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THE FIFTH ELEMENTS

        सूर्य की परम प्रचण्ड ऊर्ध्व किरणें भी जहाँ नहीं पहुँच सकती वहीं पर दिव्य गोलोक मण्डल सुस्थापित है एवं इस दिव्य गोलोक मण्डल का सबसे भव्य एवं परम सुरक्षित स्थान है श्री राधिका भुवन सोलह परम बलशाली गोप द्वारपालों से घिरे हुए इस भुवन में सोलह द्वार हैं एवं प्रत्येक द्वार पर रत्न सिंहासनों पर आरूढ़ लाखों करोड़ों दिव्य गोप" गोपियों द्वारा सेवित द्वारपाल सदा सतर्क रहते हैं एवं यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी जब प्रथम द्वार पर पहुँचते हैं तब परब्रह्म परमेश्वर श्रीकृष्ण की आज्ञा के बिना द्वारपाल उन्हें श्री राधिका के भुवन में प्रविष्ट ही नहीं होने देते हैं। सर्वप्रथम द्वारपाल परब्रह्म परमेश्वर श्रीकृष्ण से सलाह मशविरा करते हैं उसके पश्चात् ही ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र श्रीकृष्ण मनोहारिणी के दर्शन हेतु प्रविष्टि पाते हैं। ग्यारहवें द्वार पर परम श्रीकृष्ण भक्त सुदामा क्षेत्रपाल के रूप में सुरक्षा करते हैं। बारहवें द्वार पर श्रीदाम नामक परम कृष्ण भक्त सदा करोड़ों गोपों के साथ चौकस रहते हैं। तेरहवाँ द्वार पार करने के पश्चात् गोपी मण्डल का प्रादुर्भाव होता है। रासेश्वरी राधा के शरीर से उत्पन्न लाखों गोपियाँ श्री राधिका भुवन की सुरक्षा, सेवा, देखभाल इत्यादि में सदा तत्पर रहती हैं एवं इन गोपियों का सौन्दर्य ब्रह्माण्ड की अनेक देवियों को भी मूर्च्छित कर देने वाला होता है और सबकी सब हाथ में बेंत ली हुई होती हैं। अंत में श्री राधिका की तैंतीस परम विश्वसनीय गोप सखियाँ उन्हें आवरण में लिए हुई होती हैं। ये गोप सखियाँ साये के समान श्री राधिका के इर्द-गिर्द विराजमान रहती हैं एवं ये उनकी ही अंशभूता हैं। 

           श्रीराधिका को पूर्ण समर्पित, श्री राधिका के मनोभावों को समझने वाली, श्री राधिका का श्रृंगार करने वाली, श्री राधिका की प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति करने वाली, श्री राधिका का चॅवर डुलाने वाली इन तैंतीस सखियों में भी अष्ट सखियाँ अति विशिष्ट हैं जो कि श्री राधिका के समान समरूप सौन्दर्यमयी हैं। गोलोक मण्डल में पूर्ण समर्पण है एवं स्व सुख की इच्छा नहीं है। श्री राधिका के सुख हेतु, श्री राधिका की प्रसन्नता हेतु ही प्रत्येक गोप एवं गोपियाँ क्रियाशील रहते हैं और श्री राधिका भुवन के मध्य में नीलमणि युक्त रत्न सिंहासन पर नीली आभा बिखेरती हुई श्री राधिका सिंहासनारूढ़ होती हैं। केवल परब्रह्म परमेश्वर श्री कृष्ण ही स्वेच्छा से, स्वतंत्रता से, जब चाहें तब श्री राधिका भुवन में आ जा सकते हैं। ब्रह्माण्ड का सबसे सुरक्षित, सबसे कवचित, सबसे पवित्र स्थान है श्री राधिका भुवन, वास्तविक द्वारिका यही है, वास्तविक दुर्ग यही है। सोलह अभेद द्वारों से युक्त परम ब्रह्माण्डीय द्वारका क्यों परब्रह्म परमेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण ने श्री राधिका भुवन को इतना अभेद बनाया, इतने द्वारों से युक्त किया, इतना दुर्लभ बनाया? वह इसलिए कि अनंत ब्रह्माण्डों का सबसे दुर्लभतम् तत्व अर्थात पंचम पुरुषार्थ अर्थात प्रेम की घनीभूत मूर्ति हैं श्री रासेश्वरी राधिका। 

         धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पुरुषार्थ तो ब्रह्माण्ड के सभी ग्रहों को, सभी लोकों को सम्पूर्णता के साथ परब्रह्म परमेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण ने प्रदान किए पर परम गोपनीय पंचम् तत्व (THE FIFTH ELEMENTS ) अर्थात विशुद्ध प्रेम, परम प्रेम अर्थात पंचम् पुरुषार्थ रूपी श्री राधिका को स्वयं अपने लिए रखा किसी और के लिए नहीं। केवल कृष्ण की राधा कृष्ण हेतु राधा यही है पंचम् पुरुषार्थ का रहस्य हाँ यह अब भी गोपनीय है ब्रह्माण्ड का प्रत्येक जीव प्रत्येक ग्रह श्री कृष्ण उपासना इसलिए करता है कि एक बार उसके जीवन में पंचम् पुरुषार्थ आ जाये, वह प्रेममयी हो जाय, चारों वेद भी गोपनीय रूप से पंचम् पुरुषार्थ अर्थात पंचम् वेद की भूरी-भूरी प्रशंसा करते हैं, उसे पाने के लिए सदा लालायित रहते हैं, पंचम् पुरुषार्थ परब्रह्म परमेश्वर प्रभु श्रीकृष्ण की आत्मा है, यह उनकी गोपनीय शक्ति है। 

        विशुद्ध राधिका सानिध्य ही उन्हें परब्रह्म परमेश्वर के रूप में परिवर्तित करता है, प्रभु श्रीकृष्ण की लीला हैं श्री राधिका कृष्ण ही जिनकी पूजा हैं, कृष्ण ही जिनकी उपासना हैं, कृष्ण ही जिनकी दृष्टि हैं, कृष्ण ही जिनकी श्वास हैं, कृष्ण ही उनका भोजन हैं जो कुछ हैं श्रीकृष्ण ही हैं, कृष्ण के सिवा कुछ नहीं कृष्ण से उदित कृष्ण में ही विलीन जिनकी नियति है। गोलोक में सर्वप्रथम कृष्ण के वामांग से ही श्रीराधिका का उदय हुआ और उदय होते ही श्रीकृष्ण चरण धावन हेतु दौड़ पड़ीं इसलिए श्रीराधा कहलाईं "रा का तात्पर्य है निर्वाण एवं धा का तात्पर्य है दान" जो निर्वाण दान कर सकती हैं वह परम शक्ति हैं श्रीराधिका प्रेम में तो निर्वाण हो ही जाता है, निर्वाण प्रेम के बिना सम्भव ही नहीं है।

        ध्यान रहे मोक्ष, पाँच प्रकार के मोक्ष, मुक्ति, नाना प्रकार की मुक्ति इत्यादि से भी उच्च अवस्था है निर्वाण निर्वाण के बाद ही निर्माण प्रारम्भ होता है। जो निर्वाण की बात करते हैं वे मोक्ष, मुक्ति, सायुज्य, लोक यात्रा इत्यादि के पचड़े में नहीं पड़ते। हे कुल गामिनी, हे कुलीना कृष्ण को तो तूने अपने कुल में स्थापित कर लिया है, कृष्ण तेरे कुल का है। कृष्ण प्राप्ति हेतु लोग नाना प्रकार के प्रपंच करते हैं परन्तु कृष्ण प्राप्त नहीं होते, स्वप्न में भी नहीं आते, दर्शन भी नहीं देते। क्यों देंगे वे दर्शन ? वे तो श्री राधिका भुवन में श्री रासेश्वरी के हृदय मण्डल में कवचित हो विलास कर रहे हैं.. विहार कर रहे हैं अन्य है ही नहीं। श्री रासेश्वरी के भुवन मण्डल को कौन भेद सकता है ? तपस्वियों का ज्ञान भी नहीं, विज्ञानियों का विज्ञान नहीं, सिद्धों की सिद्धियाँ नहीं अतः हे कुल गामिनी रासेश्वरी एक दिन थकहारकर समस्त देवता, त्रिदेव, समस्त देवियाँ, योगी सिद्ध ऋषि इत्यादि अपना सारा तप, अपना सारा ज्ञान, अपनी सारी सिद्धि, अपनी सारी विद्या, अपना सारा चिंतन, अपना सारा विज्ञान इत्यादि तेरे चरणों में सम्पूर्णता के साथ अर्पित कर देते हैं और कहते हैं हे रासेश्वरी हमें गोप बना लो, हमें गोपी बना लो, हमें जगत गुरु परब्रह्म परमेश्वर श्रीकृष्ण की झलक दिखा दो, हमें अपने कुल में शामिल कर लो। 
           लोग रोते हैं, विरह को भोगते हैं, स्तम्भित हो जाते हैं, सब कुछ छोड़ देते हैं, सबसे मुक्त हो जाते हैं, मूच्छित हो जाते हैं महाभाव में आ जाते हैं, किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं, कभी चीखते हैं तो कभी आल्हादित होते हैं, कभी धूलि में लोटते हैं। कब दिन हो जाता है, कब रात ये भी भूल जाते हैं। सारा अहम् बह जाता है, मैं क्या हूँ? यह भी छूट जाता है, तुम कौन हो ? यह भी भूल जाते हैं तब जाकर कर्म बंधन कटते हैं और साधक प्रेम की धारा में बह उठता है, प्रेममय हो जाता है एवं उम्र की सीमा, जन्म की सीमा, जात की सीमा, वर्ग की सीमा, अर्थ की सीमा, काम की सीमा, भोग की सीमा, मोक्ष की सीमा इत्यादि से परे हो जाता है। कुल छूटता है, घर बार छूटता है तब जाकर श्रीराधिका के महाकुल में स्थान मिलता है और साधक गोप बन जाता है, गोपी बन जाता है अनावृत्त हो जाता है।

        जब समस्त सांसारिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक गोपनीयताओं का अंत होता है तब जाकर योगमाया अनावृत्त गोप मण्डल में गोप और गोपी के रूप में साधक को प्रतिष्ठित करती हैं। मस्तिष्क में तो नाना प्रकार के नृत्य हैं कभी बल नृत्य करता है, कभी अहम नृत्य करता है, कभी समाज नृत्य करता है, कभी ज्ञान नृत्य करता है, कभी विज्ञान नृत्य करता है, कभी योग नृत्य करता है परन्तु जब पंचम पुरुषार्थ अर्थात श्री राधिका का विशुद्ध प्रेम मस्तिष्क में प्रवाहमान होता है तो सारे उल्टे सीधे नृत्य भाग खड़े होते हैं, उनके पैर फिसलने लगते हैं, उनकी ताल गड़बड़ा जाती है और मस्तिष्क इन कृत्रिम नृत्यों से, इन क्षणिक नृत्यों से विमुख हो जाता है। हाँ साधक को लगता है कि नृत्य छिन गया, कहीं कुछ हो गया क्योंकि वह आदी होता है इन बेढंगे नृत्यों का, उसने नहीं देखा होता महानृत्य, उसने नहीं देखी होती रसेश्वरी की महानृत्य लीला | वह जिन्हें नृत्य समझता है वह नृत्य नहीं अपितु कठपुतली का खेल है, परतंत्रता है, दूसरों की अंगुलियों पर हाथ पाँव हिलने की प्रक्रिया है, इसमें स्व आनंद नहीं है अपितु दूसरों के आनंद के लिए, दूसरों के सुख के लिए हिलने डुलने की प्रक्रिया है। स्व के लिए नृत्य, स्व के लिए थिरकन तो कुछ अलग ही है जिसने चखा वही जानता है।

        प्रेम से बढ़कर कुछ नहीं है, प्रेम नहीं मिला, पंचम् पुरुषार्थ नहीं मिला श्री राधिका नहीं मिली तो फिर क्या मिला? कृष्ण अर्थात परब्रह्म परमेश्वर अर्थात जगत गुरु से साक्षात्कार सम्भव नहीं है। क्यों इतनी बेचैनी? क्यों इतनी छटपटाहट ? क्यों इतनी विकलता ? क्यों इतनी हृदय में असहनीय पीड़ा होती है? सब कुछ तो है पास में, चारों पुरुषार्थ का अनुसंधान तो कर लिया इस पृथ्वी पर अनेकों राजाओं ने,, अनेकों महानुभावों ने फिर भी कहीं कुछ छूट रहा है इसकी पीड़ा तो महसूस होती है। हे रासेश्वरी तेरा कृष्ण वास्तव में जगत गुरु है, वह कसक बाकी रखता है। कहीं न कहीं कसक रह ही जाती है, कहीं न कहीं कुछ अप्राप्त की कसक बनी ही रहती है और इसी कसक को ढूंढते-ढूंढते, पहचानते पहचानते न जाने कितने जन्म लेने पड़ते हैं पर कसक बनी रहती है।

        क्या है वह कसक ? क्या है वह दुर्लभतम् ? जिसकी खोज है हमें। लोगों ने अथाह ज्ञान अर्जित कर लिया, अनेक विवाह कर लिए, पृथ्वी के इस छोर से उस छोर तक राज्य स्थापित कर लिया, धन का अम्बार लगा दिया यश, ऐश्वर्य, कीर्ति, सिद्धियों इत्यादि से अपनी झोलियाँ भर ली फिर भी भिखमंगे रह गये, भीख मांग उठे हे रसेश्वरी राधिका तेरे चरणों में उड़ेल दिया सबने सब कुछ और मांग ली भिक्षा पंचम् पुरुषार्थ की तपों में महातप, योगों में महायोग, लयों में महालय, ज्ञानों में महाज्ञान, विज्ञान में परा विज्ञान है पंचम पुरुषार्थ अर्थात विशुद्ध प्रेम एवं इसके अभाव में कोई पुरुष पूर्ण नहीं है वह सिर्फ अधूरा है, हाँ आधा अधूरा है। 

        मारो राम, तीर मारो रावण के हृदय में, भेद दो इसका सीना अपने तीक्ष्ण बाणों से कह उठे लक्ष्मण, हनुमान, विभीषण प्रभु श्री राम से हे राम तुम रावण के सिर काट रहे हो, अंग-अंग पर प्रहार कर रहे हो परन्तु हृदय को क्यों नहीं भेदते ? उसके हृदय पर एक भी बाण नहीं मारा, ऐसा क्यों ? हमारी समझ में नहीं आ रहा है। राम मुस्कुरा उठे और बोले वह मेरा ही गोप है श्री राधिकोपासना कर रहा है, हृदय में राधिका रूपी सीता को विराजित किए हुए हैं उसकी उपासना का अपना ढंग है, मुझे उसकी आँखों में सीता के प्रति प्रेम दिखाई पड़ रहा है, अध्यात्म को समझो जब तक सीता उसके हृदय में विराजमान हैं यह राम उसका हृदय नहीं भेद सकता, कैसे चलाऊं बाण उसने तो सीता प्रेम में महा त्याग किया है, पुत्र खोये, पौत्र खोये, राज्य खोया, सेना खोई, ज्ञान खोया, कीर्ति खोई, सब कुछ तो अर्पित कर दिया श्री सीता के चरणों में और अंत में स्वयं के प्राण भी अर्पित करने आ गया। 

        यह पंचम् पुरुषार्थ का साधक है, चारों वेदों को पार कर गया है, यह अमृत्व प्राप्त करेगा, यह महाज्ञानी है। जब तक राम की कीर्ति रहेगी रावण भी याद किया जाता रहेगा। राम ने रावण की नाभि में तीर मारा हृदय में तीर नहीं मारा और रावण पंचम् पुरुषार्थ सिद्ध हो गया, हारते-हारते भी जीत गया पुनः श्री राधिका के गोप मण्डल में द्वारपाल बन गया, यह ..तो गर्ग संहिता भी कहती है, श्रीमद्देवी भागवत भी कहती है, ब्रह्म वैवर्तपुराण भी कहता है बस रावण की श्री राधिकोपासना को देखने के लिए पथराई आँखें छोड़नी पड़ेंगी, वह श्री राधिका के कुल में भी स्थापित में हो गया। वह राधिका रूपी श्री सीता के लिए रोया, हाथ पाँव जोड़े, पीछे-पीछे दौड़ा, जीते जी जाने नहीं दिया श्री सीता को लंका से, मृत्यु के बाद ही श्री राम ले जा सके। श्री सीता से जबरदस्ती नहीं की अपितु उसने पूजा, उसने उपासना की, उसने आराधना की । वह तो उस दिन का इंतजार कर रहा था कि कब पंचम् पुरुषार्थ की घनीभूत मूर्ति श्री सीता जीवित, जागृत, स्पंदित होती हुईं पृथ्वी पर अवतरित हों और वह वास्तविक उपासना कर सके। इसी आस में वह जी रहा था, वह महा तत्वज्ञानी था।

           राम आगे-आगे चलते हैं एवं राधिका स्वरूपिणी श्री सीता बीच में चलती हैं और लक्ष्मण पीछे-पीछे। वनवास के समय वन में ये तीनों एक सीध में गमन करते हैं, लक्ष्मण प्रभु श्रीराम से परम प्रेम करते हैं परन्तु श्री सीता के बीच में आ जाने के कारण वह प्रभु श्री राम के दर्शनों से विमुख हो जाते हैं और उनकी दृष्टि प्रभु श्रीराम पर नहीं पड़ पाती । . वे भाव विह्वल हो जाते हैं, उनका हृदय मथ उठता है, वे तड़फ उठते और जब श्री सीता थोड़ा सा बाजू में होतीं तब जाकर लक्ष्मण नैन भरकर प्रभु श्री राम के दर्शन कर पाते। यही जीवन है आगे-आगे परब्रह्म परमेश्वर बीच में महामाया और पीछे-पीछे जीव ।

           महामाया जब बगल में होती हैं, कृपा करती हैं, आवरण हटाती हैं तब जाकर परब्रह्म परमेश्वर के दर्शन हो पाते हैं। श्री राधिकोपासना से सबको गुजरना ही पड़ता है यही नियति है गोप मण्डल में प्रविष्टि हेतु, हिंसा से परे होने हेतु । आ गया महाभाव प्रभु श्री राम को शुरु हुआ श्री राधिका पूजन, चढ़ गया पंचम् पुरुषार्थ का रंग, हो गये प्रेममयी एवं श्री सीता के विरह में वन-वन घूमने लगे विक्षप्तों की भांति । पेड़ पौधों से बातें करने लगे, हे हवा-हे वायु कहाँ हैं मेरी सीता पता बता मुझे, हे वृक्ष क्या तूने उसे देखा, हे बहते हुए झरने क्या कभी तूने उनके पैरों की आहट सुनी है, नील गगन में उड़ते पंछियों क्या तुम्हें मेरी सीता दिखाई देती है ? मैं तो नहीं थ पर तुम सब तो यही थे, तुम सब तो जड़ हो ना फिर तुमने कैसे नहीं देखा ? मेरी सीता का कोई तो पता बता दे, कहाँ है ? किस हाल में है? कैसी है ? क्या मुझे याद करती है ? 

            लक्ष्मण परेशान हो गये प्रभु श्रीराम के महाभाव को देखकर वे, हनुमान एवं समस्त वानर दल, समस्त पृथ्वी का कण-कण साक्षी है प्रभु श्रीराम के पंचम पुरुषार्थ की उपासना का । मैं कौन हूँ? प्रभु आप श्री राम हैं अयोध्या के राजकुमार लक्ष्मण कह उठे, तुम कौन हो ? राम ने पुनः कहा मैं आपका सेवक हूँ लक्ष्मण कह उठे, हम यहाँ क्या कर रहे हैं? पुनः प्रभु श्रीराम कह उठे, हे प्रभु हम जगत जननी सीता को ढूंढ रहे हैं कौन सीता ? राम कह उठे । श्री लक्ष्मण चकरा गये, वे नहीं सहन कर पाये प्रभु श्रीराम का महाभाव और जोर-जोर से विलाप करने लगे। राम पुनः कह उठे हे लक्ष्मण तुम विलाप क्यों कर रहे हो, क्या करते बेचारे श्रीलक्ष्मण वे भी उनके साथ महाभाव में आ गये। 

          सभी को गुजरना पड़ता है प्रेम की सकरी गलियों में से। रातों की नीदें उड़ जाती हैं, दिन का चैन उड़ जाता है, कण्ठ हकलाने लगता है, हृदय इतना तेज धड़कता है कि न जाने कब फट जाये, बेचैनी इतनी होती है कि पृथ्वी के वायु मण्डल को भी भेदकर निकल जाने की इच्छा होती है, सब कुछ शून्य हो जाता है और साधक मूर्च्छित होकर गिर पड़ता है, आँखों से | इतने आँसू बहते हैं कि लगता है मानो गंगा अंदर ही फूट पड़ी हो । गौरांग प्रभुपाद श्रीराधा-कृष्ण के विग्रह के सामने खड़े होकर सोलह वर्ष तक रोते रहे, अश्रु धारा बहती रही, इतने आँसू गिरे कि सामने पत्थर पर बना हुआ गड्ढा भर गया। दिन भर में जल पीते होंगे एक लोटा और आँसू बहते होंगे 100 लोटों के बराबर । कहाँ से आया इतना जल आँखों में, यह श्रीराधिका ही जाने। श्रीराधिकोपासना, श्रीराधा का मार्ग ब्रह्माण्ड का सबसे कठिन मार्ग है परन्तु इसी मार्ग पर परब्रह्म परमेश्वर श्रीकृष्ण मिलते हैं वंशी बजाते हुए ।

                   तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा                
                      एको ही निखिलम द्वितीयो नाऽस्ति
                          शिव शासनत: शिव शासनत:
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