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शनि रहस्यम् ।।

       दुनिया को रुलाने वाला, दारुण विलाप कराने वाला, नाकों चने चबवाने वाला, दर-दर की ठोकरें खिलवाने वाला, हर जगह तिरस्कार एवं विडम्बना उत्पन्न करवाने वाला शनि आज फूट फूट कर रो रहा था, चिल्ला-चिल्ला कर विलाप कर रहा था। उसकी आँखों से अश्रु धारा रुक ही नहीं रही थी, लोगों के सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदलने वाला शनि आज अपने कुभाग्य पर रो रहा था, स्वयं को कोस रहा था। आज उसका तिरस्कार हो रहा था, आज उसे भगा दिया गया था। ऐसा कब हुआ ? कब शनि को भी साढ़ी साती लग गई ? कब शनि का भाग्य भी दुर्भाग्य में परिवर्तित हो गया था वह समय था प्रभु श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का। 

      नंद ग्राम में आज प्रभु श्रीकृष्ण के जन्म लेने के अवसर पर हर्ष और उल्लास चारों तरफ छाया हुआ था, जैसे ही ब्रह्माण्ड में प्रभु श्रीकृष्ण के इस धरा पर उत्पन्न होने की घोषणा हुई समस्त देवगण, नक्षत्र, योगेन्द्र, ऋषि-मुनि, सिद्ध, अप्सरा, देवियाँ इत्यादि अपने-अपने लोकों से सूक्ष्मातीत रूप धर पृथ्वी की ओर गमन कर उठे । चाहे कैसी भी योनि मिले, स्त्री का रूप मिले या पुरुष का रूप, गौ का रूप मिले या असुर का रूप, नदी बनना पड़े, पुष्प बनना पड़े, लतायें बनना पड़े पर सबको प्रभु श्रीकृष्ण का सानिध्य चाहिये था, प्रभु श्रीकृष्ण की दिव्यता और अलौकिकता चाहिए थी। कौन दुर्भाग्यशाली ऐसा दिव्य और दुर्लभ अवसर खोना चाहेगा। जिनके दर्शनों के लिए सभी जप, तप और धर्म में संलग्न रहते हैं फिर भी जिनके दर्शन स्वप्न में भी दुर्लभ हैं वे आज स्वयं शरीर धारण करने जा रहे हैं, साक्षात् चर्म चक्षुओं से दिखाई पड़ने जा रहे हैं, जिन्हें अब स्पर्श किया जा सकता है जिनसे अब संवाद किया जा सकता है, जिनके साथ अब कर्म सम्पन्न किए जा सकते हैं तो ऐसी सर्व सुलभ स्थिति को कौन अपने हाथों से निकलने देना चाहेगा। 

           बड़े-बड़े योगी, सिद्ध, साधक इत्यादि गोप और गोपियाँ बन गये। देवता प्रभु श्रीकृष्ण की गौ बन गईं, अप्सराएं पुष्प और लताओं में परिवर्तित हो गईं। गंधर्व, किन्नर, यक्ष इत्यादि यमुना के जल में जलचर बनकर निवास करने लगे। गौ लोक से शापित दिव्य आत्माएं कृष्ण के हाथों मुक्ति पाने हेतु असुर बनकर उनके समक्ष आकर खड़े हो गये, कोई भी पीछे नहीं हटा । अतः शनि के तो इष्ट ही प्रभु श्रीकृष्ण हैं, प्रभु श्रीकृष्ण के ध्यान में शनि सदैव खोये रहते हैं, इतने ध्यान मग्न हो गये थे कि जब उनकी पत्नी रजोनिवृत्त हुईं तो पति सानिध्य प्राप्त करने हेतु शनि के समक्ष उपस्थित हुईं। शनि प्रभु श्रीकृष्ण के ध्यान में इतना खोये हुए थे कि दृष्टि ऊपर उठी ही नहीं, पत्नी को देख ही नहीं पाये आखिरकार वह इंतजार करते-करते थक गई और कुपित हो शाप दे बैठीं कि तुम्हारी दृष्टि सदैव नीची रहेगी अगर कभी दृष्टि उठाई तो सामने वाला भस्म हो जायेगा ।

         स्त्री शाप शनि को लग गया, जिसकी दृष्टि से सभी बचते हैं उसे आज उसकी स्त्री की ही दृष्टि लग गई । वह स्त्री कोप के कारण नपुंसक हो गया, वह स्त्री के कारण अभिशप्त हो गया। शनि ने भी बहुत कुछ झेला है, हाँ शनि बनने की भी अपनी एक प्रक्रिया है अपना एक रूदन है, अपनी तरह का एक विशेष एकाकीपन है। दर्दों से भरा हुआ है शनि का जीवन, आघातों से छलनी है शनि का सीना, मार खा खा कर जगह-जगह से टूटा फूटा है शनि, बस जीवित है यही काफी है। परिवार से तिरस्कृत है शनि फिर भी देव हैं, फिर भी सुपूज्य हैं क्योंकि उसका गुरु है शिव और गुरुमांता हैं काली एवं इष्ट हैं प्रभु श्रीकृष्ण । जो शनि देता है पहले उसे शनि ने झेला है, उसने अपनी माँ को अपने सौतेले भाइयों से पिटते देखा है, यम ने लात उठा ली थी छाया को मारने के लिए। छाया शनि की माता हैं। सूर्य ने छाया को दण्ड दिया, शनि ने अपनी माता को पिता के हाथों दण्डित होते देखा। 

        सूर्य की प्रथम पत्नी संज्ञा हैं जो कि विश्वकर्मा की पुत्री हैं, संज्ञा से यम और यमुना की उत्पत्ति हुई परन्तु संज्ञा सूर्य का तेज न झेल सकी अतः अपनी बहिन छाया को सूर्य के पास छोड़ पुनः पिता के घर चली गईं। छाया ने भी क्षदम रूप धारण कर रखा था वे हूबहू संज्ञा लगती थीं, सूर्य पहचान ही नहीं पाये । छाया से शनि, तप्ति एवं विष्टि का जन्म हुआ, शनि ने भी पारिवारिक कलह देखी। शनि ने भी परिवार के अजीब रिश्ते देखे, एक पिता और दो माताएं, सौतेले भाई बहिन, विश्वासघात, छल, प्रपंच, धोखा इत्यादि यही सब कुछ सूर्य के परिवार में हुआ और यही सब शनि प्रदान करते हैं जीवों को शनि की महादशा में। परम तेजस्वी पिता और तेजस्वी पुत्र में कभी नहीं पटती अतः सूर्य और शनि में कभी नहीं पटी। सूर्य और शनि में युद्ध भी हुआ, अनजाने में उत्पन्न हुई संतान बनकर रह गये शनि परन्तु इसमें शनि का क्या कसूर? जो कुछ किया वह तो संज्ञा और छाया ने किया, क्रोध में आकर सूर्य ने शनि को श्राप दे दिया,

उन्हें क्रूर दृष्टि वाला बना दिया। उन्हें अपने से दूरस्थ हो जाने का श्राप दे दिया। 

        शनि सूर्य का अंतिम सिरा हैं जहाँ पर सूर्य की किरणें विराम करती हैं वहीं ब्रह्माण्ड में शनि का उदय होता है। सूर्य ने शनि को अपने से इतना दूर कर दिया कि आज भी सूर्य की किरणें शनि ग्रह पर वक्र ही पहुँचती हैं, जहाँ शनि हैं वहाँ से सूर्य की किरणें पुनः वापस लौटने लगती हैं। इस ब्रह्माण्ड में सबसे कम सौर ऊर्जा शनि ग्रह को ही प्राप्त होती है। अन्य ग्रहों को तो प्रचुरता के साथ पुष्टिकारी सौर किरणें सीधे मिलती हैं परन्तु शनि को तो सूर्य वक्र दृष्टि से देखते हैं एवं उन पर सौर रश्मियाँ तिरछी प्रवाहित करते हैं। देवगणों में (जिसने सबसे ज्यादा झेला है, जो सबसे ज्यादा तिरस्कृत हुआ है वह हैं शनि । लोग तो 19 वर्ष की शनि की महादशा में टूट जाते हैं, शनि के साढ़े साती लगने पर चरमरा जाते हैं,शनि की ढैया में खटिया पकड़ निस्तेज हो जाते हैं परन्तु शनि तो अपने जीवन काल से लेकर आज तक पिता का कोप झेल रहे हैं, परिवार का तिरस्कार झेल रहे हैं, सौर मण्डल के अनेक ग्रह उन्हें निरंतर शत्रु भाव से देखते रहते हैं फिर भी वे अस्तित्ववान बने हुए हैं। यही उनकी महानता है।

         माँ यशोदा मुस्कुरा मुस्कुरा कर बाल गोपाल कृष्ण के श्रीमुख का दर्शन सभी को करा रही थीं, ऋषि-मुनि, विद्वान, सभी कृष्ण की एक झलक देख परमावस्था को प्राप्त कर रहे थे तभी किसी ने कहा कि बाहर दरवाजे पर शनि देव भी आये हैं कृष्ण की एक झलक हैं देखने हेतु, मां यशोदा क्रोधित हो गईं तुरंत बालक श्रीकृष्ण के माथे पर बड़ा सा काजल का टीका लगा दिया और गले में बजर बट्टू की माला पहना दी कि कहीं बालक श्रीकृष्ण को शनि की नजर न लग जाये एवं तुरंत बाहर आयीं और बोलीं हे शनि देव आप यहाँ से प्रस्थान कीजिए बाल गोपाल अभी सो रहे हैं उनके दर्शन सम्भव नहीं हैं परन्तु शनि समझ गये अपने दुर्भाग्य को, उनका हृदय अपने इष्ट के दर्शन न कर पाने के कारण फटा जा रहा था, वहीं पर दहाड़ मार-मार कर विलाप करने लगे। भक्त का दारूण विलाप इतना प्रचण्ड था कि भगवान आखिरकार द्रवित हो ही गये और उनके सामने उपस्थित हो बोले तुम्हारी तपस्या सफल हुई, शनि मैं तुम्हारे सामने उपस्थित हूँ जी भरकर देख लो और शनि यमुना के जल में प्रभु श्रीकृष्ण की अप्रितम् छवि निहारने लगे फिर भी नजरें ऊपर नहीं की कि कहीं भक्त की नजर भगवान को न लग जाये, मात्र यमुना के जल में ही कृष्ण दर्शन करते रहे। 

        भक्त और भगवान के इस पवित्र मिलन में यमुना भी शामिल हो गई क्योंकि यमुना शनि की ही बहिन हैं। भगवान को आज सच्चा भक्त मिल गया वे बोल उठे हे शनि तुम यही स्थित हो जाओ यमुना किनारे शिला बनकर एवं तुम्हारे सानिध्य में ही मैं रासलीला करूंगा, तुमसे ही टिककर मैं खड़ा होऊंगा, मेरे साथ साथ अनेकों दिव्य आत्माएं गोपियां बनकर तुम्हारे सामने शरद पूर्णिमा की रात्रि में ब्रह्माण्ड का सबसे दिव्य महोत्सव रासलीला सम्पन्न करेंगे। सभी ग्रहों में मात्र तुम्हें ही मेरा सानिध्य सबसे ज्यादा प्राप्त होगा, तुम्हारे ऊपर ही बैठकर मैं वंशी की धुन छेडूंगा, तुम्हारे ही सानिध्य में मैं राधा का मान मर्दन भी करूंगा और ऐसा ही हुआ। वृन्दावन में आज भी उस स्थान पर दिव्य शनि शिला विराजमान है यमुना के किनारे जहाँ पर भगवान ने लीला की थी। 

         संज्ञा के विरह में व्याकुल सूर्य अपने ससुर विश्वकर्मा के पास पहुँचे, वे तंग आ चुके थे अपने तेज से एवं पुनः संज्ञा को प्राप्त करना चाह रहे थे। उन्होंने विश्वकर्मा से अनुरोध किया कि वे उनके तेज को कम कर दें। विश्वकर्मा ने सूर्य को खराद कर उन्हें सम तेजस्वी बना दिया और इस प्रकार वे पुनः संज्ञा को प्राप्त कर सके। इस बार सूर्य और संज्ञा ने अश्व रूप धारण कर अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति की जो देव वैद्य कहलाये। शनि को समझना है तो सौर परिवार को समझना पड़ेगा, सूर्य पत्नियों को समझना पड़ेगा, सूर्य को समझना पड़ेगा। यह ब्रह्माण्ड कुछ भी नहीं बस सौर परिवार की एक चलती फिरती कहानी है जिसमें शनि भी हैं, यम भी हैं, यमुना भी हैं, ताप्ति भी हैं, संज्ञा भी हैं, छाया भी हैं। हैं तो यह सब एक ही, उत्पन्न तो यह सब सूर्य से ही हुए हैं एवं इनके अंदर भी सूर्य की ऊर्जा ही प्रवाहित है, सबके सब अपने पिता की ही परिक्रमा कर रहे हैं अपने-अपने परिवार के साथ वृहस्पति और शनि इस सौर परिवार के दो विशालकाय ग्रह हैं। 

          शनि आकृति में वृहस्पति से बस कुछ ही छोटे हैं, ये दोनों ग्रह गैसों के विशाल पिण्ड हैं परन्तु शनि के साथ एक विहंगमता है वे इस नक्षत्र मण्डल के सबसे हल्के ग्रह हैं, उनका घनत्व सबसे कम है। पृथ्वी शनि की अपेक्षा में ज्यादा भारी है परन्तु वह शनि की अपेक्षा आठ सौ गुना ज्यादा छोटी है। 

शनि को भक्षण का बड़ा शौक है, प्रारम्भ का सूर्य इतना तेजस्वी था कि उससे अनेकों छोटे-छोटे ग्रह, उल्कायें, अविक्सित पिण्ड, आधे-अधूरे ग्रह इत्यादि निर्मित हो गये थे परन्तु शनि एक एक कर छोटे-छोटे ग्रहों को खाने लगे अपने ही भाइयों का भक्षण करने लगे और विशाल रूप लेते गये। जो भी उल्का पिण्ड मिलता, जो भी नवजात ग्रह मिलता उसे शनि लील लेते, अपने आपमें समाहित कर लेते। सूर्य ने समझाया परन्तु शनि नहीं मानें आखिरकार सूर्य ने शिव को मदद के लिए पुकारा, शिव ने भी शनि को चेतावनी दी परन्तु शनि उद्दण्डता कर बैठे, अभिमान ग्रस्त हो बैठे एवं शिव पर दृष्टि डाल दी शिव लोक पर शनि की दृष्टि ने ही दक्ष यज्ञ विध्वंश काण्ड को निर्मित किया। 

         दक्ष शिव निंदा कर बैठे पार्वती योगाग्नि में भस्म हो गईं। दक्ष का मर्दन हुआ, कितनी गर्दनें कीं दक्ष यज्ञ में कितने ऋषि मुनि अंग भंग हुए दक्ष यज्ञ में विष्णु को भी पराजित होना पड़ा, ब्रह्मा को भी अपमानित होना पड़ा। इन्द्रादि देवता भी वीरभद्र और काली के हाथ प्रताड़ित हुए। शनि की तिरछी दृष्टि में छिन्नमस्ता चलती हैं सब कुछ छिन छिन कर देती हैं। मस्तक धड़ से छिन्न हो जाते हैं, लहु की धाराएं फूट पड़ती हैं। शिव समझ गये थे कि यह शनि का अतिक्रमण है शिव लोक पर क्रोध में आकर शिव ने अपने त्रिनेत्रों से शनि की तरफ देखा, देखते ही देखते वह धूसर हो गया, काला पड़ गया, श्याम रंग में परिवर्तित हो गया। आज भी शनि की महादशा जातक को काला, मलीन कर देती है। क्रोधवश शिव ने त्रिशूल उठा शनि पर प्रहार कर दिया, शिव ने सूर्य को भी त्रिशूल से मारा है। सूर्य भी मूर्च्छित हो गये थे वह तो कश्यप के कहने पर शिव ने सूर्य को पुनः प्राण प्रतिष्ठित कर दिया था। आज शिव ने शनि की उद्दण्डता हेतु उस पर त्रिशूल से प्रहार किया था प्रहार ने शनि को तिरछा कर दिया, तबसे लेकर आज तक शनि सबसे ज्यादा तिर्यक ग्रह हैं, तिरछा अपनी धूरी पर घूमता है। 

        सूर्य में पितृत्व फूट पड़ा वे शिव से याचना करने लगे शनि के जीवन हेतु। शनि भी शिव की शक्ति को समझ गया और वचन दे उठा कि वह शिव भक्तों को कभी परेशान नहीं करेगा एवं वह शिव भक्तों के लिए सदैव कल्याणकारी रहेगा। वह शिव लोक में फिर कभी प्रविष्ट होने की कुचेष्टा नहीं करेगा तब जाकर शिव ने शनि को माफ किया और उसे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया। शनि भी अब शिव की कृपा प्राप्त कर शिव गण बन बैठे एवं उनका भी रुद्राभिषेक होने लगा, उनके समक्ष भी जन मानस लघु रुद्रीय, अति रुद्रीय पाठ करने लगे। वे भी शिवांश बन बैठे और शिव के संहार कर्मों में उनकी आज्ञानुसार सहायता प्रदान करने लगे। 

       शनि के पुत्र हैं मंदी, खर, सुप्त, कुन्द, वृद्ध, क्षय, विकृत, चौर्य इत्यादि-इत्यादि । ये शनि से भी ज्यादा प्रचण्ड क्रूर एवं तीक्ष्ण हैं। मंदी आ गई व्यापार में, बुद्धि में मंदी आ गई तो मंद बुद्धि बन बैठे, हृदय की धड़कन मंद हो गई तो खाट पकड़ ली, पाचन संस्थान मंद हो गया तो शरीर निस्तेज हो गया। सूर्य के एक पुत्र हैं वृद्ध जो सभी को वृद्धावस्था प्रदान करते हैं। कौन चाहता है कि व्यापार मंद हो, काम शक्ति मंद हो पर शनि पुत्र मंदी जातक के कर्मानुसार कुछ भी मंद कर सकते हैं। वृद्ध, वृद्धि को रोक देते हैं एवं तीस वर्ष की उम्र में ही बूढ़ा कर देते हैं। शनि के एक पुत्र हैं चौर्य, जो चोर दृष्टि प्रदान करते हैं एवं जातक को चोरी करने हेतु प्रेरित करते हैं। कृष्ण भी माखन चुराने लगे थे। शनि पुत्र खर जहाँ बैठ जायें वहाँ शिशुपाल, दुर्योधन जैसे लम्पट कर्म करने वाले, अनाप-शनाप प्रलाप करने वाले उत्पन्न हो जाते हैं। खर बुद्धि वाले ही भगवान को गाली बकते हैं, गुरु को गाली बकते हैं, धर्म की निंदा करते हैं और पतोन्मुखी होते हैं। 

          आज तक किसी को नहीं मालूम कि शनि के कितने उपग्रह हैं? यही ज्योतिषियों के लिए, अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के लिए, खोजियों के लिए आज भी रहस्य बना हुआ है। गैलेलियो ने सर्वप्रथम शनि को दूरबीन से देखा तो वह चकरा गया। प्रतिदिन उसे शनि के इर्द-गिर्द भिन्न-भिन्न प्रकार के चंद्रमा दिखाई देते, कभी कोई लुप्त हो जाता तो कभी कोई उदित हो जाता। अचानक एक दिन गैलेलियो ने शनि के एक विशेष चंद्रमा को देखा आप जानते है शनि का एक विशेष चंद्रमा इस नक्षत्र मण्डल का सबसे चमकीला उपग्रह है, पृथ्वी के चंद्रमा से कई करोड़ गुना ज्यादा प्रकाशवान हैं, वह पूर्ण रूप से हिम का बना हुआ है। उसकी सतह इतनी स्वच्छ है कि पृथ्वी पर बना उच्च से उच्च कोटि का श्रेष्ठतम दर्पण भी उसके आगे फीका है। जिस दिन गैलेलियो ने इसके दर्शन किए दूसरे ही दिन राज आज्ञा के कारण गैलेलियो की दोनों आँखें फोड़ दी गईं, उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी अपने जीवन में इस उपग्रह के दर्शन हेतु।

        शनि अपने उपग्रहों को खा भी जाता है और पुनः उगल भी देता है। यही एकमात्र ग्रह है जो उपग्रहों को उगलता और निगलता रहता है एवं यही सब कुछ शनि की छाया में आये जातक के साथ भी होता है सृष्टि के प्रारम्भ में उद्दण्ड आकाश ने पृथ्वी के साथ गमन किया और अनेकों पुत्र रूपी ग्रह मण्डलों नक्षत्रों को निरंतर उत्पन्न करते गया। कुछ एक को छोड़ अव्यवहारिक आकाश रूपी पिता ने अन्य ग्रह रूपी पुत्रों को अनाथ छोड़ दिया, उन्हें कक्षा प्रदान नहीं की, उन्हें लय प्रदान नहीं की, उन्हें प्रकाश प्रदान नहीं किया, उन्हें सम्मान प्रदान नहीं किया। कहीं न कहीं पितृ धर्म की अवहेलना हुई। आदि सूर्य ने और तो और इन सबका भक्षण शुरु कर दिया। माता से यह देखा नहीं गया उन्होंने अपने तिरस्कृत पुत्रों को पिता से बदला लेने के लिए कहा, शनि ने ही सिर्फ माता की आज्ञा मानी और हँसिये से आकाश रूपी पिता के अंगों को काट लिया परन्तु पिता ने श्राप दे दिया कि तेरी मृत्यु भी तेरे द्वारा उत्पन्न संतानों से ही होगी। 

        शनि का विवाह रिया देवी के साथ सम्पन्न हुआ। रिया से उत्पन्न पुत्रों को शनि अपनी मृत्यु भय के कारण भक्षण करते जाते परन्तु एक पुत्र को रिया देवी ने बचा लिया और उसके स्थान पर लाल वस्त्र से एक ढका हुआ एक काला पत्थर रख दिया। शनि उसे पुत्र समझकर भक्षण कर गये और इस प्रकार शनि का एक पुत्र बच गया। जिसने कालान्तर शनि को वमन कराकर अपने सभी भाइयों को पुनः शनि के मुख से आजाद करा लिया। शाहजहाँ पर साढ़े साती लगी तो औरंगजेब ने उसे कैद कर लिया। दारा -शिकोह पर साढ़े साती लगी तो औरंगजेब ने उसे षडयंत्र पूर्वक मार डाला। पिता को मारकर पुत्र गद्दी पर बैठते हैं, पिता और पुत्र में संघर्ष होता है। कंस भी देवकी की संतानों को एक- एक करके मार रहा था वासुदेव पर साढ़े साती लगी हुई थी परन्तु जब कंस पर साढ़े साती लगी तो कृष्ण पैदा हो गये। साढ़े साती उलट भी जाती है, यही शनि महात्म्य है। 

        नीली आभा लिये हुआ शनि ग्रह सौ जन्मों तक भी जातक को कर्म बंधनों से मुक्त नहीं होने देता। शनि कर्म के सिद्धांत पर क्रियाशील होते हैं एवं जैसे ही जातक को शनि की महादशा प्रारम्भ होती है उसके सौ जन्म के बचे हुए गुप्त कर्म, पाप कर्म, अभिशप्त कर्म, शापित कर्म एक-एक करके फूटने लगते हैं और जातक इन कर्मों के फलों को भोगते हुए पुनः नित्य, शुद्ध और बुद्ध के रूप में परिवर्तित होता है। शनि देव का पद परम न्यायधीश का पद है। शनि का तो उवाच ही है कि लोग मुझे बुरा कहते हैं परन्तु अपने बुरे कर्मों को नहीं देखते। वे तो इस कर्म आधारित जग में कर्मों की परिभाषा ही प्रमाणित करते हैं। जो किया है वह भोगना पड़ेगा, उसका प्रायश्चित करना ही होगा पुनः शुद्ध कर्मों की ओर अग्रसर होना ही होगा। कर्म फल से कोई नहीं बच पायेगा, कर्म के सिद्धांत की मर्यादा का सबको पालन करना पड़ेगा अन्यथा पंचभूतीय शरीर नहीं मिलेगा। पंचभूतीय शरीर अधिकांशतः कर्म सिद्धांतों का पालन करने हेतु ही मिलता है केवल पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ भोग सम्पन्न होता है। अन्य योनियों में, अन्य ग्रहों पर यह सम्भव नहीं है।
                          शिव शासनत: शिव शासनत:

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