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ॐ घृणिः सूर्य आदित्योम् ।।

इस अनंत ब्रह्माण्ड में हमारी आकाश गंगा का माप क्या है? आकाश गंगा की सीमाऐं वहीं तक हैं जहाँ तक हमारे आदि देव सूर्य का प्रकाश विद्यमान है। वे ही सम्पूर्ण जगत को दर्शनीय बना रहे हैं। दर्शन ही सूर्य है। जिसे हम देख सकें वहीं दृश्य है। मस्तिष्क में उठती विभिन्न विचारधाराऐं, विभिन्न चिंतन इत्यादि सूर्य की विशेष स्थिति का परिचायक है। दृश्य सार्वभौमिक है परन्तु व्यक्ति सार्वभौमिक नहीं है एवं व्यक्ति की सोच भी सार्वभौमिक नहीं है। वह सदैव कुछ निश्चित आयामों में ही सोचता है इसलिए वह ईश्वर नहीं हैं। सार्वभौमिक ब्रह्माण्डीय सोच के मूल में सूर्य हैं। वे ही इस ब्रह्माण्ड के समस्त पिण्डों को एक सूत्र में पिरोये हुए हैं। सभी दृश्य, सभी विचारधाराऐं, सभी तत्वों का उत्सर्जन केन्द्र एकमात्र सूर्य है। वे ही पंजीकृत कर रहे हैं विभिन्न तत्वों की सूक्ष्म आवृत्तियों को उनके द्वारा उत्सर्जित पंचभूतों की विभिन्न आवृत्तियाँ सूर्य के दिव्यतम तेज प्राण द्वारा एक निश्चित योजना के तहत पंजीकृत हो जीव के रूप में क्षणिक काल के लिए इस पृथ्वी पर प्रकट होती हैं। 

      आदि देव का तात्पर्य है वह महाशक्ति जिसने कि अपने अंदर समस्त आदि क्रियाओं को समेट रखा हो।सूर्य का तापमान इतना है कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते।उनके क्षेत्र में विकिरण,विखण्डन,नाभिकीय विस्फोट एवं परमाणविक संयोजन की क्रियाऐं अत्यंत ही विराट से विराट स्वरूप में एवं सूक्ष्म से सूक्ष्म स्थिति में सम्पन्न होती हैं। इन सभी देव दुर्लभ क्रियाओं के मध्य में प्रभु श्रीकृष्ण की पराचेतना ही मूल बिन्दु है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं गीता में कहा है कि सूर्य में विद्यमान तेज मैं ही हूँ। आप सोचते हैं कि पृथ्वी पर स्वर्ण,रजत,लौह इत्यादि खनिज उत्पन्न होते हैं। यह तर्क पूर्णत: मिथ्या है। पृथ्वी पर कुछ भी उत्पन्न नहीं होता बल्कि सूर्य रश्मियों के द्वारा अति सूक्ष्मतम स्वर्ण, रजत, लोह इत्यादि जैसे खनिज पृथ्वी पर आते हैं हम तो उन्हें केवल सोखते हैं,एकत्रित करते हैं।

       वैज्ञानिकों ने इस सत्य को परखने के लिए विशुद्ध पारे से बनी हुई एक फिल्म प्लेट अमेरिका की उन पहाड़ियों पर स्थापित कर दी जहाँ पर कि सूर्य की किरणें सबसे ज्यादा स्वर्णिम आभा बिखेरती हैं। पारद में यह विशेषता है कि वह स्वर्ण को आकर्षित कर लेता है। उसमें स्वर्ण को आकर्षित करने की चुम्बकीय शक्ति है। दूसरे दिन जब पारे की बनी हुई फिल्म का शोधन किया गया तो वैज्ञानिकों ने विशुद्धतम स्वर्ण की प्राप्ति की। यह है आर्य ऋषियों द्वारा स्थापित पारद कला का प्रमाण हम विशेष रासायनिक घोल से बनी एक फिल्म के ऊपर स्वयं की आकृति कैद कर लेते हैं। यह भी सूर्य की रश्मियाँ सम्पन्न कर देती हैं। जब मनुष्य की आकृति सूर्य रश्मियों के द्वारा हूबहू उतारी जा सकती है तो फिर स्वर्ण को भी शोषित किया जा सकता है पारद विज्ञान के द्वारा अभी वैज्ञानिक सिद्धांतों का संशोधन करना होगा। मैंने अपने जीवन में एक सूर्य साधक के रूप में सूर्य के अनेकों स्वरूप देखे हैं और यह मेरा सौभाग्य है। मकर रेखा के बाद स्थित यूरोपीय देशों में विशेषकर स्वीडन में तो रात्रि को १२ बजे भी सूर्य के दर्शन हो जाते हैं। कुछ पाश्चात्य देशों में तीन घण्टे की रात होती है। कहीं-कहीं तो सम्पूर्ण रात्रि मे मात्र एक घण्टे के लिए ही सूर्यदेव अस्त होते हैं। 

       हर जगह इनके स्वरूप विलक्षण हैं।इन्हीं स्वरूपों के कारण प्रत्येक स्थान पर विशेष प्रकार के जीव एवं मनुष्य विशेष योग्यताओं से युक्त होते हैं। पाश्चात्य देशों में सूर्य के दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं। जब वहाँ पर सूर्य उगते हैं तो एक प्रकार से उत्सव का माहौल छा जाता है। हमारे देश में सूर्य की स्थिति अत्यंत ही विलक्षण है। हमारे देश में कई स्थानों से कर्क रेखा गुजरती है इसी कारण अनंत प्रकार की दुर्लभ वनस्पतियाँ, जीव-जंतु इत्यादि यहाँ पर विराजमान है। सूर्य देव की महिमा को समझना है तो फिर उनके अनंत स्वरूपों में पृथ्वी पर प्रकट होने वाली घटनाओं का साक्षी होना पड़ेगा।मनुष्य को अपने जीवन में एक न एक बार सम्पूर्ण पृथ्वी का भ्रमण करना चाहिए जिससे कि वह सूर्य देव की विभिन्न भाव-भंगिमाओं का साक्षी हो सके एवं उनके द्वारा उत्पन्न विभिन्न परिणामों को सम्यक भाव से स्थान विशेष पर निवास करने वाले प्राणियों में दर्शन कर सके।यही दर्शन शास्त्र में निपुणता हासिल करने की कला है।दृश्य ही सीमित हो जायेंगे तो स्वयं आपका दर्शन सीमित हो जायेगा। 

      दृष्टि से ही मनुष्य के अंदर दर्शन की विराटता आती है। दृष्टांत रूपी व्यक्तित्व तभी विकसित होगा जब हमारी दृष्टि ज्यादा से ज्यादा दृश्यों को ग्रहण करेगी। जड़ और चेतन बुद्धि में यही फर्क है। जड़ बुद्धि का मनुष्य एक ही तरह के दृश्यों को देखने का आदी हो गया होता है जबकि चेतन बुद्धि से युक्त मनुष्य निरंतर चलायमान

होता है।प्रत्येक तल पर स्थूलता और सूक्ष्मता दोनों ही भगवान भास्कर के अधीन हैं।इन दोनों के समिश्रण से ही ज्योतिर्विज्ञान का जन्म होता है कालान्तर इसी ज्योतिर्विज्ञान का अपभ्रंश स्वरूप हैं ज्योतिष विद्या ज्योतिर्विज्ञान के मध्य में सूर्य है। यह समस्त ज्योतियों को समझने की कला है। स्थूल ज्योतियाँ आप ग्रह, पिण्डों, नक्षत्रों एवं ताराग्रहों के रूप में देखते हैं परन्तु परा सूक्ष्म ज्योतियों के दर्शन अंतर्चक्षु के द्वारा ही सम्भव हो पाते हैं। जब तक भगवान भास्कर की कृपा नहीं होगी अंतर्चक्षु विकसित नहीं होंगे।यह है चाक्षुषी विद्या यही कारण है कि ज्योतिष को गणित समझने वाले अधिकांशत: भविष्यवक्ताओं की भविष्य वाणियाँ निष्फल हो जाती है।
अंक गणित, सिद्धांत और फार्मूला बाजी मात्र एकांश है ज्योतिष शास्त्र का परन्तु वास्तविक काल दृष्टा वही साधक हो सकता है जो कि परा सूक्ष्म एवं परा सत्य संदेशों की कूट भाषा को भगवान भास्कर की कृपा स्वरूप पढ़ सके।यही एक सफल ज्योतिषी की व्याख्या है। 

      भगवान भास्कर के पराचंतन, परातत्वीय स्वरूप से ही प्राण शक्ति का उत्पादन होता है। जब जब प्राण शक्ति को एक कोने में रखकर ज्योतिषी बनने की कोशिश करोगे निष्फल हो जाओगे। यज्ञ विधान को समझना होगा।मंत्र विद्या एवं तंत्र विद्या की सूक्ष्मता में जाना होगा। यही कुछ ऐसे मार्ग हैं जिनके द्वारा आप भगवान भास्कर के तेज में से मनोवांछित फल की प्राप्ति कर सकते हैं। मनोवांछित फल रस के समान हैं। आपको सूर्य रश्मियों में से रस का शोधन करना होगा। सम्पूर्ण रसों के एकमात्र जनक सूर्य ही हैं। वे ही रस स्वरूप वर्षा जल को अपनी रश्मियों के द्वारा समुद्र में से निकाल लेते हैं और पुन: देव दार वृक्षों से आच्छादित हिम शिखरों पर टपका देते हैं। जिन पर्वतों पर देवदार के वृक्ष होते हैं वहाँ मौसम सदाबहार होता है। इन वृक्षों में प्रतिक्षण सूर्य रश्मियों में से अमृत जल को ग्रहण करने की क्षमता होती है। आज के तथाकथित पढ़े लिखे लोग यज्ञ,अनुष्ठान,पूजा-अर्चना एवं मंत्र इत्यादि को ढोंग मानते हैं इसलिए वे सबसे ज्यादा व्यथित हैं।वास्तव में ये सब विद्याएँ सूक्ष्मतम रूप से इस ब्रह्माण्ड में मौजूद सभी तत्वों की आवृनियों को ग्रहण करने की कला है अब तो वैज्ञानिक भी कहने लगे हैं कि सूर्य किरणों में विटामिन्स हैं,खनिज तत्व हैं,लवण हैं इत्यादि इत्यादि। 

           अन्नमय कोष को जो स्थूल पदार्थ पुष्ट करते हैं उन्हीं स्थूल पदार्थों की परा सूक्ष्मतम आवृत्तियों की शरीर के विभिन्न तलों को आवश्यकता होती है।जर्मन वैज्ञानिकों ने इस पर गूढ़तम खोज की एवं हैनिमन ने इसी विद्या को होम्योपैथी का नाम दिया। चिकित्सा जगत में अद्भुत क्रांति आ गई कठिन से कठिन रोग भी बिना चीर-फाड़ के चमत्कारिक ढंग से ठीक होने लगे। करोड़ों-अरबों जनमानस इसका साक्षी है। ऐसा ही किया एक जर्मन वैज्ञानिक अलबर्ट आइसटाईन ने।उसने भी भारतीय वेद दर्शन का गूढ़ अध्ययन किया एवं अणु बम का निर्माण किया। 

         विशेष ब्रह्माण्डीय एवं खगोलीय स्थितियों पर विशेष अनुष्ठान से चमत्कारिक लाभ मिलते हैं।सूर्य की कुछ विशेष स्थितियाँ सौ वर्षों में एक बार निर्मित होती हैं इन सबका साधक को लाभ उठाना चाहिए।साधक यह लाभ तभी उठा सकता है जब वह सक्षम गुरु के सानिध्य में हो गुरु के प्रति उसकी श्रद्धा से ही साधक विलक्षण शक्ति प्राप्त कर पाता है। संशय असंशय से ग्रसित साधक कहीं का नहीं रहता।समय के नियंता भगवान भास्कर हैं।समय उन्हीं का परिणाम है।वे कितनी गति से घूमते हैं, कितना प्रकाश उत्सर्जित करते हैं,किस प्रकार से ग्रह एवं पिण्ड उनकी परिक्रमा करते हैं बस यही समय के निर्माण का कारण है। समय का उन्हीं में विलोप हो जाता है।पदार्थ समय के अधीन है। स्थूल तल पर समय की परिभाषा कुछ और है तो वहीं सूक्ष्मतम तलों पर समय की परिभाषा सर्वथा भिन्न है।साधनाऐं स्थूल तलों का विषय नहीं हैं अत: इनको सूक्ष्मतम तलों पर होने वाले समय के माप से ही मापना पड़ेगा।विशेष सौर स्थिति में विशेष ब्रह्माण्डीय द्वार खुलते हैं। स्थान विशेष पर विशेष सूर्य द्वारों की मौजूदगी होती है। इन द्वारों से ही मनोवांछित रस को ग्रहण किया जाता है। सभी मंत्र एक विशेष प्रकार की ऊर्जा का उत्पादन करते हैं जिससे कि आध्यात्मिक तल पर मौजूद विशेष शक्ति केन्द्र के द्वार खुलते हैं। मंत्र शक्ति एक तरह से कुंजी है शक्ति स्थलों को खोलने की। प्रत्येक गुरु चाहता है कि उसके शिष्य की रात्रि सुखमय हो। वह चैन की नींद सोये, यह तभी सम्भव है जब उसका शिष्य श्री युक्त हो, रोग मुक्त हो, जीवन सुखमय हो एवं वह शत्रुबाधा और विपत्तियों से मुक्त हो। इन सबसे मुक्ति पाने के रहस्य सूर्य साधना में छिपे हुए हैं। अतः प्रत्येक साधक को अवश्य ही सूर्य उपासना सम्पन्न करनी चाहिए। गुरु भी सूर्य का ही स्वरूप है अपने शिष्यों के लिए।

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