्यात्म को केवल ईश्वर की मर्जी नहीं मानता हूँ। बुद्धि, प्रबंधन, सकारात्मक सोच इत्यादि ईश्वर के द्वारा मनुष्य को इसीलिए प्रदान किये गये हैं कि ईश्वर को मालूम है कि आने वाले समय में युग किस प्रकार का आयेगा। इस युग में केवल ईश्वर की मर्जी से जीवन नहीं चलेगा। ईश्वर की मर्जी से अगर जीवन चलाओगे तो फिर संसाधनों का अकाल, पानी का हवा का अकाल, वर्षा का अकाल, भूमि का अकाल देखना ही पड़ेगा। नारकीय जीवन में आध्यात्मिक साधना कैसे सम्पन्न होगी भला यह कोई बताये। जब प्रशासनिक पद कई गुना बढ़ गये हैं, अनेकों मंत्री हैं, अनेकों मुख्यमंत्री हैं इत्यादि इत्यादि तो फिर अध्यात्म के पद क्यों नहीं बढ़ते गृहस्थों की संख्या इतनी ज्यादा है तो फिर गृहस्थों को भी शंकराचार्य चाहिए होगा। प्रभु श्री कृष्ण ने द्वापर यही संदेश दिया। वे गृहस्थ बनकर रहे हैं। उनके संदेश को आप समझे या न समझे यह अलग बात है। साधनायें तो करनी पड़ेगी, आंतरिक शक्ति का उदय करना ही पड़ेगा, गुरुबल तो प्राप्त करना ही पड़ेगा अन्यथा भीड़ में खोकर रह जाओगे । 

           इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा के माहौल में, संसाधनों के अभाव में, चारों तरफ से दबाव और तनाव की स्थिति में अध्यात्म का बल ही नैया पार लगायेगा अन्यथा टूट जाओगे, विकृत हो जाइएगा, पागल हो जाओगे, कहीं के नहीं रहोगे । साधनाऐं तभी सम्पन्न हो सकती हैं जब श्रेष्ठ गुरु हो, श्रेष्ठ साधक हो, उचित माहौल हो । सभी काल में सब साधनाऐं उचित नहीं होती हैं। इस काल में श्री सिद्धि या श्री साधना अत्यधिक आवश्यक है। मनुष्यों की समस्त समस्याऐं इसके द्वारा निवारण की जा सकती हैं। शत्रु भय आज के युग में अत्यधिक है अतः महाकाली साधना भी प्रत्येक साधक के लिए आवश्यक है। प्रदूषण के वातावरण में चारों में तरफ सब कुछ प्रदूषित है। अनेकों अदृश्य रसायन रक्त में मिलते जा रहे हैं जिसके कारण शरीर की शक्ति घटती जा रही है। ऐसी स्थिति में योग साधना प्रत्येक व्यक्ति के लिए नितांत आवश्यक हैं। बीमार व्यक्ति आध्यात्मिक साधना कर ही नहीं सकता। साधना निरन्तरता का क्रम है। प्रतिक्षण सलाह, मार्गदर्शन और गुरु कृपा की आवश्यकता है। साधना ही जीवन है। संतुलन ही साधना है। इन्द्रियों को तो साधना पड़ेगा। युग बदल गया, काल बदल गया, ऋतु चक्र बदल गये परन्तु मनुष्य का शरीर नहीं बदला है इसीलिए अपने शरीर को ध्यान में रखते हुए साधनाऐं कीजिए। मस्तिष्क को साधिये, मानस को साधिए, ज्ञान को साधिए, विज्ञान को साधिए, ब्रह्म को साधिए, शिव को साधिए और अंत में मृत्यु को साधिए । जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ के आगे लगे घोड़ों को साध रहे हैं, कौरवों को साध रहे हैं, अर्जुन को साध रहे हैं, यही नहीं समस्त ब्रह्माण्ड को साध रहे हैं। साधना ही गीता रहस्य है।
    
                      शिव शासनत: शिव शासनत:

श्रीकृष्ण पूजन ।।

       साधक को चाहिए कि वह स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा स्थल में स्वच्छ आसन पर उत्तर या पूर्व की ओर मुँह करके बैठ जाये। पूजन के लिए आवश्यक समस्त सामग्री यथा कुंकुम, अक्षत, मौली, जल, पुष्प, दूध, दही, घृत, वस्त्र, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अपने पास रख लें ताकि पूजन के मध्य बार-बार न उठना पड़े। अपने सम्मुख किसी चौकी में भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा स्थापित कर लें। धूप दीप आदि जला लें ताकि वातावरण शुद्ध हो जाये।

पवित्रीकरण
      सर्वप्रथम अपने बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से अपने ऊपर छिड़कें तथा निम्न मंत्र का उच्चारण करें- 

ॐ अपवित्रः पवित्रो व सर्वावस्थां गतोऽपि वा। 
यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः ॥

आचमन
          पवित्रीकरण के पश्चात आचमनी में जल लेकर क्रमश: निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये तीन बार जल पियें। 

ॐ केशवाय नमः । 
ॐ माधवाय नमः । 
ॐ गोविन्दाय नमः । 

आचमन के उपरांत हस्त प्रक्षालन (हाथ धोना) कर लें।

गणपति स्मरण
     
निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये दोनों हाथ जोड़कर पूर्ण श्रद्धाभाव से भगवान गणपति का स्मरण करें साथ हो अन्य देवी देवताओं का भी स्मरण करें

ॐ लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः।
ॐ उमा महेश्वराभ्यां नमः । 
ॐ वाणी हिरण्य गर्भाभ्यां नमः ।
ॐ शचीपुरंदराभ्यां नमः।
ॐ मातृ पितृ चरणकमलेभ्यो नमः।
ॐ ग्राम देवताभ्यां नमः।
ॐ स्थान देवताभ्यो नमः।
ॐ कुल देवताभ्यो नमः।
ॐ सर्वेभ्यो देवताभ्यो नमः।
ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः । 
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः । 
लम्बोदरश्च विकटो विघ्न नाशो विनायकः ॥ धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः । 
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणयादपि ॥
 विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥

संकल्प
      
कुंकुम, अक्षत मिश्रित जल दाहिने हाथ में लेकर निम्न मंत्रोच्चार करते हुये संकल्प लें

ॐ विष्णु विष्णु र्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्राह्मणोऽहि द्वितीय परार्धे श्वेत वाराह कल्पे जम्बू द्वीपे भरत खण्डे आर्यावर्तेक देशान्तर्गते पुण्य क्षेत्रे, कलियुगे कलि प्रथम चरणे अमुक मासे ( महीने का नाम लें) अमुक पक्षे ( पक्ष बोलें ) अमुक तिथौ (तिथि बोलें) अमुक व ( दिन का नाम लें) अमुक गोत्रोत्पन्न: (अपना गोत्र बोलें ) अमुक (नाम बोलें) शर्माऽहं भगवतो महापुरुषस्य कृष्णस्य विशिष्ट पूजनं अहं करिष्ये। उपरोक्त संकल्प मंत्र पूर्ण होने पर जल को भूमि पर छोड़ दें।

दीप पूजन
दीपक पर कुंकुम अक्षत चढ़ायें, निम्न मंत्र का उच्चारण करें

भो दीप देवरूपस्त्वं कर्मसाक्षि हविघ्रकृतः यावत् कर्म समाप्तिः स्यात तावदत्र स्थिरो भव। (ॐ दीपदेवतायै नमः)

कलश पूजन

        अपने सम्मुख भगवान श्रीकृष्ण के आसन की दाहिनी ओर कलश स्थापित करें और क्रमशः निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये चारों दिशाओं में कलश पर कुंकुम से तिलक करें 

पूर्वे ऋग्वेदाय नमः । 
उत्तरे यजुर्वेदाय नमः ।
पश्चिमे सामवेदाय नमः । 
दक्षिणे अर्थवेदाय नमः । 

अब निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये कलश में जल डालें

गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती, नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरु । 
जल डालने के उपरांत "अक्षतानि समर्पयामि" का उच्चारण करते हुये कलश में अक्षत डाल दें तत्पश्चात निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये एक सुपारी अर्पित करें

ॐ या फलिनीर्या अफला अपुष्पायाश्च पुष्पणी, वृहस्पतिः प्रसूतास्तन्नो मुञ्चन्ति ( गूं) हसः।

फिर कलश के ऊपर पंच पल्लव डाल दें तथा उस पर नारियल स्थापित करें (नारियल में मौली बंधी हुयी हो) अब कलश को स्नान कराकर चन्दन, कुंकुम, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि समर्पित करें तत्पश्चात दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करें

कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः, मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणः स्थिता । कुक्षौ तु सागराः सर्वे सप्त द्वीपा वसुन्धरा, ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वणः। अंगैश्च सहिता सर्वे कलशं तु समाश्रितः, अत्र गायत्री सावित्री शान्तिः पुष्टिकरस्तथा, आयान्तु यजमानस्थ दुरिक्षय कारकाः । ॐ कलशस्य देवता अपां पतये नमः।

गुरु पूजन
         यद्यपि योगी योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण जगद्गुरु हैं। तथापि यदि साधक ने किसी भी गुरु से दीक्षा या गुरु मंत्र लिया है अथवा नहीं भी लिया तो निम्नानुसार मंत्रोच्चार से ब्रह्माण्ड के सभी गुरुओं का पूजन हो जाता है।

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥ 
मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरि। 
यत् कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ॥
गुरु चित्र पर पुष्प से जल छिड़ककर उसे स्वच्छ वस्त्र से पोंछ दें तत्पश्चात पुष्प, धूप, दीप, अक्षत कुंकुम आदि से गुरु का पूजन करें तथा निम्न मंत्र का मानसिक जप करते हुये अपने गुरु से प्रार्थना करें कि वे पूजन में सूक्ष्म रूप से उपस्थित रहकर पूजन को पूर्णता प्रदान करें-

।।ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नमः।।

दोनों हाथ जोड़कर पूर्ण श्रद्धाभाव से भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करें निम्न मंत्र का उच्चारण करें

बर्हापीडं नटवर वपुः कर्णयोः कर्णिकारं, विभवासा कनक कपिशं वैजयंती च मालां । 
रुधान वेणूरधरसुदया पूरयन गोपवृन्दैः, वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्रविशद् गीतकीर्तिः ॥ (ध्यानं समर्पयामि श्रीकृष्णाय नमः )

आसन
          दोनों हाथ में पुष्प लेकर भगवान श्रीकृष्ण को आसन दें निम्न मंत्र का उच्चारण करें 

ॐ पुरुष एवेदं (गूं) यद्भूतं यच्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्ने नातिरोहति ॥ ( पुष्पासनं समर्पयामि )
पाद्य--
        आचमनी में जल लेकर भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में दो बार अर्पित करें निम्न मंत्र का उच्चारण करें

ॐ एतावानस्य महिमातो ज्यायंश्च पुरुषः।
पादोऽस्य विश्व भूतानि त्रिपादस्यामृतन्दित्। (पाद्यं समर्पयामि)
अर्ध्य
         ताम्र पात्र में जल, कुंकुम, चंदन, अक्षत व पुष्प लेकर भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित करें 

ताम्रपात्रे स्थितं तोयं गंध पुष्प फलान्वितम् । 
सहिरण्यं ददाम्यर्ध्यं गृहाण परमेश्वर॥ (अर्ध्यं समर्पयामि)

आचमन
          आचमनी में जल लेकर भगवान को अर्पित करें 

सर्व तीर्थ समानीतं सुगन्धिं निर्मलं जलं । 
आचमनार्थं मया दन्तं गृहाण परमेश्वर ॥

स्नान
        पुष्प से जल लेकर भगवान श्रीकृष्ण को स्नान करायें- 

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वती ।
नर्मदे सिन्धु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरु॥ ( स्नानं समर्पयामि )

दुग्ध
        भगवान श्री गणेश की प्रतिमा के समक्ष एक पात्र रखकर निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुए पात्र में दुग्ध अर्पित करें 

कामधेनु समुद्भूतं सर्वेषां जीवनं परम् । 
पावनं यज्ञहेतुश्च पयः स्नानार्थमर्पितम् ॥ ( दुग्ध स्नानं समर्पयामि )

दधी
         निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये चित्र के समक्ष रखे पात्र में दही अर्पित करें 

पयसस्तु समुद्भुतं मधुराम्लं शशिप्रभम् । 
दध्यानीतं मयादेव स्नानार्थं प्रतिगृहताम्॥ ( दधि स्नानं समर्पयामि )

घृत 
          निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये भगवान श्रीकृष्ण को घी अर्पित करें 

नवनीत समुत्पन्नं सर्वसंतोषकारकम् ।
 घृतं तुभ्यं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥ (घृत स्त्रानं समर्पयामि

मधु 
        निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये भगवान श्रीकृष्ण को शहद (मधु) से स्नान करायें 

तरुपुष्प समुद्भूतं सुस्वादु मधुरं मधु । 
तेज: पुष्टिकरं दिव्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्॥ ( मधु स्नानं समर्पयामि )

शर्करा स्नान 
        अब भगवान श्रीकृष्ण को शक्कर से स्नान करायें निम्न मंत्र का उच्चारण करें 

इक्षुसार समुद्भूता शर्करा पुष्टिकारिका, मलापहारिका दिव्या स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् । ( शर्करा स्त्रानं समर्पयामि)

शुद्धोदक स्नान
           शर्करा स्नान के पश्चात आचमनी में जल लेकर स्नान हेतु पात्र में अर्पित करें निम्न मंत्र का उच्चारण करें 
कावेरी नर्मदावेणी तुंगभद्रा सरस्वती गंगा च यमुना तोयं मया स्नानार्थमर्पितम् । (शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि )

वस्त्रोपवस्त्र
            भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा को स्वच्छ वस्त्र से पोंछकर निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये दो वस्त्र अर्पित करें 

सर्वभूषादिके सौम्ये लोक लज्जा निवारणे, मयोपपादिते तुभ्यं वाससी प्रतिगृह्यताम् । ( वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि )

तिलक
          निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये चंदन कुंकुम से भगवान श्रीकृष्ण का तिलक करें 

श्रीखण्ड चन्दनं दित्यं गंधाढ्यं सुमनोहरम् । 
विलेपन सुरश्रेष्ठ चन्दनम् प्रतिगृह्यताम् ।

अक्षत
            निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये भगवान श्रीकृष्ण को अक्षत अर्पित करें 

अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कुंकुमाक्ता सुशोभिता, मया निवेदिता भक्त्या गृहाण परमेश्वर । (अक्षतान् समर्पयामि) 

पुष्प
           अब हाथ में नाना प्रकार के पुष्प लेकर निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये भगवान को पुष्प अर्पित करें

पद्म शंखज पुष्पादि शत पत्रविचित्रताम् ।
पुष्पमालां प्रयच्छामि गृहाण परमेश्वरः॥(पुष्पं समर्पयामि)

तुलसीदल
               
अब तुलसी पत्रों पर चन्दन लगाकर भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित करें निम्र मंत्रोच्चार करें 

इदं सचन्दनं तुलसीदलं समर्पयामि नमः।

धूप-दीप
           धूप, दीप जलाकर भगवान श्रीकृष्ण को दिखायें निम्न मंत्र का उच्चारण करें 

वनस्पति रसोद्भूतः गन्धाढ्य सुमनोहरः । 
आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोभ्यं प्रतिगृह्यताम् ।। (धूपं दीपं दर्शयामि नमः)

नैवेद्य
         अब नाना प्रकार की मिठाइयाँ भोज्य पदार्थ नैवेद्य के रूप में भगवान को अर्पित करें निम्नानुसार मंत्र का उच्चारण करें 

।।ॐ कृष्णाय वासुदेवाय नैवेद्यं निवेदयामि नमः ॥

आचमन
           नैवेद्य समर्पित करने के पश्चात निम्न मंत्रों का उच्चारण करते हुये आचमनी में जल लेकर पाँच बार अर्पित करें। 

ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा ।

फल
          विविध प्रकार के फल भगवान श्रीकृष्ण को अर्पित करें। निम्न मंत्र का उच्चारण करें 

इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव । 
तेन मे सफलावाप्तिः भवेजन्मनि जन्मनि॥ (फलं समर्पयामि नमः) तत्पश्चात ताम्बूल (पान का पत्ता) में लौंग इलायची रखकर भगवान को अर्पित करें।

पुष्पांजलि
             दोनों हाथों में पुष्प लेकर निम्न मंत्रोच्चार करते हुये भगवान को पुष्पांजलि अर्पित करें 

नाना सुगन्ध पुष्पाणि यथा कालोद्भवानि च । पुष्पांजलिर्मया दत्ता गृहाण परमेश्वर ॥

नमस्कार
           निम्न मंत्र का उच्चारण करते हुये दोनों हाथ जोड़कर भगवान को प्रणाम करें 

कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।
 प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः ॥ 

मंत्र जाप
         निम्र मंत्र का कम से कम 15 मिनिट तक मानसिक जप करें 
।। ॐ कृं कृष्णाय ब्रह्मण्य देवाय नमः ।।

प्रार्थना
            अंत में दोनों हाथ जोड़कर निम्र मंत्र का उच्चारण करते हुये पूर्ण सौभाग्य, समृद्धि एवं सफलता के लिये भगवान से प्रार्थना करें 
नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मणहिताय च ।
जगद्विताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ॥

आरती

आरती कुंज विहारी की, श्री गिरधर कृष्ण मुरारी की।
 गले में वैजन्ती माला, बजावे मुरली मधुर बाला। 
श्रवण में कुण्डल झलकाला, नन्द के आनन्द नन्दलाला । 
गगन सम अंग कांति काली, राधिका चमक रही आली। 
लतन में ठाढ़े बनमाली, भ्रमर सी अलक । 
कस्तूरी तिलक चंद्र सी झलक, ललित छबि श्यामा प्यारी की। 
श्री गिरधर कृष्ण मुरारी की, आरती .......
कनकमय मोर मुकुट बिलसै, देवता दरसन को तरसै। 
गगनसों सुमन रासि बरसै बजै मुरचंग । 
मधुर मिरदंग ग्वालनी संग, अतुल रति गोप कुमारी की। 
श्री गिरधर कृष्ण मुरारी की, आरती.........
जहाँ ते प्रकट भई गंगा, सकल मल हारिणी श्री गंगा । 
स्मरन ते होत मोह भंगा, बसी सिव सीस, जटा के बीच । 
हरै अघ कीच, चरन छवि श्रीबनवारी की। 
श्री गिरधर कृष्ण मुरारी की, आरती.........
 चमकती उज्जवल तट रेनु, बज रही वृन्दावन बेनु । 
चहूं दिसि गोपि ग्वाल धेनु, हंसत मृदु मंद, चांदनी चंद कटत भव फन्द, टेर सुन दीन दुखारी की। 

श्री गिरधर कृष्ण मुरारी की, आरती...........

श्री राधा कृपा कटाक्ष स्त्रोत्र ॥

मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)

अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)

अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)

तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)

अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)

मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)

सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)

अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)

इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३)

राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धधीः ।
एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठेत्साधकः सुधीः ॥१४॥

यं यं कामयते कामं तं तमाप्नोति साधकः ।
राधाकृपाकटाक्षेण भक्तिःस्यात् प्रेमलक्षणा ॥१५॥

ऊरुदघ्ने नाभिदघ्ने हृद्दघ्ने कण्ठदघ्नके ।
राधाकुण्डजले स्थिता यः पठेत् साधकः शतम् ॥१६॥

तस्य सर्वार्थ सिद्धिः स्याद् वाक्सामर्थ्यं तथा लभेत् ।
ऐश्वर्यं च लभेत् साक्षाद्दृशा पश्यति राधिकाम् ॥१७॥

तेन स तत्क्षणादेव तुष्टा दत्ते महावरम् ।
येन पश्यति नेत्राभ्यां तत् प्रियं श्यामसुन्दरम् ॥१८॥

नित्यलीला–प्रवेशं च ददाति श्री-व्रजाधिपः ।
अतः परतरं प्रार्थ्यं वैष्णवस्य न विद्यते ॥१९॥

॥ इति श्रीमदूर्ध्वाम्नाये श्रीराधिकायाः कृपाकटाक्षस्तोत्रं सम्पूर्णम ॥

प्रेम के दो रुप हैं; एक प्यास और एक तृप्ति ।

प्रेम के दो रुप हैं; एक प्यास और एक तृप्ति................

नन्दनन्दन, श्यामसुन्दर, मुरलीमनोहर, पीताम्बरधारी- जिनके मुखारविन्द पर मन्द-मन्द मुस्कान है, सिर पर मयूर-पिच्छ का मुकुट, गले में पीताम्बर, ठुमुक-ठुमुककर चलने वाला, बाँसुरी बजाने वाला जो मनमोहन प्राणप्यारा है,

उसको प्राप्त करने की इच्छा, उत्कंठा, व्याकुलता, तड़प जब अपने ह्रदय को दग्ध करने लगे तब समझो कि प्यास जगी और जब उसकी बात सुनकर, उसकी याद आने से, उसके लिये कोई कार्य करने से अपने ह्रदय में रस का प्राकट्य हो, अनुभव हो तब इसे तृप्ति कहते हैं।

श्रीहरि को ढूँढ़ने के लिये निकले और पानी में उतरे ही नहीं, किनारे पर ही बैठे रहे, इसका नाम प्यास नहीं है और जब प्यास ही नहीं तो तृप्ति कैसी?

कहीं हम स्वयं को ही तो मृग-मरीचिका के भ्रम में नहीं डाल रहे ! छ्ल? स्वयं से ! प्यास और तृप्ति !

आनन्द के लिये प्यास और आनन्द की प्राप्ति पर तृप्ति !

संयोग और वियोग--प्रेम इन दोनों को लेकर चलता है। ईश्वर को मानना अलग बात है और उनसे प्रेम करना अलग !

श्रीहरि को याद करना अलग है और उनके वियोग में, उनकी प्राप्ति के लिये व्याकुल होना अलग बात है।

भक्ति वहाँ से प्रारम्भ होती है, जहाँ से श्रीहरि के स्मरण में, श्रीहरि के भजन में, श्रीहरि की लीला-कथाओं के श्रवण में, श्रीहरि के सेवन में रस का ह्रदय में प्राकट्य होता है,

आनन्द का प्राकट्य होता है। प्रेम की उत्तरोत्तर वृद्धि के लिये संयोग और वियोग दोनों ही आवश्यक हैं।

वियोग न हुआ तो कैसे जानोगे कि क्या पाया था !

तड़प कैसे उठेगी फ़िर उसे पाने के लिये !
मूल्य तो वियोग के बाद ही मालूम हुआ !
अब फ़िर पाना है पहले से अधिक व्याकुलता, तड़प के साथ !
अब जो मिला तो आनन्द और अधिक बढ़ गया !
यही मनमोहन, सांवरे घनश्याम की प्रेम को उत्तरोत्तर बढ़ाने वाली लीला है
जिसमें भगवान और भक्त दोनों ही एक-दूसरे के आनन्द को बढ़ाने के लिये संयोग और वियोग के झूले में झूलते रहते हैं।

अजब लीला है कि दोनों ही दृष्टा हैं और दोनों ही दृश्य !

दोनों ही परस्पर एक-दूसरे को अधिकाधिक सुख देना चाहते हैं !
दोनों ही दाता और दोनों ही भिक्षुक !
प्रेम ऐसा ही होता है।
!
चूँकि प्रेम ईश्वर ही है सो यह अधरामृत है ! अधरामृत ? अ+धरा+अमृत ! जो अमृत धरा का नहीं है; यह जागतिक तुच्छ वासना नहीं है,
जिसे हम सामान्य भाषा में प्रेम कह देते हैं। प्रेमी होना बड़ा दुष्कर है ।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाये नमः
जय श्री राधे कृष्ण
ॐ श्री हरी शरणम
बोलिये श्री वृन्दावन बिहारी लाल की जय.,
बरसाने वाली श्री राधा रानी की जय,

~~~~~~~
((((((( जय जय श्री राधे )))))))
~~~~~~~

प्रारब्ध सिद्ध महापुरुष को भी भोगना पड़ता है ।।

प्रारब्ध सिद्ध महापुरुष को भी भोगना पड़ता है। उसको दुःख की फीलिंग न होगी सिद्ध महापुरुष को, ये बात अलग है। बाप उसका भी मरेगा, बेटा उसका भी मरेगा। मृत्युंजय का जाप कराने से किसी का बेटा बच जाय, इम्पॉसिबिल। जिसके बाप अर्जुन महापुरुष और मामा भगवान् श्रीकृष्ण और ब्याह कराने वाले वेदव्यास तीनों महान् पर्सनैलिटी और अभिमन्यु मारा गया और उत्तरा विधवा हो गई सोलह वर्ष की उमर में। ये क्या बचायेंगे, भीख माँगने वाले पण्डित लोग। ये तो बेवकूफ बनाते हैं तुम लोगों को। हमसे जाप करा लो, हमसे यज्ञ करा लो, हमसे ये करवा लो, कष्ट दूर हो जायेगा। अब उन्होंने पच्चीस आदमियों से कहा तो नैचुरल प्रारब्ध खत्म होने पर एक आदमी उसमें अच्छा हो गया, एक आदमी की नौकरी लग गई, एक की कामना पूरी हो गई तो उसने कहा, पण्डित जी ने कहा हमने किया तो हो गया हमारा काम पूरा। वो बेचारा भोला-भाला श्रद्धा कर लेता है। कुछ नहीं है। भगवान् की भक्ति जितनी बढ़ाएगा, उतनी ही दुःखों की फीलिंग कम होगी। इस प्वॉइन्ट को नोट करो सब लोग। प्रारब्ध काटा नहीं जा सकता। बेटे को मरना है, बाप को मरना है, पति को मरना है वो मरेगा अपने टाइम पर। तुम भगवान् की भक्ति बढ़ाओ तो उसके मरने के दुःख की फीलिंग उतनी ही लिमिट में कम होगी। बस, ये तुम्हारी ड्यूटी है तुम इतना कर सकते हो। तुम उसको बचा नहीं सकते हो। जो मरेगा, मरेगा। धन समाप्त होना है, दिवालिया बनना है, बनेगा। बड़ा काबिल हो, उससे कुछ काम नहीं बनेगा । इसमे कुछ काबिलियत काम नही देगी। प्रारब्ध का फल तो सबको भोगना ही पड़ेगा।


'ज्ञानी भुगते ज्ञान से, मूरख भुगते रोय।'

बस ये फरक है। जितनी पॉवर होगी आपकी सहन करने की शक्ति होगी, उतनी फीलिंग न होगी। और जितना ही संसार से अटैचमेंट होगा, उतनी ही अधिक फीलिंग होगी।

देखो! एक स्त्री का पति मरता है। सबसे अधिक फिलिंग स्त्री को होती है। उससे कम फीलिंग बाल-बच्चों को होती है, उससे कम फीलिंग दोस्तों को होती है, उससे कम नौकर को होती है। ये अंतर क्यों है? इसलिए है कि जिसका जितना अधिक स्वार्थ जिससे हम होता है, वो स्वार्थ हानि में उतना ही दुखी होता है। तो जितना भगवान् की ओर वो चलेगा उतनी ही पॉवर होगी उसके पास और उस पॉवर से मुकाबला करेगा दुःख का। बाकी दुःख प्रारब्ध का आयेगा लेकिन वो हमेशा नहीं रहता। आया, भोगा, गया। हमेशा कोई चीज़ नहीं रहती। कुछ दिन के लिये आता है। जैसे- आप साइकिल चलाते हैं तो कहीं पुलिया आ गई, थोड़ी ऊँचाई आ गई और थोड़ा मेहनत कर लिया फिर ढाल आ गया, फिर प्लेन आ गया। ऐसे ही प्रारब्ध का चक्कर है। आता है, जाता है, हमेशा रहता नहीं।
तो जब आ जाय और हमारी भावनाएँ गड़बड़ होने लगें, तो और सत्संग करें, और गुरु के पास जायें, और भगवद् विषय सुनें तो वो दब जाता है। जैसे संसारी बीमारी होती है तो हम दवा खाते हैं तो वह बीमारी दब जाती है, वो कष्ट कम हो जाता है, ऐसे है। बाकी भोगना सबको पड़ता है।

-जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज

सूर्यास्तोत्रम् ।।


रोगों से मुक्ति तथा समस्त सिद्धियां प्रदान करने वाला दुर्लभ स्तोत्र 

       भगवान आदित्य का यह दुर्लभ आर्या स्तोत्र समस्त व्याधियों का शमन करने वाला है तथा जो निर्धन व दरिद्र है इस स्तोत्र का पाठ करने से अपार सम्पदा के स्वामी बन सकते हैं। जो सप्तमी तिथि को इस स्तोत्र का सात बार पाठ कर लेता है उसके घर में लक्ष्मी का चिरस्थाई निवास हो जाता है तथा उसके चेहरे की कांति बढ़ जाती है।

सूर्यास्तोत्रम्

शुकतुण्डच्छविसवितुश्चण्डरुचे: पुण्डरीकवनबन्धोः । मण्डलमुदितं वन्दे कुण्डलमाखण्डलाशायाः ॥

 यस्योदयास्तसमये सुरमुकुटनिघृष्टचरणकमलो ऽपि । कुरुतेऽञ्जलिं त्रिनेत्रः स जयति धाम्नां निधिः सूर्यः ॥

 उदयाचलतिलकाय प्रणतोऽस्मि विवस्वते ग्रहेशाय । 
अम्बर चूडामणये दिग्वनिताकर्णपूराय ॥ 

जयति जनानन्दकर: करनिकरनिरस्ततिमिरसङ्घातः । लोकालोकालोकः कमलारुणमण्डल: सूर्यः ॥

 प्रतिबोधितकमलवनः कृतघटनश्चक्रवाकमिथुनानाम् । दर्शितसमस्तभुवनः परहितनिरतो रविः सदा जयति ॥

 अपनयतु सकलकलिकृतमलपटलं सुप्रतप्तकनकाभः ।
 अरविन्दवृन्दविघटनपटुतरकिरणोत्करः सविता ॥

 उदयाद्रिचारु चामर हयखुर परिहितरे णुराग ।
 हरितहय हरितपरिकर गगनाङ्गदीपक नमस्ते ऽस्तु ॥

 उादतवति त्वयि विकसति मुकुलीयति समस्तमस्तमितबिम्बे ।
नान्यस्मिन् दिनकरसकलं कमलायते भुवनम् ।।

जयति रविरुदयसमये बालातपः कनकसंनिभो यस्य । कुसुमाञ्जलिरिव जलधौ तरन्ति रथसप्तयः सप्त ॥ 

आर्या साम्बपुरे सप्त आकाशात् पतिता भुवि ।
यस्य कण्ठे गृहे वापि न स लक्ष्म्या वियुज्यते ॥ 

आर्या सप्त सदा यस्तु सप्तम्यां सप्तधा जपेत् । 
तस्य गेहं च देहं च पद्मा सत्यं न मुञ्चति ॥ 

निधिरेष दरिद्राणां रोगिणां परमौषधम् । 
सिद्धिः सकलकार्याणां गाथेयं संस्मृता रवेः ॥

कमल वन के पोषक भगवान सूर्य का तेज परम प्रचण्ड है। सुग्गे के छोर की भाँति लाल, सम्पूर्ण दिशाओं को कुण्डल की छवि प्रदान करने वाले, उनके उदयकालीन मण्डल को मैं प्रणाम करता हूँ।

जिनके उदय और अस्त होते समय देवताओं के मुकुट घिसे हुए चरण कमल वाले शंकर भी अंजलि जोड़कर प्रणाम करते हैं, तेजों के पुंज उन भगवान सूर्य की जय हो ।

उदयाचल पर्वत को सुशोभित करने वाले, ग्रहों के शासक, आकाश को चमकाने के लिये चूड़ामणि तथा पूर्व दिशारूपिणी नारी के कर्णफूल भगवान सूर्य को मैं प्रणाम करता हूँ।

सम्पूर्ण जनसमुदाय को आनन्दित करना जिनका स्वभाव है, जिनकी किरणों से राशि राशि अन्धकार नष्ट हो जाते हैं और अखिल भूमण्डल प्रकाशित हो उठता है, उन लोकालोक पर्वत को आलोकित करने वाले लाल कमल के समान सुन्दर मण्डलवाले भगवान सूर्य की जय हो।

जो कमलों को खिलाने वाले, चकवा चकवी पक्षी के अलग हुए जोड़े को मिलाकर प्रसन्न करने वाले हैं, सारे संसार को आलोकित करने में तथा दूसरों के हित में सदा उद्यत रहते हैं, उन भगवान् सूर्य की जय हो।

कमलों को खिलाने के लिये जिनकी किरणें परम निपुण हैं तथा जिनका दिव्य कलेवर तपाये हुए सुवर्ण के समान हैं, वे भगवान सूर्य से कलियुग से सम्बद्ध समस्त पापों को दूर कर दें।

भगवन्! आप उदयाचल पर्वत के लिये सुन्दर चँवर का काम करते हैं। आपके हरे रंगवाले घोड़ों के पैर की धूलि से दूसरों का सदा हित होता है। आपके वाहन अश्व एवं परिजन सभी का रंग हरा है तथा आकाश को प्रकाशित करने के लिए आप दीपक हैं। भगवान सूर्य को मैं प्रणाम करता हूँ।

भगवन! आपके उदय होने पर सारा संसार जागता और अस्त हो जाने पर निद्रा में विलीन हो जाता है। आपके आश्रित सम्पूर्ण संसार ही कमलवत व्यवहार कर रहा है। प्रभो! आपके अतिरिक्त अन्य किसी में ऐसी शक्ति नहीं है।

जिनका प्रकाश उदयकाल में स्वल्प तथा पीत सुवर्ण के समान रहता है, आकाश में जिनके सात घोड़ों वाला रथ समुद्र में पुष्पांजलि की भाँति तैरता है एवं प्रकाश भी उत्तरोत्तर बढ़ने लगता है, उन भगवान सूर्य की जय हो ।

श्राद्ध व तर्पण: रहस्य तथा महत्व ।।

 

     वैदिक धर्म जीवन पर्यन्त तो अपने बड़ों की सेवा करने की सीख देता ही है मृत्यु के पश्चात् भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध व तर्पण पर जोर देता है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि श्रद्धा से किया जाने वाला वह कार्य जो पितरों के निमित्त किया जाता है श्राद्ध कहलाता है। श्राद्धकर्म एक आवश्यक संस्कार है और शास्त्र सम्मत भी है। मनुष्य माता पिता के ऋण से कभी मुक्त नहीं होता इसलिए जीवनपर्यन्त उनकी सेवा करने के उपरान्त भी उनके लिए कुछ न कुछ करना आवश्यक है। शास्त्रानुसार देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण श्राद्ध द्वारा ही उतारा जा सकता है। विष्णु पुराण में कहा गया है कि श्राद्ध से तृप्त होकर पितृगण समस्त कामनाओं की पूर्ति कर देते हैं साथ ही श्राद्ध करने वाले पुरुष से विश्वेदेवगण, पितृगण, मातामह तथा कुटुम्बीजन सभी संतुष्ट रहते हैं। खासकर आश्विन मास के कृष्ण पक्ष (पितृपक्ष) में श्राद्ध करने पर पितृगण स्वयं आकर श्राद्ध ग्रहण करते हैं तथा प्रसन्न होते हैं और श्राद्ध न मिलने पर निराश होकर शाप देकर वापस चले जाते हैं।

          श्राद्ध पितरों को किस तरह प्राप्त होता है इसका जवाब भी सीधा सा है जिस तरह हम किसी भी जगह रहने वाले व्यक्ति का नाम पता लिखकर पत्र लेटर बाक्स में डाल देते हैं और वह उसे मिल जाता है उसी प्रकार जिन नामों का वैदिक विधि से उच्चारण कर हम पिण्ड दान करते हैं वह उन्हें प्राप्त हो जाता है। श्राद्ध कर्म में हमारे द्वारा अर्पित पदार्थ का सूक्ष्म अंश सूर्य रश्मियों द्वारा सूर्य लोक में पहुँचता है और वहां से अभीष्ट पितरों को प्राप्त हो जाता है। शास्त्रों का तो यहां तक मानना है कि पितृपक्ष में विद्वान ब्राह्मणों के द्वारा आवाहन किए जाने पर पितृगण स्वयं उनके शरीर में सूक्ष्म रूप से स्थित हो जाते हैं। अन्न का स्थूल अंश ब्राह्मण खाता है और सूक्ष्म अंश पितरों को प्राप्त होता है।

          वर्तमान समय में खुद को तथाकथित आधुनिक कहलाने वाले श्राद्ध आदि को ढोंग बताते हैं यह उनकी संकीर्ण में ही माता-पिता को सुख नहीं पहुँचाते तो मृत्यु के उपरान्त उनके सम्मुख श्राद्ध की बात करना अंधे को दीपक दिखाने के समान ही है। वे श्राद्ध तर्पण आदि के खर्च को अनावश्यक अपव्यय समझते हैं किन्तु यदि गणित ही लगाना है तो वह भी लगाकर देख लो आपके द्वारा किया गया श्राद्धकर्म कभी बेकार नहीं जाएगा बल्कि उससे कई गुना होकर आपको मिलेगा। जरा सोचिए कि यदि आपने अमेरिका में रहने वाले किसी व्यक्ति के लिए रुपये भेजे और रुपये पहुँचने पर पता चला कि वह व्यक्ति मर गया है तो रुपये कहाँ जाएँगे? जाहिर है वापस आपके पास आ जाएँगे ठीक इसी प्रकार परमधाम वासी पितरों के निमित्त किया गया श्राद्ध पुण्यं रूप में आपको मिल जाएगा अर्थात् किसी भी दृष्टि से देखें फायदे में आप ही रहेंगे।

       हमारा सनातन धर्म पूर्ण सहिष्णु तथा विश्वहितकर है। इतना उदार कोई भी अन्य धर्म विश्व भर में कहीं नहीं है। यह इसकी महान् विशेषता है। यहाँ तक कि वर्ष भर में एक सम्पूर्ण पक्ष पूज्य पितरों आदि के प्रति शास्त्रीय कर्मादि द्वारा अपनी श्रद्धा निष्ठादि को प्रकट करने के लिये नियत है। कितना सुन्दर एवं सामयिक विधान है? 'श्राद्ध' शब्द का श्रद्धा से पूर्ण सम्बन्ध है और इसी विशिष्टता को वह चरितार्थ करता है। प्रसिद्ध मुगल बादशाह शाहजहाँ ने भी धर्म के इस आचरण की महत्ता स्वीकार कर उसकी सराहना की थी। बंदी बनाये जाने के पश्चात् जब औरंगजेब ने उसके जमुना जल पीने पर पाबंदी लगा दी तो उसने एक फारसी शेर लिखकर औरंगजेब की भर्त्सना इस प्रकार की कि 'हिन्दू लोग प्रशंसा के योग्य हैं जो अपने दिवंगत पितरों को भी पानी पिलाते हैं और एक तू ऐसा मुसलमान है, जो कि अपने बूढ़े जिन्दे बाप को पानी के लिये इस प्रकार तरसाता है। शहजहाँ की इस वाणी में कितनी मार्मिकता थी, जो औरंगजेब के हृदय में तीर की तरह चुभी बात ही कुछ ऐसी थी।

         यह पक्ष एवं इसके कर्म- सभी वेदोक्त एवं शस्त्रोक्त हैं दानवीर राजा कर्ण के साथ भी इसका सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। श्रद्धा के साथ मन्त्र का उच्चारण करके इस लोक से मृतक हुए नित्य पितृ, नैमित्तिक पितृ प्रेत आदि की योनि को प्राप्त पिता, पितामह आदि कुटुम्बियों की तृप्त्यर्थ शास्त्र विधि के अनुसार जो क्रिया की जाती है, उसका नाम 'श्राद्धपक्ष' है। हिंदूजाति इस लोक के साथ ही साथ परलोक पर भी दृष्टि रखती है इसलिए इसमें पिता, पितामह और प्रपितामह की सद्गति तथा तृत्ति के लिये श्राद्धक्रिया नियत की हुई है। जीवित पितरों की तो सेवा हुआ ही करती है, उनमें हमारी श्रद्धा भी होता है, पर 'श्राद्ध' शब्द तो पारिभाषिक होता है। इसमें श्रद्धा का मधुर भाव निहित रहता है। अपने जिन पिता आदि से हमें शरीर प्राप्त हुआ, हमारा लालन-पालन हुआ, 

यदि उनके नाम से हम एक विशेष पात्र का सत्कार न करें, तो यह हमारी कृतघ्रता होगी। उनके नाम से दान करने पर परलोकगत उनकी आत्मा तृप्त हो जाती है, शान्ति को प्राप्त होती है और उन्नति पाती है। श्राद्धानुष्ठान के यथावत् होने पर प्रेतयोनि प्राप्त का प्रेतत्व हट जाया करता है। पिण्डदान से कष्ट मुक्ति हो जाया करती है। जैसे हजारों कोस का शब्द रेडियो द्वारा तत्क्षण सर्वत्र प्राप्त हो जाता है, वैसे ही मनः संकल्प द्वारा विधि एवं श्रद्धापूर्वक की हुई श्राद्ध आदि क्रियाएँ भी चन्द्रलोक स्थित पितरों को प्राप्त होकर उन्हें प्रसन्न कर दिया करती हैं। चन्द्रमा मन का अधिष्ठाता है। वह हमारे मन में संकल्प से की हुई क्रिया को नित्य पितरों के द्वारा सूक्ष्मता से अपने लोक में खींचकर हमारे पितरों को तृप्त कर दिया करता है। मन द्वारा दिये हुए अन्न और जल को वह सूक्ष्मरूप से आकृष्ट करता है। श्राद्ध पिता, पितामह, प्रपितामह इन तीन पुरुषों का होता है। श्राद्ध में सदाचारी, तपस्वी, विद्वान, स्वाध्यायशील सद्ब्राह्मण को ही भोजन कराने का मनुस्मृति आदि में आदेश है क्योंकि ऐसे ब्राह्मण की प्रसन्नता से प्रेतयोनि प्राप्त जीव की सद्गति होती है।

         श्राद्ध बिल्कुल रहस्यपूर्ण एवं विज्ञानपूर्ण है। इसी विज्ञानतत्व पर यहाँ कुछ विचार किया जाता है। अश्विन मास के कृष्णपक्ष की मृतक की तिथि में सभी मृतक पितरों के श्राद्ध किये जाते हैं। उसमें विज्ञान यह है कि इन दिनों चन्द्रमा अन्य मासों की अपेक्षा पृथ्वी के निकटतर हो जाता है। इस कारण उसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव पृथ्वी तथा उसमें अधिष्ठित प्राणियों पर विशेष रूप से पड़ता है। तब जितने सूक्ष्म शरीरयुक्त जीव चन्द्रलोक के ऊपरी भाग में स्थित पितृलोक में जाने लिये बहुत समय से चल रहे होते हैं, या चल पड़े होते हैं, उनका उद्देश्य करके उनके सम्बन्धियों के द्वारा प्रदत्त पिण्ड अपने अन्तर्गत सोम के अंश से उन जीवों को आप्यायित करके, उनमें विशिष्ट शक्ति उत्पन्न करके उन्हें शीघ्र और अनायास ही, अर्थात् बिना अपनी सहायता के ही पितृलोक में प्राप्त करा दिया करते हैं। तब वे पितर भी उनकी ऐसी सहायता पाकर उन्हें हृदय से समृद्धि तथा वंशवृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। 

     जो जीव पितृलोक को प्राप्त हो जाते हैं, उनके लिये प्रदान किये हुए पिण्डों या ब्राह्मण भोजन के सूक्ष्मांश उनके पास पहुँचकर उनको आप्यायित करते हैं, जिनसे वे सुख प्राप्त कर पिण्डदाता तथा श्राद्धकर्ता पुत्रों आदि को आशीर्वाद देते हैं। प्रतिवर्ष क्षयाह के मास एवं तिथि में जो श्राद्ध किया जाता है, उसमें कारण यह है कि तिथि होती है चन्द्रमास के तथा चन्द्रगति के अनुसार उसमें चन्द्रलोक में वे पितर उसी मार्ग या स्थान में स्थित होते हैं, जब वे मरकर उसी तिथि में उस मार्ग या स्थान को प्राप्त हुए थे। तब वे सूक्ष्मानि से प्राप्त कराये हुए उस श्राद्ध के सूक्ष्मांश को अनायास प्राप्त कर लेते हैं। इसीलिये याज्ञवल्क्यस्मृति में कहा है    
                    मृतेऽहनि प्रकर्तव्यं प्रतिमासं तु वत्सरम् ।   
                    प्रतिसंवत्सरं चैवमाद्यमेकादशे ऽहनि ॥
                     वर्षे वर्षे मृततिथौ श्राद्धं कुर्यात् ।

अब इसमे किये जाने वाले कर्तव्य की विज्ञानपूर्णता देखिये श्रद्ध के समय पृथ्वी पर कुश रक्खे जाते हैं। पिण्डों में जौ, तिल, दूध, मधु और तुलसी पत्र आदि डाले जाते हैं। तब श्राद्धकर्ता नित्य पितरों का, यम और परमेश्वर का ध्यान करता है एवं आचार्य वेदमान्त्रों का गम्भीर स्वर से उच्चारण करता है। इस पर यह जानना चाहिये कि चावलों में ठंडी बिजली और जवों में भी ठंडी बिजली होती है। तिलों में गरम बिजली और दूध में भी गरम बिजली होती है। तुलसीपत्र में दोनों प्रकार की विद्युत् होती है। साधारण मनुष्य जब साधारण वचन बोलता है, तो उसके शरीर से न्यून विद्युत उत्पन्न होती है; पर जब कोई वेदवित् कर्मकाण्डी तथा ज्ञानी विद्वान नियत पद प्रयोगपरिपाटी वाले तथा नियत आनुपूर्वीवाले पितृगणों से सम्बद्ध वेदमन्त्रों को पढ़ता है,तब नाभिचक्र से समुत्थित वायु पुरुष के शरीर में उष्ण- विद्युत् उत्पन्न करके उसे शरीर से बाहर निकालता है। इधर वेद के शब्दों के द्वारा विद्वान् ब्राह्मण के शरीर से अलौकिक वैदिक क्रियासिद्ध विद्युत् भी पिण्डों में प्रवेश करती है।इस प्रकार बिजलियों के समूह हो जाने पर मधु की विद्युत उनका मिश्रण करने वाली बनती है। मधु की विद्युत् चावल, जौ, दूध, तिल, तुलसीपत्र तथा वेदमन्त्रों की विद्युतों को मिलाकर एक साथ कर देती है। नीचे कुश इस कारण रखे जाते हैं कि पिण्डों से उत्पन्न विद्युत् पृथ्वी में संक्रान्त न हो जाय। कुशाएँ पिण्डों की विद्युतों को पृथ्वी में नहीं जाने देतीं। 

इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण ने ध्यान के समय ध्यानकर्ता की विद्युत् की रक्षा के लिये 'चैलाजिनकुशोत्तरम्'- कुशा का आसन ऊपर रखने का आदेश दिया है। मधु ने मिलकर जो अलौकिक विद्युत पैदा की थी, वह श्राद्धकर्ता की मानसिक शक्ति द्वारा उधर ही जीती है, जिधर उसका मन जाता है और मन नित्य-पितरों या अपने पितरों तथा यम एवं परमेश्वर के ध्यान में लगा होता है। तब वह बिजली भी इन के पास चमकती है और यम या नित्य-पितर सर्वज्ञ होने से श्राद्धकर्ता के पुत्र आदि के किये हुए श्राद्ध के ब्राह्मण की वैश्वानर-अग्नि से सूक्ष्मकृत अन्न को मृत पितरों के पास तदनुकूल करके भेज देते हैं, चाहे वे पितृलोक में हों या अन्य लोक में अथवा किसी अन्य योनि में हों।
              
         कोई यह शङ्का करे कि मृतक प्राणी श्राद्ध को कैसे पावेगा, जब कि जीवित भी दूसरे से खाये हुए को नहीं पा सकता?' तो इस पर सभी को यह जानना चाहिये कि तर्पण के जल या श्राद्ध के अन्न को जीवित पुरुष स्थूल शरीर मूलक अशक्ति के कारण नहीं खींच सकता, पर मृतक तो सूक्ष्म पितृशरीर को प्राप्त करके आकाश में सूक्ष्मता से ठहरे हुए उसको खींच सकता है। इसके उदाहरण में रेडियो को ले लीजिये। जिसके पास यह यन्त्र होता है, वह इंग्लैण्ड, जर्मनी, रूस, अमेरिका आदि देशों में उसी समय हो रहे हुए शब्दों को खींच सकता है; परन्तु जिसके पास वह यन्त्र नहीं है, वह लंदन आदि में तो क्या भारत में भी हो रहे हुए कुछ दूर के भी शब्दों को खींच नहीं सकता। इसी प्रकार जीवितों के पास दूसरे से दिये हुए श्राद्ध-तर्पण के आकाशस्थ र को खींचने की शक्ति नहीं होती, परंतु मृतकों के पितृलोक में जाने से उनके पास वह शक्ति सूक्ष्मतावश अनायास उपस्थित हो जाती है। स्थूल शरीर में तो वह शक्ति नहीं रहती, परंतु सूक्ष्म शरीर में वह रहती है, इसीलिये युधिष्ठिर स्थूल शरीर के साथ स्वर्ग लोक में विलम्ब से प्राप्त हुए। परंतु भीम अर्जुन आदि मर जाने के कारण स्थूल शरीर के त्याग के कारण युधिष्ठिर से पूर्व ही प्राप्त हो गये यह महाभारत में स्पष्ट है। स्थूल बीज में वृक्षोत्पादन शक्ति नहीं होती, जब वह पृथ्वी में बोया जाकर मर जाता है, तब उसमें सूक्ष्मता आ जाने से वह शक्ति प्राप्त हो जाती है। यह स्थूल तथा सूक्ष्म शक्ति का अन्तर है।

        इस प्रकार स्थूल शरीर के नाश होने पर प्राप्त हुए देव पितृ आदि के शरीर में तो वह शक्ति हुआ करती है। जैसे हम होम करें, तो उसके अग्नि द्वारा आकाश में पहुँचाये हुए सूक्ष्म अंश को सूर्य आदि देव खींच सकते हैं, वैसे ही हमसे किये श्राद्धादि के ब्राह्मण की अग्नि और महाग्नि द्वारा आकाश में प्राप्त हुए सूक्ष्म अंश को चन्द्रलोक स्थित पितर यन्त्र स्थानीय अपनी शक्ति अपनी शक्ति के आश्रय से खींच सकते हैं।

          आधुनिक विज्ञान भी आधार एवं माध्यम को पूर्णतया मानता हैं। टेलीपैथी में यह विज्ञान नहीं तो और क्या है? इस शास्त्रीय विज्ञान का प्रत्यक्ष चमत्कार हमें उस समय देखने का अवसर मिला, जब कई वर्ष पहले विन्ध्याचल में एक सिद्ध महात्मा पधारे थे उनमें यह चमत्कार या देवी सिद्धि थी कि वे साँप के काटे हुए व्यक्ति को ठीक कर देते थे। चाहे वह कितनी ही दूर पर क्यों न हो। जो व्यक्ति उनके पास इस आशय की खबर लाता, मंत्र पढ़कर वे उसके कान पर जोर से थप्पड़ मारते, उधर वह व्यक्ति ठीक हो जाता। समाचार देने वाले व्यक्ति को ही वे माध्यम बनाकर उसे ठीक कर देते। यदि ऐसा सर्पदंशित व्यक्ति उनके पास किसी कारण न लाया जा सकता तो महात्मा जी का कहना था कि माध्यम के आधार पर एवं वायु-तरंग के आधार पर उसका सूक्ष्म सम्पर्क बना रहता है। समस्त वायुमण्डलों में अर्थावा ( इथर) तत्व है ही साधन सिद्ध योगी महात्मा इसी वायुमण्डल में अपना सम्पर्क बराबर बनाये रखते हैं। यह श्राद्धीय शक्ति ऋषियों ने हजारों वर्ष साधे हुए तपस्या, योग आदि के बल के द्वारा प्राप्त की है। इसका कोई भी शास्त्रज्ञ विद्वान खण्डन नहीं कर सकता। जो पितर पितृलोक में न होने से वैसी शक्ति नहीं रखते कि वे सूक्ष्म रूप बनकर श्राद्धान्न भोजन करते हुए ब्राह्मणों के शरीर में प्रवेश कर सकें, किन्तु वे किसी मनुष्यादि के स्थूल शरीर की योनि को प्राप्त कर चुके हों; तब हमारे द्वारा दिये हुए श्राद्ध के अन को वसु, रुद्र, आदित्य ही आकृष्ट करके उन स्थूल योनि वाले पितरों को सौंप दिया करते हैं। इस प्रकार मृतक श्राद्ध रहस्यपूर्ण, सोपपत्तिक और विज्ञानपूर्ण सिद्ध है। वीर मित्रोदय तथा ब्रह्मपुराण में आता है कि विधिपूर्वक श्राद्ध करने वाला आब्रह्मस्तम्बपर्यन्त सम्पूर्ण विश्व को तृप्त कर देता है।

यो वा विधानतः श्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम् । आब्रह्मास्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानवः ॥
 आब हा स्तम्बपर्यन्तं देवर्षि पितृ मानवः । 
तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहोदयः ॥ 

श्राद्ध की वस्तुएँ पितरों को कैसे प्राप्त होती है ? शास्त्रों में बतलाया गया है कि संकल्पप्रोक्त नाम गोत्रों के आधार पर विश्वदेवता तथा अग्निष्वात्तादि दिव्य पितृगण हव्यकव्य को पितरों तक पहुँचा देते हैं। यदि पिता-माता या पितृगण देवयोनि में भी पहुँच गये हों तो यहाँ दिये .गये हव्य-कव्य उन्हें देवभोज्य अमृतादि बनकर संयोग से प्राप्त हो जाते हैं। पशुयोनि में भी वह अभीष्ट तृणादि के रूप में निर्दिष्ट जीव के पास पहुँच जाता है। नागादि योनियों में वह हव्यकव्य वायुरूप से, यक्षयोनि में पानरूप से, पितृलोक में स्वधारूप तथा योनियों में भी वह अभीष्ट तृप्तिकर खाद्य बनकर पहुँच जाता है। नाम गोत्र हृदय की भक्ति श्रद्धा एवं शुद्ध उच्चारित मंत्र हव्य-कव्यों को संदेशसहित विश्ववदेवता एवं अग्रिष्वात्तादि पितरों द्वारा निर्दिष्ट गन्तव्यस्थल तक ढूँढकर वैसे ही पहुँचा दिये जाते हैं- जैसे गोशाला में बछड़ा अपनी माता के पास।


यथा गोष्ठे प्रनष्टां वै वत्सो विन्दति मातरम् । 
तथा तं नयते मन्त्रो जन्तुर्येत्रावतिष्ठ ते ॥ 
नामगोत्रं च मन्त्रश्च दत्तमन्नं नयन्ति तम् । 
अपि योनिशतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति ॥ पितृलोकगतश्रान्नं श्राद्धे भुङ्क्ते स्वधामयम् । 
प्रेतस्य श्राद्धकर्तुश्च पुष्टिः श्राद्धे कृते ध्रुवम् ॥ 
तस्माच्छ्राद्धं सदा कार्य शोकं त्यक्तवा निरर्थकम् ।

पितृगण देवताओं से भी अधिक कृपालु होते हैं। वे अधिक सहयोग भी करते हैं। 'जहाँ श्राद्ध नहीं होता, वहाँ दुःख-क्लेश, रोग होता है, आयु का नाश होता है कोई श्रेय नहीं होता

        न तत्र वीरा जायन्ते आरोग्यं न शतायुषः । 
        न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम् ॥
अतः शाकादि से भी श्राद्ध अवश्य करना चाहिये

तस्माच्छ्राद्धं नरो भक्त्या शाकैरपि यथाविधि ।
कुर्वीत श्रद्धया तस्य कुले कश्चिन्न सीदति ॥
श्रद्धालु हिंदू श्राद्धकर्ता तर्पण एवं श्राद्ध में भावपूर्ण आर्द्रहृदय से कहता है।

ये मे कुले लुप्तपिण्डा: पुत्रदारविवर्जिताः।
तेषां हि दत्तमक्षय्यमिदमस्तु तिलोदकम् ॥ 
ये बान्धवाऽ बान्धवाश्च येऽ न्यजन्मनि बान्धवाः । 
ते तृप्तिमखिला यान्तु मद्दत्तेनाम्बुना सदा ॥
                                                 ( मत्स्य पुराण)
नरकेषु समस्तेषु यातनासु च ये स्थिताः । तेषामाप्यायनायैतद् दीयते सलिलं मया ॥ आब्रह्मास्तम्बपर्यन्तं देवर्षि पितृमानवाः । 
तृप्यन्तु पितरः सर्वे मातृमातामहादयः ॥
 अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् । आब्रह्मभुवनालेकादिदमस्तु तिलोदकम् ॥

अर्थात् जो भी असहाय जीव मेरे कुल के हों, जो मेरे इस जन्म के बन्धु बान्धव हों या उस जन्म के या जो कोई भी बन्धु बान्धवों से रहित हों या जो कोई किसी भी लोक में या नरकादि में यातनाग्रस्त हों, वे मेरे इस श्राद्ध के पिष्ट या तिलजल के तर्पण से पूर्ण दुःखमुक्त एवं पूर्ण तृप्त हो जायँ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्त सभी देवता, पितर, मनुष्य, कीट पतंग, सात द्वीप के निवासी ज्ञातज्ञात ब्रह्मलोक से लेकर भूलोक तक के सभी प्राणी मेरे इस सद्भावपूर्ण श्राद्ध तर्पण से पूर्ण तृप्त आप्यायित एवं सुखी हो जायँ। - पद्मपुराण, उत्तरखण्ड 213-14 अध्यायों में कथा आती है कि एक ऋषिपुत्र ने अपने कई जन्मपूर्व की गोधा-योनि प्राप्त माता का श्राद्ध द्वारा उद्धार किया 'पूर्वजन्मनि या माता पिता यश्च... तयोश्च पितरौ यौ हि... पितामहौ वस्तुतः ऐसी भावना विश्व के अन्य किसी भी धर्म में अत्यन्त दुर्लभ या अप्राप्य ही है। अत्यन्त सद्भाव तथा श्रद्धा से किये जाने के कारण ही इस कर्म का नाम ' श्राद्ध' है प्रज्ञा श्रद्धार्चाभ्योणः । श्रद्धया क्रियते यस्माच्छ्राद्धं तेन प्रकीर्तितम् । श्राद्धकर्ता को आयु, प्रजा, धन, राज्य, ज्ञान, स्वर्ग, मोठ, जातिस्मरता आदि सब प्राप्त होते हैं।
आयुः प्रजां धनं विद्यां स्वर्ग मोक्षं सुखानि च । 
प्रयच्छन्ति तथा राज्यं प्रीता नृणां पितामहाः ॥