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आत्मा की सात अवस्थाएं ।।

वेद अनुसार जन्म और मृत्यु के बीच और फिर मृत्यु से जन्म के बीच तीन अवस्थाएं ऐसी हैं जो अनवरत और निरंतर चलती रहती हैं। वह तीन अवस्थाएं हैं : जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। उक्त तीन अवस्थाओं से बाहर निकलने की विधि का नाम ही है हिन्दू धर्म।
यह क्रम इस प्रकार चलता है- जागा हुआ व्यक्ति जब पलंग पर सोता है तो पहले स्वप्निक अवस्था में चला जाता है फिर जब नींद गहरी होती है तो वह सुषुप्ति अवस्था में होता है। इसी के उल्टे क्रम में वह सवेरा होने पर पुन: जागृत हो जाता है। व्यक्ति एक ही समय में उक्त तीनों अवस्था में भी रहता है। कुछ लोग जागते हुए भी स्वप्न देख लेते हैं अर्थात वे गहरी कल्पना में चले जाते हैं।
जो व्यक्ति उक्त तीनों अवस्था से बाहर निकलकर खुद का अस्तित्व कायम कर लेता है वही मोक्ष के, मुक्ति के और ईश्वर के सच्चे मार्ग पर है। उक्त तीन अवस्था से क्रमश: बाहर निकला जाता है। इसके लिए निरंतर ध्यान करते हुए साक्षी भाव में रहना पड़ता है तब हासिल होती है : तुरीय अवस्था, तुरीयातीत अवस्था, भगवत चेतना और ‍ब्राह्मी चेतना।

1. जागृत अवस्था ----  अभी यह आलेख पढ़ रहे हो तो जागृत अवस्था में ही पढ़ रहे हो? ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है लेकिन अधिकतर लोग ठीक-ठीक वर्तमान में भी नहीं रहते। जागते हुए कल्पना और विचार में खोए रहना ही तो स्वप्न की अवस्था है।
जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो वर्तमान में नहीं रहकर कल्पना-लोक में चले जाते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं एक प्रकार का स्वप्न-लोक होता है। जब हम अतीत की किसी याद में खो जाते हैं, तो हम स्मृति-लोक में चले जाते हैं। यह भी एक-दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक ही है।
अधिकतर लोग स्वप्‍न लोक में जीकर ही मर जाते हैं, वे वर्तमान में अपने जीवन का सिर्फ 10 प्रतिशत ही जी पाते हैं, तो ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।

2. स्वप्न अवस्था ----  जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था को स्वप्न अवस्था कहते हैं। निद्रा में डूब जाना अर्थात सुषुप्ति अवस्था कहलाती है। स्वप्न में व्यक्ति थोड़ा जागा और थोड़ा सोया रहता है। इसमें अस्पष्ट अनुभवों और भावों का घालमेल रहता है इसलिए व्यक्ति कब कैसे स्वप्न देख ले कोई भरोसा नहीं।
यह ऐसा है कि भीड़भरे इलाके से सारी ट्रेफिक लाइटें और पुलिस को हटाकर स्ट्रीट लाइटें बंद कर देना। ऐसे में व्यक्ति को झाड़ का ‍हिलना भी भूत के होने को दर्शाएगा या रस्सी का हिलना सांप के पीछे लगने जैसा होगा। हमारे स्वप्न दिनभर के हमारे जीवन, विचार, भाव और सुख-दुख पर आधारित होते हैं। यह किसी भी तरह का संसार रच सकते हैं।

3. सुषुप्ति अवस्था ----  गहरी नींद को सु‍षुप्ति कहते हैं। इस अवस्था में पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां सहित चेतना (हम स्वयं) विश्राम करते हैं। पांच ज्ञानेंद्रियां- चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण और त्वचा। पांच कर्मेंन्द्रियां- वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ और पायु।
सुषुप्ति की अवस्था चेतना की निष्क्रिय अवस्था है। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। इस अवस्था में किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना। मृत्यु काल में अधिकतर लोग इससे और गहरी अवस्था में चले जाते हैं।

4. तुरीय अवस्था ----  चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। यह अवस्था व्यक्ति के प्रयासों से प्राप्त होती है। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है, न ही कोई रूप। यह निर्गुण है, निराकार है। इसमें न जागृति है, न स्वप्न और न सुषुप्ति। यह निर्विचार और अतीत व भविष्य की कल्पना से परे पूर्ण जागृति है।
यह उस साफ और शांत जल की तरह है जिसका तल दिखाई देता है। तुरीय का अर्थ होता है चौथी। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसे संख्या से संबोधित करते हैं। यह पारदर्शी कांच या सिनेमा के सफेद पर्दे की तरह है जिसके ऊपर कुछ भी प्रोजेक्ट नहीं हो रहा।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएं तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। यहीं से शुरू होती है आध्यात्मिक यात्रा, क्योंकि तुरीय के इस पार संसार के दुःख तो उस पार मोक्ष का आनंद होता है। बस, छलांग लगाने की जरूरत है।

5. तुरीयातीत अवस्था ---- तुरीय अवस्था के पार पहला कदम तुरीयातीत अनुभव का। यह अवस्था तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है।

इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए जीवन रहते जीवन-मुक्त। इस अवस्था में व्यक्ति को स्थूल शरीर या इंद्रियों की आवश्यकता नहीं रहती। वह इनके बगैर भी सबकुछ कर सकता है। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।

6. भगवत चेतना ---- तुरीयातीत की अवस्था में रहते-रहते भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।
इस अवस्था में व्यक्ति से कुछ भी छुपा नहीं रहता और वह संपूर्ण जगत को भगवान की सत्ता मानने लगता है। यह एक महान सि‍द्ध योगी की अवस्था है ।

7. ब्राह्मी चेतना --- भगवत चेतना के बाद व्यक्ति में ब्राह्मी चेतना का उदय होता है अर्थात कमल का पूर्ण रूप से खिल जाना। भक्त और भगवान का भेद मिट जाना। अहम् ब्रह्मास्मि और तत्वमसि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं और यह संपूर्ण जगत ही मुझे ब्रह्म नजर आता है।
इस अवस्था को ही योग में समाधि की अवस्था कहा गया है। जीते-जी मोक्ष।
                                                 साभार.......

गुरुभक्तियोग कथा अमृत ।।

गुरु जब कोई भी चीज करने की आज्ञा करें तब शिष्य को हृदयपूर्वक उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए। गुरु के प्रति इस प्रकार की आज्ञाकारिता आवश्यक है। यह निष्काम कर्म की भावना है। इस प्रकार का कर्म किसी भी फल की आशा के लिए नहीं किया जाता अपितु गुरु की पवित्र आज्ञा के लिए ही किया जाता है। तभी मन की अशुद्धियाँ, जैसे कि काम, क्रोध और लोभ नष्ट होते हैं। जो शिष्य चार प्रकार के साधनों से सज्जग है वही ईश्वर से अभिन्न ब्रह्मनिष्ठ गुरु के समक्ष बैठने के एवं उनसे महावाक्य सुनने के लिए लायक है।

चार प्रकार के साधन यानी साधनचतुष्टय इस प्रकार हैं-
विवेक -- आत्मा-अनात्मा, नित्य-अनित्य, कर्म-अकर्म आदि का भेद समझने की शक्ति। 
दूसरा वैराग्य -- इन्द्रियजन्य सुख और सांसारिक विषयों से विरक्ति। 
तीसरा षट्संपत्ति -- शम यानी वासनाओं एवं कामनाओं से मुक्त निर्मल मन की शान्ति , दम यानी इन्द्रियों पर काबू , उपरति यानी विषय-विकारी जीवन से उपरामता , तितिक्षा माने हरेक स्थिति में स्थिरता एवं धैर्य के साथ सहनशक्ति, श्रद्धा और समाधान बाह्य आकर्षणों से अलिप्त मन की एकाग्र स्थिति।
चौथा साधन है मुमुक्षत्व -- मोक्ष अथवा आत्म-साक्षात्कार के लिए तीव्र आकांक्षा। आपको मार्ग दर्शन देने के लिए आत्मसाक्षत्कारी गुरु होने ही चाहिएं I 

हमने कल पढ़ा कि सदगुरु जनार्दन स्वामी ने एका को पुरस्कार स्वरूप अपना एकांत स्थान वरसा डोंगर ले जाने का प्रस्ताव रखा I तब एका को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ I जबसे एका जनार्दन स्वामी की शरण में आया था तब से सैकड़ों बार उसके होठों पर यही आया था कि एक बार गुरुदेव के साथ एकांत स्थान में जायें पर वह आशा आज प्रत्यक्ष रूप से फलीभूत हुई थी I 

जब एका ने गुरुदेव का वह मनोरम स्थान देखा तब वह हर्ष से प्रफुल्लित हो गया I वन्यजीवों के प्रति गुरुदेव का प्रेम देखकर उसकी आंखें आल्हादित हो गयीं I एका स्तब्ध हुआ सब देख रहा था I सद्गुरु का ऐसा आकर्षक आभामंडल जो विवेकहीन हिंसक जीवों के ह्रदयों तक को अपनी ओर खींच लेता है I यह दृश्य एका के लिए अनिर्वचनीय था I जनार्दन स्वामी के नेत्र मूंदने लगे वे आत्मलीन होने वाले हैं उसने दौड़ कर उनके चरणों को थाम लिया और भावावेश में एका बोला गुरुदेव स्वामी !  
मला घडेल नात्यांचे दर्शन मूळ स्वरूपात I 
मुझे यहां सच में दत्तात्रेय स्वामी का दर्शन प्राप्त होगा न बताइये न गुरुवर वो आएँगे न यहां ?

अवश्य ! तेरी भावनाओं का प्रबल प्रवाह उन्हें यहां आने का आमंत्रण देगा ही देगा वे स्वयं को रोक नहीं पाएंगे वो अवश्य आएंगे I परंतु परंतु क्या गुरुदेव एका ने उत्सुकता से पूछा ? वे यहां विचित्र रूप में आएंगे यदि तूने भक्ति की आंख से पहचान पाया तब ही वे अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर तुझे दर्शन देंगे I जनार्दन स्वामी ने रहस्य उद्घाटन कियाI

इतना कहकर जनार्दन स्वामी ध्यानलीन हो गए I एका वहीं पर श्री चरणों की छाया में बैठ गया I अपने सद्गुरु की चिदानंद मूरत को एकटक निहारने लगा I महाभाग्य होते हैं वो क्षण जब सकल साधनाओं के साध्य आंखों के सामने होते हैं I निसंदेह गुरुदर्शन खुली आंखों की महा साधना है I एका इसी दर्शन साधना में लीन था I 

तभी एका एक जनार्दन स्वामी की अंतर चेतना से नाम स्मरण प्रस्फुटित हुआ गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त, श्री दत्त, श्री दत्त, श्री दत्त I

गुरु सख्या तुझ्या विना जाऊ पाहे ज्यासीं माझा प्राण काहो कठीण केले म्हणून पाहिले नेत्र उघडून I

हे गुरु राया, आत्मसखा, तुम बिन मेरे प्राण फड़फड़ाने लगे हैं I मैं जानता हूं तुम यहीं कहीं मेरे आस पास आ चुके हो I कठोर ह्रदय न रखो ममता के सरोवर में मेरे सामने आ जाओ और अपनी एक दृष्टि डालकर मुझे निहाल करो प्रभु I 

आतां यावे लवकरी । भेट द्यावी बा सत्वरी।
शीघ्र आओ शीघ्र आओ मुझे भेंट का सुख दो भगवन I उसी समय कदमों की आहट सुनाई दी I दो कदम चिमटे की ताल से ताल मिला कर आगे बढ़ रहे थे I सहसा हवाओं में सुगंध घुल गयी सामने में एक मस्त फ़क़ीर मलंग आते दिखाई दिए I उनका सर्वांग चमड़े से ढका हुआ था, नेत्र लाल थे, सफेद दाढ़ी, मूंछ लहरा रही थी I एक हाथ में चिमटा था दूसरे में कटोरा था पाँव में चप्पल नहीं थी साथ में उनके एक कुतिया चल रही थी I एकदम फक्क्ड़ फकीर स्वरुप तनिक भयावह भी उन्हें देख एका थोड़ा सिकुड़ सा गया I 

परंतु उधर जनार्दन स्वामी उस फकीर के कदमों में दंडवत लेट गए I उन्होंने चिमटा बजाया और आल्हाद प्रकट किया फिर दोनों हाथों से जनार्दन स्वामी को उठाया और अपने ह्रदय से लगा लिया I एका मंत्रमुग्ध हुआ यह विचित्र दृश्य देखकर I ज्यों ज्यों चिमटा बजता त्यों त्यों उसके अंतःकरण में नाद की भांति गूँज जाता I पता नहीं कैसे पर एक प्रकार का मानस सुमिरन उसके भीतर सतत चल रहा था I गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त, गुरुदेव दत्त I 

एका ने देखा बड़ी गूढ़ विसिमित मुस्कान मलंग के मुख पर फैली थी I मुस्कुराकर चिमटा खड़खड़ाकर वे मलंग कीर्तन करने लगे I 
खाने से भूख बढ़ी, पीने से प्यास बढ़ी, दरसन से आस बढ़ी I 
इसलिए सोते-सोते जागो अपने आप से भागो, आओ साईं छुटकारे की खीर मेरे संग खाओ I

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कृष्ण गोपी कथा ।।


कृष्ण का नाम लेते हुए एक गोपी की आँखें बन्द हो गयीं, अश्रुधाराऐं बहने लगीं। कृष्ण ! कृष्ण ! कहते-कहते बेसुध होकर वो कब जमीन पर गिर गयी, उसे मालूम भी न हुआ। इस बेसुधी में कृष्ण कब उसके पास आकर बैठ गये, उसे यह भी पता न चला।

      थोड़ी देर बाद जब उसकी आँख खुली तो सामने प्रियतम को देखकर हैरान हो गयी। पूछा - "रे कान्हा ! कब आया ?" कृष्ण ने कहा - "यह तो पता नहीं कब आया, पर जब से आया, तुझ ही को एक टक देख रहा हूँ।" गोपी कहती - "हद हो गयी ! हम तेरा दर्शन करें तो समझ लगती है, तू हमें क्यों देखेगा ?"

       कृष्ण ने कहा - "मैं तुझे नहीं, तेरे इस प्रेम को रोमांच को देख रहा हूँ। तेरी आँखों से बहती हुई प्रेम की अश्रुधाराओं को देख रहा हूँ। मैं तुझे नहीं, तेरे हृदय में प्रकट हुए इस प्रेम रूपी परमात्मा के दर्शन कर रहा हूँ। अरे गोपी ! ऐसा दर्शन तो मुझे भी दुर्लभ होता है।"

पिप्पलाद कौन था ?

श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं।
इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा।
जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों(फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।

एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा-
नारद- बालक तुम कौन हो ?
बालक- यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।
नारद- तुम्हारे जनक कौन हैं ?
बालक- यही तो मैं जानना चाहता हूँ ।

तब नारद ने ध्यान धर देखा। नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि हे बालक ! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी।
बालक- मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ?
नारद- तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक- मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था ?
नारद- शनिदेव की महादशा।

इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।
नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी।
ब्रह्मा जी से वरदान मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।
शनिदेव सशरीर जलने लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए। सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे।
अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए।ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वरदान मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे-

1- जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।

2- मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।
 
ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया।तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया । जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे।अतः तभी से शनि "शनै:चरति य: शनैश्चर:" अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।

सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है।आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की,जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है.....

जय जय श्री राम 🙏🚩

सूतक ~ पातक चार्ट ।।

‘ श्रीकृष्ण ’ को अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है।

01. उत्तर प्रदेश में कृष्ण या गोपाल गोविन्द इत्यादि नामों से जानते है।

02. राजस्थान में श्रीनाथजी या ठाकुरजी के नाम से जानते है। 

03. महाराष्ट्र में विट्ठल के नाम से भगवान् जाने जाते है।

04. उड़ीसा में जगन्नाथ के नाम से जाने जाते है।

05. बंगाल में गोपालजी के नाम से जाने जाते है।

06. दक्षिण भारत में वेंकटेश या गोविन्दा के नाम से जाने जाते है।

07. गुजरात में द्वारिकाधीश के नाम से जाने जाते है।

08. असम, त्रिपुरा, नेपाल इत्यादि पूर्वोत्तर क्षेत्रो में कृष्ण नाम से ही पूजा होती है।

09. मलेशिया, इंडोनेशिया, अमेरिका, इंग्लैंड, फ़्रांस इत्यादि देशो में कृष्ण नाम ही विख्यात है।

10. गोविन्द या गोपाल में “गो” शब्द का अर्थ गाय एवं इन्द्रियों, दोनों से है। गो एक संस्कृत शब्द है और ऋग्वेद में गो का अर्थ होता है–‘मनुष्य की इन्द्रियाँ’...जो इन्द्रियों का विजेता हो जिसके वश में इन्द्रियाँ हो वही गोविन्द है गोपाल है

11. ‘श्रीकृष्ण’ के पिता का नाम वसुदेव था इसलिए इन्हें आजीवन ‘वासुदेव’ के नाम से जाना गया। ‘श्रीकृष्ण’ के दादा का नाम शूरसेन था..

12. ‘श्रीकृष्ण’ का जन्म उत्तर प्रदेश के मथुरा जनपद के राजा कंस की जेल में हुआ था।

13. ‘श्रीकृष्ण’ के भाई बलराम थे लेकिन उद्धव और अंगिरस उनके चचेरे भाई थे, अंगिरस ने बाद में तपस्या की थी और जैन धर्म के तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम से विख्यात हुए थे।

14. ‘श्रीकृष्ण’ ने 16000 राजकुमारियों को असम के राजा नरकासुर की कारागार से मुक्त कराया था और उन राजकुमारियों को आत्महत्या से रोकने के लिए मजबूरी में उनके सम्मान हेतु उनसे विवाह किया था। क्योंकि उस युग में हरण की गयी स्त्री अछूत समझी जाती थी और समाज उन स्त्रियों को अपनाता नहीं था।

15. ‘श्रीकृष्ण’ की मूल पटरानी एक ही थी जिनका नाम रुक्मणी था जो महाराष्ट्र के विदर्भ राज्य के राजा रुक्मी की बहन थी।। रुक्मी शिशुपाल का मित्र था और ‘श्रीकृष्ण’ का शत्रु।

16. दुर्योधन ‘श्रीकृष्ण’ का समधी था और उसकी बेटी लक्ष्मणा का विवाह ‘श्रीकृष्ण’ के पुत्र साम्ब के साथ हुआ था।

17. ‘श्रीकृष्ण’ के धनुष का नाम सार्ङ्ग था। शंख का नाम पाञ्चजन्य था। चक्र का नाम सुदर्शन था। उनकी प्रेमिका का नाम राधारानी था जो बरसाना के सरपंच वृषभानु की बेटी थी। ‘श्रीकृष्ण’ राधारानी से निष्काम और निश्वार्थ प्रेम करते थे। राधारानी ‘श्रीकृष्ण’ से उम्र में बहुत बड़ी थी। लगभग 6 साल से भी ज्यादा का अन्तर था। ‘श्रीकृष्ण’ ने 14 वर्ष की उम्र में वृन्दावन छोड़ दिया था।। और उसके बाद वो राधा से कभी नहीं मिले।

18. ‘श्रीकृष्ण’ विद्या अर्जित करने हेतु मथुरा से उज्जैन मध्य प्रदेश आये थे। और यहाँ उन्होंने उच्च कोटि के ब्राह्मण महर्षि सान्दीपनि से अलौकिक विद्याओ का ज्ञान अर्जित किया था।।

19. ‘श्रीकृष्ण’ कुल 125 वर्ष धरती पर रहे। उनके शरीर का रंग गहरा काला था और उनके शरीर से 24 घण्टे पवित्र अष्टगन्ध महकता था। उनके वस्त्र रेशम के पीले रंग के होते थे और मस्तक पर मोरमुकुट शोभा देता था। उनके सारथि का नाम दारुक था और उनके रथ में चार घोड़े जुते होते थे। उनकी दोनो आँखों में प्रचण्ड सम्मोहन था।

20. ‘श्रीकृष्ण’ के कुलगुरु महर्षि शाण्डिल्य थे।

21. ‘श्रीकृष्ण’ का नामकरण महर्षि गर्ग ने किया था।

22. ‘श्रीकृष्ण’ के बड़े पोते का नाम अनिरुद्ध था जिसके लिए ‘श्रीकृष्ण’ ने बाणासुर और भगवान् शिव से युद्ध करके उन्हें पराजित किया था।

23. ‘श्रीकृष्ण’ ने गुजरात के समुद्र के बीचों-बीच द्वारिका नाम की राजधानी बसाई थी। द्वारिका पूरी सोने की थी और उसका निर्माण देवशिल्पी विश्वकर्मा ने किया था।

24. ‘श्रीकृष्ण’ को ज़रा नाम के शिकारी का बाण उनके पैर के अंगूठे मे लगा वो शिकारी पूर्व जन्म का बाली था, बाण लगने के पश्चात भगवान स्वलोक धाम को गमन कर गए।

25. ‘श्रीकृष्ण’ ने हरियाणा के कुरुक्षेत्र में अर्जुन को पवित्र गीता का ज्ञान रविवार शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन मात्र 45 मिनट में दे दिया था।

26. ‘श्रीकृष्ण’ ने सिर्फ एक बार बाल्यावस्था में नदी में नग्न स्नान कर रही स्त्रियों के वस्त्र चुराए थे और उन्हें अगली बार यूँ खुले में नग्न स्नान न करने की नसीहत दी थी।

27. ‘श्रीकृष्ण’ के अनुसार गौ हत्या करने वाला असुर है और उसको जीने का कोई अधिकार नहीं।

28. ‘श्रीकृष्ण’ अवतार नहीं थे बल्कि अवतारी थे....जिसका अर्थ होता है–‘पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्।’ न ही उनका जन्म साधारण मनुष्य की तरह हुआ था और न ही उनकी मृत्यु हुई थी।

हनुमान जी की पूंछ...

हनुमानजी रावण की स्वर्ण नगरी लंका को जला कर राख करके चले जाते हैं। और रावण उनका कुछ नहीं कर सकता है। वह सोचते-सोचते परेशान हो जाता है कि आखिर उस हनुमान में इतनी शक्ति आई कहां से।
परेशान हो कर वह महल में ही स्थित शिव मंदिर में जाकर शिवजी की प्रार्थना आरम्भ करता है।
भगवान शिव प्रसन्न होकर प्रकट होते हैं। रावण अभिभूत हो कर उनके चरणों में गिर पड़ता है। 
कहो दशानन कैसे हो ?
आप अंतर्यामी हैं महादेव। सब कुछ जानते हैं प्रभु। एक अकेले बंदर ने मेरी लंका को और मेरे दर्प को भी जला कर राख कर दिया।
मैं जानना चाहता हूं कि यह बंदर जिसका नाम हनुमान है आखिर कौन है और प्रभु उसकी पूंछ तो और भी ज्यादा शक्तिशाली थी। किस तरह सहजता से मेरी लंका को जला दिया। मुझे बताइए कि यह हनुमान कौन है?
शिव जी मुस्कुराते हुए रावण की बात सुनते रहते हैं। और फिर बताते हैं कि रावण यह हनुमान और कोई नहीं मेरा ही रूद्र अवतार है।
विष्णु ने जब यह निश्चय किया कि वे पृथ्वी पर अवतार लेंगे और माता लक्ष्मी भी साथ ही अवतरित होंगी। तो मेरी इच्छा हुई कि मैं भी उनकी लीलाओं का साक्षी बनूं और जब मैंने अपना यह निश्चय पार्वती को बताया तो वह हठ कर बैठी कि मैं भी साथ ही रहूंगी। लेकिन यह समझ नहीं आया कि उसे इस लीला में किस तरह भागीदार बनाया जाए। 
तब सभी देवताओं ने मिलकर मुझे यह मार्ग बताया। आप तो बंदर बन जाइये और शक्ति स्वरूपा पार्वती देवी आपकी पूंछ के रूप में आपके साथ रहे, तभी आप दोनों साथ रह सकते हैं और उसी अनुरूप मैंने हनुमान के रूप में जन्म लेकर राम जी की सेवा का व्रत रख लिया और शक्ति रूपा पार्वती ने पूंछ के रूप में और उसी सेवा के फल स्वरूप तुम्हारी लंका का दहन किया।
अब सुनो रावण! तुम्हारे उद्धार का समय आ गया है। अतः श्री राम के हाथों तुम्हारा उद्धार होगा। तुम युद्ध के लिए सबसे अंत में प्रस्तुत होना। जिससे कि तुम्हारा समस्त राक्षस परिवार भगवान श्री राम के हाथों से मोक्ष को प्राप्त करें और तुम सभी का उद्धार हो जाए।
रावण को सारी परिस्थिति का ज्ञान होता है और उस अनुरूप वह युद्ध की तैयारी करता है और अपने पूरे परिवार को राम जी के समक्ष युद्ध के लिए पहले भेजता है और सबसे अंत में स्वयं मोक्ष को प्राप्त होता है।

जय बजरंगबली 🙏🚩

"त्रिकाल संध्या"


       भगवान राम संध्या करते थे, भगवान श्री कृष्ण संध्या करते थे, भगवान राम के गुरूदेव वशिष्ठ भी संध्या करते थे । मुसलमान लोग नमाज़ पढने में इतना विश्वास रखते हैं कि चालू आफिस से भी समय निकालकर नमाज पढने चले जाते हैं जबकि हम लोग आज पश्चिम की मैली संस्कृति तथा नश्वर संसार की नश्वर वस्तुओं को प्राप्त करने की होड़–दौड़ में संध्या करना बंद कर चुके हैं या भूल चुके हैं । शायद ही एक-दो प्रतिशत लोग कभी नियमित रूप से संध्या करते होगे ।

आजकल लोग संध्या करना भूल गये हैं इसलिए जीवन में तमस बढ़ गया है । प्राणायाम से जीवनशक्ति, बौद्धिक शक्ति और स्मरणशक्ति का विकास होता है । संध्या के समय हमारी सब नाड़ियों का मूल आधार जो सुषुम्ना नाड़ी है, उसका द्वार खुला हुआ होता है । इससे जीवनशक्ति, कुंडलिनी शक्ति के जागरण में सहयोग मिलता है । वैसे तो ध्यान-भजन कभी भी करो, पुण्यदायी होता है किन्तु संध्या के समय उसका प्रभाव और भी बढ़ जाता है । त्रिकाल संध्या करने से विद्यार्थी भी बड़े तेजस्वी होते हैं । अतएव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए मनुष्यमात्र को त्रिकाल संध्या का सहारा लेकर अपना नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक उत्थान करना चाहिए । रात्रि में अनजाने में हुए पाप सुबह की संध्या से दूर होते हैं । सुबह से दोपहर तक के दोष दोपहर की संध्या से और दोपहर के बाद अनजाने में हुए पाप शाम की संध्या करने से नष्ट हो जाते हैं तथा अंतःकरण पवित्र होने लगता है ।

कब करें ? 
प्रातः सूर्योदय के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक, दोपहर के 12 बजे से 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक एवं शाम को सूर्यास्त के 10 मिनट पहले से 10 मिनट बाद तक - यह समय संधि का होता है ।

 प्राचीन ऋषि-मुनि त्रिकाल संध्या करते थे । भगवान श्रीरामजी और उनके गुरुदेव वसिष्ठजी भी त्रिकाल संध्या करते थे । भगवान राम संध्या करने के बाद ही भोजन करते थे । इड़ा और पिंगला नाड़ी के बीच में जो सुषुम्ना नाड़ी है, उसे अध्यात्म की नाड़ी भी कहा जाता है। उसका मुख संधिकाल में उर्ध्वगामी होने से इस समय प्राणायाम, जप, ध्यान करने से सहज में ज़्यादा लाभ होता है।

कैसे करें ?
संध्या के समय हाथ-पैर धोकर, तीन चुल्लू पानी पीकर फिर संध्या में बैठें और प्राणायाम करें, जप करें, ध्यान करें तो बहुत अच्छा । अगर कोई ऑफिस या कहीं और जगह हो तो वहीं मानसिक रूप से कर ले तो भी ठीक है । 

ऋषि-मुनियों की बतायी हुई दिव्य प्रणाली 

त्रिकाल संध्या माने हृदयरूपी घर में तीन बार बुहारी । इससे बहुत फायदा होता है । जो तीनों समय की संध्या करता है, उसे रोजी-रोटी की चिन्ता नहीं करनी पड़ती, उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती और उसके कुल में दुष्ट आत्माएँ, माता-पिता को सताने वाली आत्माएँ नहीं आतीं ।

त्रिकाल संध्या करने से असाध्य रोग भी मिट जाते हैं। ओज़, तेज, बुद्धि एवं जीवनशक्ति का विकास होता है।हमारे ऋषि-मुनि एवं श्रीराम तथा श्रीकृष्ण आदि भी त्रिकाल संध्या करते थे। इसलिए हमें भी त्रिकाल संध्या करने का नियम लेना चाहिए।

जीवन को यदि तेजस्वी, सफल और उन्नत बनाना हो तो मनुष्य को त्रिकाल संध्या जरूर करनी चाहिए ।

अतः सुबह, दोपहर एवं सांय- इन तीनों समय संध्या करनी चाहिए। त्रिकाल संध्या करने वालों को अमिट पुण्यपुंज प्राप्त होता है। त्रिकाल संध्या में प्राणायाम, जप, ध्यान का समावेश होता है। इस समय महापुरूषों के सत्संग की कैसेट भी सुन सकते हैं। आध्यात्मिक उन्नति के लिए त्रिकाल संध्या का नियम बहुत उपयोगी है। 

जबसे भारतवासी ऋषि-मुनियों की बतायी हुई दिव्य प्रणालियाँ भूल गये, त्रिकाल संध्या करना भूल गये, अध्यात्मज्ञान को भूल गये तभी से भारत का पतन प्रारम्भ हो गया । अब भी समय है । यदि भारतवासी शास्त्रों में बतायी गयी, संतों-महापुरुषों द्वारा बतायी गयी युक्तियों का अनुसरण करें तो वह दिन दूर नहीं कि भारत अपनी खोयी हुई आध्यात्मिक गरिमा को पुनः प्राप्त करके विश्वगुरु पद पर आसीन हो जाय ।

नकली विज्ञान ने हमसे 400 प्रकार के टमाटर छीन कर हमें एक अंडे के आकार का टमाटर जो बिल्कुल गुणहीन है चिपका दिया ।

आजकल आपने देखा होगा कि बाजार में मिलने वाले अधिकतर फल और सब्जियों में स्वाद बिल्कुल नहीं होता । लेकिन दिखने में वह एकदम लाजवाब होगी जैसे कि जामुन ,टमाटर । हाइब्रिड बीज से तैयार होने वाली जामुन इतनी मोटी मोटी ,गोलमटोल होती हैं कि देखते ही खाने के लिये मुहं में पानी आ जाता है । औऱ देशी जामुन बेचारी देखने में बिल्कुल पतली सी । एक कोने में दुबक कर पड़ी रहती कि कोई हम गरीब का भी मोल डाल दे । लेकिन जब आप hybird जामुन को खायो तो स्वाद बिल्कुल फीका फीका सा बेस्वाद सा होता है। हाइब्रिड मोटी मोटी जामुन गले में एक अजीब तरह की खुश्की करती है । खाने के बाद आपको पानी पीना पड़ता है । दूसरी और देशी जामुन मुहं में रखते सार ही रस घोल देती है ।आनंद आ जाता है कोई गले में खारिश नहीं होती । देशी जामुन जिनकी किस्मत और समझ अच्छी हो कभी कभार मिल जाती है । 

आज का दूसरा मुद्दा है टमाटर । अंग्रेजी टमाटर देखने में अंडे जैसे लगते हैं इसलिये मैं इनको अंडे वाले टमाटर कहता हूं । यह अंडे वाले टमाटर खाने में देशी टमाटरों (जोकि बिल्कुल गोल होते हैं ) के मुकाबले बिल्कुल असरदार और स्वादिष्ट नही होते । देशी टमाटर जहाँ एक पड़ेगा और सब्जी में रस घोल देगा ।अंडे वाले हाइब्रिड टमाटर तीन पड़ेंगे और सब्जी की ऐसी तैसी कर देंगे वो अलग । 
कैसे हाइब्रिड गेंहू में कैसे ग्लूटामेट की मात्रा अधिक होती है जिससे आजकल तथाकथित विकसित देश अमेरिका जिसकी 25% जनसंख्या मुधमेह नामक रोग से ग्रसित है । दूसरी और देशी गेहूं जैसे शरबती में ग्लूटामेट की मात्रा संतुलित मात्रा में होती है । 
यह लेख लिखने का उद्देश्य है कि आप भी ना केवल जैविक बल्कि प्रकृति की बनाये हुए फल सब्ज़ियां अनाज ही खरीदें क्योंकि इंसान गलती कर सकता है प्रक्रति नहीं । कुदरती बीजों द्वारा उत्पन्न फल सब्जियां ही आपके स्वास्थ्य के लिये उत्तम हैं ।

भगवान विष्णु को कमल नयन क्यों कहा जाता है??

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, दैत्यों के अत्याचार से परेशान होकर देवताओं ने भगवान विष्णु से इनका संहार करने की प्रार्थना की। बैकुंठ पति भगवान विष्णु बैकुंठ से वाराणसी आए और ब्रह्ममुहूर्त में मणिकार्णिका घाट पर स्नान करके एक हजार कमल पुष्पों से भगवान शिव का पूजन आरंभ किया। वे मंत्रोच्चार के साथ कमल पुष्प शिवलिंग पर चढ़ाने लगे। जब 999 कमल पुष्प चढ़ाए जा चुके तो भगवान विष्णु चौंके, क्योंकि हजारवां कमल पुष्प गायब था। विष्णु ने काफी ढूंढा पर वह पुष्प नहीं मिला।

वह पुष्प भगवान शिव ने भगवान विष्णु की परीक्षा लेने के लिए छिपा लिया था। जब भगवान विष्णु ने फूल काफी ढूंढा लेकिन जब वो नहीं मिला तो विष्णु ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए कमल के फूल की जगह अपनी एक आंख निकालकर चढ़ाई। जब श्री विष्णु ने शिवलिंग पर अपना नेत्र चढ़ा दिया। यही वजह है की भगवान विष्णु को कमल नयन कहा जाता है।
इसके पश्चात शिव जी ने प्रसन्न होकर भगवान विष्णु को तीनों लोकों के पालन की जिम्मेदारी दे दी और विष्णु जी को सुदर्शन चक्र भी प्रदान किया। जिससे श्री हरी विष्णु ने दैत्यों का संहार कर देवताओं को सुख प्रदान किया।

श्री विष्णु ।।


       विष्णु पूजन सार्वभौमिक है। भारतवर्ष के कुछ विद्वान पाश्चात्य मानसिकता से ग्रसित हो विष्णु को केवल आर्यों का देवता बताते हैं एवं शिव को द्रविणों का आराध्य परन्तु वास्तविकता यह है कि दक्षिण में अयप्पा के नाम से विष्णु सदैव से सुपूजित रहे हैं। आर्य संस्कृति किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त रही है एवं आर्य संस्कृति के मूल में वैदिक ग्रंथ हैं। वेदों में जितनी विष्णु के की स्तुतियाँ हैं उतनी ही रुद्र की भी स्तुतियां हैं। रुद्र का तात्पर्य शिव ही है। महाविष्णु को अवतारों का मूल स्तोत्र माना जाता है। पृथ्वी पर जितने भी शरीर धारण किये हुए अवतारी महापुरुष हुए हैं वे सबके सब विष्णु अंश ही हैं एवं इन सब अवतारी शक्तियाँ ने अपने समय काल एवं मांग के अनुसार कोमोवेश पृथ्वी के जीवों में सभ्यता का संचार किया है, उन्हें चेतना प्रदान की है, समाज का उद्धार किया है और समाज के साथ पूर्ण चुनौति से टकरायें हैं। 

           प्रारम्भ में तो इनका घोर विरोध हुआ है पर बाद में चलकर सबने इन्हें पूर्ण हृदय के साथ स्वीकारा है और इनकी परम्पराओं पर चलकर मानव जगत में आश्चर्य जनक परिवर्तन हुए हैं। आश्चर्यजनक परिवर्तनों के लिए हमेशा परम विशेष शक्ति की प्राणी समुदाय को जरूरत पड़ी है। मनुष्य का असंख्य वर्षों का इतिहास इसका गवाह है कि एक अद्भुत, चमत्कारिक एवं दैवीय क्षमता से युक्त जीव आगे चला है और उसके पीछे-पीछे भीड़ चली है। ऐसा हमेशा से होता आया है और हमेशा होता रहेगा। जीव जगत, प्राणी जगत, वनस्पति जगत के अंदर हमेशा एक अध्याय कोरा रहता है जिसके ऊपर नवीन लिखावट की सदैव आवश्यकता होती है। वनसतयाँ भी चमत्कारिक गुण कभी भी ग्रहण कर सकती हैं। मनुष्य भी किसी भी हद तक सुधार कर सकता है और यहीं पर उपासना की जरूरत पड़ती है। 

      उपासना से व्यक्तिगत गुणों का विकास प्रचूरता के साथ होता है। परिवर्तन विश्व का नियम है। जीव का सम्पूर्ण जीवन परिवर्तनीय है। कब किस मार्ग से, किसके द्वारा, किस विधि से परिवर्तन हो जायेगा यह कहना मुश्किल है। आदिकाल से ही शैवमत और विष्णु मतावलम्बियों में भीषण द्वंद रहा है। द्वंद का कारण अर्धविकसित आध्यात्मिक चेतना है। वास्तव में हर और हरि एक दूसरे के पूरक हैं एवं इनके सायुज्य से ही एक साधक में आध्यात्मिक चिंतन पूर्ण हो पाता है। पंच भौतिक शरीर के साथ विष्णु शक्ति सबसे आसानी के साथ क्रियाशील हो पाती है। अन्य किसी देव शक्ति की अपेक्षा विष्णु जीव के प्रति सखा भाव स्थापित करने में ज्यादा सफल रहे हैं। अन्य शक्तियाँ इतनी नजदीक नहीं पहुँच पायी हैं। विष्णु के अलावा कोई और अन्य देव शक्ति जीव का शरीर धारण कर इस पृथ्वी पर लम्बे समय तक विचर भी नहीं पायी हैं। जीव से, मनुष्य से मनुष्य की शैली में, मनुष्य के रूप में, मनुष्य की भाषा में केवल विष्णु ही संवाद स्थापित कर पाये हैं और ब्रह्माण्ड के एक से एक परम दुर्लभ गूढ़ रहस्य सरलता के साथ प्रदान करने में सक्षम हुए हैं। 

        आज मनुष्य रुद्र के बारे में, देवी के बारे में, ब्रह्माण्ड के बारे में, आत्मा, परमात्मा, जीवोत्पत्ति इत्यादि के सम्बन्ध में जो कुछ जान सका है वह सब केवल विष्णु के कारण ही सम्भव हो सका है अन्यथा मनुष्य भी पशु के समान मूढ़ ही रह जाता मस्तिष्क की सीमितता, न्यूनता को एक नया आयाम सदैव से विष्णु वाणी देती आ रही है। एक नया दृष्टिकोण, कुछ विहंगम ज्ञान की प्राप्ति हेतु दिव्य चक्षुओं की जरूरत होती है। कुछ विशेष अनुभूत करने के लिए दिव्य चक्षु अत्यंत आवश्यक हैं और दिव्य चक्षु सदैव से विष्णु प्रदान करते चले आ रहे हैं अध्यात्म का सरलीकरण हमेशा विष्णु ने किया है। चाहे वे बुद्ध के रूप में, राम के रूप में, कृष्ण के रूप में या किसी अन्य रूप में आखिर उद्धारक, सखा वे ही बनते हैं।

श्री राधा स्तोत्रम् ।।


वन्दे राधापदाम्भोजं ब्रह्मादिसुरवन्दितम् यत्कीर्तिकीर्तनेनैव पुनाति भुवनत्रयम् ॥ 

नमो गोलोकवासिन्यै राधिकयै नमो नमः शतश्रृङ्गनिवासिन्यै चन्द्रवत्यै नमो नमः ॥ 

तुलसीवनवासिन्यै वृन्दारण्यै नमो नमः रासमण्डलवासिन्यै रासेश्वर्यै नमो नमः ॥  

 विरजातीरवासिन्यै वृन्दायै च नमो नमः ।   
वृन्दावनविलासिन्यै कृष्णायै च नमो नमः ॥  

 नमः कृष्णप्रियायै च शान्तायै च नमो नमः । 
 कृष्णवक्षः स्थितायै च तत्प्रियायै नमो नमः ॥

नमो वैकुण्ठवासिन्यै महालक्ष्म्ये नमो नमः ।    
विद्याधिष्ठातृदेव्यै च सरस्वत्यै नमो नमः ॥

सर्वैश्वर्याधिदेव्यै च कमलायै नमो नमः । 
पद्मनाभप्रियायै च पद्मायै च नमो नमः ॥ 

महाविष्णोश्च मात्रे च पराद्यायै नमो नमः । 
नमः सिन्धुसुतायै च मर्त्यलक्ष्म्यै नमो नमः ॥

नारायणप्रियायै च नारायण्यै नमो नमः । 
नमोऽस्तु विष्णुमायायै वैष्णव्यै च नमो नमः ॥

महामायास्वरूपायै सम्पदायै नमो नमः । 
नमः कल्याणरूपिण्यै शुभायै च नमो नमः ॥ 

मात्रे चतुर्णा वेदानां सावित्र्यै च नमो नमः । 
नमो दुर्गविनाशिन्यै दुर्गादेव्यै नमो नमः ॥ 

तेजत्सु सर्वदेवानां पुरा कृतयुगे मुदा । 
अधिष्ठानकृतायै च प्रकृत्यै च नमो नमः ॥

नमस्त्रिपुरहारिण्यै त्रिपुरायै नमो नमः । 
सुन्दरीषु च रम्यायै निर्गुणायै नमो नमः ॥ 

नमो निद्रास्वरूपायै निर्गुणायै नमो नमः । 
नमो दक्षसुतायै च नमः सत्यै नमो नमः ॥ 

नमः शैलसुतायै च पार्वत्यै च नमो नमः । 
नमो नमस्तपरिवन्यै ह्युमायै च नमो नमः ॥

निराहारस्वरूपायै ह्यपर्णायै नमो नमः ।   
गौरीलोकविलासिन्यै नमो गौयै नमो नमः ॥

नमः कैलासवासिन्यै माहेश्वर्यै नमो नमः । 
निद्रायै च दयायै च श्रृद्धायै च नमो नमः ॥ 

 नमो धृत्यै क्षमायै च लज्जायै च नमो नमः ।
तृष्णायै क्षुत्स्वरूपायै स्थितिकर्यै नमो नमः ॥ 

 नमः संहाररूपिण्यै महाभायै नमो नमः । 
 भयायै चाभयायै च मुक्तिदायै नमो नमः ॥

नमः स्वधायै स्वाहायै शान्त्यै कान्त्यै नमो नमः ।
            
नमस्तुष्टयै च पुष्टयै च दयायै च नमो नमः ॥ 

नमो निद्रास्वरूपायै श्रृद्धायै च नमो नमः ।    
क्षुत्पिपासास्वरूपायै लज्जायै च नमो नमः ॥

 नमो धृत्यै क्षमायै च चेतनायै नमो नमः ।   
 सर्वशक्तिस्वरूपिण्यै सर्वमात्रे नमो नमः ॥ 

 अन्नो दाहस्वरूपायै भद्रायै च नमो नमः । 
 शोभायै पूर्णचन्द्रे च शरत्पद्ये नमो नमः ॥ 

 नास्ति भेदो यथा देवि दुग्धधावल्ययोः सदा । 
 यथैव गन्धभूम्योश्च यथैव जलशैत्ययोः ॥ 

 यथैव शब्दनभसोर्ज्योतिः सूर्यकयोर्यथा । 
 लोके वेदे पुराणे च राधामाधवयोस्तथा ॥ 

 चेतनं कुरु कल्याणि देहि मामुत्तरं सति । 
 इत्युक्त्वा चोद्धवस्तत्र प्रणनाम पुनः पुनः ॥ 

 इत्युद्धवकृतं स्तोत्रं यः पठेद् भक्तिपूर्वकम् । 
 इह लोके सुखं भुक्त्वा यात्यन्ते हरिमन्दिरम् ॥ 
            
न भवेद् बन्धुविच्छेदो रोगः शोकः सुदारुणः।
 प्रोषिता स्त्री लभेत् कान्तं भार्यामेदी लभेत् प्रियाम्॥
अपुत्रों लभते पुत्रान् निर्धनो लभते धनम् । 
 निर्मूमिर्लभते भूमि प्रजाहीनो लभेत् प्रजाम् ॥
रोगाद् विमुच्यते रोगी बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
 भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥ 
अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः ॥

पाठ फल श्रुती -
जो उद्धव के द्वारा बनाया गया इस स्तोत्र का भक्ति पूर्ण पाठ करता है इस लोक में सुख भोगने के बाद वह हरि के मंदिर में जाता है। उसके मित्र उसका त्याग नहीं करते हैं और ना ही उसे दारुण रोग शोक होता है। वह जिस स्त्री को चाहता है वह उसे प्राप्त होती है और वह उससे अत्यंत प्रेम करने वाली होती है। जिसके पुत्र नहीं होते उसे पुत्र की प्राप्ति होती है। निर्धन को धन प्राप्त होता है जिसके पास भूमि ना हो उसे भूमि की प्राप्ति होती है। प्रजा हीन राजा को प्रजा मिलती है रोगी को रोग से मुक्ति मिलती है जो कारागृह में बंदी है उसे बंधन मुक्ति मिलती है। और उसको बहुत ज्यादा सुयश कृति प्राप्त होती है। जो मूर्ख होता है वह इसके पाठ से पंडित हो जाता है।

राम मन्त्र का अर्थ ।।

र', 'अ' और 'म', इन तीनों अक्षरों के योग से 'राम' मंत्र बनता है। यही राम रसायन है। 'र' अग्निवाचक है। 'अ' बीज मंत्र है। 'म' का अर्थ है ज्ञान। यह मंत्र पापों को जलाता है, किंतु पुण्य को सुरक्षित रखता है और ज्ञान प्रदान करता है। हम चाहते हैं कि पुण्य सुरक्षित रहें, सिर्फ पापों का नाश हो। 'अ' मंत्र जोड़ देने से अग्नि केवल पाप कर्मो का दहन कर पाती है।

और हमारे शुभ और सात्विक कर्मो को सुरक्षित करती है। 'म' का उच्चारण करने से ज्ञान की उत्पत्ति होती है। हमें अपने स्वरूप का भान हो जाता है।

इसलिए हम र, अ और म को जोड़कर एक मंत्र बना लेते हैं-राम। 'म' अभीष्ट होने पर भी यदि हम 'र' और 'अ' का उच्चारण नहीं करेंगे तो अभीष्ट की प्राप्ति नहीं होगी।

राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है। राम शब्द का अर्थ है- मनोहर, विलक्षण, चमत्कारी, पापियों का नाश करने वाला व भवसागर से मुक्त करने वाला।
रामचरित मानस के बालकांड में एक प्रसंग में लिखा है-

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।
अर्थात~
कलयुग में न तो कर्म का भरोसा है, न भक्ति का और न ज्ञान का। सिर्फ राम नाम ही एकमात्र सहारा है। स्कंदपुराण में भी राम नाम की महिमा का गुणगान किया गया है-

रामेति द्वयक्षरजप: सर्वपापापनोदक:।
गच्छन्तिष्ठन् शयनो वा मनुजो रामकीर्तनात्।।
इड निर्वर्तितो याति चान्ते हरिगणो भवेत्। ---स्कंदपुराण/ नागरखंड

अर्थात यह दो अक्षरों का मंत्र (राम) जपे जाने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है। चलते, बैठते, सोते या किसी भी अवस्था में जो मनुष्य राम नाम का कीर्तन करता है, वह यहां कृतकार्य होकर जाता है और अंत में भगवान विष्णु का पार्षद बनता है।

राम रामेति रामेति रमे रामे रामो रमे |
सहस्त्र नाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ||

विष्णु जी के सहस्त्र नामों को लेने का समय अगर आज के व्यस्त समय में ना मिले तो एक राम नाम ही सहस्त्र विष्णु नाम के बराबर है । कलियुग का एक अच्छा पक्ष है की हज़ारों यज्ञों का पुण्य सिर्फ नाम संकीर्तन से मिल जाता है।

रामायण हमें क्या सिखाती है ।।


१-शुद्ध सच्चिदानन्दघन एक परमात्मा ही सर्वत्र व्याप्त है और अखिल विश्व एवं विश्व की घटनाएँ उसी का स्वरूप और लीला हैं।

२- परमात्मा समय-समय पर अवतार धारणकर प्रेम द्वारा साधुओं का और दण्ड द्वारा दुष्टों का उद्धार करने के लिये लोककल्याणार्थ आदर्श लीला करते हैं।

३- भगवान् की शरणागति ही उद्धार का सर्वोत्तम उपाय है। उदाहरण-विभीषण।

४ - सत्य ही परम धर्म है, सत्य के लिये धन, प्राण, ऐश्वर्य सभी का सुख पूर्वक त्याग कर देना चाहिये। उदाहरण - श्रीराम |

५- मनुष्य जीवन का परम ध्येय परमात्मा की प्राप्ति करना है और वह भगवत्-शरणागति पूर्वक संसार के समस्त कर्म ईश्वरार्थ त्यागवृत्ति से फलासक्ति-शून्य होकर करने से सफल हो सकता है।

६ - वर्णाश्रम धर्म का पालन करना परम कर्तव्य है।

७- माता-पिता की सेवा पुत्र का प्रधान धर्म उदाहरण- श्रीराम, श्रवणकुमार |

८-स्त्रियों के लिये पातिव्रत परम धर्म है। उदाहरण - श्रीसीताजी । 

९- पुरुष के लिये एकपत्नी - व्रत का पालन अतिआवश्यक है। उदाहरण- श्रीराम ।

१०- भाइयों के लिये सर्वस्व त्यागकर उन्हें सुख पहुँचाने की चेष्टा करना परम कर्तव्य है। उदाहरण- श्रीराम, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न ।

११-धर्मात्मा राजा के लिये प्राण देकर भी उसकी सेवा करना प्रजा का प्रधान कर्तव्य है। उदाहरण- (१) वनगमन के समय अयोध्या की प्रजा । (२) लंका के युद्ध में वानरी प्रजा का आत्म बलिदान ।

१२- अन्यायी - अधर्मी राजा के अन्याय का कभी समर्थन न करना चाहिये। सगे भाई होने पर भी उसके विरुद्ध खड़े होना उचित है। उदाहरण- विभीषण।

१३- प्रजारञ्जन के लिये प्राण प्रिय वस्तु का भी विसर्जन कर देना राजा का प्रधान धर्म है। उदाहरण - श्रीरामजी द्वारा सीता त्याग।

१४- प्रजाहित के लिये यज्ञादि कर्मों में सर्वस्व दान दे डालना। उदाहरण- दशरथ और श्रीराम |

१५-धर्म पर अत्याचार और स्त्री-जाति पर जुल्म करने से बड़े-से-बड़े शक्तिशाली सम्राट् का विनाश हो जाता है। उदाहरण - रावण ।

नारायण! नारायण!! नारायण!!!

Hinduism's Historic Expansion in Southeast Asia:

Tracing its Arrival and Influence in Indonesia


The arrival of Hinduism in Southeast Asia is a fascinating historical phenomenon that has left an indelible impact on the culture and spiritual beliefs of the region. The expansion of Hinduism can be traced back to the first century, when Hindu influences began reaching the Indonesian Archipelago. The diffusion process of cultural and spiritual ideas from India is not entirely unclear, and historical evidence suggests that early Hinduism on Java, Bali, and Sumatra consisted of both main schools of Hinduism - Vaisnavism and Shaivism.

The early Hindu kingdoms of Indonesia, such as Tarumanagara in West Java and Holing in Central Java, were established in the 4th century. These kingdoms fused Hindu and Buddhist ideas with pre-existing native folk religion and Animist beliefs. The kingdom of Kutai in East Kalimantan was also among the early Hindu states established in the region.

Hinduism and Buddhism spread across the archipelago, and several notable ancient Indonesian Hindu kingdoms, such as Mataram, Kediri, Singhasari, and Majapahit, were established. These kingdoms completed major infrastructure projects and built many square temples that were dedicated to Hindu deities like Vishnu, Shiva, and Ganesha. The Javanese language saw numerous sastras and sutras of Hinduism translated into it, and expressed in art form.

The Hindu-Buddhist ideas reached their peak of influence in the 14th century, and Majapahit, the last and largest among the Hindu-Buddhist Javanese empires, influenced the Indonesian archipelago. The arrival of Hinduism in Indonesia and its subsequent impact on the region's culture and spiritual beliefs is a testament to the power of cultural diffusion and the influence of religion in shaping the world around us.

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ओरा (आभामंडल)


आभामंडल को अंग्रेजी में ओरा (Aura) कहते हैं। देवी या देवताओं के चित्रों में पीछे जो गोलाकार प्रकाश दिखाई देता है उसे ही ओरा कहा जाता है। दरअसल ओरा यह हमारे शरीर के आसपास एक एनर्जी सर्कल होता है। विज्ञान की भाषा में इसे इलेक्ट्रॉनिक मैग्नेटिक फील्ड कहते हैं। ओरा सजीव व्यक्तियों से लेकर निर्जीव व्यक्ति, वस्तुओं का भी हो सकता है। धरती का भी आभामंडल है। आपने चंद्रमा के आसपास प्रकाश देखा ही होगा। यही उसका आभामंडल है जो ध्यान से देखने पर दूर तक गोल दिखाई देता है।
 
कई रंगों का होता है ओरा : प्रत्येक व्यक्ति का ओरा अलग-अलग रंग का होता है जिससे उसके व्यक्तित्व, स्वभाव का पता चलता है। 
 
नकारात्मक और सकारात्मक ओरा : जिन लोगों का ओरा अपने विचार और कर्मों के द्वारा नकारात्मक हो चला है उसके पास बैठने या उनसे मिलने की भी अच्छे आदमी की इच्छा नहीं होती है। हम खुद अनुभव करते हैं कि कुछ लोगों से मिलकर हमें आत्मिक शांति का अनुभव होता है तो कुछ से मिलकर उनसे जल्दी से छुटकारा पाने का दिल करता है, क्योंकि उनमें बहुत ज्यादा नकारात्मक ऊर्जा होती है। अक्सर अपराधियों और कुविचारों के लोगों का ओरा नकारात्मक अर्थात काला, धुंधला, गहरा नीले या कपोत रंग का होता है। बहुत ज्यादा गहरा लाल रंग भी नकारात्मक होता है।

इन तरीकों से करें ओरा को ठीक ~

1. आग में तापना : आपने अक्सर देखा होगा कि अखाड़े के बाबा या नागा बाबा धूना लगाते हैं या धूनी लगाकर तापते हैं। इससे ओरा ठीक और शुद्ध होता है। यह आभामंडल को भौतिक रूप से ठीक करने की प्रक्रिया है। आप आग के सामने पीठ करके बैठें और बहुत थोड़े समय के लिए तापें। ऐसा कम से कम 43 दिन तक करें। आपने शायद यह कभी नहीं सोचा होगा कि हम किसी मूर्ति आदि की आरती क्यों उतारते हैं। दरअसल, आरती उतारने वाले को ही आरती का लाभ मिलता है।
 
2. ध्यान : प्रतिदिन उचित स्‍थान और वातावरण पर आसन लगाकर ध्यान करें। ध्यान के वक्त किसी भी प्रकार के फालतू एवं नकारात्मक विचारों को त्यागकर आपको पूर्णत: शांत रहकर अपनी श्वासों के आवागमन पर ध्यान देना है। ऐसा आप कम से कम 43 दिनों तक करें। यदि आप ध्यान नहीं करना जानते हैं तो प्रार्थना करें।