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श्री यंत्र ।।

         मनुष्य समाज में शब्दों को लेकर सबसे ज्यादा भ्रांति चारों तरफ देखने को मिलती है। अगर हम यंत्र का नाम लेते हैं, मंत्र के बारे में चर्चा करते हैं या फिर यंत्र का उपयोग बताते हैं तो लोग या तथाकथित बुद्धिजीवी तुरत ही आपके बारे में एक विशेष नकारात्मक मानसिकता का निर्माण कर लेते हैं। इसमें बहुत कुछ दोष उन ठगों और तथाकथित अध्यात्मिक संस्थानों और धर्म के ठेकेदारों का भी है जो कि प्रत्येक विद्या के शून्य मात्र ज्ञान के अभाव में भी प्रवचन देते हैं। अध्यात्म को स्वयं की महत्वाकांक्षा पूर्ति का साधन समझते हैं। परंतु एक बात स्पष्ट रूप से समझ लीजिये किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है जब तक लोग मूर्ख बनते रहेगें, मूर्ख बनाने वाले भी पैदा होते रहेगें। ऐसा आदिकाल से चला आ रहा है। और आदिकाल तक हमेशा चलता रहेगा, इसमें भी दो मत नहीं है। हर युग में ठगों की भरमार होती है। इसका मतलब यह नहीं है कि किसी विशेष ज्ञान, तकनीक का अस्तित्व ही नहीं है। 
  
          अध्यात्म में अस्तित्व, अनास्तित्व जैसे तथाकथित शब्दों के लिये स्थान ही नहीं है। जो कल था वह आज है कल भी रहेगा। ब्रह्मण्ड लीलाधारी क्रिया से भरा हुआ है। आपको सत्य स्वय पहचानना होगा जब आप सत्य पहचानने के लिये या समझने के लिये अंदर से उठेगें तो ईश्वर कृपा से मार्ग में आये अवरोधों को हटाने वाले भी स्वयं ही उत्पन्न हो जायेंगे। अस्तित्व और अस्तित्व शून्यता व्यक्ति विशेष की मानसिक स्थिति या साक्षात्कार पर निर्भर होती है।

       आज आप किसी क्षण विशेष में शक्ति विशेष का प्रदर्शन करते हैं तो आपको लगता है कि अमुक शक्ति अस्तित्व में है अन्यथा आपका मन डावाँडोल ही होता रहता है। यह आपका सौभाग्य है कि आपने शक्ति विशेष से साक्षात्कार प्राप्त किया परंतु यह जरूरी नहीं है कि आपके परिवार या मित्र भी उस शक्ति विशेष का आश्रय पा लें। चाहे वे आपके साथ ही क्यों न खड़े हों। सभी तांत्रिक हैं। सभी मंत्र पर निर्भर हैं एवं सभी मंत्र शक्ति का उपयोग कर रहें है। इनके अभाव में जैविक संरचना तो क्या अन्य संरचनायें भी सेकेण्ड के करोड़ेवें हिस्से में भी जीवित नहीं रह सकती। ब्रह्माण्ड का प्रत्येक गृह निश्चित ज्यामिती में निश्चित दूरी में स्थित रहकर परिक्रमा कर रहा होता है। प्रत्येक कोशिका का छोटे से छोटा हिस्सा भी अणु परमाणुओं के निश्चित क्रम से आबद्ध है। आपको बीज में मौजूद अनुवाशिक गुण एक निश्चित संरचना लिये हुये हैं। सदगुरु देव ने ठीक ही कहा है जीवन में सब कुछ निश्चित है। 

         आपकी आशुवांशिकता में या फिर प्रत्येक जैविक संरचना की अनुवाशिकता में परिवर्तन इतना निश्चित है कि समय आने पर शरीर की प्रत्येक कोशिका स्वयं कार्य करना बंद कर देगी। जन्म होते से ही प्रत्येक क्षण आने पर कोशिका एक निश्चित स्वरूप धारण करती जायेगी। जैविक तकनीक में परमता है परमतत्व की उपासना इसीलिये गुरु मंत्र में की जाती है। जैसे-जैसे विज्ञान अपने कदम बढ़ाते जा रहा है वैसे-वैसे लोग वेदो और ऋषियों की वाणी बोलने लगे है। जैसे-जैसे अनुवाशिक विज्ञान में शोध होते जा रहे हैं पाश्चात्य सभ्यता मंत्र, तंत्र और यंत्र के प्रति नतमस्तक होती जा रही है। शक्ति मनुष्य की प्रारंभिक आवश्यकता है। शक्ति को आप देव कहते हैं, देवी कहते हैं एवं इस शक्ति को आप अपने लिये विशेष लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उपयोग करना चाहते हैं और करना भी चाहिये उसके लिये आपको तकनीक की आवश्यकता पड़ेगी। तकनीक का निर्माण यंत्र की उत्पत्ति करेगा। बिना यंत्र के तकनीक हो ही नहीं सकती। ब्रह्माण्ड में मौजूद चेतना को अगर पंचभूतों का शरीर न प्राप्त हो तो फिर सब कुछ अद्वैत ही होगा। 

            शरीर की आवश्यकता तो आवश्यक है। शरीर के माध्यम से ही शक्ति परिवर्तनकारी हो सकती है। यंत्र को आप शरीर के रूप में अच्छी तरह समझ सकते हैं। शक्ति का निर्माण मनुष्य नहीं कर सकता कदापि यह संभव नहीं है। हां, पर तकनीक और यंत्र के सहारे वह उसे समायोजित कर सकता है। उसकी तीव्रता घटा या बढ़ा सकता है। उसे कार्य विशेष या लक्ष्य सिद्धि के लिये उपयोग कर सकता है। आपके मस्तिष्क के अग्र भाग में दोनों तरफ समस्त गणनाओं के कार्य संपन्न होते हैं। इन दो हिस्सों के अलावा तीसरा हिस्सा तो उपलब्ध नहीं है परंतु तकनीक और कम्प्यूटर रूपी यंत्र के सहारे आप तीसरा क्या चाहे जितना गणना संबंधित कार्य कर सकते हैं। ऐसी अद्भूत शक्ति आपके जीवन में उपलब्ध है जिसके द्वारा आप मस्तिष्क की प्रत्येक क्षमता को बाहरी आयाम देकर असंख्य गुना बढ़ा सकते हैं। यही यंत्र का महत्व है। ठीक इसी प्रकार आपके अंदर उपलब्ध अनेको सम्भावनायें अध्यात्मिक तौर पर मंत्र, तंत्र और यंत्र के द्वारा बढ़ाई जा सकती हैं।

            ऐसा संभव नहीं है कि प्रत्येक मस्तिष्क अति में विकसित हो। मस्तिष्क का विकास लंबी प्रक्रिया है। सदियां बीत जाती हैं। योग, उपवास, ध्यान, समाधि, प्राणायाम भिन्न-भिन्न पूजा विधियां प्रत्येक का महत्व यही है कि मस्तिष्क को एक दूसरे आयाम का बोध कराया जाय। उस आयाम में मस्तिष्क क्या ग्रहण करता है, कैसे क्रिया करता है और किस प्रकार दृश्य विशेष को देखता है यही आवश्यक है। आप 365 दिन भोजन करते हैं तो फिर शरीर में अन्नमय कोष में ही क्रियाशील रहेगा। तीन दिन भोजन छोड़कर देखिये किस प्रकार मस्तिष्क क्रिया संपन्न होती है। पूरी की पूरी सोच ही बदल जायेगी। प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया भिन्न हो जायेगी। ठीक इसी प्रकार सिर के बल खड़े होकर देखिये पता चला सारी प्रक्रियाऐं शरीर के अंदर एकदम बदली हुई नजर आयेगी। चाहे वायु का बहाव हो, नदियों की गति हो या फिर ऋतु परिवर्तन हो इत्यादि इत्यादि सबकी सब क्रियायें तंत्र विशेष में ही संपन्न होती हैं। एक तंत्र में थोड़ा सा बदलाव या फिर नदी की धारा का थोड़ा सा भी मार्ग का बदलना, करोड़ो अरबों उससे जुड़े हुये तंत्रों को बदलकर रख देगा तंत्र स्थूल ही नहीं होते हैं। अति सूक्ष्म अति संवेदनशील तत्रों और आवृत्तियों का जाल आपके चारों तरफ बिहा हुआ है। इन तंत्रों को सफलता पूर्वक संचालित करना इन तंत्रों में से शक्ति को सफलता पूर्वक प्राप्त करना ही सिद्धि है और तंत्रों को भेदकर निकल जाना परम सिद्धि है। 

         शुरू में आप श्री यंत्र को पूजें फिर उसे शरीर में उतार लें। प्रत्येक कण या रक्त की बूंद में उसका स्थापत्य हो इसके पश्चात उसे संप्रेषित करने की ताकत आपमें विकसित होनी चाहिये तब जाकर यंत्र सिद्धि पूर्ण मानी जायेगी। विश्वामित्र ने अनेकों वर्ष की तपस्या के पश्चात् गायत्री मंत्र को प्राप्त किया और फिर जन साधारण में वितरित कर अमर हो गये। ऐसा ही बुद्ध ने किया सबने पहले स्वयं शक्ति को आत्मसात किया और उसके पश्चात् शक्तिकृत होकर जनसाधारण को भी शक्तिवान किया। आप पुस्तकों के माध्यम से प्रवचनों के माध्यमों से या अन्य माध्यमों से जो कि यंत्र का प्रतीक है, स्वयं के जैविक यंत्र रूपी शरीर को ज्ञानवान बनाते है या ज्ञान से शक्तिकृत करते हैं फिर उसे फैलाने का कार्य करते हैं। तकनीक जैविक हो या मानव निर्मित दोनों ही शरीर से जुड़ी हुई है। मानव निर्मित तकनीकों पर तो बहुत ही अच्छा कार्य हुआ है। इसमें दो मत नहीं है परंतु जैविक तकनीक का तो समझने में अभी हम शैशव अवस्था में हैं। इन दोनों का समिश्रण ही एक नये मनुष्य को जन्म देगा। 

         आने वाला युग पूर्ण रूप से तंत्रमय है। तंत्रमय युग में यंत्र रूपी शरीर और मंत्र रूपी शक्ति तो निश्चित तौर पर अति परिष्कृत अवस्था में समायोजित होगी तभी मानव ब्रह्माण्ड के अनेकों ग्रहों पर अस्तित्व में आयेगा। आने वाले भविष्य में वेद वर्णित तकनीकों के अनुसार ही यानों का निर्माण होगा। एक ग्रह से दूसरे ग्रह की यात्रा इन्हीं परम तकनीकों के आधार पर सम्भव हो पायेगी। वेदों में वर्णित तरीकों से ही जीवन का गर्भ धारण होगा। इस प्रकार के मनुष्य परिवर्तनकारी हो सकते हैं। पृथ्वी तो कुल सौ वर्षो में रहने योग्य भी नहीं रह जायेगी। तब कहीं दूर किसी ग्रह पर वेदमय सृष्टि का निर्माण हो रहा होगा। इसे आप भविष्यवाणी कहें या कुछ और परंतु यह परम सत्य है। उपरोक्त बातें इसलिये आवश्यक थीं क्योंकि आगे मै अब तक के यंत्रों में श्रेष्ठ एवं यंत्र राज या महायंत्र जिसे श्री यंत्र के नाम से जाना जाता है का वर्णन करने जा रहा हूं।

           श्री यंत्र मां भगवती त्रिपुर सुंदरी का गृह है। अर्थात परम मोक्ष दायिनी, ऐश्वर्य दायिनी माँ भगवती जिस व्यवस्था में स्थित रहती हैं वह श्री यंत्र स्वरूप ही होता है। इस यंत्र में समग्र ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और विकास के दर्शन मौजूद होते हैं एवं इसके साथ ही मानव शरीर की सम्पूर्ण संरचना इस यंत्र में समाहित होती है। श्री यंत्र के भीतरी चक्र में वृत्त के केन्द्रस्थ बिंदु के चारो और 9 त्रिकोण हैं। इनमें से 5 त्रिकोण तो अर्ध्वमुखी हैं एवं चार त्रिकोण अधोमुखी हैं और ऊर्ध्व मुखी 5 त्रिकोण देवी के द्योतक हैं और शिव युवती कहे जाते हैं। अधोमुखी 4 त्रिकोण शिव के द्योतक हैं और श्री कण्ठ कहे जाते हैं। पांचों शक्ति त्रिकोण ब्रह्माण्ड में उपस्थित पंच महाभूत पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचकर्मेन्द्रिय, पंचलोक एवं पंच प्राण के द्योतक हैं। मनुष्य के शरीर में यही 5 त्रिकोणात्मक अष्टक, मांस, मेद तथा अस्थि रूप में स्थित हैं और चारों शिव त्रिकोण ब्रह्माण्ड में चित् बुद्धि अहंकार तथा मन रूप में स्थित है और पिण्ड स्वरूप में मज्जा, शुक्र, प्राण तथा जीव रूप में विद्यमान हैं।

           श्री यंत्र का निर्माण एवं पूजा दो तरीकों से होती है। आदि गुरु शंकराचार्य जी के अनुसार श्री यंत्र का निर्माण सृष्टि क्रम के अनुसार होना चाहिये एवं उसकी पूजा भी सृष्टि क्रम के अनुसार ही होनी चाहिए। शंकराचार्य द्वारा स्थापित प्रत्येक मठ में श्री यंत्र सृष्टि क्रम के अनुसार ही निर्मित या अंकित किया जाता है। दूसरा क्रम संहार क्रम कहलाता है। इस पद्धति के अनुसार श्री यंत्र में 5 शक्ति त्रिकोण, अधोमुखी बनाये जाते हैं और 4 शिव त्रिकोण ऊर्ध्वमुखी । मुख्य रूप से कौलमत के अनुयायी इसी क्रम से श्री यंत्र की उपासना करते हैं और विशेषतः कौलसम्प्रदाय काश्मीरी पंडितों में देखने को मिलता है इसीलिये कश्मीर में श्रीनगर की स्थापना हुई। उपरोक्त वर्णित 9 त्रिकोण निराकार शिव या रुद्र की 9 मूल प्रकृतियों को दर्शाते हैं जो कि मुख्य रूप से यजुर्वेद में वर्णित हैं। इन 9 त्रिकोणों के समिश्रण से 43 अन्य त्रिकोणों का निर्माण होता है। भीतरी वृत्त के बाहर 8 दल का कमल है। यहां पर में थोड़ा सा विषय से हटकर कुछ बातें आज के युग के हिसाब से लोगो को बताना चाहता हूँ। जब कोई भी क्रिया जैविक संरचनायें सम्पन्न करती हैं तो वह इस पृथ्वी पर अति परिष्कृत अवस्था में होती हैं। उदाहरण के लिये आप किसी भी पुष्प विशेष तौर पर कमल या गुलाब को देखिये जब वह कली स्वरूप में होता है तो सभी पंखुड़ियां आंतरिक शक्ति से एक दूसरे से सटी हुई होती हैं, परंतु धीरे-धीरे जैसे-जैसे पुष्प खिलता है प्रत्येक पखुड़ी विशेष आकार लेकर एक के बाद एक पूर्ण स्वरूप ग्रहण करके एक ज्यामिती का निर्माण करती है।

             इस संरचना के बीच पुष्प रूपी बीज पूरी तरह से सुरक्षित रहता है और इन्हीं पंखुड़ियों के कारण स्त्री रूपी या पुरुष रूपी बीज का मिलन सम्भव हो पाता है। पंखुड़ियों में न तो स्प्रिंग होती है और नही मोटर परंतु कार्य अत्यंत ही सुनियोजित तरीके से होता है। ठीक इसी प्रकार श्री यंत्र के बीच स्थित शिव शक्ति ही कमल दलों में सुरक्षित और पल्लवित होती है। अंतरिक्ष में भेजे जाने वाले उपग्रह या दूसरे ग्रहों पर उतरने वाले यान भी कमल दलों की नकल के अनुसार ही विकसित किये गये हैं वे भी वहां पर जाकर विचित्र वातावरण में ठीक इसी प्रकार खुलते हैं जिस प्रकार से कमल खिलता है। अंत में जैविक तकनीक का सहारा मनुष्य को लेना ही पड़ता है। मानव निर्मित तकनीक कुछ हजार वर्ष पुरानी है परंतु जैविक तकनीक असंख्य वर्षों में परिष्कृत हुई। न जाने कितने ग्रहों और ब्रह्माण्डों की यात्रा के बाद जीवन रूपी बीज पृथ्वी पर स्थापित हो पाया। 8 दल कमल के पश्चात् 16 दलों का कमल निर्मित है और इन सबसे बाहर भूपुर है। आदि गुरु शंकराचार्यजी द्वारा रचित आनंद लहरी में इसका वर्णन निम्न प्रकार से है।

चतुर्भिः श्रीकण्ठैः शिवयुवतिभिः पञ्चभिरपि प्रभिन्नाभिः शम्भोर्नवभिरपि मूलप्रकृतिभिः । चतुश्चत्वारिंशद्वसुदलकलाब्जत्रिवलय- त्रिरेखाभिः सार्ध तव भवनकोणा: परिणताः ।।

जैसा कि पहले कहा है श्री यंत्र में 9 चक्रों का समायोजन है और इनके विषय में रुदयामल ग्रंथ में इस प्रकार से उल्लेख है
बिन्दुत्रिकोणवसुकोणदशार मन्वस्त्रनागदलसंयुत्तषोडशारम् 
वृत्तत्रयंञ्च धरणीसदनत्रयं च श्रीचक्रराजमुदितं परदेवतायाः ।।

अर्थात राजयंत्र रूपी श्री यंत्र में बिंदु, त्रिकोण, आठ त्रिकोणों का पुनः समूह, 14 त्रिकोणों का समूह, 8 दलों वाला कमल, 16 दलों वाला कमल एवं भूपुर का अद्भुत एवं अद्धितीय समायोजन है। कमलों के भीतर स्थित दो, तीन, चार, पांच और 6 चक्रों के 43 छोटे कोण भी स्थित हैं।
इन 9 चक्रों को निम्नलिखत नामों से पुकारा हैं।

१ सर्वानंदमय चक्र (केन्द्र में उपस्थित रक्तबिंदु)
२ सर्वसिद्धि प्रद चक्र (पीले रंग का त्रिकोण)
३ सर्वरक्षाकारी चक्र ( हरे रंग के 8 त्रिकोण)
४ सर्वरोगहर चक्र ( काले रंग के 10 त्रिकोण)
५ सर्वार्थसाधक चक्र (लाल रंग के 10 त्रिकोण)
६ सर्वसौभाग्यदायक (नीले रंग के 14 त्रिकोण)
७ सर्वसंक्षोमण ( गुलाबी रंग के 8 दलों का कमल)
८ सर्वाशापरिपूरक (पीले रंग के 16 दलों का कमल)
९ त्रैलोक्यमोहन (हरे रंग का बाहरी स्थल)

ऊपर वर्णित चक्रों से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रत्येक चक्र अपना एक विशेष रंग लिये हुये हैं। जब श्री यंत्र का समग्रता से निर्माण किया जाता है तब रंगों का विशेष महत्व होता है। रंग शक्ति की प्रकृति को दर्शाते हैं।

         अब प्रत्येक चक्र की व्याख्या नीचे वर्णित की जा रही है। जहां पर व्याख्या शब्द का इस्तेमाल किया जाता है वहां साधक के पास पूर्ण रूप से यह भाव उपलब्ध होता है कि वह अपने साधना बल या ज्ञान के हिसाब से वर्णन करें। व्याख्या का वैसे तो पूजा प्रणाली में कोई विशेष महत्व नहीं है। श्रृद्धा एवं पूजन अति दुर्लभ तत्व हैं परंतु व्याख्या में बुद्धि और ज्ञान का पुट भी आ जाता है।

         प्रथम चक्र का केंद्र बिंदु माँ भगवती त्रिपुर सुन्दरी है। इस बिंदु का निर्माण ॐ कार रूपी नाद या फिर तीन बिन्दुओं या त्रिशक्ति के संयोग से होता है। प्रथम चक्र की अधिष्ठात्री त्रिपुर सुंदरी कहीं अष्ट मातृकाओं में सर्वश्रेष्ठ कही गई हैं तो कहीं अष्टवाशिनी देवताओं की अधिनायिका कही गई हैं। प्रथम चक्र में स्थित बिंदु मणिक द्वीप भी कहा जाता है। इसी द्वीप में शिव और शक्ति संयुक्त रूप से निवास करते हैं। माँ भगवती अपनी चार भुजाओं में स्थित अस्त्र-शस्त्र, राग द्वेष, मन तथा पञ्चतन्मात्राओं के बधनों द्वारा निराकार शिव को साकार लीला में प्रयुक्त करती हैं अर्थात शिव जैसी निराकारी प्रवृत्ति शिवत्व के रूप में इस पृथ्वी पर माँ त्रिपुर सुंदरी के बंधनों के कारण ही प्रकट हो पाती है। दूसरा चक्र एक त्रिकोण से बना है। इस त्रिकोण मे तीनों कोण कामरूप पूर्ण गिरी और जालंधर पीठ है। इन तीनों पीठों की अधिष्ठात्री देवी कामेश्वरी, वर्जेश्वरी और भगमालिनी है। तीनों कोणों के बीच में औडयाणपीठ ऊपर वर्णित तीनों देवियां प्रकृति महत एवं अहंकार रूपा है।

            तीसरे चक्र में 8 त्रिकोणों का समूह है एवं ये आठ त्रिकोणों की अधिष्ठात्री देवी शक्तियां निम्न हैं। वशिनी, कामेश्वरी, मोहिनी, विमला, अरुणा, जयिनी, शर्वेश्वरी तथा कौलिनी। ये शक्तियां क्रमश: शीत, ऊष्ण, सुख दुख, इच्छा, सत्व, रज, तथा तम की स्वामिनी है। इस चक्र की सिद्धि साधक को गुणों से मुक्ति दिलाती है एवं जीवन में द्वंद की स्थिति का नाश करती है। चौथे चक्र में 10 त्रिकोणों की शक्तियां इस प्रकार से है। सर्वज्ञा, सर्वशक्ति प्रदाय सर्व ऐश्वर्य प्रदाय, सर्वज्ञानमयी, सर्वव्याधिनाशिनी सर्वधारा, सर्वपापहारा, सर्वानंदमयी, सर्वरक्षा तथा सर्वेप्सिताफलप्रदा। यह शक्तियां ऊपर वर्णित शक्तियां क्रमश: रेचक, पाचक, शोषक, दाहक, प्लावक, क्षारक, उद्धारक, शोभक, जम्भक तथा मोहक बहिकलाओं की स्वामिनी है। चौथे चक्र की उपासना साधक को जीवन में समग्रता प्राप्त होती हैं। उसे जो कुछ भी प्राप्त होता है वह उसकी आशा से कई गुना ज्यादा होता है अर्थात अगर रोगों का नाश होता है तो समग्रता से होता है। समग्र रोगनाश का तात्पर्य शारीरिक, मानसिक, अध्यात्मिक एवं परमदैहिक रोगों से है। सभी अनुवाशिक पापों का भी नाश होता है। इसी प्रकार फल प्राप्त होते हैं तो वे भी सम्पूर्णता लिये होते हैं।

        पांचवें चक्र में स्थित 10 देवियों के नाम इस प्रकार से हैं सर्वसिद्धिपदा, सर्वसम्पत्प्रदा, सर्वप्रियङ्करी, सर्वमंगलकारिणी, सर्वकामप्रदा सर्वदुः खविमोचनी, सर्वमृत्युप्रशगनी, सर्वविघ्ननिवारिणी, सर्वाङ्गसुन्दरी तथा सर्वसौभाग्यदायिनी है। पांचवे चक्र में वर्णित दसों देविया प्राणों को जल प्रदान करती है इनके द्वारा प्राप्त फल प्राणों को बलशाली करते हैं। प्राणशक्ति का विकास पांचवे चक्र की विशेषता है। 

          छठवें चक्र में 14 त्रिकोण हमारे शरीर में 14 मुख्य नाड़ियों के द्योतक हैं। वेद एक बात साफ तरीके से कहते हैं कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में है वही शरीर में है। फर्क सिर्फ लघुता और विशालता का है। इन 14 नाडियों के नाम नीचे वर्णित हैं

           इन नाड़ियों के नाम अलम्बुसा, कुहु, विश्वोदरी, वारणा हस्तिजिहा, यशोवती, पयस्विनी, गान्धारी, पूषा, शङ्खिनी, सरस्वती, इडा, पिङ्गला तथा सुषुम्णा हैं।

   एवं इन नाड़ियों की स्वामिनी देवियाँ सर्वसक्षोभिणी, सर्वविद्राविणी, सर्वाकर्षिणी, सर्वाह्लादिनी, सर्वसम्मोहिनी, सर्वस्तम्भिनी, सर्वजम्भिनी सर्वशङ्करी, सर्वरज्जिनी, सर्वोन्मादिनी सर्वार्थसाधनी, सर्वसम्पत्तिपूरणी, सर्वमंत्रमयी, सर्वद्वन्द्वक्षयङ्करी हैं।

        मंत्र हमारे शरीर के समान जीवित, चैतन्य एवं जाग्रत संरचनायें हैं। इसे आप अच्छी तरह से मन में बिठा लें जिस प्रकार शरीर अस्थि, मांस, नाड़ियाँ, गथ्रियां, रक्त ज्ञान, बुद्धि, प्राण, इत्यादि इत्यादि ठीक उसी प्रकार यंत्र की नाड़ी युक्त होते हैं। बिना नाड़ियों के शक्ति प्रवाह संभव नहीं है। हर नाडी अपना महत्व रखती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हमारे शरीर में उपस्थित प्रत्येक तंत्रिका तंत्र अपना महत्व रखती है। जिस तंत्रिका तंत्र में से प्रकाश को निकलना होगा उसमें से ध्वनि नहीं निकल सकती एवं जिस तंत्रिका तंत्र का कार्य मूत्र निष्कासन होगा उसमें से रक्त नहीं निकल सकता। जो तंत्रिका तंत्र ज्ञान को ग्रहण करते हैं वे दर्द का अनुभव नहीं कर सकते।

       सातवें चक्र में आठ कमल दल हैं एवं प्रत्येक दल अलग-अलग शक्तियों का ग्रह स्थान है। वचन, आदान, गमन, निसर्ग, आनंद, दान, उपादान तथा उपेक्षा की बुद्धियों के स्थानापन हैं। इन दलों की स्वामिनी देवियां इस प्रकार है अनङ्ग कुसुमा, अनङ्ग मेखला, अनङ्ग मदना, अनङ्गमदना तुरा, अनरेखा, अनङ्गवेगिनी, अनङ्गमदनांकुशा तथा अनङ्गमालिनी हैं। इस प्रकार आप समझ सकते हैं कि बुद्धि का स्थान हमारे शरीर में सातवें चक्र में आता है। इससे पहले के चक्र में बुद्धि की उपयोगिता शून्य हैं। वे शुद्ध शक्ति का प्रतीक है। बुद्धि का उद्भव अंत में ही उचित होता है। 

        आज के युग में अधिकांशतः मनुष्य इस चक्र में सिद्ध होता है। क्योंकि कालान्तर बौद्धिक ग्रंथियों का विकास समाज के अनुसार अत्यधिक हुआ है। आठवे चक्र में मौजूद 16 दलों का संबंध मन, बुद्धि, अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, चित्त, धैर्य, स्मृति, नाम, वार्धक्य, सूक्ष्म शरीर जीवन तथा स्थूल शरीर से है और इनकी स्वामिनी देवियाँ इस प्रकार से हैं कामाकर्षिणी, बुद्धयाकर्षिणी, अहङ्कारकर्षिणी, शब्दाकर्षिणी, स्पर्शाकर्षिणी, रूपाकर्षिणी, रसाकर्षिणी, गन्ध कर्षिणी, चित्ताकर्षिणी, धैर्याकर्षिणी, स्मृत्याकर्षिणी, नामाकर्षिणी, बीजाकर्षिणी, आत्माकर्षिणी, अमृताकर्षिणी तथा शरीराकर्षिणी हैं।

        उपरोक्त वर्णन से साधक को यह समझ लेना चाहिये कि उसकी अधिकांशतः शिक्षा या ज्ञान मात्र आठवें चक्र का विषय है। आठवां चक्र मेरे हिसाब से पशुतुल्य शक्ति का प्रतीक है। अधिकांशतः सभी पशुओं में यह चक्र विकसित होता है एवं समस्त जीवन इस चक्र के इर्द-गिर्द भी घूमता है।

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