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ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।

जो परिस्थितियों से लड़ा वही जीता

       इस जीवन का एक-एक क्षण बहुत मूल्यवान् है। मनुष्य को चाहिए वह पुरुषार्थ के बल पर इसकी पूरी कीमत लेने का प्रयत्न करें।समुद्र की तरह जीवन-मन्थन करने से भी मनुष्य को सुख-शान्ति के असंख्यों रत्न मिलते हैं। जीवन-मन्थन का अर्थ है- सामने आए हुए संघर्षों तथा बाधाओं से अनवरत लड़ते रहना।जो प्रतिकूलताओं को देखकर डर जाता है, मैदान छोड़ देता है, वह जीवन की अनन्त उपलब्धियों में से एक कण भी नहीं पा सकता।मानव-जीवन एक दुर्लभ उपलब्धि है। एक अलौकिक अवसर है। यह बात ठीक-ठीक उन्हीं लोगों की समझ में आती है, जो इसका सदुपयोग करके इस लाभ को प्रत्यक्ष देख लेते हैं। मानव जीवन का क्या महत्व है? इसको केवल दो व्यक्ति ही बता सकते हैं, एक तो वे जिन्होंने इसके चमत्कारों को अपने अनुभवों में स्पष्ट देखा है, दूसरे वे जो इसे व्यर्थ में बर्बाद करके इसके अन्तिम बिन्दु पर पहुँचकर पछता रहे हैं।जीवन की बहुमूल्य विभूतियांँ पाने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए, अपने को पूरी तरह से दाँव पर लगा देना चाहिए। जो इसकी निधियाँ प्राप्त करने का संकल्प लेकर कार्य में जुटा रहता है, वह अवश्य सफल और सुखी होता है। मानव जीवन अमोल रत्नों का भण्डार है। अपरिमित विभूतियों का विधान है, किन्तु इसकी विभूतियांँ उसे ही प्राप्त होती है, जो उनके लिए प्रयत्न करता है, उनके लिए पसीना बहाता है। आलसी और स्थगनशील व्यक्ति इसकी एक छोटी सी सिद्धि भी नहीं पा सकता। जो साहसी है, सतर्क और सावधान है, मानव जीवन की अनन्त विभूतियांँ केवल वही पा सकता है, जीवन-रण में केवल वही विजय प्राप्त कर सकता है, जो किसी भी परिस्थिति में हिम्मत नहीं हारता। जीवन उसी का सफल होता है, जिसके यापन के पीछे कोई सदुद्देश्य अथवा कोई ऊंँचा लक्ष्य रहता है।

पं श्री राम शर्मा आचार्य

सूरदास जी कृत हरि और शिव की सुन्दर स्तुति ।।

हरिहर सङ्कर नमो नमो

श्रीहरि और श्रीशङ्कर एक ही स्वरूप (चैतन्य) से अवस्थित है। इन दोनों शङ्करों को मेरा (सूर का) प्रणाम है। 

अहिसायी अहि-अङ्ग-विभूषण, अमितदान, बलविषहारी ।

दोनों में बहुत साम्य है। भगवान् विष्णु शेषनाग की शैय्या बनाकर विश्राम करते हैं और भगवान शंकर नागो को अङ्गों पर भूषण बनाकर धारण करते हैं। भगवान् जगत् का पालन करते हुए सबको अनन्त दान करने वाले हैं तो भगवान शङ्कर ने प्रचण्ड विषपान कर सम्पूर्ण सृष्टि को प्राणदान किया। 

नीलकण्ठ, बर नीलकलेवर; प्रेम परस्पर, कृतहारी ।

श्रीकृष्ण का सारा शरीर नीले रङ्ग का है, उधर शङ्कर ने भीषण विषपान करके अपने को नीलकण्ठी बना रखा है। ये दोनों ही प्रभु एक दूसरे से समान प्रेम करते हैं, दोनों ही अशुभ कर्मों का नाश करने वाले हैं। 

चन्द्रचूड़, सिखि-चन्द्रसरोरुह; जमुनाप्रिय, गङ्गाधारी ।

ये दोनों समानधर्मी हैं। एक तो मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करते हैं तो दूसरे चन्द्रकला जैसे मोरपङ्खों को अपने मस्तक पर धारण किए रहते हैं। एक को यमुना प्रिय है तो दूसरे गङ्गाधारी हैं। एक गायें चराने जाते हैं तो उनका सम्पूर्ण शरीर गायों की रेणु से मण्डित है और दूसरे भस्म से विभूषित हैं। 

सुरभिरेनुतन, भस्मविभूति; वृषवाहन, वनवृषचारी ।

भगवान् शङ्कर बैल की सवारी करते हैं तो श्रीकृष्ण जङ्गल में बछड़े चराते हैं। ये दोनों एक जैसे हैं। अजन्मा, अनीह, कृपालु और एकरस। इन दोनों के कामों के कोई अन्तर नहीं है। 

अज अनीह अविरुद्ध एकरस, यहँ अधिक ये अवतारी ।
सूरदास सम-रूप-नाम-गुन, अन्तर अनुचर-अनुसारी ।।

किन्तु विष्णु में एक बात अधिक है, यह अवतारी हैं और शिव उनके अंश अवतार।
सूरदास कहते हैं - “रूप, नाम और गुण तीनों इन दोनों में समान हैं, केवल अन्तर यह है कि एक अनुचर हैं और दूसरा उसके स्वामी अनुसरण करवाने वाले ।