जब गुरु या ईष्ट देव की कृपा हो तो वे साधक को कई प्रकार से प्रेरित करते हैं. अन्तःकरण में किसी मंत्र का स्वतः उत्पन्न होना व इस मंत्र का स्वतः मन में जप आरम्भ हो जाना, किसी स्थान विशेष की और मन का खींचना और उस स्थान पर स्वतः पहुँच जाना और मन का शांत हो जाना, अपने मन के प्रश्नों के समाधान पाने के लिए प्रयत्न करते समय अचानक साधू पुरुषों का मिलना या अचानक ग्रन्थ विशेषों का प्राप्त होना और उनमें वही प्रश्न व उसका उत्तर मिलना, कोई व्रत या उपवास (भूखे मरना नहीं ) स्वतः हो जाना, स्वप्न के द्वारा आगे घटित होने वाली घटनाओं का संकेत प्राप्त होना व समय आने पर उनका घटित हो जाना, किसी घोर समस्या का उपाय अचानक दिव्य घटना के रूप में प्रकट हो जाना, यह सब होने पर साधक को आश्चर्य, रोमांच व आनंद का अनुभव होता है. वह सोचने लगता है की मेरे जीवन में दिव्य घटनाएं घटित होने लगी हैं, अवश्य ही मेरे इस जीवन का कोई न कोई विशेष उद्देश्य है, परन्तु वह क्या है यह वो नहीं समझ पाटा. किन्तु साधक धैर्य रखे आगे बढ़ता रहे, क्योंकि ईष्ट या गुरु कृपा तो प्राप्त है ही, इसमें संदेह न रखे; क्योंकि समय आने पर वह उद्देश्य अवश्य ही उसके सामने प्रकट हो जाएगा.
गुरु के पास बैठो, आँसू आ जाएँ, बस इतना ही काफी है।
चरण छूना गुरु के बस, याद रहे भविष्य की कोई आकांक्षा ना हो।
मौन प्रार्थना जल्दी पहुँचती हैं गुरु तक; क्योंकि मुक्त होतीं हैं, शब्दों के बोझ से। गुरु का होना आशीर्वाद है, मांगना नहीं पड़ता, गुरु के पास होने से ही सब मिल जाता है। जैसे फूल के पास जाओ खुशबू अपने आप ही मिलने लगती है उजाले के पास प्रकाश किरण नजर आ जाती है मांगनी नही पड़ती। परमात्मा ने सारी व्यवस्था पहले ही कर के आप को गुरु शरण में भेजा है , मांगने की जरूरत ही नही है बस गुरु के पास जाना, उनकी शरणागति स्वीकार कर लेना, उनके बताये मार्ग पर चलना, हमारा कर्तव्य इतना ही है बाकी सब गुरु और परमात्मा पर छोड़ देना ही उचित है। सब स्वयं ही मिल जायेगा। वो स्वयम ही दाता हैं l
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