Follow us for Latest Update

श्री यंत्र और मानव शरीर ।।

           आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जो कुछ भी श्री यंत्र में वर्णित है वही मानव शरीर में उपस्थित है, इस बात को मैं दावे के साथ कह सकता हूँ क्योकि श्रीयंत्र में जिस शक्ति का वर्णन नहीं वह शक्ति मानव शरीर तो क्या ब्रह्माण्ड में भी उपस्थित नहीं है। भिन्न-भिन्न पुस्तकों में वर्णित उक्त शक्तियाँ श्री यंत्र में वर्णित शक्तियों की ही शाखाएं है। यह बीज यंत्र है। ब्रह्मांड की संरचना का बीज यंत्र है यह। इसमें शिव से लेकर शक्ति और उनके विभिन्न स्वरूप, उनकी त्रिगुणात्मक लीलाँए, चर्तुभुजी आयाम, वृत्ताकार गति, कमल दल स्वरूप कलाएं, स्तम्भ स्वरूप सिद्धियाँ, भिन्न भिन्न प्राकृतिक शक्तियों का दिव्यनाद, शिव के डमरू का ब्रम्हाण्डीय स्पंदन, शिव की तेजस्विता, माँ त्रिपुर सुंदरी की लीला से निराकार शिव का साकार रूप लेना, अप्सराओं का नर्तन, दिगपालों का क्रोध, माताओं का वात्सल्य, तामस गुणों का सत और रज के साथ मिश्रण, सिद्धियो कि औघड़ लीलायें सभी कुछ पंच भूतो के पंच इन्द्रिय आयाम अर्थात गंध, रंग, स्पर्श, ध्वनि इत्यादि के साथ श्री यंत्र में समाहित हैं। 

              जिस प्रकार माता और पिता का मिलन एवं परम आनन्दित सम्भोग शिशु को गर्भस्थ करता है यही क्रिया श्री यंत्र के प्रथम चरण अर्थात रक्त बिंदु स्वरूप सर्वानंद मयी कोष को प्रगट करती है। द्वितीय चक्र योनि त्रिकोण है एवं इसकी स्वामिनी देवी कामेश्वरी के नाम से जानी जाती है अर्थात जो अपने अंदर शिवत्व को प्रतिष्ठित कर सके। इसीलिए इस चक्र को सर्व सिद्धि चक्र कहा गया है। माता का गर्भ ही वह दिव्य स्थान है जहाँ पर विष्णु से लेकर आदि गुरु शंकराचार्य अवतार स्वरूप में इस पृथ्वी पर जन्म लेने से पूर्व निवास करते हैं इस अदभुत् स्थान पर ही सभी शक्तियों का बीज रूप में रोपण होता है। तीसरा चक्र सर्व रक्षा दायक चक्र कहलाता है अर्थात अब गर्भ में बीज ने स्वरूप लेना प्रारंभ कर दिया हैं एवं एक कोमल स्वरूप को माँ त्रिपुर सुंदरी की मूल शक्ति आठ स्वरूप में विभाजित होकर जीवन की रक्षा शिव स्वरूपी प्रकृति की उद्दण्डता से कर रही है। यहाँ पर देवी त्रिपुर सुंदरी शिशु के लिए सुख, दुख, सत-रज और तम गुणों, ऋतु इत्यादि इत्यादि को वश में रखती हुई जीवन की उचित देखभाल कर रही है। यहाँ पर देवी का स्वरूप हरे आभा मण्डल से आच्छादित है। हरा रंग जीवन का प्रतीक है। 

          नव जीवन का चौथा चक्र दस त्रिगुणात्मक शक्तियों को समाहित किये हुए है। इसे सर्व रोग हर चक्र कहते हैं। यहाँ माँ त्रिपुर सुंदरी सर्वस्व प्रदान करने के लिए तत्पर दिखाई पड़ती है। मानव गर्भ के चौथे महिने में शिशु शक्ति, सौंदर्य, ज्ञान, व्याधिनाशक शक्ति एवं जीवन में फल प्राप्ति की नियति प्राप्त करता है। जब शिशु चौथे महिने में प्रविष्ठ होता है तब माता उसे सर्वस्व प्रदान करने वाली शक्ति बन जाती है। चौथे चक्र में त्रिगुणात्मक शक्ति दस त्रिकोणों में कालिमा लिए हुए प्रगट होती है। त्रिगुणात्मक प्रकृति माँ त्रिपुर सुंदरी की ही द्योतक है। पांचवा चक्र सर्वार्थ साधक चक्र कहलाता है। शिशु जब पांचवे महिने में प्रविष्ठ होता है तब माँ त्रिपुर सुंदरी उसे प्राणवान बना देती है। प्राणो को प्रबलता माँ त्रिपुर सुंदरी अपने दस स्वरूपों से प्रदान करती है। मनुष्य के प्राण लम्बे समय तक शक्तिशाली तभी तक बने रह सकते है जब तक जीवन में सौभाग्य, सिद्धि, सम्पत्ति, प्रियता, मंगल, कार्यकुशलता, दुखविमोचन विघ्ननाश, मृत्यु तुल्य कष्ट एवं सुंदरता रूपी दस गुणों से परिपूर्ण है। अर्थात उसके जीवन में दस गुणों का अद्भुत समायोजन हो। जीवन में मृत्यु ऊपर वर्णित तत्वों के अभाव में शीघ्र गामी होती है। इसीलिए इस चक्र में देवी श्री यंत्र में दस लाल त्रिकोण में प्रकट होती है। 

             श्रीयंत्र में छठवाँ चक्र गर्भ में उपस्थित किसी भी जैविक संरचना एवं ब्रम्हह्मण्डीय संरचना के शरीर के विकास को दर्शाता है। पहले मस्तिष्क का विकास होता है फिर शरीर का मस्तिष्क का विकास अति सूक्ष्म है एवं शरीर का विकास मस्तिष्क पर अंधारित होता है। शरीर के विकास के लिए अन्य ऊर्जाओं के अलावा मस्तिष्क से भी ऊर्जा प्रदान होती है। एक बार मस्तिष्क क्रियाशील हुआ तो फिर शरीर और मस्तिष्क के बीच आवागमन बनाने के लिए शक्तियों को विशेष पथों कि आवश्यकता पड़ती है यह पथ नाड़ियों के रूप में आप समझ सकते हैं। इन्ही नाड़ियों को विकसित करने के लिए माँ त्रिपुर सुंदरी श्री यंत्र में नीले रंग की आभा लिए हुए चौदह गुणों में प्रकट होती है। इन्हीं चौदह नाड़ियों के द्वारा शरीर में आकर्षण,सम्मोहन, स्तम्भन, स्पंदन, उन्माद इत्यादि इत्यादि प्रवाहित होते है।

 शिशु को गर्भस्थ हुए जब 6 महिने हो जाते हैं तब तंत्रिका तंत्र का विकास प्रारम्भ होता है यही तंत्रिका तंत्र उसे ब्रम्हाण्ड में उपस्थित प्रत्येक शक्ति चाहे वह किसी भी स्वरूप में क्यों न हो से उसे परिचित कराते हैं। इन्हीं नाड़ियों के द्वारा अन्य अंगो और प्रत्यंगो का विकास संभव हो पाता है। 

            सातवा चक्र अपने अंदर आठ दलों का कमल लिए हुए है। गर्भस्थ शिशु जब सात महिने का हो जाता है तब उसके अंदर वचनशक्ति, चलन तंत्र आदान तंत्र, संकेत शक्ति, आनंद की अनुभूति, त्याग की प्रवृति एवं बुद्धि का विकास प्रारम्भ हो जाता है। बुद्धि का विकास ही मनुष्य को बोलने, सोचने, निर्णय लेने, क्रिया करने एवं प्रतिक्रिया करने इत्यादि इत्यादि गतिविधियों से परिचित कराता है। एक प्रकार से श्री यंत्र के स्वयं कवचित एवं लक्षित होने की प्रक्रिया सातवें चक्र से प्रारंभ होती है। जिस प्रकार गर्भस्थ शिशु में स्वयं की रक्षा के तत्व सातवें महिने से विकसित होने लगते है। अब माँ त्रिपुर सुंदरी का कार्य काफी हद तक सरल हो जाता है। बुद्धि रूपी चेतना के द्वारा शिशु गर्भस्थ होते हुए भी मातृशक्ति को पहचानने लगता है दोनों ओर से एक अद्भुत बंधन का निर्माण हो जाता है। बुद्धि का विकास ही इसलिए होता है की जीव अपनी रक्षा स्वयं कर सकें। इस पृथ्वी पर मनुष्य सर्वशक्तिमान इसलिए हुआ कि वह समस्त योनियों में सबसे ज्यादा बुद्धिमान प्राणी है। 

         आंठवा चक्र सोलह दलों के कमल से युक्त है अर्थात यहां माँ त्रिपुर सुंदरी बुद्धि के साथ-साथ मन, अहंकार, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, चित्त, धैर्य, स्मृति, नाम, वार्धक्य, सूक्ष्म शरीर, जीवन, स्थूल शरीर इत्यादि सोलह शक्तियों में प्रकट होकर शिशु को सर्वगुण सम्पन्न बना रही है जीवन में पूर्णता के लिए इन 16 शक्तियों का पूर्ण रूप से उदित होना अत्याधिक आवश्यक है आप इसे 16 कला के रूप में भी समझ सकते हैं। भगवान श्री कृष्ण 16 कलाओं में दक्ष थे। एक या दो कलाऐं आधे-अधूरे स्वरूप का द्योतक होती हैं। युग पुरुष बनना है तो ऐसा कामाकर्षण भी चाहिए जिससे की गोपियाँ सुध खो बैठें। इतनी कुशाग्र बुद्धि चाहिए कि निःशस्त्र होते हुए भी महाभारत का संचालन कर सकें। स्वयं में इतना र्कषण होना चाहिए कि अहम् ब्रम्हास्मि बोल सकें।शब्दो में इतनी जीवन्तता हो कि गीता रूपी ज्ञान भी झर सकें, स्पर्श इतना मधुर हो कि गायों के थन से स्वयं ही दुग्ध बहने लगे। रूप ऐसा मधुर हो कि सूरदास भी आंखे न होने की स्थिति में वर्णन कर सकें। वाणी इतनी रसीली हो कि शत्रु भी निस्तेज हो जाए। गंध के स्थान पर शरीर से अष्ट गंध बहे, चित्त का आकर्षण ऐसा हो कि अनंत जन साधारण भक्तिभाव में डूबा रहे। धैर्य भी इतना पुरुषत्व लिए हो कि निन्यानवें पाप तक शांत बने रहें। एक जन्मों की ही नहीं सामने वाले को देखकर अनेक जन्मों की स्मृति भी पटल पर उपस्थित हो जाए। कुल मिला-जुलाकर एक अमृतमय मनुष्य का निर्माण हो, अमृत कोषों की संरचना हो। ऐसी इच्छा श्री यंत्र के आठवें चक्र में माँ त्रिपुर सुंदरी के अंदर से निकलती हुई दिखाई पड़ती है।

            श्री यंत्र का नवाँ चक्र श्री यंत्र का नवाँ चक्र भूपूर से बना और इसके चार विभाग हैं पहला विभाग आठवें चक्र में स्थित षोडसदल कमल जो कि सोलह कलाओं के प्रतिनिधि हैं उनको घेरे हुए हैं। तडाग सदृश स्थल एवं इसके पश्चात् भूपुर चार भागों में चतुर्मुखी आकृति लिए हुए दिखाई पड़ता है। भूपुर अर्थात वृत संरचना जो कि शक्ति के विभिन्न स्वरूपों के साथ आंतरिक चक्रों को सुरक्षित रखती है। जिस प्रकार हमारे मस्तिष्क की खोपड़ी सभी मस्तिष्क कोशिकाओं के संयोजन को अपने अंदर सुरक्षित रखते हुए संपूर्ण जीवन उनकी रक्षा करती हैं। नवां चक्र रक्षा चक्र भी कहा जा सकता है। रक्षा के समस्त आयाम इस चक्र में विराजमान हैं। जिस प्रकार शरीर की रक्षा के लिए त्वचा, अस्थि, नख, पारिवारिक संबंध, विभिन्न कार्य में दक्षता, मस्तिष्क की सूचना देने की प्रणाली इत्यादि होती है। उसी प्रकार जब शिशु गर्भ में नौवें महिने में कदम रखता है तब माता उसके अंदर उन्माद, संशोभन, आकर्षण, वेशधारण, खेचरी, बीज उत्पन्न करने की शक्ति इत्यादि विकसित करती है। यही शक्तियाँ उसे संपूर्ण जीवन प्रदान करती है। गर्भ में पल रहे शिशु के लिए माँ के आठ स्वरूप जिसमें की वह जन्म देने वाली ब्राम्ही, ममता लुटाने वाली कौमारी, पालन करने वाली वेष्णवी, कृपा प्रदान करने वाली महेश्वरी, ऐश्वर्य प्रदान करने वाली ऐन्द्री, ज्ञान देने वाली बाराही, अति में रक्षा करने वाली चामुण्डा, मृदुता प्रदान करने वाली काली, महालक्ष्मी स्वरूप में शिशु को आधार प्रदान करती है।

             नौवें मास में बालक के अंदर सिद्धियों का विकास भी होता है। सिद्धियाँ अर्थात कर्म की वह विशेषताएँ जिसके द्वारा बालक अपने जीवन में स्वयं की पहचान व उपयोगिता प्राप्त करता है। ब्रम्हाण्ड में उपस्थित दस दिगपाल आवृत्ति रूप में नौवें महिने में ही गर्भस्थ शिशु के आसपास व्यवस्थित होते हैं। दिगपाल अर्थात वह व्यवस्था जो अदृश्य एवं अति सूक्ष्म शक्तियों से मानव शरीर को कवचित करती हैं। जब मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता तब सर्वप्रथम दिगपाल रूपी यही संरचना विसर्जित होती है। इसके रहते शक्ति कवच इतना मजबूत होता है कि यमराज मृत्यु प्रदान ही नहीं कर सकते। यमराज सर्वप्रथम दिगपालों को ही प्रस्थान का आदेश देते हैं। संसार में उपस्थित प्रत्येक जैविक संरचना, जड़ संरचना श्री यंत्र के माध्यम से ही विकसित होती है। पृथ्वी का अपना विकास भी इसी यंत्र माध्यम से संपन्न हुआ है और तो और हमारी आकाश गंगा भी इसी यंत्र के माध्यम से दृष्टिगोचर हुई है। हम यंत्र के जिस स्वरूप को ताम्रपत्र पर देखते है वह तो मात्र अनुकृति है परनु यंत्र वास्तविक स्वरूप में एक अदृश्य या अद्वैत शक्ति संरचना का विषय है। 

         तत्व ज्ञानी इसे आंतरिक चक्षुओं से महसूस करते हैं। आदि गुरू शंकराचार्यजी ने इस संरचना को सृष्टिक्रम में पूजने की पद्धति का प्रचार प्रसार किया। सृष्टिक्रम अर्थात ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार श्री यंत्र की संपूर्ण संरचना बिन्दू से प्रारंभ होकर नौ चक्रों में निर्मित होती है। वही व्यक्ति जीवन में समग्रता प्राप्त करता है। जिसमें विकास की प्रक्रिया श्री यंत्र की भांति क्रमानुसार पूर्ण विकसित होती है। प्रत्येक चक्र और उसमें स्थित शक्ति केन्द्र पूरी तरह क्रियाशील होते है। अन्यथा जीवन आधा-अधूरा ही रह जाता है महालक्ष्मी से साक्षात्कार वही कर सकता है जो कि श्री यंत्र के क्रमानुसार ही स्वय का आत्मविकसित करता है। माँ त्रिपुर सुंदरी के संपूर्ण स्वरूपों को श्री यत्र रूपी संरचना के द्वारा ही आत्मसात किया जा सकता है।
                                   
शिव शासनत: शिव शासनत:

0 comments:

Post a Comment