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आपका धर्म , आपका ईश्वर सातवें आसमान पर नहीं आपके हृदय में रहता है ।


आप सड़क पर हैं , आप बस में हैं या आप ट्रेन में हैं और किसी स्त्री को संकट में पड़े देखकर कन्नी काट रहे हैं तब भी आप कौरव पक्ष में हैं और उसके संकट में आपको आनंद आ रहा है तब भी आप कौरव पक्ष में हैं । पर यदि आपके अन्दर दया करूणा का भाव जगा या उसकी प्रतिरक्षा के लिए आपने कुछ उपाय किया , आप पांडव पक्ष में आ गए , आप धर्म के पक्ष में आ गए ।

हम आप बिज़नेस करते हैं और केवल अपने लाभ के बारे में सोचते हैं , हम आप कौरव पक्ष में हैं , और यदि ग्राहक के भी लाभ के बारे में भी सोचते हैं हम आप पांडव पक्ष में आ जाते हैं , धर्म के पक्ष में आ जाते हैं ।

हमने धन अर्जित करने को कभी बुरा नहीं कहा । धन भी ईश्वर का ही एक स्वरूप है । पुरुषार्थ का एक अंग है , हमने लाभ से नहीं लोभ से बचने को कहा है ।

हमने कामनाओं की पूर्ति के लिए कभी मना नहीं किया पर कहा की कामना बुद्धि केवल अपनी विवाहिता पत्नी के ओर होनी चाहिए , अन्य के प्रति करी हुई कामना , वासना कहलाती है । 

श्रीमद्भागवत में एक कथा है । कथा दैविक है पर उसका अभिप्राय आध्यात्मिक ही है । और आध्यात्मिक का अर्थ भी सातवाँ आसमान नहीं , बल्कि हमारे शरीर के अंदर होने वाली क्रिया और उठने वाली वृत्तियाँ और भाव हैं ।

आध्यात्मिक रूप से बुद्धि को आधिदैविक रूप में बृहस्पति कहा गया है और आध्यात्मिक रूप से मन को आधिदैविक रूप में चंद्रमा कहा गया है । हमारे आपके शरीर के अन्दर की वृत्तियाँ, आधिदैविक रूप से तारा कही गयी हैं । तारा , संस्कृत भाषा में स्त्रीलिंग है और वृत्तियों का सूचक है । तो भागवत की कथा के अनुसार बृहस्पति की पत्नी तारा का झुकाव चंद्रमा की ओर हो जाता है और इसके कारण देवताओं में बहुत बड़ा संग्राम छिड़ जाता है ।

भागवत की इसी कथा को अपने जीवन में उतार लें । क्या हमारी वृत्तियाँ बुद्धि के अनुसार चलती है या मन के अनुसार । यदि यह मन के अनुसार चलेगी और बुद्धि के अनुसार नहीं तो हमारे जीवन में ही महा उथल-पुथल आ जाएगा ।

अब उपरोक्त कथा की कार्य योजना देखते हैं । हमने आपने देखा होगा की बहुत से पढ़े लिखे गम्भीर विद्वानों का पारिवारिक जीवन असफल हो जाता है, उनकी स्त्री किसी अन्य के साथ चली जाती है .. तो हम धर्म को सम्यक् रूप से समझें । हम बृहस्पति के अनुसार गंभीर विद्वान बनकर अपनी पत्नी तारा ( अपनी वृत्तियों की ) की उपेक्षा करके उसको किसी मनचले चंद्रमा के चंगुल में न जाने दें । 

पिछले सत्तर वर्षों से धर्म को जीवन से अलग करके उसे कोई आसमानी वस्तु बनाने का अथक प्रयास धूर्तों के इकोसिस्टम ने किया है , हमें पुनः उसी धर्म को अपने हृदय की वस्तु बनाना है । सनातन धर्म का जागरण धीरे धीरे ही सही पर हो रहा है ।


जय जय श्री राम।

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