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आर्यावर्त क्यों सिमट रहा है?

     जिस प्रकार भारत वर्ष के निर्माण में गंगा ने भूमिका निभाई है उसी प्रकार सोवियत गणराज्य का उत्थान और पतन वोल्गा के तट पर ही हुआ है। राहुलजी इस देश के गिने-चुने तत्व चिंतकों में से हैं जिन्होंने अपना जीवन सुदूर, तिब्बत (जो कि आर्यावर्त का एक छोर है।) से लेकर सोवियत गणराज्य (अंतिम छोर) तक सम्पूर्ण जीवन एक तीर्थ यात्री के रूप में बिताया। उन्होंने अपने जीवन के अनेकों वर्ष रूस में बिताये, वहां पर उन्होंने उनकी संस्कृति, सभ्यता और भाषा का अति सूक्ष्म वेदान्ती भाव से अध्ययन किया। इन सबका मूल निचोड़ उन्होंने यही पाया कि वोल्गा से गंगा तक की भूमि ही वास्तविक आर्यावर्त है। आर्य क्या हैं ? कुछ लोग इन्हें जाति के तौर पर देखते हैं, वह भी ठीक है। कुछ लोग आर्यों को एक श्रेष्ठ नस्ल मानते हैं। वास्तव में द्वितीय विश्व युद्ध तो इसी सिद्धांत को लेकर हुआ। हिटलर आर्यों को ही श्रेष्ठ नस्ल मानता था और समस्त विश्व पर आर्यों का एकाधिकार चाहता था परन्तु वास्तव में वह ठीक उल्टा कार्य कर रहा था। ऐसे ही महानुभाव के कारण आर्य पतोन्मुख हुए।
     भगवान श्रीकृष्ण, भगवान श्रीराम एवं उनके समकालीन सभी यौद्धा, राजा आर्यपुत्र कहलाते थे। आर्य शब्द उस मानव जाति का द्योतक है जिसने सर्वप्रथम इस प्रथ्वी पर वास्तविक मनुष्य रूप में चेतना प्राप्त की। जिस जाति ने मनुष्य की अर्न्तमुखी खोज को प्रथम प्राथमिकता दी। ईश्वर क्या है ? सृष्टि क्या है ? ज्ञान क्या है? विज्ञान क्या है ? इन सब विषयों पर गम्भीरतम खोज प्रारम्भ की । यही खोज अंदर की यात्रा है। यह यूरोप वासियों के समान अमेरिका की खोज जैसी बाहरी यात्रा नहीं है। जिस समय समस्त विश्व अज्ञान के गहन अंधकार में डूबा हुआ था, रेगिस्तान में मनुष्य पशुओं के समान जीवन जी रहा था, यूरोप और अन्य जगहों पर मनुष्य और पशु के बीच अंतर अत्यंत ही क्षीण था उस समय आर्य ऋषि ब्रह्माण्ड से तारतम्य बैठाकर वेदों की संरचना कर रहे थे, प्रकृति के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्य आत्मसात कर जीवन को ऊर्ध्वगामी बना रहे थे और तो और अहिंसा के पूर्ण भाव विकसित कर समस्त वनस्पति जगत, जीव-जगत और जड़-चेतन- जगत से संवाद कर मोक्ष तक की खोज कर चुके थे। 
        इन सब खोजों से ही उन्हें प्रचुर मात्रा में आंतरिक बल प्राप्त हुआ और सृष्टि के परम मातृत्व को प्राप्त कर वे उच्च कोटि की संतान उत्पत्ति में सक्षम हुये। आर्यों के सानिध्य में ही अति सूक्ष्म और विज्ञानमयी व्यवस्थाओं ने जन्म लिया। ऐसी व्यवस्था जिसमें सहजीविता, पूर्ण परिणाम और उच्च कोटि का अध्यात्म सम्मिलित था। कालान्तर यही आर्य पुत्र तिब्वत से लेकर यूनान, जर्मनी, ग्रीस, आज के ईराक, मिश्र और रूस गणराज्य के समस्त भागों तक फैल गये। ध्यान रहे यह लेख एक इतिहासकार का नहीं है। इसलिये इस बात पर चिंतन नहीं किया जा रहा है कि सर्वप्रथम आर्य उत्पन्न हुये ।
                आज भी आपको नील नदी के किनारे अनेकों सूर्य मंदिर मिलेंगे। मिश्र, ग्रीस, ईराक इत्यादि स्थानों में आज भी पर्यटक इन देवालयों को देखने जाते हैं। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि आर्य मुख्यतः काला सागर के आसपास सर्वप्रथम उदित हुये इसके पश्चात् अफगानिस्तान, पाकिस्तान, उजबेकिस्तान इत्यादि होते हुये सतलज के किनारे पहुँचे। भगवान श्रीराम इक्ष्वाकु वंश के राजा थे जिसमें कि सूर्य पूजा ही सर्वोपरि थी। आर्यों ने ही सर्वप्रथम सूर्य सिद्धि प्राप्त की थी। वह विलक्षण सिद्धि जिसके द्वारा सूर्य की रश्मि से कुछ भी उत्पन्न किया जा सकता है। भारतवर्ष में आज भी ऐसे योगी हैं जो कि इस कार्य को सम्भव कर लेते हैं। ध्यान, योग, तंत्र, मंत्र, ज्योतिष, अंकगणित इत्यादि जैसी अति विकसित विद्यायें आर्यों की ही देन हैं। पाश्चात्य जगत तो पिछले 100 वर्षों में ही इनसे परिचित हुआ है। प्रकृति उपासना, सिद्ध देवालयों की स्थापना, शाश्वत् शक्ति पीठों की खोज विश्व को आर्यों ने ही प्रदान किया है। भौतिक रूप से अश्वों का संचालन, लौह शस्त्रों का निर्माण, रथों का आविष्कार, वस्त्रों की उपयोगिता से लेकर परिवार प्रणाली, विवाह प्रणाली, मृत्यु के पश्चात् ससम्मान संस्कार व्यवस्था यह सब आर्यों की ही देन है। इनके अभाव में मनुष्यों और पशुओं में कोई फर्क नहीं है।

    जिस आर्य कुल में कपिल, विश्वामित्र, परशुराम, अगस्त, वशिष्ठ, भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण इत्यादि-इत्यादि महानायकों ने जन्म लिया, जिन्होंने मनुष्यों को मर्यादा, सोलह कलायें, प्रकृति पूजन और मोक्ष मार्ग दिखाया आज वह क्यों सिमटता जा रहा है। भगवान श्रीराम वानर कुल के हनुमंत को भी अपने प्राणों से प्रिय मानते हैं, राक्षस कुल के विभीषण का भी करते हैं और शबरी एवं केवट को भी प्रेम की दृष्टि से देखते हैं, उन्हीं के वंशज अब इस पृथ्वी के छोटे से भूभाग में सिमटते जा रहे हैं। कहीं न कहीं कोई बहुत भारी भूल भारत वासियों से हो रही है। निश्चित ही मूल शक्ति का ह्रास हो रहा है। 2000 वर्ष पूर्व ईसाईयत प्रभाव में आई। 1400 वर्ष पूर्व इस्लाम का प्रादुर्भाव हुआ। इन दोनों धर्मों ने आज येन-केन-प्रकरेण पृथ्वी के 90 फीसदी भू-भाग के मनुष्यों को जोर जबरदस्ती से तलवार की नोंक पर और नाना प्रकार के लालचों से लिप्त कर धर्म परिवर्तन करा दिया। कितने ही वास्तविक दिव्य शक्ति स्थलों का नाश इन्होने किया यह एक प्रारम्भिक इतिहास का छात्र भी बता सकता है। क्यों भारत वंशी इतने कमजोर, निकम्में और शक्तिहीन हो गये ? यह किसी एक व्यक्ति के सोचने का विषय नहीं है। सम्पूर्ण राष्ट्र को इस विषय पर सामूहिक तौर पर सोचना पड़ेगा अन्यथा एक दिन केवल इतिहास के पन्नों में ही वेदान्त संस्कृति बचेगी। 
       शत्रु तो सामने चारों तरफ दुनिया भर की कुटिल चालों के साथ मुँह फाड़े खड़ा है। किसी और के उपर दोषारोपण करने से कुछ नहीं होगा। यह तो बस भागने की कला है सच्चाई से समुद्र मंथन की भांति आत्म मंथन करना होगा और वह भी सामूहिक तौर पर । समय अत्यंत सीमित है। यह एक सम्पूर्ण राष्ट्र और जाति का सवाल है। इसी मंधन में से योग्य नेतृत्व, समर्पित व्यक्तित्व और मर्यादित महापुरुषों का जन्म होगा। वैदिक संस्कृति श्रम प्रधान संस्कृति है अर्थात मनुष्यों को एक साथ सामूहिक रूप में सहजीविता पूर्वक रहने की कला आर्य संस्कृति ने ही सिखाई है। आर्य संस्कृति के कारण ही ग्राम और नगरों का आविष्कार हुआ। ग्रामों और नगरों की स्थापना पूर्ण वैज्ञानिक एवं ज्योतिष आधार पर की गई है। जैसे जैसे आर्य संख्यात्मक रूप से बढ़ते गये उन्होंने नये नगर और ग्रामों का निर्माण किया। आर्य सभ्यता जब तक ऋषि परम्परा से जुड़ी हुई थी तब तक वह बहुत ही फली फूली। प्रत्येक भारतवासी आज भी गोत्र के नाम से ही वास्तविक रूप से पहचाना जाता है। गोत्र अर्थात उस ऋषि का नाम जिसके द्वारा एक सम्पूर्ण वंश का निर्माण किया गया है। 
         जब ऋषि वंश निर्माण की परम्परा में पूरा सहयोग और जिम्मेदारी निभाते थे तब तक आर्यों में एक से एक उत्तम कुलों का निर्माण हुआ परन्तु कालान्तर ऋषि और संत भी आन्म कल्याण में जुट गये। समाज की तरफ से मुँह फेर लिया और लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया। ऋषि परम्परा आर्यों का मूल तत्व है। यहीं से ह्रास की शुरूआत हुई। ऋषियों की जगह पण्डितों और आचार्यों ने ले ली। आचार्य और पण्डित ज्ञानी हो सकते, कर्मकाण्ड में निपुण हो सकते हैं परन्तु यह सब वंश निर्माण की कला के मात्र अंग हैं। वंश का निर्माण दिव्य आध्यात्मिक ऊर्जा के द्वारा ही सम्भव है। जो जाति व्यवस्था कर्मों पर आधारित थी वही ऋषियों की अनुपस्थिति में जन्म पर आधारित हो गई। मनुष्य मशीन नहीं है। उसमें प्रत्येक पीढ़ी के बाद मूलभूत नैसर्गिक परिवर्तन हो जाते हैं। जाति प्रथा में ब्राह्माण और क्षत्रिय अपनी स्वार्थ सिद्धि के कारण आपस में मिल गये एवं ऊल-जलूल नियमों से समस्त आर्य समाज का नाश कर दिया। क्षत्रियों का काम केवल युद्ध करना रह गया और ब्राह्माणों का काम मात्र कर्मकाण्ड के द्वारा धन अर्जित करना।
        बाबर ने जब हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया तो वह बुरी तरह हार गया परन्तु उसके चतुर सेनापति ने एक ऐसी अनोखी चाल चली कि वह हारा हुआ युद्ध एक ही बार में पूरी तरह जीत गया। बाबर की सेना ने कई हजार गायें युद्ध के मैदान में क्षत्रियों के सामने छोड़ दी और खुद उनके पीछे छिप गये। गायों को सामने देख क्षत्रियों ने अस्त्र-शस्त्र नीचे कर लिये और फिर गायों के पीछे छिपे बाबर के सैनिकों ने सभी को एक के बाद एक निर्ममता से काट डाला। मूर्खतापूर्ण तरीके से दुष्ट शत्रु को कभी भी परास्त नहीं किया जा सकता। जब गौ रक्षक ही मारे गये तब फिर गाय तो काटी जाती ही रहेंगी। आज भी हमारे देश में बाबर के जमाने से लेकर अब तक निरंतर गायें काटी जा रही हैं। मूर्खता पूर्वक युद्ध करना मात्र आत्महत्या के समान है। जब समाज का एक वर्ग ही युद्ध करे और सब बैठकर तमाशा देखें तब तो पूरी की पूरी कौम ही बर्बाद होती है। क्षत्रिय ही अच्छे योद्धा हो सकते हैं ऐसा कहां लिखा है । ब्राह्माण ही उच्च कर्मकाण्डी होंगे ये बात तो समझ से परे है। 

जाति व्यवस्था एक मूर्खतापूर्ण व्यवस्था है और इसी व्यवस्था के चलते आज भी भारत गड्ढे में जा रहा है।
       मैं कितने राजपूतों को जानता हूँ जो 5 किलो वजन भी नहीं उठा सकते। अनेकों ब्राह्माण तो ठीक से अपना नाम भी नहीं लिख सकते। वे संस्कृत क्या पढ़ेंगे ? ऐसी स्थिति में जाति प्रथा कौन सा कल्याण कर रही है। क्षत्रिय लिख लेने से कोई वीर नहीं हो जाता है। इन्ही सब बातों के चलते आर्यों का पतन हो गया। रही सही कसर दो हजार वर्ष पूर्व अहिंसा रूपी आंदोलन ने पूरी कर दी। इसके प्रचारक गुरुओं ने कायर होते जा रहे समाज को भागने का एक सुनहरा अवसर दे दिया। समस्त क्षत्रिय, जैन और बौद्ध धर्म अपनाने लगे। क्या करते बेचारे ? लड़लड़कर थक चुके थे। वास्तव में इस स्थिति के लिये वे ही जिम्मेदार थे। उन्होंने अन्य वर्गों को युद्ध कला में पारंगत ही नहीं किया। ध्यान रहे किसी भी कार्य में दक्षता आने में पीढ़ियां बीत जाती हैं। वैदिक संस्कृति का मूल मंत्र यह है कि शरीर नश्वर है, आत्मा अजर-अमर है। यही शब्द हनुमंत को प्रेरित करता है विकट से विकट कर्मों को संपादित करने के लिये। उन्हें शरीर की परवाह होती तो फिर अकेले ही रावण की लंका में न जाते। जब शरीर नश्वर है तो फिर उसे क्यों न संवारा जाय वीरता से, बल से और पुष्टता से आज आप भारतवर्ष में देखिए आपको 6 फिट की लम्बाई दुर्लभता से ढूंढने पर मिलेगी। सब के सब शरीर से प्रेम करने लगे हैं, उसे कर्महीन बनाकर रख दिया है, कभी उसका उपयोग ही नहीं करते। शरीर को ऐसे संजोते हैं जैसे कि वह गुलाब का फूल हो। इस मानसिकता से ग्रसित समाज केवल भोगियों का समाज होगा थोड़ा सा भी भय उत्पन्न होने पर प्राणों की भीख के लिये गिड़गिड़ाने लगते हैं, पत्नी को बेच देते हैं, धर्म परिवर्तन कर लेते हैं। मानसिंह ने तो पद के लिए अपनी बहन अकबर से ब्याह दी थी। 
           दिल्ली की गद्दी पर आखिरी हिन्दू राजा पृथ्वीराज चौहान हुआ है। उसने स्त्री लोभ में संयोगिता का हरण किया, जयचंद से दुश्मनी ली और जब महमूद गजनवी दिल्ली पर चढ़कर आया तो वह संयोगिता के साथ प्रेमालाप कर रहा था। मंत्री बेचारे चिल्लाते रहे पर वह तो स्त्री पाश में बंधा हुआ था। अंत क्या हुआ ? वह बुरी तरह पराजित होकर एक बंदी की तरह ले जाया गया। ऐसे राजा किस काम के जो अपना कर्त्तव्य भूल अय्याशी में डूबे रहें। इन्हीं महानुभावों के कारण भारत परतंत्र बना इतिहास तो झूठ बोलता है। वह ऐसे ही तथाकथित राजाओं को महिमामण्डित करता है। जब तक राजा धर्मधारण किये हुए होता है वह दिग्विजयी होता है। राम ने मर्यादा धारण की, आर्यों का गौरव बढ़ा। कृष्ण ने गीता उपदेश दिये आर्य अमर हो गये। अशोक ने बुद्ध को सम्मान दिया आर्य पुनः कन्धार से लेकर श्रीलंका तक सम्मानित हुये परन्तु पृथ्वीराज चौहान ने दिल्ली डुबो दी।       
          पतन बहुआयामी प्रक्रिया है। शारीरिक पतन के साथ-साथ मानसिक, अध्यात्मिक पतन भी होता है। वैदिक संस्कृति के मूल स्तम्भ वेदों में व्यक्ति पूजा कदापि नहीं की गई है। उसके बाद कुछ प्राकृतिक शक्ति स्थल प्रादुर्भाव में आये। यहां तक सब कुछ ठीक था। इस कारण से सम्पूर्ण समाज एक दूसरे से बंधा हुआ था परन्तु फिर शुरू हुआ व्यक्ति पूजन। सभी गुरु अपने आपको पूजवाने की होड़ करने लगे। धीरे-धीरे लोगों ने स्वयं के स्वजनों को भी पूजना शुरु कर दिया। रोम और यूनान की सभ्यता आर्य वंश की सभ्यता है। वह भी आर्यों की ही एक श्रृंखला थी वहां पर भी राजाओं ने स्वयं को भगवान घोषित कर दिया। रानियां दवियां बन गई। एक दिन जनता इतनी उब गई कि उन सबको उठाकर कचरे के डब्बे में फेंक दिया। आज आप जिधर देंखे सभी गुरु अपने आपको शिष्यों के द्वारा पुजवाने में लगे हुये हैं। इसके अत्यंत ही गंभीर अध्यात्मिक परिणाम होते हैं। स्वजन सम्माननीय हो सकते हैं, आदरणीय हो सकते हैं परन्तु पूज्यनीय नहीं। पूजन एक अति वैज्ञानिक पद्धति है। एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति लगाकर धनुर्विद्या में अर्जुन से ज्यादा पारंगतता हासिल कर ली। मैंने पहले भी कहा है जाति का दक्षता से कोई लेना देना नहीं है। पर क्या हुआ ? द्रोण ने एकलव्य से उसका अंगूठा मांग लिया और महाभारत के युद्ध में यही द्रोण अधर्म का साथ दे रहे थे। द्रोण अपने पुत्र मोह में इतना ग्रसित थे कि उन्होंने उसकी मृत्यु का भ्रामक समाचार सुन रणभूमि में ही शस्त्र त्याग दिये और इसी द्रोण के पुत्र ने जब उत्तरा के गर्भ में पल रहे अभिमन्यु पुत्र पर वार किया तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे दो हजार वर्ष के लिये शापित कर दिया।

ऐसे गुरुओं को क्या आप पूजेगें ? पूजना इतना सस्ता मत बनाइये। सत्य कड़वा होता है, प्रत्येक मां-बाप अपनी संतानों के लिये सब कुछ करते हैं। बंदर भी अपने मृत बच्चे को हफ्तों छाती से चिपकाये रखता है। इसका मतलब यह नहीं है कि स्वजनों को मंदिरों में स्थापित कर दें। पूजा पद्धति आध्यात्मिक विषय है। व्यक्तिगत और सामाजिक चिंतन को इसमें मत घसीटिये । मृत्यु के पश्चात् वही पूज्यनीय है जो कि मोक्षगामी है अन्यथा अनंत योनियों में भटक रहे व्यक्ति की पूजा से तो नास्तिक रहना ही भला है। वेदान्त संस्कृति में पूर्वजों के पिण्डदान की व्यवस्था है। उनकी आत्माओं के तर्पण की व्यवस्था है। उन्हें पूजना या बार-बार आंसू बहाकर उन्हें मोह में बांधे रखना दोनो पक्षों के लिये खतरनाक है। इस प्रकार मृत व्यक्ति प्रेतयोनी को ही प्राप्त होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही कहा कि रिश्ते, रक्त सम्बन्ध और शरीर को मत देख। जीवन-क्षण भंगुर है निष्काम कर्म को प्रधानता दे। 
       जब-जब आर्यवंशी कृष्ण के उपदेश को भूलकर शरीर में ही लिप्त हो गये पतन प्रारम्भ हो गया। जब भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि रक्त सम्बन्धों पर ध्यान मत दे, मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम हनुमंत को गले लगा रहे हैं, शबरी के बेर खा रहे हैं तो फिर जाति प्रथा आयी कहां से ? कृष्ण के बाद बुद्ध ही ऐसे महामानव हुये जिन्होंने वैदिक सभ्यता को परिष्कृत कर उसे सुदूर चीन, जापान और मंगोलिया तक पहुंचा। जिन मंगोलों ने भारत को लूटा-खसोटा वही बुद्ध के सामने नतमस्तक हो गये, यही वेदान्त की विशेषता है। वेदान्त अत्यंत सरल, सुपाच्य और अभेदात्मक है। समय के अनुसार जो सामूहिक धर्म स्वरूप परिवर्तन नहीं करता है वह धीरे-धीरे नष्ट हो जाता है। 
          एक पुस्तक, एक गुरु के द्वारा आबद्ध नियम ज्यादा से ज्यादा दो से ढाई हजार वर्ष तक ही प्रासंगिक रहते हैं। जब तक आर्य वंशी कल्पवृक्ष के समान कार्य करते रहेंगे तब तक आर्य सभ्यता सुरक्षित रहेगी। कल्पवृक्ष का तात्पर्य जो मांगो वह प्राप्त होगा। वेद कल्पवृक्ष है, उनमें शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, आध्यात्मिक स्वास्थ्य, ब्रह्माण्डीय स्वास्थ्य सभी कुछ है। सभी ग्रंथ इसी से निकले हैं। यह मनुष्य का मूल है। अंग्रेजों ने इसे समझा, वे इन्हें उठाकर ले गये। इन पर शोध किया, नये-नये आविष्कार किये, अपने आयामों को विकसित किया। अंग्रेजों ने इन्हें अति महत्व प्रदान किया। आपको तो बस एक शब्द सिखा गये “अंध विश्वास"। 200 वर्षो से आप अपने प्रचुर ज्ञान को पेंट-बुट पहनकर अंध विश्वास कहते हुए लात मारते रहे। पर जब आंख खुली तो विश्व के सबसे गरीब, दुर्बल, शोषित, अज्ञानी और कायर समाज में परिवर्तित हो गये। अभी भी आंख नहीं खुली तो फिर आने वाले 100 वर्षों में पशुओं के समान जीना पड़ेगा। जब तक आप व्यथित नहीं होंगे, आत्मंथन नहीं करेगे, शरीर का मोह नहीं त्यागेंगे, कर्म को प्रधानता नहीं देंगे कुछ नहीं हो सकता। औषधि के द्वारा किसी जीवित जागृत कौम का निर्माण नहीं हो सकता। आपको अपने समाज के अंदर ही पुन: एक बार शंकराचार्य, बुद्ध, महावीर, जैसे व्यक्तित्व ढूँढने पड़ेंगे या फिर पैदा करना पड़ेंगे जो कि शक्तिपुंज बन स्वयं को सोऽम करने की ताकत रखते हुये सम्पूर्ण देश को पुनः एक बार गरिमा प्रदान कर सकेंगे।

                                    जय श्री राम
                   शिव शासनत: शिव शासनत:

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