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श्रीविद्या ।।

।। श्रीविद्यायै विदमहे महाश्रीयै धीमहि तन्न: श्री: प्रचोदयात्।।
            श्रीविद्या मनुष्यों द्वारा निर्मित नहीं है एवं मनुष्यों के द्वारा बनाए नियमों के आधार पर भी नहीं चलती। श्रीविद्या परा-परा देवीय विद्या है जिसका निर्माण स्वयं भगवती त्रिपुर सुंदरी ने किया है एवं यही एकमात्र इसकी प्रदात्रि है। जो श्री विद्या के साधक होते हैं उनके जीवन का निर्धारण मनुष्य संबंधित शक्तियां नहीं करती उनके भाग्य को कोई भी मनुष्य प्रभावित नहीं कर सकता अपितु उनके जीवन के प्रत्येक क्षण का निर्धारण भगवती त्रिपुर सुंदरी स्वयं करती है। प्रत्येक युग एवं प्रत्येक देश में मनुष्यों का एक ऐसा वर्ग होता है जो कि प्राकृतिक आपदाओं राजनीतिक घटनाओं मानवीय मूल्यों के उतार-चढ़ाव नियम युद्ध इत्यादि से सदैव अप्रभावित रहते हुए आनंद में संपूर्ण जीवन को व्यतीत करता है इस वर्ग को कोई अशुभता छू भी नहीं सकती एवं इनकी यथा स्थिति बनी रहती है। यह बिंदु निवासी होते हैं बाकी मनुष्य आंदोलित, क्षोभित, पीड़ित, प्रताड़ित एवं क्षण क्षण में प्रभावित होते हैं। यही वास्तविक कुलीन वर्ग है जिसके अंदर सभी शामिल होना चाहते हैं।
             श्री विद्या अर्थात सभी तथाकथित जनजालो से निकलकर संपूर्ण रूप से एक मानव के रूप में उदित होने की कला है। शरीर के अंदर जो कुछ सुप्त है निद्रित है मूर्छित है अर्धविकसित है बीजत्मक है सूक्ष्मातीत है उसे पूर्ण चैतन्य जागृत करने का विधान है। बाहर से कुछ आयात करने की अपेक्षा अंदर मौजूद विलक्षण रत्नों का खनन श्रीविद्या के माध्यम से होता है। मस्तिष्क को एक ही जीवन में संपूर्णता के साथ समझ लेना मस्तिष्क के प्रत्येक कोने की यात्रा कर लेना मस्तिष्क को सौ प्रतिशत प्रकाशित कर देना ही श्रीविद्योपासना रहस्य है।
        हमारे स्वयं के पास मस्तिष्क है हमारा अपना मस्तिष्क संपूर्ण है उसे क्रियाशील कर लेने पर उसे पूर्ण प्रकाशमय कर लेने पर हमें अन्य मस्तिष्को की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। अन्य मस्तिष्को की आवश्यकता सबसे बड़ी विडंबना है अन्य मस्तिष्को की आवश्यकता तभी पड़ती है जब स्वयं के मस्तिष्क को समझने की हम में क्षमता नहीं होती। आपके देश में लोहा नहीं है तो आप दूसरे देश से लोहा आयात करोगे। आयात किसी समस्या का हल नहीं है आयात तभी किया जाता है जब अभाव होता है। आयात में से ही अतिक्रमण, आक्रमण, कब्जा इत्यादि का प्रकाट्य होता है। जितने भी विदेशी आक्रमण हुए वह उन लोगों ने किए जिनके पास अपनी स्वयं की भूमि नहीं थी भूमि विहीन ही दूसरे की भूमि पर कब्जा करता है यही सब नकारात्मक की स्थितियां है। 
        अमेरिका ने 30 साल पहले चंद्रमा पर वायुयान भेजा। खूब पेपर बाजी हुई हो हल्ला हुआ बड़े-बड़े तारीफ के कसीदे पढ़े गए परंतु जब मनुष्य ने प्रथम बार चंद्रमा की भूमि पर कदम रखा तो क्या मिला उसे? धूल, उजाड़, बंजरता। वायु विहिनता जल विहीनता जीवन विहीता अर्थात कुछ भी नहीं मिला उसे। अमेरिका समझ गया कि इतनी मारामारी इतनी ऊर्जा खर्च करके इतने लाखों लोगों का दिमाग खफा कर इतना बड़ा खतरा लेकर हम चंद्रमा पर आए और क्या है? यहां पर कुछ भी नहीं बस उसकी विज्ञान कुंडलिनी जागृत हो गई। उसने फिर आज तक किसी भी मानव युक्त यान को चंद्रमा पर नहीं भेजा वह समझ गया कि कोई फायदा नहीं है इस मारामारी में। चंद्रमा पर खड़े वैज्ञानिकों से जब पूछा गया कि आपको कैसा लग रहा है तो उन्होंने कहा यहां से पृथ्वी बहुत सुंदर लग रही है हमें पृथ्वी की याद आ रही है। हम शीघ्र अति शीघ्र पृथ्वी पर वापस आना चाहते हैं। जीवन कितना कीमती है जीवन कितना आनंदमय है पृथ्वी ही स्वर्ग है पृथ्वी ही समस्त लोगों का केंद्र है यह बात मनुष्य को चंद्रमा पर खड़े होकर समझ में आई उसे समझ में आ गया कि ईश्वर ने उसे पृथ्वी के रूप में जीवन के रूप में अतिश्रेष्ठतम अवस्था प्रदान की है परंतु वह कस्तूरी मृग के समान पृथ्वी के वातावरण में श्वास ना लेकर चंद्रमा पर मशीनों के द्वारा रह रह कर सांस ले रहा है। मानव जीवन की यह सबसे बड़ी कमजोरी है कि वह फालतू में भागता है जबकि भगवती त्रिपुर सुंदरी ने लघु ब्रह्मांड के रूप में उसे शरीर प्रदान कर समस्त ऐश्वर्य उसके करीब ही रख छोड़ा है। पिछले 30 वर्षों में मनुष्य ने ब्रह्मांड के अनेक ग्रहों की खाक छानी पर उसके हाथ सिर्फ राख आई 3000 वर्ष बाद भी राख ही हाथ आएगी जब तक पृथ्वी जीवन युक्त है यहां पर जीवन ग्रहण करके संपूर्णता के साथ आनंद भोग लो समय आने पर स्वयं त्रिपुरा मोक्ष भी प्रदान कर देगी परंतु मोक्ष भी पृथ्वी जितना सुहावना नहीं है अतः उसके लिए तैयार रहें।
                    
 शिव शासनत: शिव शासनत:

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