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शुभ काल /अशुभ काल से संबंधित पंचांग ।।

    भारतीय वैदिक ज्योतिष में एक दिन में अलग अलग अवधि होती है और उन सभी अवधि में अलग-अलग काल का उल्लेख किया गया है। जिसमें से जहां कुछ काल को शुभ तो कुछ काल को अशुभ की श्रेणी में रखा गया है।

इसी के अनुसार जहाँ शुभ काल के दौरान किया गया कार्य फलित होता है, वहीं अशुभ काल के दौरान कोई भी शुभ या मांगलिक कार्य करना वर्जित माना जाता है। 

पंचांग अनुसार शुभ काल व अशुभ काल 
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प्रात:काल : 
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सबसे प्रथम काल की अवधि प्रात:काल कहलाती है। ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 48 मिनट पूर्व का समय होता है।

अरुणोदय काल : 
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ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 1 घंटे और 12 मिनट पूर्व की होती है, जिसे हम पंचांग अनुसार अरुणोदय काल कहते हैं। 

उषा काल : 
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ये अवधि सूर्योदय होने से ठीक 2 घंटे पूर्व का समय होता है, इसे हम सरल भाषा में उषाकाल कहते हैं। 

अभिजित काल : 
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भारतीय समय के अनुसार ये अवधि दोपहर में लगभग 11 बजकर 36 मिनट से लेकर 12 बजकर 24 मिनट तक रहती है। जो लगभग एक घंटे की होती है। ज्योतिष विशेषज्ञों अनुसार अभिजीत काल बुधवार को वर्जित होता है।

प्रदोष काल : 
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ये अवधि सूर्यास्त होने से लेकर 48 मिनट बाद तक का समय होता है, जिसे हम प्रदोष काल कहते हैं।

गोधूलि काल : 
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ये अवधि सूर्यास्त होने से 24 मिनट पूर्व से शुरू होती है और सूर्यास्त के 24 मिनट बाद तक माननीय होती है।

राहुकाल : 
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राहुकाल रोजाना डेढ़ यानी 1 घंटे 30 मिनट का होता है।सूर्योदय अगर प्रात: 6 बजे है तो ऐसा काल नियम अनुसार होगा,राहुकाल के दौरान कोई भी शुभ व नया कार्य करने से बचना चाहिए। राहुकाल सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है। 

सोमवार को प्रातः 7 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है।

मंगलवार को दोपहर 3 बजे से 4 बजकर 30 मिनट तक होता है।

बुधवार को दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है।

गुरुवार को दोपहर 1 बजकर 30 मिनट से 3 बजे तक होता है।

शुक्रवार को राहुकाल प्रातः 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है। 

शनिवार को राहुकाल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।

रविवार को सायं 4 बजकर 30 मिनट से 6 बजे तक होता है। 

गुलिक काल : 
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इस काल की अवधि भी डेढ़ यानी 1 घंटे 30 मिनट की होती है। माना जाता है कि कुछ विशेष कार्य को इस समय काल के दौरान करने से बचना चाहिए। गुलिक काल सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है:

रविवार को गुलिक काल का समय दोपहर 3 बजे से 4 बजकर 30 मिनट तक होता है। 
सोमवार का गुलिक काल दोपहर 1 बजकर 30 मिनट से 3 बजे तक होता है।
मंगलवार को गुलिक काल दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है।
बुधवार को गुलिक काल प्रात: 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है।
गुरुवार को गुलिक काल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।
शुक्रवार का गुलिक काल प्रातः 07 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है। 
शनिवार को गुलिक काल प्रातः 6 बजे से 7 बजकर 30 मिनट तक होता है।

यमगंड काल : 
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इस काल की अवधि भी प्रतिदिन डेढ़-डेढ़ घंटे की होती है। साथ ही यमगंड काल में भी शुभ कार्यों को करने से परहेज करना चाहिए। इसके काल की अवधि सातों दिन के अनुसार कुछ इस प्रकार है:  

रविवार को यमगंड काल का समय दोपहर 12 बजे से 1 बजकर 30 मिनट तक होता है। 
सोमवार को यमगंड काल प्रात: 10 बजकर 30 मिनट से 12 बजे तक होता है।
मंगलवार को यमगंड काल प्रातः 9 बजे से 10 बजकर 30 मिनट तक होता है।
बुधवार को यमगंड काल प्रातः 07 बजकर 30 मिनट से 9 बजे तक होता है।
गुरुवार को यमगंड काल प्रातः 6 बजे से 7 बजकर 30 मिनट तक होता है।
शुक्रवार को यमगंड काल दोपहर 3 बजे से 04 बजकर 30 मिनट तक होता है। 
शनिवार को यमगंड
काल 1:30 से 3 pm होता है।

ब्रह्म विद्या ।।

           आप किसी जल से भरे पात्र में एक बूंद पानी डालिए आपको तुरंत ही कुछ बुलबुले उठते हुए दिखाई देंगे। किसी भी वस्तु को पानी में फेंकिए नीचे से एक साथ बुलबुलों का गुच्छा उठेगा। एक बुलबुले से सेकेण्ड के सौवें हिस्से में अनेकों बुलबुले उत्पन्न हो जायेंगे। बस इसी सिद्धांत को BIG-BANG सिद्धांत कहते हैं। अभी हाल में वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि की है जबकि वेदान्त कई कल्प पहले ओंकार नाद के द्वारा सृष्टि के उत्पत्तिकरण की सटीक रूप से व्याख्या कर चुका है। बुलबुला प्रारम्भिक जीवन है। यह जीवन की प्रथम अवस्था है। जीवन सर्वप्रथम बुलबुले के रूप में ही विकसित होगा, यही ओंकारनाद है। यही एक से अनेक होने की ब्रह्मा की प्रक्रिया है। इसे ही कहते हैं एको बहुष्याम। सारे बुलबुले नष्ट नहीं हो जायेंगे कुछ एक बर्तन के तल पर चिपके हुए होंगे। कालान्तर यही बुलबुले ग्रह नक्षत्र का रूप लेंगे। इन्हीं से सूर्य का निर्माण होगा। ब्रह्माण्ड में ऐसा ही होता है। यही बुलबुले स्वरूप परिवर्तन कर अणु-परमाणु और उनके भी न्यूनतम अंशों के रूप में दिखाई देंगे। बुलबुले उठते ही रहते हैं और धीरे-धार जीव में परिवर्तित हो जाते हैं। पंचेन्द्रिय जीवों में भी सब कुछ 'आंतरिक रूप से बुलबुलों के समान ही होता है। हृदय की धड़कन हो, मस्तिष्क की क्रियाशीलता हो इत्यादि सब जगह बस बुलबुले ही धड़कते हैं। वे ही उठते और मिटते हैं।

           मैंने बुलबुले को जीवन कहा, उसे जीवित कहा। इस सृष्टि में जो भी एक से अनेक होगा वह जीवित है। जीवन की सबसे प्रारम्भिक अवस्था बुलबुला ही है वह आपकी आँखों के सामने एक से अनेक हुआ। इससे पहले की प्रक्रिया तो शक्ति की धारा है। वह भी किसी बुलबुले से, बनी होगी। यहीं रहस्य है लिंगार्चन का अर्थात रुद्राभिषेक का। शिव के ऊपर गिरती निरंतर जलधारा का। जीवन के लिए जरूरी प्राण विद्युत की उत्पत्ति का बुलबुला बना अर्थात किसी एक क्रिया ने प्राण को सक्रिय किया। जलधारा गिरती है विद्युत का निर्माण होता है एवं सारा विश्व प्रकाशवान होता है। यह मनुष्य करता है एवं इससे कृत्रिम प्रकाश का निर्माण होता है परन्तु प्राकृतिक प्रकाश अर्थात प्राण का निर्माण भी ऐसी ही गिरती हुई जलधारा से होता है। प्राण ही प्राण को शक्ति प्रदान करेगा। प्राणतत्व- प्राणतत्व को ही ग्रहण करेगा एवं प्राणतत्व की शिथिलता को प्राणतत्व ही दूर करेगा बस इतनी सी कहानी है ब्रह्मविद्या की। प्राणों को समझने की क्रिण, प्राणों के उत्पत्तिकरण को जानने की क्रिया प्राणों को मजबूत बनाने की विद्या ही ब्रह्म विद्या है। प्राणों को निरंतर चलायमान रखना ही ब्रह्मविद्या का कार्य है। प्राणों का स्थापन ही सीखना पड़ेगा।

            प्रत्येक पिण्ड का मूल अर्क है प्राण शक्ति। हम तो अभी तक (मैं वैज्ञानिकों की बात कर रहा हूँ) सूर्य ऊर्जा को भी संचय करने में सफल नहीं हो पाये हैं। सूर्य के द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा अभी भी हम पूर्ण रूप से मानव निर्मित यंत्रों में संचित नहीं कर पा रहे हैं। जो प्राण तत्व सूर्य से उत्सर्जित हो रहे हैं उन्हें जिस दिन मानव अपने अंत्रों में संचित करने में सक्षम हो जायेगा तो सारी दुनिया एक क्षण में ही परिवर्तित हो जायेगी। एक क्षण में ही वर्तमान यंत्र प्रागैऐतिहासिक हो जायेंगे। ऊर्जा के समस्त संसाधन व्यर्थ हो जायेंगे परन्तु जीव अनंत काल से अपने अंदर सूर्य के द्वारा उत्सर्जित प्राण शक्ति को कुछ काल सीमा के लिए संचित, स्तम्भित, कीलित और परिवर्तित करने में सक्षम हो गया है। यही जैविक यंत्रों की कहानी है। कम से कम 24 घण्टे तो साधारण से साधारण जीव भी अपने अंदर प्राण शक्ति को आवृत्ति प्रदान करने में सक्षम है। संचय कैसे होगा? संचय तभी सम्भव है जब प्राण शक्ति आवृत्ति में गतिमान हो एक चक्र के रूप में गतिशील बनी हुई हो। ऐसा ही शरीर में होता है तभी जैविक शरीरों में बुलबुले के समान हृदय फूलता एवं पिचकता है और धमनियों के माध्यम से रक्त प्रवाह पूरे शरीर में प्राण शक्ति को चक्राकार स्थिति में घुमाता रहता है।

          आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शरीर के अंदर प्राण शक्ति आवृत्ति बद्ध होती है और इसी आवृत्ति में से घूमते-घूमते एक और आवृत्ति जन्म ले लेती है। यह ब्रह्म कला है। एक माध्यम जब थक जाये तो अपने अंदर स्थित प्राण शक्ति को दूसरे माध्यम में स्थानांतरित कर देना या स्वयं के अंदर से एक नया शरीर उत्पन्न कर देना जो कि पुनः प्राण शक्ति को आवृत्ति में गति प्रदान करता रहे। इस प्रकार अनंत काल से जीव संरचनायें अपने आपको प्राण शक्ति से आबद्ध रखे हुए हैं। इसलिए प्रत्येक जीव में बला की इच्छा होती है स्वयं के द्वारा संरचना करने की अर्थात सृष्टि करने की। स्वयं के शरीर से स्वयं के समान संतति उत्पन्न करने की। 

 इसी बह्य कला के कारण जीव भी अजर-अमर है। सभी प्रारम्भिक लक्षण अजर-अमर है। सभी तत्व बस इसी आदि इच्छा के कारण आज तक अजर-अमर एवं अपने अस्तित्व को बरकरार रखे हुए हैं। 

            शत्रुत्व को मालुम है कि वह एक समय तक एक माध्यम में क्रियाशील रह सकता है और जैसे ही माध्यम अक्रियाशील होने की तरफ बढ़ेगा शत्रुत्व दूसरा शरीर ग्रहण कर चुका होगा या कहीं और पर विकसित हो रहा होगा। नष्ट होने से पहले ही विकास प्रारम्भ हो चुका होता है। 16 वर्ष की उम्र में ही संतान उत्पन्न की जा सकती है। स्वयं पिता अपनी संतान को अपने अस्तित्व के साथ-साथ, अपने द्वारा प्रदान किये गये तत्वों के अस्तित्व की रक्षा हेतु अस्तित्व प्रदान करता है। पिता का शरीर नष्ट हो जायेगा पर उससे पहले ही अनेकों पुत्रों के रूप में अस्तित्व पूर्ण रूप से विकसित हो चुका होगा। यहाँ तक कि पुत्र के पुत्र भी उत्पन्न हो चुके होंगे। यही ब्रह्म विद्या है। ब्रह्म विद्या मूल में स्थित है बाहर से नहीं लगाई जाती। स्वतः ही क्रियाशील होती रहती है। स्वतः ही व्यक्ति या जीव को उत्प्रेरित करती रहती है। स्वतः ही जीव के शरीर में परिवर्तन कर देती है एवं उसे परिवर्तन की ओर अग्रसर भी करती है। ब्रह्म विद्या मुँह से बांचने की विद्या नहीं है। यह आम विद्याओं के अंतर्गत नहीं आती है। ब्रह्म विद्या हर किसी को समझाने के लिए नहीं बनी हुई है। यह ब्रह्म ज्ञानियों का विषय है। जिन्हें विराट संरचना करनी होती है वे ही ब्रह्म विद्या में निपुण हो पाते हैं।

                जीव उत्पन्न हुआ, उसने मुख खोला और भोजन को स्वतः ही ग्रहण कर लिया। किसी ने उसे भोजन ग्रहण करना नहीं सिखाया। देखने में यह बात बहुत सामान्य लगती है परन्तु यह कदापि सामान्य नहीं है अगर उसके अंदर भोजन ग्रहण करने की जानकारी नहीं होती तो फिर जीवन की कड़ी आगे नहीं बढ़ पाती। कुछ ज्ञान ऐसा होता हे जिसे सीखने और सिखाने लग जाये तब तो फिर हो चुका। जब तक भोजन ग्रहण करना सिखाओगे तब तक तो प्राण उड़ चुके होंगे। सीखने सिखाने के लिए बहुत कुछ बकवास है। ये सब ब्रह्म विद्या के अंतर्गत नहीं आता। ब्रह्म विद्या का जो आवश्यक हिस्सा है वह तो सभी को प्राप्त हो जाता है। इसके पश्चात वाला भाग पुस्तकों में नहीं मिलता। यह ब्रह्म ज्ञानियों के पास होता है। ब्रह्म ज्ञानी गिने चुने होते हैं और वह यह ज्ञान केवल उन्हीं को देते हैं जो कि ब्रह्म ज्ञानी होने वाले हैं। बाकी सब पूजन पाठ, उपासना, सामान्य व्यवहार, सामान्य दक्षता इत्यादि दे दिया जाता है। ऐसा क्यों? मैंने पहले कहा एक पिता अपने जीवनकाल में पुत्र उत्पन्न कर लेता है। ठीक्र वैसे ही ब्रह्म ज्ञानी भी अपने जीवन काल में दूसरा ब्रह्म ज्ञानी रच लेता है। ब्रह्म ज्ञानी ब्रह्म ज्ञानी ही रचेगा भूगोल का अध्यापक नहीं बनायेगा अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो फिर श्रृंखला टूट जायेगी।

         बगलामुखी की आराधना खण्डित हो जायेगी। बगलामुखी क्रियाशील इसलिए है कि श्रृंखला न टूटने पाये। देखिए दो मार्ग हैं प्राप्त करने के। एक मार्ग है तप का मार्ग। यह मार्ग सबके लिए खुला हुआ है। तप करके, तपस्या करके पूर्ण निष्ठा के साथ सेवा करके कोई भी कुछ भी प्राप्त कर सकता है। यह तपोनिष्ठ होने की प्रवृत्ति है। इसमें खूब बाधायें आयेंगी, खूब अवरोध आयेंगे फिर भी तपोनिष्ठ साधक लगा रहेगा। तप को अस्त्र बनाकर वह असुरों के समान ब्रह्मा और शिव से कुछ भी प्राप्त कर सकता है। उन्हें प्रसन्न कर सकता है। यह भी एक विधान है। तपोनिष्ठ के आगे उन्हें झुकना ही पड़ता है परन्तु यह जरूरी नहीं कि तपोनिष्ठ व्यक्ति अपने आपमें एक उत्कृष्ट संरचना हो। लंकेश भी तपोनिष्ठ था बहुत कुछ प्राप्त कर लिया था। तप से सिद्धि तो प्राप्त हो ही जाती है। इसमें, आदि शक्तियों की भी परीक्षा होती है। यह पूर्ण स्वतंत्रता का मार्ग है। हर जीव तप करने के लिए स्वतंत्र है परन्तु इसमें कृपा का अभाव हो जाता है। यह दुनिया तपनिष्ठों से भरी हुई है। तपानुसार, कर्मानुसार ये कुछ काल के लिए शक्तिशाली तो हो ही जाते हैं बाद में चाहे जो कुछ भी हो। दूसरा मार्ग है कृपा का मार्ग। इसमें कृपा प्राप्त होती है यह मूक मार्ग है। यह मांगने की प्रक्रिया नहीं है। कृपा मार्ग का प्रमाणीकरण भी नहीं होता है। इसमें जीव विशेष माध्यम होता है पराशक्ति की इच्छा का। वह अपने कृपाचारी को जीवित देखना चाहता है, विकसित देखना चाहता है, उसे पूर्ण रूप में देखना चाहता है। 

           अब एक वृतांत देता हूँ लंकेश तपोनिष्ठ थे उनके अंदर भी क्रियाशील थी रुद्र की शक्ति, ब्रह्म ज्ञान उनके अंदर भी था। उन्होंने इसे घोर तपस्या से प्राप्त किया था, स्व अर्जित किया था। देवाधिदेव महादेव की लंकापुरी में उन्हें गद्दी पर बिठाया गया था। प्रभु श्री राम पर कृपा हुई उनके साथ रुद्रांश हनुमंत थे। हनुमंत के रूप में बगलामुखी क्रियाशील हुई।

लांगुलास्त्र बगलामुखी की ही एक प्रक्रिया है। अंत में विजय कृपा की ही हुई। इसका क्या कारण है? कृपा क्यों हर बार विजयी होती है? तप क्यों हर बार हारता है? सीधी सी बात है तप सौदा है, इसमें मांग होती है, इसमें वरदान होता है, इसे पूर्ण करने के लिए प्रतिबद्धता होती है। यह एक तरह से कीलन है परन्तु इसके विपरीत कृपा में स्वेच्छा चारिता होती है, गुरु की इच्छा होती है। केकैयी के बंधन में भरत को राजगद्दी मिल गई थी। दशरथ कीलित थे, प्रतिबंधित थे, केकैयी को वरदान देकर। इसमें उनकी इच्छा नहीं चली। कृपा का मार्ग श्रेयस्कर है लम्बे समय में विजयी होता है। बगलामुखी ब्रह्म विद्या के अंतर्गत आती है। युद्ध सभी करते हैं। जीवन में शत्रु सभी के होते हैं। यह सब जीवन का ही एक अंग है परन्तु विजय महत्वपूर्ण है। विजय की प्राप्ति ही बगलामुखी की आराधना में सफलता का द्योतक है। अतः अध्यात्म पथ के जिज्ञासुओं को साधनाओं के माध्यम से कभी भी सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए सिर्फ कृपा प्राप्ति का ही ध्येय रखना चाहिए। विजय कृपा के अंदर ही निहित है। तपोनिष्ठ तो हारता है, हार तपोनिष्ठों के लिए ही बनी है, हार तपोनिष्ठ को परिवर्तित करती है सद्मार्ग अपनाने के लिए। हार तपोनिष्ठ को उद्वेलित करती है यह सोचने के लिए कि कृपा प्राप्ति ही श्रेष्ठ विधान है। यही ब्रह्म वर्चस्व की कहानी है। तपोनिष्ठ विश्वामित्र से ब्रह्मऋषि में परिवर्तित होने की प्रक्रिया है। 

            18 वीं शताब्दी में एक महान सिद्ध हुए उन्हें कच्चे बाबा के नाम से जाना जाता था। वो जो कुछ भी खाते थे सिर्फ कच्चा ही खाते थे अगर कोई मुट्ठी भर गेंहूँ दे आता तो उसी को कच्चा खा लेते थे। किसी ने सब्जी दे दी तो कच्ची खा ली। अद्भुत बात है। जार्ज पंचम जो कि इंग्लैण्ड के राजा थे एक बार हिन्दुस्तान आये। काशी आकर उन्होंने किसी सिद्ध संत से मिलने की इच्छा प्रकट की, लोग उन्हें कच्चे बाबा के पास ले गये, बाबा ने अपनी कुटिया में कुर्सी लगा दी साफ सफाई भी करवा दी, आखिर कार उनसे मिलने विश्व का सम्राट आ रहा था। जार्ज पंचम उस समय युवा थे फिर भी भारतीय संस्कृति से भली- भांति परिचित थे और गरिमानुकूल व्यवहार भी करते थे। वे कुर्सी पर नहीं बैठे जमीन पर ही बैठे जब सम्राट जमीन पर बैठ गया तो भारतीय नौकर चाकर और चाटुकार भी -बाबा के सामने लोटने लगे। 

             जार्ज पंचम ने बाबा से कहा आप जो चाहे मांग लीजिए आपके सामने सम्राट बैठा हुआ है। बाबा ने कहा मैं क्या मांगू? तू चलकर मेरे पासा आया । मैं तुझे आशीर्वाद देता हूँ कि तू राज कर। मैं कहना यह चाह रहा हूँ कि ब्रह्म विद्या के धनी भिखारी नहीं होते। आज का कोई चाटुकार साधु संत होता तो तुरंत ही आश्रम के लिए जमीन मांग बैठता। मैं रोज ऐसे घटिया साधु-संतों को देखता हूँ जो कि राजनेताओं के सामने, कुबेर पतियों के सामने सिर्फ ट्रस्ट, संस्था और मठ के लिए भिक्षा मांगते रहते हैं। जो स्वयं भिखमंगा है वह किसी को क्या देगा? जो राजदरबार में आश्रम के लिए जमीन मांगने की याचना करता है उसे कहाँ ब्रह्म विद्या सिद्ध होगी?

              हरि गोस्वामी जी एक संत हुए हैं वे काशी में निवास करते थे, प्रतिदिन भगवान विश्वनाथ के दर्शन करते और फिर वहीं पास की झाड़ियों में जाकर छिप जाते । वे झाड़ी में रहते थे उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना। अचानक एक दिन काशी से गायब हो गये कहाँ गये किसी को पता ही नहीं चला। यह है ब्रह्म ज्ञानियों की पहचान। उनका एकमात्र कार्य था भगवान विश्वनाथ का दर्शन करना न कि पण्डाल बांधना। ऐसे ही एक और महात्मा हुए विश्वेश्वरदास जी वे छतरी वाले बाबा के नाम से जाने जाते थे। उनके पास बस एक छतरी थी छतरी गाड़ी और उसी के नीचे बैठ गये उन्हें विष्णु का वामन अवतार सिद्ध था। अब जिसे स्वयं वामन अवतार सिद्ध हो जो कि ढाई कदम में ही समस्त ब्रह्माण्ड के छोर को लांग दे उसे क्या जरूरत पड़ी मठ बनाने की। छतरी ही बहुत है। अयोध्या में एक ब्रह्म ज्ञानी हुए रामकृपा जी महाराज वह सारा जीवन एक छटाक चना ही खाते थे। उसके अलावा जीवन में उन्होंने कुछ खाया ही नहीं। प्रतिदिन बस एक छटाक चना खाते थे। जो भी आता था उसे चने के कुछ दाने दे देते थे। 
         
आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्होंने उनके द्वारा प्राप्त चने के दाने सुरक्षित रखे हुए हैं। अस्सी वर्ष बीत गये उन्हें शरीर त्यागे फिर भी चने के दाने ऐसे लगते हैं जैसे कि इसी वर्ष उत्पन्न हुए हों। ये अयोध्या में ही रहते थे। इनका जबर्दस्त कीलन कर रखा था प्रभु श्रीराम ने अयोध्या में। ये अंत तक अवधवासी ही रहे। एक बार इन्होंने अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश की। रात्रि को चुपचाप अयोध्या छोड़कर जाने लगे। ये तंग आ चुके थे जनता की भीड़-भाड़ से। जैसे ही अयोध्या छोड़कर निकले एक लम्बे चौड़े सिपाही ने आकर इनका रास्ता रोक लिया और इन्हें पुनः अयोध्या में भगा दिया। सारी रात यह दसों दिशाओं से अयोध्या छोड़कर जाने की कोशिश करते रहे पर हर बार वही सिपाही इन्हें डांट डपटकर पुनः भगा देता। अंत में ये समझ गये कि प्रभु श्री राम की इच्छा ही नहीं है कि मैं अयोध्या छोहूँ। इसे कहते हैं कृपा।

             आध्यात्मिक लोगों का जबर्दस्त कीलन होता है। वे अपने गुरुओं की बगलामुखी साधना के द्वारा पूरी तरह से स्तंभित होते हैं। जब तक वे अपने कार्यों को सम्पन्न नहीं कर लेंगे गुरु उन्हें नहीं छोड़ते। वे ही सारी व्यवस्था करते हैं। चारों तरफ से कीलन करके रख देते हैं। जब आप बगलामुखी यंत्र का तांत्रोक्त पूजन करेंगे तो उसमें पायेंगे कि इस ब्रह्म विद्या के द्वारा तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों के मुखों को स्तम्भित कर दिया गया है। ब्रह्मास्त्र, शिवास्त्र, महासुदर्शन चक्र सब के सब महादेवी ने कीलित कर दिए हैं अपने भक्त के लिए। यमास्त्र,कुबेरास्त्र, वायुअस्त्र, आयास्त्र इत्यादि सभी कीलित हैं। इन सभी पराशक्तियों से वह अपने भक्त को कवचित कर रही हैं। अर्थात अब भक्त के ऊपर ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी कुपित नहीं हो सकते तो फिर अन्य किसी शक्ति की क्या औकात। यह सब क्यों? क्योंकि इन्हीं क्रियाओं के द्वारा अहं ब्रह्माऽस्मि का अभ्युदय होगा अर्थात मैं ही ब्रह्मा हूँ। यही बगलामुखी महाविद्या का सारांश है। जो कुछ हूँ वह मैं ही हूँ। अब कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। यही है ब्रह्मऋषियों की पहचान। 

                देखिए ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कुबेर, यम इत्यादि इत्यादि मानवाकृति के रूप में अत्यधिक मात्रा में क्रियाशील मिल सकते हैं। ऐसे भी मनुष्य हैं जिनके पास अकूत धन सम्पदा है साक्षात कुबेर के विग्रह। ऐसे भी मनुष्य हैं जो साक्षात चाण्डाल हैं। ऐसे भी मनुष्य है जो सिर्फ निदर्यता के साथ प्राण हरने को तैयार रहते हैं। ब्रह्मा के समान मनुष्य भी हैं जो कि नवीन संरचना करने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं। उनमें इतना ब्रह्मत्व विकसित हो जाता है कि चालीस वर्ष में करोड़ों ऋषि पुत्र एवं ऋषि पुत्रियाँ उत्पन्न कर देते हैं। जैसे कि निखिलेश्वरानंद जी ने किया है। बस दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता है सब कुछ यहीं पर दिखलाई दे जायेगा। संकट मोचन मनुष्यों के जीवन में ऐसे ही क्षण आते हैं कि अगर उसके ऊपर गुरु कृपा नहीं है तो वह पतनोन्मुख हो जायेगा। मैंने अपने जीवन में ऐसे स्त्री-पुरुषों को देखा है कि जिनके जीवन में अगर निखिलेश्वरानंद जी नहीं आते तो वे पतनोन्मुख हो गये होते, नर्क की गर्त में चले गये होते, कहीं सड़ रहे होते। ऐसे ही क्षणों में रक्षा करती है बगलामुखी। सर्वदुष्टानां, सर्वशत्रुनां का कीलन, उच्चाटन, मारण एवं मोहन ब्रह्म विद्या बगलामुखी के द्वारा ही गुरु करते हैं। ब्रह्म विद्या वह है जो लाखों करोड़ों पीड़ित शोषित और कुण्ठित जीवों का पुनः उद्धार कर सके। चाहे माध्यम कुछ भी क्यों न हो? गुरु, गणेश, शिव, रुद्र, सूर्य, चन्द्र, अग्नि देव इत्यादि सभी कल्याणकारी एवं सौम्य माहेश्वरी बगलामुखी के कारण ही बने है।

जप एवं ध्यान की महत्ता ।।

तीर्थयात्रा, देवदर्शन, स्तवन, पाठ, षोडशोपचार, परिक्रमा, अभिषेक, शोभायात्रा, श्रद्धाञ्जलि, रात्रि जागरण, कीर्तन आदि अनेकों विधियाँ विभिन्न क्षेत्रों और वर्गों में अपने-अपने ढंग से विनिर्मित और प्रचलित हैं। इससे आगे का अगला स्तर वह है,जिसमें उपकरणों का प्रयोग न्यूनतम होता है और अधिकांश कृत्य मानसिक एवं भावनात्मक रूप से ही सम्पन्न करना पड़ता है। यों शारीरिक हलचलों, श्रम और प्रक्रियाओं का समन्वय उनमें भी रहता ही है।

उच्चस्तरीय साधना क्रम में मध्यवर्ती विधान के अन्तर्गत प्रधानतया दो कृत्य आते हैं- (१) जप (२) ध्यान 
न केवल भारतीय परम्परा में वरन् समस्त विश्व के विभिन्न साधना प्रचलनों में भी किसी न किसी रूप में इन्हीं दो का सहारा लिया गया है। प्रकार कई हो सकते हैं, पर उन्हें इन दो वर्गों के ही अंग-प्रत्यंग के रूप में देखा जा सकता है। साधना की अन्तिम स्थिति में शारीरिक या मानसिक कोई कृत्य करना शेष नहीं रहता। मात्र अनुभूति,संवेदना,भावना तथा संकल्प शक्ति के सहारे विचार रहित शून्यावस्था प्राप्त की जाती है। इसी को समाधि अथवा तुरीयावस्था कहते हैं। ब्रह्मानन्द का परमानन्द का अनुभव इसी स्थिति में होता है। इसे ईश्वर और जीव के मिलन की चरम अनुभूति कह सकते हैं। इस स्थान पर पहुँचने से ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो जाता है। यह स्तर समयानुसार आत्म-विकास का क्रम पूरा करते चलने से ही उपलब्ध होता है। उतावली में काम बनता नहीं बिगड़ता है। तुर्त-फुर्त ईश्वर दर्शन,समाधि स्थिति,कुण्डलिनी जागरण, शक्तिपात जैसी आतुरता से बाल बुद्धि का परिचय भर दिया जा सकता है। शरीर को सत्कर्मों में और मन को स‌द्विचारों में ही अपनाये रहने से जीव सत्ता का उतना परिष्कार हो सकता है, जिससे वह स्थूल और सूक्ष्म शरीरों को समुन्नत बनाते हुए कारण शरीर के उत्कर्ष से संबद्ध दिव्य अनुभूतियाँ और दिव्य सिद्धियाँ प्राप्त कर सके ।

निष्कर्ष : जप द्वारा अध्यात्म ही उस परमेश्वर को पुकारता है, जिसे हम एक प्रकार से भूल ही चुके हैं। मणि विहीन सर्प जिस तरह अशक्त एवं हताश बना बैठा रहता है, उसी प्रकार हम परमात्मा से बिछुड़कर अनाथ बालक की तरह डरे, सहमे बैठे हैं-अपने को असुरक्षित और आपत्तिग्रस्त स्थिति में अनुभव कर रहे हैं। लगता है हमारा कुछ बहुमूल्य खो गया है। जप की पुकार उसी को खोजने के लिए है। बिल्ली अपने बच्चों के इधर- उधर छिप जाने पर उन्हें ढूँढ़ने के लिए म्याऊँ म्याऊँ करती फिरती है और उस पुकार के आधार पर उन्हें खोज निकालती है। कोई बालक खो जाने पर उसको ढूँढ़ने के लिए नाम और हुलिया की मुनादी कराई जाती है। रामनाम की रट इसी प्रयोजन के लिए है।

आत्मचिंतन के क्षण ।।

आत्म-निर्माण के कार्य में सत्संग निःसन्देह सहायक होता है किन्तु आज की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में जो विडंबना फैली है, उससे लाभ के स्थान पर हानि अधिक है। सड़े-गले, औंधे-सीधे, रूढ़िवादी, भाग्यवादी, पलायनवादी विचार इन सत्संगों में मिलते हैं। फालतू लोग अपना समुदाय बढ़ाने के लिए सस्ते नुस्खे बताते रहते हैं या किसी देवी देवता के कौतूहल भरे चरित्र सुनाकर उनके सुनने मात्र से स्वर्ग, मुक्ति आदि मिलने की आशा बँधाते रहते हैं। ऐसा विडम्बनापूर्ण सत्संग किसी का क्या हित साधेगा?

आज सत्संग की आवश्यकता स्वाध्याय से ही पूरी करनी पड़ती है। जहाँ जीवन को प्रेरणाप्रद मार्गदर्शन कर सकने की दृष्टि से उपयुक्त सत्संग मिल सके, वहाँ जाने और लाभ उठाने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। पर जहाँ व्यर्थ की विडम्बनाओं में समय बर्बाद किया जाता हो, वहाँ जाने में कुछ लाभ नहीं। आज की स्थिति में सरल सत्संग स्वाध्याय ही हो सकता है। आत्मबल बढ़ाने वाला, चरित्र को उज्ज्वल करने वाला, गुणकर्म, स्वभाव में प्रौढ़ता उत्पन्न करने वाला साहित्य उपलब्ध करके नियमित रूप से उसे पढ़ते रहने से भी घर बैठे सत्पुरुषों के साथ सत्संग का लाभ लेने की सुविधा मिल सकती है।

प्रत्येक मनुष्य को हर घड़ी अपने स्वयं के चरित्र का निरीक्षण करते रहना चाहिए कि उसका चरित्र पशु तुल्य है या सत्पुरुषों जैसा। आत्म-निरीक्षण की प्रणाली का नाम ही स्वाध्याय है। पूर्ण मानव बनने के सद् उद्देश्य से जिनने भी स्वाध्याय का अनुसरण किया है उनकी आत्मा अवश्यमेव परिष्कृत हुई है, उनकी महानता जागृत हुये बिना नहीं रही।


गुरुमंत्र की शक्तियाँ ।।

रक्षण शक्तिः -

ॐ सहित मंत्र का जप करते हैं तो वह हमारे जप तथा पुण्य की रक्षा करता है।
किसी नामदान के लिए हुए साधक पर यदि कोई आपदा आनेवाली है,कोई दुर्घटना घटने वाली है तो मंत्र भगवान उस आपदा को शूली में से काँटा कर देते हैं। साधक का बचाव कर देते हैं। ऐसा बचाव तो एक नहीं,मेरे हजारों साधकों के जीवन में चमत्कारिक ढंग से महसूस होता है। गाड़ी उलट गयी,तीन गुलाटी खा गयी किंतु .....हमको खरोंच तक नहीं आयी.... ! हमारी नौकरी छूट गयी थी,ऐसा हो गया था, वैसा हो गया था किंतु बाद में उसी साहब ने हमको बुलाकर हमसे माफी माँगी और हमारी पुनर्नियुक्ति कर दी। पदोन्नति भी कर दी... इस प्रकार की न जाने कैसी-कैसी अनुभूतियाँ लोगों को होती हैं। ये अनुभूतियाँ समर्थ भगवान की सामर्थ्यता प्रकट करती हैं।

गति शक्तिः -

जिस योग में,ज्ञान में,ध्यान में आप फिसल गये थे, उदासीन हो गये ,किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये थे उसमें मंत्र दीक्षा लेने के बाद गति आने लगती है। मंत्र दीक्षा के बाद आपके अंदर गति शक्ति कार्य में आपको मदद करने लगती है।

कांति शक्तिः-

मंत्रजाप से जापक के कुकर्मों के संस्कार नष्ट होने लगते हैं और उसका चित्त उज्जवल होने लगता है। उसकी आभा उज्जवल होने लगती है, उसकी मति-गति उज्जवल होने लगती है और उसके व्यवहार में उज्जवलता आने लगती है।इसका मतलब ऐसा नहीं है कि आज मंत्र लिया और कल सब छूमंतर हो जायेगा... धीरे-धीरे होगा। एक दिन में कोई स्नातक नहीं होता, एक दिन में कोई एम.ए. नहीं पढ़ लेता, ऐसे ही एक दिन में सब छूमंतर नहीं हो जाता। मंत्र लेकर ज्यों-ज्यों आप श्रद्धा से, एकाग्रता से और पवित्रता से जप करते जायेंगे त्यों-त्यों विशेष लाभ होता जायेगा।

प्रीति शक्तिः-

ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों मंत्र के देवता के प्रति,मंत्र के ऋषि,मंत्र के सामर्थ्य के प्रति आपकी प्रीति बढ़ती जायेगी।

तृप्ति शक्तिः-

ज्यों-ज्यों आप मंत्र जपते जायेंगे त्यों-त्यों आपकी अंतरात्मा में तृप्ति बढ़ती जायेगी, संतोष बढ़ता जायेगा। जिन्होंने नियम लिया है और जिस दिन वे मंत्र नहीं जपते,उनका वह दिन कुछ ऐसा ही जाता है। जिस दिन वे मंत्र जपते हैं,
उस दिन उन्हें अच्छी तृप्ति और संतोष होता है।जिनको गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है उनकी वाणी में सामर्थ्य आ जाता है। नेता भाषण करता है तो लोग इतने तृप्त नहीं होते, किंतु जिनका गुरुमंत्र सिद्ध हो गया है ऐसे महापुरुष बोलते हैं तो लोग बड़े तृप्त हो जाते हैं ।

अवगम शक्तिः-

मंत्रजाप से दूसरों के मनोभावों को जानने की शक्ति विकसित हो जाती है।
दूसरे के मनोभावों को आप अंतर्यामी बनकर जान सकते हो। कोई व्यक्ति कौन सा भाव लेकर आया है ? दो साल पहले उसका क्या हुआ था या अभी उसका क्या हुआ है ?उसकी तबीयत कैसी है? लोगों को आश्चर्य होगा किंतु आप तुरंत बोल दोगे कि 'आपको छाती में जरा दर्द है... आपको रात्रि में ऐसा स्वप्न आता है....कोई कहे कि 'महाराज ! आप तो अंतर्यामी हैं।' वास्तव में यह भगवत्शक्ति के विकास की बात है।

प्रवेश अवति शक्तिः-

अर्थात् सबके अंतरतम की चेतना के साथ एकाकार होने की शक्ति। अंतःकरण के सर्व भावों को तथा पूर्वजीवन के भावों को और भविष्य की यात्रा के भावों को जानने की शक्ति कई योगियों में होती है। वे कभी-कभार मौज में आ जायें तो बता सकते हैं कि आपकी यह गति थी,आप यहाँ थे,फलाने जन्म में ऐसे थे,अभी ऐसे हैं। जैसे दीर्घतपा के पुत्र पावन को माता-पिता की मृत्यु पर उनके लिए शोक करते देखकर उसके बड़े भाई पुण्यक ने उसे उसके पूर्वजन्मों के बारे में बताया था। यह कथा योगवाशिष्ठ महारामायण में आती है।

श्रवण शक्तिः-

मंत्रजाप के प्रभाव से जापक सूक्ष्मतम,गुप्ततम शब्दों का श्रोता बन जाता है। जैसे, शुकदेवजी महाराज ने जब परीक्षित के लिए सत्संग शुरु किया तो देवता आये। शुकदेवजी ने उन देवताओं से बात की। माँ आनंदमयी का भी देवलोक के साथ सीधा सम्बन्ध था। और भी कई संतो का होता है। दूर देश से भक्त पुकारता है कि गुरुजी !
मेरी रक्षा करो... तो गुरुदेव तक उसकी पुकार पहुँच जाती है !

स्वाम्यर्थ शक्तिः-

अर्थात् नियामक और शासन का सामर्थ्य। नियामक और शासक शक्ति का सामर्थ्य विकसित करता है प्रणव का जाप।

याचन शक्तिः-

अर्थात् याचना की लक्ष्यपूर्ति का सामर्थ्य देने वाला मंत्र।

क्रिया शक्तिः-

अर्थात् निरन्तर क्रियारत रहने की क्षमता, क्रियारत रहनेवाली चेतना का विकास।

इच्छित अवति शक्तिः-

अर्थात् वह ॐ स्वरूप परब्रह्म परमात्मा स्वयं तो निष्काम है किंतु उसका जप करने वाले में सामने वाले व्यक्ति का मनोरथ पूरा करने का सामर्थ्य आ जाता है। इसीलिए संतों के चरणों में लोग मत्था टेकते हैं, कतार लगाते हैं,प्रसाद धरते हैं,आशीर्वाद माँगते हैं आदि आदि।

इच्छित अवन्ति शक्ति:-

अर्थात् निष्काम परमात्मा स्वयं शुभेच्छा का
प्रकाशक बन जाता है।

दीप्ति शक्तिः-

अर्थात् ओंकार जपने वाले के हृदय में ज्ञान का प्रकाश बढ़ जायेगा। उसकी दीप्ति शक्ति विकसित हो जायेगी।

वाप्ति शक्तिः-

अणु-अणु में जो चेतना व्याप रही है उस चैतन्यस्वरूप ब्रह्म के साथ आपकी
एकाकारता हो जायेगी।

आलिंगन शक्तिः-

अर्थात् अपनापन विकसित करने की शक्ति। ओंकार के जप से पराये भी अपने होने लगेंगे तो अपनों की तो बात ही क्या ?जिनके पास जप-तप की कमाई नहीं है उनको तो घरवाले भी अपना नहीं मानते,किंतु जिनके पास ओंकार के जप की कमाई है उनको घरवाले, समाजवाले,गाँववाले,नगरवाले,राज्य वाले,राष्ट्रवाले तो क्या विश्ववाले भी अपना मानकर आनंद लेने से इनकार नहीं करते।

हिंसा शक्तिः-

ओंकार का जप करने वाला हिंसक बन जायेगा ?हाँ,हिँसक बन जायेगा किंतु कैसा हिंसक बनेगा ?दुष्ट विचारों का दमन करने वाला बन जायेगा और दुष्टवृत्ति के लोगों के दबाव में नहीं आयेगा। अर्थात् उसके अन्दर अज्ञान को और दुष्ट सरकारों को मार भगाने का प्रभाव विकसित हो जायेगा।

दान शक्तिः-

अर्थात् वह पुष्टि और वृद्धि का दाता बन जायेगा। फिर वह माँगनेवाला नहीं रहेगा,देने की शक्तिवाला बन जायेगा। वह देवी-देवता से,भगवान से माँगेगा नहीं,
स्वयं देने लगेगा।

भोग शक्तिः-

प्रलयकाल स्थूल जगत को अपने में लीन करता है, ऐसे ही तमाम दुःखों को, चिंताओं को,भयों को अपने में लीन करने का सामर्थ्य होता है प्रणव का जप करने वालों में। जैसे दरिया में सब लीन हो जाता है, ऐसे ही उसके चित्त में सब लीन हो जायेगा और वह अपनी ही लहरों में फहराता रहेगा,मस्त रहेगा... नहीं तो एक-दो दुकान,एक-दो कारखाने वाले को भी कभी-कभी चिंता में चूर होना पड़ता है। किंतु इस प्रकार की साधना जिसने की है उसकी एक दुकान या कारखाना तो क्या,एक आश्रम या समिति तो क्या,1100,1200 या 1500 ही क्यों न हों,सब उत्तम प्रकार से चलती हैं !उसके लिए तो नित्य नवीन रस, नित्य नवीन नंद,नित्य नवीन मौज रहती है।शादी अर्थात् खुशी ! वह ऐसा मस्त फकीर बन जायेगा।

वृद्धि शक्तिः-

अर्थात् प्रकृतिवर्धक, संरक्षक शक्ति। गुरुदेव का जप करने वाले में प्रकृतिवर्धक और
सरंक्षक सामर्थ्य आ जाता है।

अध्यात्मिक उर्जा का क्षय कैसे हो जाता है ।

मनुष्य के साथ सबसे बड़ी समस्या ही यह है की वह उर्जा के नियमो से अवगत नहीं है. अध्यात्मिक शक्ति अर्थात उर्जा का, मंत्र इत्यादि क्रियाओं से आहवाहन तो हो सकता है किन्तु दिव्य उर्जा को संचित कर उसका उचित समय पर उचित प्रयोग करना नही आता है.
इसके अलावा मनुष्य को इस बात का भी ज्ञान नहीं होता है कि किस प्रकार छोटे छोटे नकारात्मक कर्मों द्वारा अपनी कठिनता से प्राप्त दिव्य उर्जा का नुकसान कर देता है.

उर्जा के क्षय का सबसे प्रमुख कारण मन के सभी छोटे और बड़े नकारात्मक विचार होते है. मन की किसी भी वस्तु , व्यक्ति अथवा परिस्थिति को लेकर सबसे पहली जो प्रतिक्रिया होती है वह है – विचार. विचारो की प्रवृत्ति या तो भूतकाल की ओर रहती है या भविष्य की ओर रहती है. अधिकंशतः विचार भूतकाल मे हो चुकी घटना मे संलग्न व्यक्ति अथवा वस्तुओं से हमारा भावनात्मक लगाव होने के कारण चलते रहते है. ऐसे विचारो मे अधिकांशतः विचार तुलनात्मक , निषेधात्मक और अपेक्षात्मक होते है जो कि मानव मन को असहज बना देते है. भविष्य की आवश्यकता से अधिक चिन्ता भी मन को असंतुलित कर देती है.
ऊर्जा का निरंतर प्रवाह
भूतकाल और भविष्य काल में रहने से हो रहे शारीरिक और मानसिक असंतुलन का कारण यह है कि वह शक्ति जो भविष्य का उचित निर्माण कर सकती है और भूतकाल की असहज परिस्थितियों को पुनः उत्पन्न नहीं होने देती वर्तमान काल मे विद्यमान होती है . किन्तु मनुष्य कभी भी वर्तमान मे सहज हो कर नहीं रहता. वर्तमान का सही उपयोग ना कर पाने के कारण भविष्य की नयी शुभ सम्भावनाये स्वरूप नहीं ले पाती है. भूतकाल का कोई अस्तित्व नहीं होता है, किन्तु नकारात्मक विचारों द्वारा बार बार पोषित होने के कारण वह भविष्य में उसी प्रकार के व्यक्तियों से सम्बन्ध अथवा परिस्थित्यों के निर्माण की सम्भावना को सबल बनाते है.

विचार अध्यात्मिक उर्जा को गति प्रदान करते है.           
सकारात्मक उर्जा समय रहते सही दिशा देने पर उत्तम आतंरिक और वाह्य परिस्थितियों का निर्माण कर सकती है. किन्तु यदि अवांछनीय विचारो पर नियन्त्रण नहीं रखा जाये तो उर्जा का अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के लिये उपयुक्त मात्रा मे संचयन नहीं हो पाता है और सब कुछ यथावत नकारात्मक रूप मे चलता रहता है.

जैसे कि हम सभी जानते है कि उर्जा का हस्तान्तरण पाँच विधियों के द्वारा होता है – शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध उर्जा को एक स्थान से दूसरे स्थान अथवा व्यक्ति तक पहुचाने के वाहक होते है. कटु , तीखे, क्रोधी, निन्दक और व्यंगात्मक शब्दों का यदि प्रयोग किया जाये तो उर्जा की हानि होती है. यही कारण है कि साधनकाल मे तथा अन्य समय मे भी किसी भी प्रकार से प्रेरित होकर अपशब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिये. किसी को अशीर्वाद दिया जाये अथवा श्राप ; दोनों ही स्थिति मे स्वयम की तपस्या से अर्जित की गयी उर्जा शब्दों के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित हो जाती है और उस समय की गयी इच्छा के अनुरूप दुसरे व्यक्ति को फल देती है .

तामसिक भोजन, मांस, मदिरा, धूम्रपान इत्यादी का उपयोग भी अध्यात्मिक शक्ति के ह्रास का प्रमुख कारण है.ऐसा भोजन जब तक सम्पूर्णतः शरीर को अपने प्रभाव से मुक्त नहीं कर देता उर्जा स्तर को प्रभवित करता रहता है. तामसिक भोजन के उपरान्त उर्जा को व्यवस्थित होने मे 2-4 दिन सााधरणतयः लग जाते है.

इसी प्रकार जब नकारात्मक विचारधारा के साथ जब भोजन बनाया जाता है तो स्पर्श के साथ विचारों की उर्जा पदार्थों मे प्रवेश कर उसकी सात्विक शक्ति को कम कर देते है. नकारात्मक व्यक्तियों के साथ हाथ मिलाने , उनके द्वारा दिए हुए वस्त्र पहनना अथवा उनके वस्त्र पहनने से भी उनकी ऊर्जा दूसरे व्यक्ति के अंदर प्रवेश कर अस्थिरता , बेचैनी और क्रोध जैसे अन्य विकार उत्पन्न करते है। सड़न इत्यादि से पैदा हुई और अन्य अप्रिय लग्ने वाली गंध वायु के माध्यम से नासिका से होती हुई सीधे सूक्ष्म शरीर को प्रभवित करती है और उर्जा भौतिक एवम सूक्ष्म शरीर के मध्य उर्जा मे असंतुलन पैदा करती है.

इन्ही सब कारणों से अध्यात्म मे मन की शुद्धता , भोजन , वाणी और स्पर्श इत्यादि की सावधानी पर बहुत अधिक बल दिया गया है. यदि इन माध्यमो का सही उपयोग किया जाता है तो सकारात्मक उर्जा की गति अंदर की ओर होती है जिससे उसका संचय होकर मात्रा मे वृद्धी होती है. इन माध्यमों का दुरूपयोग करने पर उर्जा की प्रवृत्ति वाह्य और अधोमुखी हो जाती है जिससे संचित उर्जा का भी क्षय हो जाता है. यह वाह्य प्रवृत्ति और अधोगामी गति तब तक रहती है जब तक सही प्रयासो और संकल्प के द्वारा उर्जा का मार्ग परिवर्तित ना किया जाये।

बंधन खोलना अपने आप में एक कला है ।।

प्रतिबंधात्मक जीवन में श्री की स्थापना सम्भव नहीं है। आदि शक्ति माँ बगलामुखी के मंत्र में बीज मंत्र के रूप में श्री भी स्थापित है। मंत्र गूंगे, बहरे और अंधे भी होते हैं। भारत वर्ष तीर्थ प्रधान देश है। जगह-जगह आपको प्राण प्रतिष्ठित तीर्थ स्थान मिल जायेंगे प्रत्येक व्यक्ति जीवन में भटकता हुआ कभी न कभी तीर्थ स्थानों, पर नदियों के तट पर, मंदिरों में या फिर गुरुओं के सानिध्य में पहुँच ही जाता है। एक अज्ञात शक्ति उसे बार- बार बाध्य करती है इन सब जगहों पर पहुँचने के लिए। यहीं पर बंधन खुलते हैं और व्यक्ति का उच्चाटन समाप्त होता है एवं उसे जीवन में एक निश्चित दिशा प्राप्त होती है। 


           शक्ति संचय की यह अद्भुत व्यवस्था है। प्रत्येक व्यक्ति के बंधन अलग- अलग स्थानों पर खुलते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का भाग्योदय के पूजन में रक्षा कवच का विधान है। मुख्य रूप से सभी रक्षा कवचों में बगलामुखी की शक्ति ही निहित होती है। महाविद्याओं की शक्तियाँ मूल स्तोत्र हैं जिनके द्वारा सभी आदि शक्तियाँ अस्त्र शस्त्र एवं कवचों से युक्त होती हैं और फिर यहीं अस्त्र शस्त्र और कवच भक्तजनों को उनके इष्टों के द्वारा प्राप्त होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग संरचना है इसीलिए उसका एक विशेष इष्ट देव होता ही है। उस इष्ट के माध्यम से वह आसानी से महाविद्याओं की शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। योग विद्या के माध्यम से या फिर अन्य क्रियाओं के माध्यम से साधक अपनी क्रियाशीलता बढ़ा सकता है। शरीर की क्रियाशीलता और मानस की क्रियाशीलता में जमीन आसमान का फर्क है। मनुष्य भाव प्रधान जीव है उसके अंदर अनेकों भाव होते हैं इसीलिए वह वमन की प्रक्रिया से ग्रसित होता है। जो उसके मानस में बनता है अगर उसका वह वमन नहीं करेगा तो जीवन मुश्किल हो जायेगा।

           अगर दुःख का निर्माण हो रहा है तो आंसू के माध्यम से वह उसे प्रकट करेगा। कभी-कभी कुछ लोगों में विचार ज्यादा बनने लगते है‌‌। जिनमें विचार ज्यादा बनते हैं वे उन्हें प्रकट किए बिना नहीं रह सकते। भाव की प्रधानता से मस्तिष्क का बहुत ज्यादा विकास नहीं हो सकता। अतः मस्तिष्क की क्रियाशीलता धीरे-धीरे भाव के कारण कम होने लगती है। भाव एक ऐसा द्वार जो अगर खुल गया तो आपके मस्तिष्क में परमंत्र,तंत्र एवं शत्रु द्वारा किया गया अभिचार कर्म शीघ्रता के साथ आपको उद्वेलित करके रख देगा। भाव के नियंत्रण के लिए ही मस्तिष्क का शून्यीकरण किया जाता है। अर्थात मस्तिष्क को शून्य कर देना। कुछ समय के लिए मस्तिष्क के अंदर उठ रही सारी क्रियाओं को समाप्त करना। यह इतना आसान नहीं हैं। इसे ही स्तम्भन की प्रक्रिया कहते हैं। यही ध्यान है। यही बगलामुखी अनुष्ठान का रहस्य है। 

           यह तभी सम्भव होगा जब मस्तिष्क का सम्प्रेषण केवल मनुष्यों के द्वारा ही नहीं अपितु अन्य इतर योनियों, ग्रह नक्षत्रों इत्यादियों से भी बाधित या स्तम्भित कर दिया जाय। तभी मस्तिष्क को क्रियाशीलता बढ़ाई जा सकती है। यह समाधि की अवस्था है। इसे ब्रह्म अवस्था भी कहते हैं। इस ब्रह्म अवस्था में ही मस्तिष्क वास्तविक सृजन कर सकेगा। एक ऐसा सृजन जो कि परिवर्तनकारी होगा। कुछ अलग हटकर होगा। मस्तिष्क को रोकना होगा व्यर्थ बर्बाद होने से। मस्तिष्क की गुणवत्ता सुधारनी होगी। मस्तिष्क को केवल संवेगों की क्रीड़ा स्थली बनकर नही रहने देना होगा। संवेगों और इन्द्रियों के ऊपर बहुत कुछ है। भाव प्रधान मस्तिष्क बहुत मिल जाएंगे क्रूर और निर्दयी मस्तिष्क बहुत मिल जायेंगे। आलोचक मस्तिष्कों की भरमार है। भिखमंगे मस्तिष्क जगह-जगह पर लगे हुए हैं। इन सब मस्तिष्कों से बगलामुखी को आराधना कदापि नहीं होगी। कुछ एक विरले सृजनशील मस्तिष्क होते हैं। इन सृजनशील मस्तिष्कों के द्वारा ही ब्रह्म विद्या को समझा जा सकता है सृजनशील मस्तिष्क वो देख सकता है, वो महसूस कर सकता है जो कि आम मस्तिष्क सोच भी नहीं सकता। यह बंधन मुक्त मस्तिष्क होता है और बंधन से मुक्तता ही बगलामुखी या अन्य दस महाविद्याओं आराधना का ध्येय है ।

भारतीय क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ मुखर्जी 'बाघा जतीन' ।। जयंती ।।


जन्म : 07 दिसम्बर 1879
मृत्यु : 10 सितंबर 1915

जतीन्द्रनाथ मुखर्जी ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ एक बंगाली क्रांतिकारी थे। इनकी अल्पायु में ही इनके पिता का देहांत हो गया था। इनकी माता ने घर की समस्त ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और उसे बड़ी सावधानीपूर्वक निभाया। जतीन्द्रनाथ मुखर्जी के बचपन का नाम 'जतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय' था। अपनी बहादुरी से एक बाघ को मार देने के कारण ये 'बाघा जतीन' के नाम से भी प्रसिद्ध हो गये थे। जतीन्द्रनाथ ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कार्यकारी दार्शनिक क्रान्तिकारी थे। वे 'युगान्तर पार्टी' के मुख्य नेता थे। उस समय युगान्तर पार्टी बंगाल में क्रान्तिकारियों का प्रमुख संगठन थी।

जतीन्द्रनाथ मुखर्जी का जन्म ब्रिटिश भारत में बंगाल के जैसोर में सन 7 दिसम्बर 1879 ई. में हुआ था। पाँच वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया था। माँ ने बड़ी कठिनाईयाँ उठाकर इनका पालन-पोषण किया था। जतीन्द्रनाथ ने 18 वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली और परिवार के जीविकोपार्जन हेतु स्टेनोग्राफ़ी सीखकर 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से जुड़ गए। वह बचपन से ही बड़े बलिष्ठ थे। उनके विषय में एक सत्य बात यह भी है कि 27 वर्ष की आयु में एक बार जंगल से गुज़रते हुए उनकी मुठभेड़ एक बाघ से हो गयी। उन्होंने बाघ को अपने हंसिये से मार गिराया था। इस घटना के बाद जतीन्द्रनाथ ‘बाघा जतीन’ के नाम से विख्यात हो गए थे।

इन्हीं दिनों अंग्रेज़ों ने बंग-भंग की योजना बनायी। बंगालियों ने इसका विरोध खुलकर किया ऐसे समय में जतीन्द्रनाथ मुखर्जी का भी नया रक्त उबलने लगा। उन्होंने साम्राज्यशाही की नौकरी को लात मारकर आन्दोलन की राह पकड़ी। सन 1910 में एक क्रांतिकारी संगठन में काम करते वक्त जतीन्द्रनाथ 'हावड़ा षडयंत्र केस' में गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हें साल भर की जेल काटनी पड़ी। जेल से मुक्त होने पर वह 'अनुशीलन समिति' के सक्रिय सदस्य बन गए और 'युगान्तर' का कार्य संभालने लगे। उन्होंने अपने एक लेख में उन्हीं दिनों लिखा था- "पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवन-यापन का अवसर देना हमारी मांग है।"

क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का प्रमुख साधन डकैती था। दुलरिया नामक स्थान पर भीषण डकैती के दौरान अपने ही दल के एक सहयोगी की गोली से क्रांतिकारी अमृत सरकार घायल हो गए। विकट समस्या यह खड़ी हो गयी कि धन लेकर भागें या साथी के प्राणों की रक्षा करें!

अमृत सरकार ने जतीन्द्रनाथ से कहा कि धन लेकर भाग जाओ, तुम मेरी चिंता मत करो, लेकिन इस कार्य के लिए जतीन्द्रनाथ तैयार न हुए तो अमृत सरकार ने आदेश दिया- "मेरा सिर काटकर ले जाओ, जिससे कि अंग्रेज़ पहचान न सकें।" इन डकैतियों में 'गार्डन रीच' की डकैती बड़ी मशहूर मानी जाती है। इसके नेता जतीन्द्रनाथ मुखर्जी ही थे। इसी समय में विश्वयुद्ध प्रारंभ हो चुका था। कलकत्ता में उन दिनों 'राडा कम्पनी' बंदूक-कारतूस का व्यापार करती थी। इस कम्पनी की एक गाडी रास्ते से गायब कर दी गयी थी, जिसमें क्रांतिकारियों को 52 मौजर पिस्तौलें और 50 हज़ार गोलियाँ प्राप्त हुई थीं। ब्रिटिश सरकार हो ज्ञात हो चुका था कि 'बलिया घाट' तथा 'गार्डन रीच' की डकैतियों में जतीन्द्रनाथ का ही हाथ है।

1 सितम्बर, 1915 को पुलिस ने जतीन्द्रनाथ का गुप्त अड्डा 'काली पोक्ष' ढूंढ़ निकाला जतीन्द्रनाथ अपने साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि राज महन्ती नमक अफ़सर ने गाँव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशश की। बढ़ती भीड़ को तितर-बितर करने के लिए जतीन्द्रनाथ ने गोली चला दी। राज महन्ती वहीं ढेर हो गया। यह समाचार बालासोर के ज़िला मजिस्ट्रेट किल्वी तक पहुँचा दिया गया। किल्वी दल बल सहित वहाँ आ पहुँचा। यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था।

जतीन्द्रनाथ उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी उनके साथ था। दोनों तरफ़ से गोलियाँ चली। चित्तप्रिय वहीं शहीद हो गया। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे।

🤔 क्या करें, क्या न करें ? 🤔

आचार संहिता

।। शयन ।।

१- प्राच्यां दिशि शिरश्शस्तं याम्यायामथ वा नृप।
सदैव स्वपत: पुंसो विपरीतं तु रोगदम्।।
           विष्णुपुराण ३।११।११३

२- प्राक्शिर:शयने विद्याद्धनमायुश्च दक्षिणे।
पश्चिमे प्रबला चिन्ता हानिमृत्युरथोत्तरे।।
    भगवंतभास्कर, आचारमयूख

३- अवाङ्मुखो न नग्नो वा न च भिन्नासने क्वचित्।
न भग्नायान्तु खट्वायां शून्यागारे तथैव च।।
      लघुव्याससंहिता २।८८-८९

४- नाविशालां न वै भग्नां नासमां मलिनां न च।
न च जन्तुमयीं शय्यामधितिष्ठेदनास्तृताम्।।
         विष्णुपुराण ३।११।११२

अर्थात् ।।

१- सदा पूर्व या दक्षिणकी तरफ सिर करके सोना चाहिये। उत्तर या पश्चिमकी तरफ सिर करके सोनेसे आयु क्षीण होती है तथा शरीरमें रोग उत्पन्न होते हैं।

२- पूर्वकी तरफ सिर करके सोनेसे विद्या प्राप्त होती है। दक्षिणकी तरफ सिर करके सोनेसे धन तथा आयुकी वृद्धि होती है। पश्चिमकी तरफ सिर करके सोनेसे प्रबल चिंता होती है। उत्तरकी तरफ सिर करके सोनेसे हानि तथा मृत्यु होती है अर्थात आयु क्षीण होती है।

३- अधोमुख होकर, नग्न होकर, दूसरेकी शय्यापर, टूटी हुई खाटपर तथा जनशून्य घरमें नहीं सोना चाहिये।

४- जो विशाल (बड़ी) ना हो, टूटी हुई हो, ऊंची- नीची हो, मैली हो अथवा जिसमें जीव हों या जिसपर कुछ बिछा हुआ न हो, उस शय्यापर नहीं सोना चाहिये।